Thursday, November 29, 2012

इमरोज़ जी की कुछ और नज्में .....
नया जन्मदिन ....


वह किसी की बीवी थी
या किसी की माँ
या किसी की दोस्त
मुझे मिली
मेरा सब कुछ हो के मिली
इक नया जन्म हुआ
उसका भी और मेरा भी .....

इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'

(2)
हाजिर ही  ...

तुम बनी रही
अपने आप संग  हाजिर
भले मुश्किलें भी बनी रहें 
अपने आप संग चलने वालों के
 साथ  ही सब कुछ चलता है
मुश्किलें भी मुहब्बतें भी ...
सोहणियों और हीरों संग
दरिया चलते रहते हैं
और मुश्किलें डूबती ....
तुम बनी रहो अपने आप संग हाजिर
हाजिर ही दरिया होते हैं
सब रुकावटें तैरने वाले
पार करने वाले .....

इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'

(3)

खुशबू  चारो ओर की ...

इक कब्र का फूल
तेरा भी मेरा भी
पर खुशबू चोरों ओर  की
वैसे ..
धरती का फूल तेरे जैसा मेरे जैसा
धरती से जन्म लेता
धरती पर खिलता
पर खुशबू चारो ओर की
फ़ैल जाती तुझ तक
जहां भी तू हो
जहां भी मैं होऊँ ....
अपनी झोली देख
मैं भी देखता हूँ
झोली से झोली भरी .....

इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'

(4)

समझ जी कर बनती है .....

ग्रन्थ भी और अपना आप भी
लिखा हुआ पढ़ कर समझ नहीं बनती
सब लिखा हुआ, जी कर समझ बनती है ...
बगीचे में
फूलों से खेलता हूँ
घर में माँ  संग
और ख्यालों में
अपने आप से खेलता हूँ ....
इक दिन फूलों संग खेल कर
इक फूल से पूछा -
वीराने में भी
फूल कैसे खिल पड़ता है ?
मैं बता नहीं सकता
कभी फूल बनकर देखना
खुद ब खुद जान जाओगे .....

इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'

Thursday, November 8, 2012

(पंजाबी कहानी ) बूचड़खाना -- लेखक - फ़क़ीरचंद शुक्ला
                                                            (अनु. हरकीरत 'हीर' )


अस्पताल के जनरल वार्ड में लेटा हुआ एस.पी. सोच रहा था कि अगर वह मीट  न खाता तो शायद इस दुर्घटना से बच  सकता था  . एक तो मनोवैज्ञानिक प्रभाव, दुसरे अधिक शराब पीने का असर उसे काफी कुंठित किये जा रहा था . किन्तु एस. पी. का मन अनेकों बार यही दोहरा रहा था कि यह सब मीट खाने का ही परिणाम है . मगर तभी उसका मन विरोध कर उठा . कोई ऐसी बात तो है नहीं कि उसने पहली बार मीट खाया हो ? मगर एक बात से तो चाहकर भी एस.पी. विमुख  न हो सका कि कसाई से लाये गए कच्चे मांस का सम्बन्ध इस हादसे से अवश्य है .

अमृतसर से एस . पी का जिगरी दोस्त रांणा आया था . एस.पी. का नाम भी राणा की ही देन है जो कालेज के दिनों में उसे सुरेन्द्रपाल कहकर बुलाने की अपेक्षा  एस .पी. कहा करता था  और अब 'एस.पी. ' शब्द उसके लिए जैसे पेटेंट हो गया था .

राणा के आने की खुशी में उसने मीट बनाने का फैसला किया था . राणा को साथ लेकर जब वह कसाई की दूकान पर पहुंचा तो शायद रविवार होने के कारण या किसी अन्य कारणवश , पहले का झटकाया हुआ बकरा खत्म हो गया था . उसके आने पर कसाई उन्हें जानवरों के बाड़े में ले गया ताकि अपना मन पसंद बकरा चुन सके , बाड़े में बकरे, बकरियाँ , मेमने , यूँ चिल्ला रहे थे मानों बम गिरने वाला हो . उसकी चिल्लाहट कानों के परदे फाड़ रही थी .

कसाई जब किसी बकरे अथवा मेमने के पास  पलभर के लिए रुक जाता तो उस अबोध जीव की तो जैसे सांस  ही घुट जाती . भयभीत  हो वह कसाई  की ओर देखने लगता . उन्हें जरा भी गौर से देखने से साफ पता चल जाता कि मौत से साक्षात्कार का भयंकर नजारा भोग पाना उनके लिए भी कष्टमय है .
और तभी उनकी आँखों के सामने उसने एक मेमने को झटक दिया . राणा की मन की तो राणा जाने लेकिन एस.पी. के दिल में जैसे खून की सप्लाई कम हो गई थी . वैसे तो उसने भी आज तक न जाने कितनी बार मीट खाया  था लेकिल आज यह पहला अवसर था जब उसने अपनी आँखों के सामने बकरे को झटके जाते देखा था . मीट खाने की सारी इच्छा जैसे अवसादमई हो गई थी . परन्तु राणा की 'खातिरदारी' के सामने उसने अपनी भावनाएं दबाकर ही रखीं .

भोजन के पश्चात शीघ्र ही वह खर्राटे भरने लगा था . अब पता नहीं फ़ूड प्वाज्निंग   हो गई थी या की साइकिक तौर पर असर था . रात के आधी बजे के करीब एस.पी. के पेट में बहुत जोरों से दर्द होने लगा था . और उसके तुरंत बाद ही उसे निरंतर इस कद्र उल्टियां आने लगीं थीं की वह कुछ घंटों में निढाल होकर पसर गया था .

राणा ने जब यह सब देखा तो उसे कोई चारा नज़र न आया सिवाए इसके कि वह उसे अस्पताल के एमरजेंसी  वार्ड में ले जाये . मारे दर्द के एस. पी. के प्राण गले में अटके हुए थे और अस्पताल वालों ने भर्ती करते-करते ही आधा घंटा लगा दिया था .
एमरजेंसी में न तो डियूटी वाले डाक्टर का कहीं पता था और न ही नर्स  का . बाहर बरामदे में वार्ड ब्वाय इम्तिनान से सो रहा था . एस. पी. की चीखें सुनकर उसकी आँख खुल गई लेकिन उसे इतनी रात गए उठना गवारा न हुआ . अत: वह दम साधे पड़ा रहा. आखिरकार राणा को उसे झिंझोड़कर उठाना पड़ा . वार्ड ब्वाय के निर्देश पर राणा ने प्राइवेट वार्ड के एक दो कमरों के दरवाजे खटखटाए तो कुछ समय पश्चात एक डाक्टर और नर्स प्रकट हुए . उनके चेहरों पर बेहद खीज स्पष्ट दिखाई दे रही थी .

'' क्या हुआ ?'' डाक्टर ने , जो देखने में किसी मार्डन रोमियों से कम नहीं लगता था , जरा तल्ख़ लहजे में पूछा .

'' जी डाक्टर साहब .....उसे उल्टियां आ रही हैं . पेट में भी ..." राणा ने मरीज की स्थिति का अभी पूरा  विवरण भी न दिया था कि डाक्टर बीच में ही उबल पड़ा - '' मामूली सी बात के लिए इतनी रात गए आसमान सर पर उठाने की क्या जरुरत थी . सुबह भी आ सकते थे .''


डाक्टर का चौखटा  यूँ लग रहा था जैसे उसे ततैयों ने काट खाया हो . एक दो पल रूककर उसने नर्स  से कहा - '' इसे स्टेमिटिल  और फोर्टविन का इंजेक्शन लगा दो . बाकी सुबह देखेंगे . और हाँ ....'' उसने राणा की ओर इशारा किया-'' पहले इसकी फाइल बना लाओ. ''

नर्स का मुड  भी जैसे पूरी तरह ऑफ हो गया था . मुंह में ही बुदबुदाती चली गई . कुछ देर बाद आई तो हाथ में एक पर्ची थी  . उसने राणा की ओर  पर्ची बढ़ाते  हुए कहा - '' ये दो टीके ले आओ ''

'' लेकिन इतनी रात में मैं कहाँ से ले आऊँ ..?'' राणा ने अपनी मज़बूरी जतलाने की भरपूर कोशिश की .
'' यह तुम जानो...नीचे स्टोर में देख आओ अगर खुला हो तो ....''

''आप ही कोई कृपा करें बहन जी ...''
'' बहन जी कोई जेब में तो डाले नहीं घुमती . टीका  मिल जाये तो बता देना '' वह बुदबुदाती हुई चली गई .

यह कैसा अस्पताल है ?एमरजेंसी में इतनी लापरवाही है ..तो जनरल वार्ड का तो भगवान ही मालिक है ...राणा और एस.पी. दोनों यही सोच रहे थे .

राणा नीचे भागा  स्टोर बंद था . उसने जोर  से दरवाजा पीटा..मिन्न्नते कीं ...खुशामदें कीं , तब जाकर मेडिकल स्टोर वाले ने दरवाज़ा खोला .

''मालूम नहीं आपको कि  स्टोर बारह बजे बंद हो जाता है ...?''

''भइया  एक एमरजेंसी केस है , नहीं तो आपको क्यों कष्ट देता '' राणा  जैसे उससे भीख मांग रहा हो  .


'' इनको भी इसी समय इमरजेंसी आनी थी ...'' स्टोर वाला बुदबुदाता रहा - लाओ क्या लेना है ...?

राणा ने पर्ची उसकी और बढ़ा दी . स्टोर वाले को तो जैसे सांप सूंघ गया ....

''बस दो टीके ही चाहिए ..? शोर तो ऐसे मचा रखा था जैसे .....नींद का सत्यानाश कर दिया ..."

राणा के मन में आया था की 'बाऊ' को गर्दन से पकड़ कर दो चार झापड़ लगा दे ... ! अगर नींद इतनी ही प्यारी है तो क्या जरुरत पड़ी थी अस्पताल में दूकान खोलने की . घर में टंगे पसार कर पड़ा रहता . मगर उसने चुप रहना ही उचित समझा .

स्टोर वाले का शुक्रिया अदा करने के बाद राणा को फ़ाइल बनाने वाले की भी मिन्नतें करनी पड़ीं . वह भी गहरी नींद सोया हुआ था .

खैर राणा वार्ड में लौट आया . टीका लगाने के लिए वह दो बार नर्स को बुलाने गया पर एक ही जवाब था - ''अभी आई''

और फिर राणा ने दो-तीन बार वार्ड ब्वाय को नर्स को बुलाने के लिए भेजा , तब कहीं जाकर नर्स ने दर्शन दिए .
सिरिंज उबालने में भी वक़्त लगता है न ...? वह बडबड़ाई .....

और उसने इंजेक्शन को सिरिंज में भरकर जब एस;पी; के लगाया तो एस;पी; की तो जैसे chikh ही निकल गई . नर्स ने इंजेक्शन कुछ इस प्रकार लगाया था जैसे छुरा घोंप रही हो . थोड़ी देर बाद दुसरा इंजेक्शन भी लगा गई .

'' इसे नींद का टीका लगा दिया है और उल्टियां रोकने का भी . सुबह बड़े डाक्टर आयेंगे फिर जैसा वह कहें .....''
और वह ठुमक-ठुमक करती चली गई .
थोड़ी देर बाद वह फिर आई तो उसके  हाथ में एक और पर्ची थी - '' ये दवाइयां और ग्लूकोज की चार बोतलें ले आओ ..इसे कहीं डीहाईड्रेशन  न हो जाये ..''

'' ये भी अभी चाहिए क्या ...?''
'' नहीं मेरा मतलब था कि आप यदि उसी समय बता देतीं तो मैं सभी दवाइयां एक साथ ले आ ....''
'' मेरे साथ बहस करने की जरुरत नहीं . आपका मन हो तो ले आइये नहीं तो रहने दीजिये . अगर मरीज को कुछ हो गया तो हमें दोष मत दीजिएगा .''
और वह लेफ्ट-राईट करती वहाँ  से चली गई .
राणा के पास मेडिकल स्टोर का दरवाज़ा पीटने के सिवाए और कोई चारा नहीं था . राणा सोच रहा था - किसी महापुरुष के नाम पर बने इस अस्पताल में ऐसी दुर्दशा ..! शायद उस महापुरुष की आत्मा भी बिलख रही होगी ...!
शायद एस.पी.  की किस्मत अच्छी थी . सुबह दिन निकलते ही डाक्टरों की टीम  अस्पताल में दनदनाने लगी . एस.पी. और राणा को बहुत हैरानी हुई कि इतनी सुबह डाक्टर कैसे आ गए . लेकिन कुछ समय  बाद ही जैसे उनकी शंका का समाधान हो गया था . शहर की एक मोटी 'आसामी' को जो कि अस्पताल की  मैनेजमेंट कमेटी में में भी है , को थोड़ी सी तकलीफ हो गई थी .

बस ..! फोन की घंटियों ने डाक्टरों की कोठियों की जड़ें हिला दी थीं और 'असामी' के अस्पताल में पहुँचने से पूर्व ही डाक्टरों ,नर्सों की पलटन वहाँ मार्च करने लगी थी . मानो बिल्ली के भाग से छींका टूटा . डाक्टर ने एस.पी. का भी निरीक्षण किया .
'' इसे अपेंडिसाईटिस का दर्द था . मगर अटैक पूरा नहीं था , इसलिए इतना टाइम निकल गया . लेकिन अभी आपरेशन करना पडेगा , नहीं तो फिर किसी भी समय खतरा बढ़ सकता है ..!''

राणा बेचारा फिर भाग-दौड़ में लग गया . दवाइयां खरीद कर लाने के लिए एक और लिस्ट उसे पकड़ा दी  गई . वह एक पर्ची की दवाइयां लेकर आता तभी उसे एक और पर्ची मिल जाती . राणा को खीज भी बहुत आ रही थी . एक ही बार क्यों नहीं सारी दवाइयां लिख देते ये लोग ...दवाइयाँ लाते-लाते यही ख्याल उसके दिमाग में बार-बार आता . इतनी सारी दवाइयाँ क्या एक ही बार में सारी काम आ जायेंगी ....? दवाई की शीशियों , गोलियों  आदि ने एस.पी. के बैड के साथ रखी डोली में काफी स्थान घेर लिया था .

खैर एस.पी. का आपरेशन हो गया और उसे रिकवरी रुम में लिटा दिया गया . राणा शहर चला गया था . एस.पी. के घरवालों को तार देने और साथ ही एस.पी. के आफिस में फोन द्वारा सुचना देने के लिए .
रिकवरी रुम में भी जैसे एस.पी. के लिए चैन नहीं था . वहाँ थी तीन नर्सें और दो वार्ड ब्वाय . लगता था जैसे किसी ' ह्यूमरस प्ले' की रिहर्सल कर रहे हों . हा..हा..हा...ही..ही...ही...पता नहीं कौन सी ऐसी बात थी जो खत्म होने में नहीं आ रही थी . रिकवरी रुम में लेटे हुए दुसरे मरीज़ भी दुखी होकर उनकी ओर अजीब निगाहों से देख रहे थे .
एस.पी. को नींद का इंजेक्शन लगा दिया गया था परन्तु जैसे हो हल्ले में नींद का इंजेक्शन भी असरहीन हो गया था . एस.पी. की सहन -शक्ति जैसे समाप्त हुई जा रही थी . आखिर उसने हाथ के इशारे से एक नर्स को पास बुलाया  ...
'' क्या बात है ..?''उसके बैड के पास आते हुए नर्स ने पूछा .
''सिस्टर ! जहां मैं लेता हूँ , यह कौन सी जगह है ...?'' बिना कोई भूमिका बांधे एस.पी. ने पूछा !
''क्यों ..?''
''मैं किसी को सूचित करना चाहता हूँ कि मैं फलां रुम में हूँ .''
''यह रिकवरी रुम है ..''
'' लेकिन सिस्टर , '' एस.पी. जैसे अपने मन की बात छुपा न सका - ''मुझे तो यह रिक्रियेशन रुम लग रहा है .''
''व्वाट ..?'' नर्स की भवें तन गईं . लेकिन एस.पी. के मुंह के शब्द खुद-ब-खुद निकलते रहे - ''कृपया अपना नाटक बंद कर दें ताकि मैं कुछ देर सो सकूँ .''
''स्टुपिड !'' बुदबुदाती हुई वह अपनी चंडाल -चौकड़ी की तरफ मुड़ गई . शायद अन्य सब ने एस.पी. की बात सुन ली थी .
कुछ ही क्षणों में कमरे का भारीपन जैसे कम हो गया . दुसरे दिन एस.पी. को रिकवरी रुम से जनरल वार्ड में भेज दिया गया .
सुबह-सुबह डाक्टर 'राउंड' लगाने आये तो एस.पी. के 'ट्रीटमेंट चार्ट ' पर कुछ लिख गए . डाक्टरों की टीम के जाने के पश्चात वहाँ की डयूटी-नर्स ने आकर एस.पी. को एक पर्ची थमा दी -'' ये दवाइयां ओर टीके मंगवा लीजिये .''

जब राणा आया तो एस.पी. ने पर्ची उसे थमा दी  .

''ये टीके हमारे पास हैं शायद ,'' राणा ने पर्ची पढ़ते हुए कहा . अभी कल ही तो मैं दस लाया था ओर इन गोलियों के तीन स्ट्रिप ...!''

राणा ने डोली का दरवाज़ा खोला , वहाँ इस्तेमाल किये हुए टीकों के दो चार खोल ओर कुछ गोलियां पड़ी थीं . '' सभी दवाइयां कहाँ गई एस.पी. ...? मैं तो कल काफी सारी लाया था ...?''

'' मुझे क्या पता लग गईं होंगीं .''
'' लगती कहाँ हैं बाबु साहब रात में सफाचट हो जाती हैं .'' साथ वाले बैड के मरीज ने व्यंगात्मक स्वर में कहा ... !
''सफाचट ..?'' एस.पी' ने हैरान होते हुए कहा .
'' हाँ जी ये डाक्टर लोग जान बुझ कर ज्यादा दवाइयाँ मंगवा लेते हैं और रात को मरीज़ को टीका लगा कर सुला देते हैं . तब  दवाइयाँ एक बार फिर वहीँ चली जाती हैं जहाँ से आती हैं . ''
''आपका मतलब है मेडिकल स्टोर वालों को बेच देते हैं .''
'' हाँ जी  , तभी तो ये बार-बार इस बात पर जोर देते हैं की अस्पताल के मेडिकल स्टोर से ही दवाइयाँ लायें , बाहर से अच्छी नहीं मिलतीं . ''
एस.पी. तो जैसे यह सब सुनकर स्तब्ध रह गया . अपने कानों पर जैसे विशवास ही नहीं हुआ ...लेकिन डोली का खालीपन जैसे इस बात का साक्षी था . और भला क्या प्रमाण चाहिए था उसे ...!
और अस्पताल में लेटा हुआ एस.पी. सोच रहा था कि अगर वह वह मीट न खाता तो शायद इस दुर्घटना से बच जाता लेकिन वह खुद ही अपने उत्तर प्रश्नों में और प्रश्न उत्तरों में गड़बड़ किये जा रहा था .
****
आज काफी सुबह ही एस.पी. की आँख खुल गई . एक नया मरीज़ आया था . चिल्ला-चिल्ला कर उसने वार्ड के सभी मरीजों को जगा दिया था . दो चक्कर लगाने के बाद नर्स नहीं आई थी . डाक्टर तो एक बार भी नहीं आया . वार्ड के बाकी मरीज़ भी बिलबिला रहे थे लेकिन नए आये मरीज़ की चीखें अभी भी पहले की तरह ऊंची थीं जबकि डाक्टरों के  राऊंड लगाने का समय हो गया था .
अचानक नए आये मरीज़ की चीखें बंद हो गईं .
एस.पी. के आस-पास लेटे मरीजों ने भी जैसे सांस खींच ली हो ....और सभी की आँखें वार्ड के दरवाजे की तरफ  थीं . हैं ....s ..s ....यह सन्नाटा क्यों ...? एस.पी. जैसे  हैरान हो गया .
और फिर अगले ही क्षण एस.पी. की नज़र भी उस ओर घूम गई जिस ओर बाकी मरीज देख रहे थे . एक डाक्टर भीतर आ रहा था . लेकिन यह क्या ...?एस.पी. की आँखों को यह क्या हो गया ..? उसे यह क्या दिखाई देने लगा है . वार्ड की जगह बकरियां का बाड़ा ...डाक्टर की जगह कसाई ...? नहीं...नहीं....यह कैसे हो सकता है ...? एस. पी. ने आँखें मलीं ...लेकिन नहीं ...सब कुछ पहले की तरह दिखाई दे रहा था .
और शायद इसलिए बकरियों ने मिमियाना बंद कर दिया था और सहमी हुई उस तरफ देख रही थीं ...!!

संपर्क - डॉ फकीरचंद  शुक्ला
२३०-सी,
भाई रंधीर सिंह नगर
लुधियाना - १४१०१२ (पंजाब )
फोन- १६१-२४५९०३० , ४६१२२३०
मो. ९८१५३५९२२२
****************************
अनुवादक- हरकीरत 'हीर'
१८ ईस्ट लेन. आर.जी. बरुआ रोड ,
पोस्ट-दिसपुर , हॉउस न. ५
गुवाहाटी-७८१००५ (असाम )




Tuesday, October 30, 2012

 पूरा....

कल मैंने हवा से पूछा -
मैं भी तुझ सा
आज़ाद और अदृश्य होना  चाहता हूँ
कहने लगी ...
खामोश मुहब्बत कर ले
किसके साथ ...?
जो तुम्हें अच्छी लगे ....
खामोश मुहब्बत और अदृश्य
अपने आप से ..
कई बार उदास रहने लगा
आज हवा से मिलकर पूछा ...
तुम  कभी उदास हुई हो ..?
''पूरा आज़ाद कभी उदास नहीं होता ''
यह सुन ...
यह भी समझ  आ गया कि
पूरा कभी निराश भी नहीं होता ......

---इमरोज़
अनु. हरकीरत हीर

Monday, October 22, 2012

ਭੁਖ - ਜਿਤੇੰਦਰ 'ਜੌਹਰ '

ਕੁੱਤੇ ਨੂੰ ਰੋਟੀ ਖਵਾਂਦਾ  ਵੇਖ
ਏਕ ਬੁਡ੍ਦੇ  ਭਿਖਾਰੀ ਨੇ
ਸਾਹਿਬ ਦੇ ਅੱਗੇ ਹੱਥ ਫੈਲਾਇਆ
ਯਾਚਨਾ ਪੂਰਵਕ ਗਿੜਗੀੜਾਇਆ
ਤਦੇ ਸਾਹਿਬ ਨੇ ਮੁੰਹ  ਖੋਲਿਆ
ਅਤੇ ਭਿਖਾਰੀ  ਨੂੰ ਟਰਕਾਂਦੇ ਹੋਏ ਬੋਲਿਆ -
ਜਾਣਦਾ ਵਾਂ... ਦੇਸੀ ਘਿਓ ਵਿਚ ਸਣੀ  ਹੈ
ਇਹ ਰੋਟੀ ਤੇ ਸਿਰਫ ਕੁੱਤੇ ਲੈ ਬਣੀ ਹੈ ...

ਇੰਨਾ ਸੁਣ ..
ਉਹ ਭੁਖਾ ਭਿਖਾਰੀ
ਅਪਣੇ ਦੋਨੋਂ ਗੋੱਡੇ ਤੇ ਹੱਥ
ਜਮੀਨ ਤੇ ਟੇਕ ਤਣ  ਗਿਆ
ਅਤੇ ਅਗਲੇ ਹੀ ਪੱਲ
ਕਰੁਣ ਸੁਰ 'ਚ ਬੋਲਿਆ 
''ਲਓ...ਬਾਬੂ ਜੀ ,
ਹੁਣ ਮੈਂ ਵੀ 'ਕੁੱਤਾ' ਬਣ ਗਿਆਂ !''

ਇਸ ਘਟਨਾ ਵਿਚ
ਭੁਖ ਜਿਤਦੀ ਹੈ
ਅਤੇ ਇਨ੍ਸਾਨਿਯਤ ਹਾਰਦੀ ਹੈ
ਹੇ ਅੰਨਦਾਤਿਆ...!
ਤੇਰੀ ਪਜਾਹ 'ਗ੍ਰਾਮ' ਦੀ ਰੋਟੀ
ਪਜਾਹ 'ਕਿਲੋ' ਦੇ ਆਦਮੀ ਤੇ ਭਾਰੀ ਹੈ ..!!

(ਹਿੰਦੀ ਤੋਂ ਅਨੁਵਾਦ)

ਅਨੁਵਾਦ -ਹਰਕੀਰਤ 'ਹੀਰ'
੧੮ ਇਸਟ ਲੇਨ , ਸੁੰਦਰਪੁਰ , ਹਾਉਸ ਨ. ੫
ਗੁਵਾਹਾਟੀ-੭੮੧੦੦੫
ਮੋ.੯੮੬੪੧੭੧੩੦੦


(2)


ਉਜਾਲੇ ਦੀ ਜਿੱਤ - ਜਿਤੇੰਦਰ 'ਜੌਹਰ '

ਮੁਖ਼ਾਲਿਫ਼ ਹਵਾਵਾਂ ਦੇ ਵਿਚ
ਸੌਖਾ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ
ਹਨੇਰੇ ਦੀ ਮਹਫ਼ਿਲ'ਚ
ਉਜਾਲਾ ਲਿਖਣਾ ....

ਪਰ ਉਹ ਛੋਟਾ ਜਿਹਾ ਦੀਵਾ
ਰਾਤਭਰ ਲਿਖਦਾ ਰਿਹਾ
ਪੁਰਹੌਸ ..
ਰੌਸ਼ਨੀ ਦੀ ਇਬਾਦਤ
ਹਨੇਰੇ ਦੀ ਛਾਤੀ ਉੱਤੇ ....

ਹਵਾਵਾਂ ..
ਝਪਟਦਿਆਂ ਰਹਿਆਂ
ਉਜਾਲਾ ਉਗਲਦੀ ਲੇਖਣੀ ਉੱਤੇ

ਲੇਖਣੀ ਡਗਮਗਾਈ
ਫਿਰ ਸਭ੍ਲੀ ..
ਹੋਰ ਜਗਮਗਾਈ

ਦੀਵੇ ਦਾ ਸੰਘਰਸ਼ ਵੇਖਦੇ-ਵੇਖਦੇ
ਮੈਂ ਨੀਂਦ ਦੇ ਆਗੋਸ਼'ਚ
ਗੁਮ  ਗਿਆਂ
ਅਤੇ ਚਾਦਰ ਤਾਣ
 ਸੋਂ ਗਿਆਂ ..

ਸਵੇਰੇ ,
ਜਦੋਂ ਅੱਖ ਖੁੱਲੀ
ਤਾਂ ਦੀਵੇ ਦੀ ਰੌਸ਼ਨ ' ਪਾੰਡੁਲਿਪੀ  '
ਸੂਰਜ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ
 ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਿਤ ਮਿਲੀ !

ਉਸਦਾ ਸੰਦੇਸ਼
ਕਿੰਨਾ ਪ੍ਰਖਰ ਸੀ
ਮੌਨ ਹੋ ਕੇ ਵੀ
ਮੁਖਰ ਸੀ
ਕਿ ਸਾਨੂੰ ....
ਹਨੇਰੇ ਦੇ ਖਿਲਾਫ਼ ਸੰਘਰਸ਼'ਚ
ਹਿਮ੍ਮਤ ਨਹੀਂ ਹਾਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ
ਕਿਓੰਕੇ ....
ਜੀਤ ਤਾਂ ਆਖ਼ਿਰ
ਉਜਾਲੇ ਦੀ ਹੀ ਹੋਣੀ ਹੈ ..!!

(ਹਿੰਦੀ ਤੋਂ ਅਨੁਵਾਦ)

ਅਨੁਵਾਦ -ਹਰਕੀਰਤ 'ਹੀਰ'
੧੮ ਇਸਟ ਲੇਨ , ਸੁੰਦਰਪੁਰ , ਹਾਉਸ ਨ. ੫
ਗੁਵਾਹਾਟੀ-੭੮੧੦੦੫
ਮੋ.੯੮੬੪੧੭੧੩੦੦


(3)

ਪਹਿਲਾਂ ਤੇ ਹੁਣ ..... ਜਿਤੇੰਦਰ 'ਜੌਹਰ '

ਹਰੀ, ਹਰਜਿੰਦਰ ,
ਹੈਰੀ ਤੇ ਹਬੀਬ
ਰਹਿੰਦੇ ਸੀ ਇਕ-ਦੂਜੇ ਦੇ
ਬਹੁਤ ਕਰੀਬ !

ਬੜੀ ਜਮਦੀ ਸੀ ਉਹਨਾ ਦੀ
ਗੰਗਾ-ਜਮੁਨੀ ਟੋਲੀ
ਇਕ ਨਾਲ ਮਨਾਦੇ ਸੀ
ਈਦ -ਬੈਸਾਖੀ -ਕ੍ਰਿਸਮਸ-ਹੋਲੀ !

ਪਰ ਅੱਜ
ਉਹਨਾਦੇ ਅੰਦਾਜ
ਬਿਲਕੁਲ ਬਦਲ ਗਏ ਨੇ
ਉਹ ਜਾਤ ਤੇ ਮਜਹਬਾਂ ਦੇ
ਸਂਕਰੇ ਸਾਂਚਿਆਂ'ਚ ਢਲ ਗਏ ਨੇ !

ਹੁਣ ਨਹੀਂ ਨਜ਼ਰ ਆਂਦੀ
ਉਹਨਾ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਵਿੱਚ
ਪਹਿਲਾਂ ਜੇਹੀ ਗਰ੍ਮਾਹਟ
ਦੀਲਾਂ  ਵਿੱਚ ਘੁਲ ਗਈ ਹੈ
ਇਕ ਅਨਚਾਹੀ ਕੜਵਾਹਟ ...
ਅਤੇ ਪ੍ਰੇਮ ਦੀ ਮਿਠਾਸ ਹੋ ਗਈ ਹੈ ਖ਼ਤਮ!
ਇਸ ਕਰਕੇ ਲੋਕੀਂ ਗਾਣ ਲੱਗੇ ਨੇ
'' ਮੁਹੱਬਤ ਹੈ ਮਿਰਚੀ.... ਸਨਮ !''

(4)

ਸ਼ੁਕਰੀਆ .....

ਏ ਹਵਾ ...!
ਹੁਣ ਤੇਰੇ ਤੇ ਵੀ ਕਿਵੇਂ ਕਰਾਂ ਵਿਸ਼ਵਾਸ

ਤੂੰ ਸਿਰਫ ਮਹਿਕ ਪਹੁੰਚਾਈ ਉਸ ਕੋਲ
ਮੇਰੀਆਂ ਅੱਖਾਂ  ਦੀ ਸਾਰੀ ਨਮੀ
ਰਾਹਿ ਵਿਚਕਾਰ ਹੀ ਸੋਖ ਲਈ ਤੂੰ
ਚੱਲ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ
ਇਹ ਏਹਸਾਨ ਕੀ ਘਟ ਹੈ
ਕਿ ਨਮੀ ਦੀ ਲੈ
'ਫ਼ੀਸ'
ਮਹਕ ਤਾਂ ਰੱਖੀ ਤੂੰ ਮਹ੍ਫ਼ੁਜ਼...!
ਏ ਹਵਾ ....
ਸ਼ੁਕਰੀਆ ਤੇਰਾ ...!!
 
(5) 
 
ਸੌਦਾ ...
ਮੈਂ ਮਿਠਾਸ ਚੁਕਾਈ ਸੀ
ਤੱਦ ਜਾਕੇ ਮਿਲਿਆ ਸੀ ਮੈਂਨੂੰ
ਤੇਰਾ ਖਾਰਾਪਨ ....!
ਬਹੁਤ ਮਹਿੰਗਾ ਸੌਦਾ ਸੀ ਇਹ
ਮੈਂ ਪਿਆਰ ਦੇ ਕੇ ਪਾ ਸਕਿਆ ਸੀ ਤੈਨੂੰ
ਪਿਆਰ ਦੇ ਕੇ .....!
ਏ ਹੰਜੁਓ ,
ਤੁਹਾਨੂੰ ਇੰਜ ਕਿਵੇਂ ਜਾਣ ਦਿਆਂ
ਅੱਖਾਂ ਦੀ ਦਹਲੀਜ਼ ਛੱਡ .....
 
 
 ਮੂਲ  -ਜਿਤੇੰਦਰ 'ਜੌਹਰ '
ਆਈ ਆਰ -੧੩/੩, ਰੇਨੁਸਾਰ
ਸੋਨਭਦ੍ਰ (ਉੱਤਰ-ਪ੍ਰਦੇਸ਼) ੨੩੧੨੧੮
ਮੋਬ. ੯੧ ੯੪੫੦੩੨੦੪੭੨
ਇ ਮੇਲ  : jjauharpoet@gmail.com

ਹਿੰਦੀ ਤੋਂ ਅਨੁਵਾਦ)

ਅਨੁਵਾਦ -ਹਰਕੀਰਤ 'ਹੀਰ'
੧੮ ਇਸਟ ਲੇਨ , ਸੁੰਦਰਪੁਰ , ਹਾਉਸ ਨ. ੫
ਗੁਵਾਹਾਟੀ-੭੮੧੦੦੫
ਮੋ.੯੮੬੪੧੭੧੩੦੦
 

Sunday, October 14, 2012

इक शब्द की कहानी ....इमरोज़ ....(पंजाबी से अनुदित )

इक सपने में
इक खूबसूरत लड़की कह रही थी
कोई कहानी लिखूं
इक शब्द की,  इक ज़िंदा शब्द की ....
जागा तो देखा ...
इक अनलिखी कहानी सामने खड़ी थी
और इक शब्द खुशबू भी कागज़ पर लिखा पड़ा था ....
इक खामोश सुंदर लड़की रहती तो बहुत दूर है
पर उसके मनचाहे जवान को बिलकुल दूर नहीं लगती
जवान को वह सुंदर लड़की बहुत अच्छी  लगती है
वह लड़की भी मनचाहे जवान को उडीकती रहती है
इस उडीकती लड़की के लिए जवान कुछ भी कर सकता है
कागज़  भी बन सकता है , शब्द भी और खुद ही ले जाने वाला कबूतर भी
कबूतर बनकर सब फासले उड़कर वह लड़की की मुंडेर पर जा बैठता है
सूरज की पहली धूप   आकर बताती है सूरज का हाजर  होना
और जवान का हाजर  होना भी ....
उडीकती लड़की आकर कबूतर से अपना कागज़ ले लेती है
जब कागज पढ़ती है
लिखा हुआ शब्द खुशबू  सा हो जाता  है
ज़िंदा शब्द की महक से सुन्दर लड़की और सुंदर हो जाती है ...
यह इक शब्द की कहानी
अपने आप हर बार इक नए शब्द को ज़िंदा कर देती है
सुंदर लड़की कब से देखती आ रही है पता नहीं
मुहब्बत का यह भी एक रंग है
लिखे शब्द को पढ़ के ज़िंदा शब्द करते रहना
और अपने आप को भी और सुंदर देखते रहना ....

इमरोज़ .....

अनु . हरकीरत 'हीर

Thursday, September 13, 2012

इमरोज़ की नज्में .....(पंजाबी से अनुदित )  ....

(1)
कई फैसले  फैसले नहीं होते .....

कत्ल करते वक़्त कोई देख सकता है
पर कत्ल करने की सोच को
कोई नहीं देख सकता
इसलिए कत्ल का कोई भी फैसला
सच  नहीं हो सकता
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म नहीं करता
और सोच को न कोई देख सकता है न जान .....

........................
(२)
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म  नहीं करता
गंगा ज़िस्म धोती है
सोच नहीं .....
  
  (३)

फिक्रमंद .....

माँ ने इक अनचाहे के साथ मेरा विवाह कर दिया था
मैंने उस अनचाहे का बच्चा जन्मने से इनकार कर दिया
और उस अनचाहे ने मुझे घर से बेघर कर दिया
माँ को मेरा इनकार समझ न आया
माँ मनचाही होती तो समझ लेती
माँ ने कहा मनचाहा कोई नहीं होता
मैं मनचाही हो रही हूँ
तू मनचाही हो रही है न ...
मर्द तो मनचाहे नहीं हो रहे
इक मर्द तो मनचाहा हो सकता है
नहीं तो हीर हीर कैसे होती
जिस दिन मैं हीर हो जाऊंगी  मनचाही भी हो जाऊंगी
कहीं न कहीं उस दिन इक मर्द भी मनचाहा हो जाएगा
माँ ने मेरी बात न सुनी
उठ कर रसोई में जा डाल चुनने लगी
बोलती जा रही थी ..
डाल में से कंकड़ तो मैं भी चुन सकती हूँ
पर मर्दों में से कंकड़ किसी से नहीं चुने जाने
फिक्रमंद माँ ....
बड़-बड़ करती यही सोचे जा रही थी ...यही बोले जा रही थी ....

इमरोज़ ....
अनुवाद : हरकीरत हीर

Wednesday, September 12, 2012

हर सप्ताह इमरोज़ जी के 4,5 ख़त आते रहे हैं पर इस बार सात ख़त एक साथ .....
उनका हिंदी तर्जुमा ..... 

दर्द की ईद  .....

तुम्हारी नज्मों ने हैरान सा  कर दिया है
इतना दर्द ...?
तुमने किस तरह सहारा था ..ज़रा था ..इस नाजुक वजूद संग ..
इतनी दर्द भरी नज्में बन ....?
किसने यह दर्द दिया है ....
जन्म ने ...
परवरिश ने ...
घर ने ...
घरवालों ने ...
किसी अनचाही यातना ने ..
किसी गैर ने ...
किसी रिश्ते ने ....
किसी के प्यार ने ..
या ...
अपने मनचाहे की गैर हाजरी ने ...?

पर दरियाओं की धरती तक
तुम्हारी नज्में पहुँच गयीं हैं
तुम्हारे दर्द की नज्मों  ने ...
 इक चाक की ज़िन्दगी को भी
और उसकी बांसुरी को भी
दर्द के रोजे बना दिया है ....

हर ईद रोजों से कुछ दूर
खड़ी उडीक रही है ईदी
अपनी ईद को ...इस दर्द की ईद को भी
और अपने चाँद को भी
मुहब्बत के चाँद को ...हर वक़्त हाज़िर को ....

  इमरोज़-  ५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

 

(२)

चूरी बनाई  है
अपनी नई नज्मों की
यह कैसी हीर है ...
यह आज की हीर है ..
चूरी भी खुद चाक भी खुद
और नज़्म भी .....

मूल-इमरोज़......
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'


(३)
फूल खिले तो खुशबू जागे ...
तुझे सोच कर नज़्म जागे ...
तू न मिले कुछ न मिले ...
मिल कर देख मिला हुआ देख ....

इमरोज़....२/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(४)

किताब का नाम बदल लिया है
''हीर की महक ''   
पर नज्मों ने जो दर्द जीया  है
उसका क्या करूँ ....?

इमरोज़....५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(५)

श्राप ...

दुश्मनों को मारने के लिए   
दुश्मनों से भी  बड़ा दुश्मन
 बनना पड़ता है   ..
स्टालन  जैसा ..हिटलर जैसा, माओ जैसा ...

इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(६)

वर ...

मुहब्बत करने के लिए
मुहब्बत से भी ज्यादा मुहब्बत
होना पड़ता है   ...
हीर जैसी  ...राधा जैसी ....
सोहणी जैसी ...मीरा जैसी ....

इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(७)

ज़िन्दगी जितना सुख ....
नज्मों की  किताब
''हीर की  महक ''
मेरे आस-पास ही होती है
नज़्म पढ़  कर
तुझे सोचने लगा  हूँ
इक दिन तूने हक़ीर होना छोड़
हीर होना कबूल कर लिया था
ऐसे ही ..
आज कब्र जितना सुख छोड़
ज़िन्दगी जितना सुख कबूल  कर ले
यूँ भी सुख ज़िन्दगी से कम
सुख ही नहीं होता .....

इमरोज़ ....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

Saturday, September 8, 2012

उधड़ी हुई कहानियाँ ......अमृता  प्रीतम ,अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

मैं और केतकी अभी एक-दुसरे की परिचित भी नहीं बनी थी कि मेरी मुस्कराहट ने उसकी मुस्कराहट से दोस्ती कर ली . मेरे घर के सामने नीम और कीकर के दरख्तों के बीच घिरा हुआ एक टीला  है . टीले  के उस ओर तोरिये के और इस ओर छोले के खेत हैं . इन खेतों की दाहिनी ओर किसी सरकारी कालेज का इक बहुत बड़ा बगीचा है . इसी बगीचे के एक नुक्कड़ में केतकी की झुग्गी है . बगीचे को सींचने के लिए पानी की छोटी-छोटी क्यारियाँ  कई जगह बह रही हैं . पानी की एक क्यारी  केतकी की झुग्गी के आगे से भी निकलती है .  इसी क्यारी  के किनारे बैठी हुई मैं केतकी को रोज़ देखती हूँ . कभी वह कोई पतीला या पारात  मांज रही होती तो कभी चांदी के गजरों से भरी अपनी बाँहें,रगड़ -रगड़ कर धो रही होती . चांदी के गजरों की तरह ही उसके बदन पर उम्र ने मांस के मोटे-मोटे बल डाल दिए थे . पर वह मुझे अपने गहरे गेहूँयें रंग में भी इतनी खूबसूरत दिखाई देती कि मुझे उसके मांस के मोटे-मोटे बल भी उम्र का श्रृंगार लगने लगे थे .  शायद इसलिए कि  उसके होंठों की मुस्कराहट में अजीब सी किस्म की संतुष्टि थी , एक अजीब तरह की पूर्णता , जो आज के युग में सभी के चेहरों से विलुप्त सी हो गई है . मैं रोज उसे देखती और सोचती कि उसने पता नहीं किस तरह यह संतुष्टि अपने मोटे और काले होंठों के बीच संभाले रखी है . मैं उसे देखती और मुस्कुरा देती वह मुझे देखती और मुस्कुरा देती . इस तरह मुझे  उसका मुँह बगीचे में खिले  सैंकड़ों फूलों में से एक फूल ही लगने लग पड़ा था . मुझे बहुत सारे फूलों के नाम नहीं पता पर उसका नाम मुझे पता चल गया था , ''मांस का फूल ''

एक बार मैं पूरे तीन दिन बगीचे में न जा सकी . चौथे दिन जब गई तो उसकी आँखें मुझे यूँ मिली जैसे तीन दिनों से नहीं तीन वर्षों से बिछड़ी हों .

''क्या हुआ बिटिया ! इतने दिन नहीं आई ..?''

'' ठंडी बहुत थी अम्मा बस बिस्तर में ही बैठी रही ''

'' सचमुच बहुत जाड़ा पड़ता है तुम्हारे देश में ...''

''तुम्हारा कौन सा गाँव है अम्मा...?''

'' अब तो जहाँ झोंपड़ी डाल ली वहीँ मेरा गाँव है . ''

'' यह तो ठीक है फिर भी अपना गाँव तो अपना गाँव ही होता है .''

''अब तो उस धरती से नाता टूट गया बिटिया ! अब तो यही कार्तिक मेरे गाँव की धरती है , और यही मेरे गाँव का आकाश  . ''

''यही कार्तिक '' कहते- हुए  उसने झुग्गी की ओर बैठे हुए अपने मर्द की ओर देखा  था . उम्र के कूबड़ से झुका हुआ एक आदमी ज़मीन पर तीलियों और रस्सियों को बिछा एक चटाई सी बुन रहा था . दूसरी बाड़ में कुछ गमलों में लगे फूलों को पाले से बचाने के लिए शायद चटाइयों की ओट में रखना था .

केतकी ने बहुत छोटे से फिकरे में बहुत बड़ी बात कह दी थी . शायद बहुत बड़ी सच्चाइयों को बहुत ज्यादा विस्तार की जरुरत नहीं होती . मैंने बड़े अचंभे के साथ उस पुरुष को देखा जो एक औरत के लिए धरती भी बन सकता है और आसमां भी .

''क्या देखती हो बिटिया ! यह तो मेरी बैरंग चिट्ठी है .''

''बैरंग चिट्ठी ..?''

'' जब चिट्ठी पर टिकस नहीं लगाते तो वह बैरंग हो जाती है ''

''हाँ अम्मा ! जब चिट्ठी के ऊपर टिकट नहीं होती तो वह बैरंग हो जाती है .''

'' फिर उस चिट्ठी को लेने वाला दुगुना दाम देता है .''

'' हाँ अम्मा ! उसे लेने के लिए दुगुने पैसे देने पड़ते हैं ..''

'' बस यही समझ लो इसको लेने के लिए मैंने दुगुने दाम दिए हैं . एक तो तन का दाम दिया और एक मन का ''

मैं केतकी के मुँह की ओर देखने लग पड़ी . केतकी का सादा - सांवला मुँह ज़िन्दगी की किसी बड़ी फिलासफी से तपता जान पड़ा .

'' इस रिश्ते की चिट्ठी जब लिखते हैं , तो गाँव के बड़े बूढ़े इसके ऊपर अपनी मोहर लगाते हैं .''

'' तो क्या अम्मा तुम्हारी इस चिट्ठी के ऊपर गाँव वालों ने अपनी मोहर नहीं लगाई थी ...?''

''नहीं लगाई तो क्या हुआ , मेरी चिट्ठी थी मैंने ले ली . यह कार्तिक की चिट्ठी तो सिर्फ मेरे नाम लिखी है ''

''तुम्हारा नाम केतकी है ? कितना प्यारा नाम है . तुम बड़ी बहादुर औरत हो अम्मा !''

''मैं शेरों  के कबीले से हूँ .''

''वो कौन सा कबीला है अम्मा ...?''

'' यही जो जंगल में शेर होते हैं , वो सब हमारे भाई-बंधू होते हैं . अब भी जब जंगल में कोई शेर मर जाये तो हम १३ दिन उसका शोक मनाते हैं . हमारे काबिले के मदर लोग अपना सर मुंडवा देते हैं , और मिट्टी की हंडिया फोड़ कर मरने वाले के नाम पर दाल चावल बांटते हैं . ''

''सच्च अम्मा ..!''

'' मैं चकमक टोला की हूँ , जिसके पैरों में कपिल धारा बहती है .''

''ये कपिल धारा क्या है अम्मा ...?''

''तुमने गंगा का नाम सुना  है ..?''

'' गंगा नदी ..?''

'' गंगा बहुत पवित्र नदी है जानती हो ना ...?''

''जानती हूँ .''

''पर कपिल धारा उससे भी पवित्र नदी  है , कहते हैं कि गंगा मैया एक साल में एक बार काली गाये का रूप धारती है और कपिल धारा में स्नान करने के लिए जाती है ''

''यह चकमक टोला किस जगह का है अम्मा ..?''

'' करंजिया के पास ''

'' और ये करंजिया ...?''

'' तुमने नर्बदा का नाम सुना है ..?''

''हाँ सुना है ''

'' नर्बदा नदी और सोन नदी भी नजदीक पड़ती है .''

'' यह नदियाँ भी बहुत पवित्र हैं ...?''

''उतनी नहीं जितनी कपिल धारा . यह तो एक बार धरती की खेतियाँ सूख गईं थीं , लोग उजड़ गए थे , तो उनका दुःख देख कर ब्रह्मा जी रो पड़े थे . ब्रह्मा जी के आँसू धरती पर गिर पड़े . बस जहाँ उनके आँसू गिरे वहां ये नर्बदा और सोन नदी बहने लगी . अब इनसे खेतों को पानी मिलता है .''

'' और कपिल धारा से ..?''

'' इससे तो मनुष्य की आत्मा को पानी मिलता है . मैंने इसी के जल में स्नान किया था , और कार्तिक को अपना पति मान लिया .''

'' तब तुम्हारी उम्र क्या होगी अम्मा ...?''

''सोलह बरस की होगी .''

'' पर  तुम्हारे  माँ बाप ने कार्तिक को तुम्हारा पति क्यों न माना ...?''

'' बात यह थी कि  कार्तिक की पहले एक शादी हो चुकी थी . इस की औरत मेरी सखी थी . बड़ी भली औरत थी . उसके घर चन्दरु  मंदरु दो बेटे थे . दोनों बेटे एक ही दिन जन्में थे . हमारे गाँव का 'गुणिया' कहने लगा कि यह औरत अच्छी नहीं है . इसने एक ही दिन अपने पति का भी संग किया था और अपने प्रेमी का भी . इसलिए एक ही जगह दो बेटे जन्में हैं . ''

'' उस बेचारी पर इतना बड़ा दोष लगा दिया ...?''

'' पर गुणिया की बात को कौन टालेगा ..? गाँव का मुखिया कहने लगा कि रोमी को प्रायश्चित  करना होगा . उसका नाम रोमी था , वह बेचारी रो-रोकर आधी हो गई .''

''फिर..?''

'' रोमी ने एक दिन दुसरे बेटे को पालने में डाल दिया और थोड़ी दूर जाकर महुए के फूल चुनने लगी . पास की झाडी से भागता हुआ एक  हिरण आया . हिरण के पीछे शिकारी कुत्ता लगा हुआ था . शिकारी कुत्ता जब पालने  के पास आया तो उसने हिरण का पीछा छोड़ दिया और पालने  में पड़े हुए बच्चे को खा  लिया .''

''बेचारी रोमी .''

'' अब गाँव का गुणिया कहने लगा कि जो पाप  का बेटा था उसकी आत्मा हिरण की जून में चली गई . तभी तो हिरण भागता हुआ  दुसरे बेटे को खाने के लिए पालने के पास आया . ''

'' पर बच्चे को हिरण ने तो कुछ नहीं कहा था , उसको तो शिकारी कुत्ते ने मार दिया था .''

'' गुणिये की बात को कोई नहीं समझ सकता बिटिया ! वह कहने लगा कि पहिले  तो पाप की आत्मा हिरण में थी , फिर जल्दी से उस कुत्ते में चली गई . ये गुणिया लोग तो बात ही बात में किसी को भी मरवा डालते हैं . बसाई का नंदा जब शिकार करने गया था तो उसका तीर किसी हिरण को नहीं लगा था . गुणिया ने कह दिया कि जरुर उसके पीछे उस की औरत किसी गैर मर्द के साथ सोई होगी , तभी तो उसका तीर निशाने पर नहीं लगा. नंदा ने घर आकर अपनी औरत को तीर से मार दिया .''

'' अरे..!''

'' गुणिया  ने कार्तिक से कहा कि वह अपनी औरत को जान से मार डाले . नहीं मारेगा  तो पाप की आत्मा उस के पेट से फिर जन्म लेगी और उस का मुँह देख कर गाँव की खेतियाँ सूख जायेंगी .''

'' फिर...?''

'' कार्तिक अपनी औरत को मारने  के लिए राजी नहीं हुआ . इससे गुणिया भी नाराज़ हो गया और गाँव के लोग भी . ''

'' गाँव के लोग जब नाराज़ हो जाते हैं तो क्या करते हैं ...?''

'' लोग गुणिया से बहुत डरते हैं . सोचते हैं कि अगर गुणिया जादू कर देगा तो सारे गाँव के पशु मर जायेंगे . इसलिए उन्होंने कार्तिक का हुक्का पानी बंद कर दिया . '''

'' पर वो यह नहीं सोचते थे कि अगर कोई इस तरह अपनी औरत को मार देगा तो फिर वो खुद भी ज़िंदा कैसे बचेगा ...?''

'' क्यों उसको क्या होगा ...?''

'' उसको पुलिस  नहीं पकड़ेगी ...?''

'' पुलिस नहीं पकड़ सकती . पुलिस तो तब  पकड़ती है जब गाँव वाले गवाही देते हैं . पर जब गाँव वाले किसी को मारना  ठीक समझते हैं तो पुलिस को पता नहीं लगने देते .''

''फिर क्या हुआ...?''

''बेचारी रोमी ने तंग आकर महुए के पेड़ से रस्सी बाँध ली और अपने गले में डाल मर गई .''

''बेचारी बेगुनाह रोमी.''

'' गाँव वालों ने तो समझा कि बात खत्म हो गई , पर मुझे मालूम था कि बात खत्म नहीं हुई , क्योंकि कार्तिक ने अपने मन में ठान लिया था कि वो गुणिया को जान से मार डालेगा . यह तो मुझे मालूम था कि गुणिया जब मर जायेगा , मर कर राक्षस बनेगा .''

''वह तो जीते जी भी राक्षस ही था.''

'' जानती हो राक्षस क्या  होता है ....?''

''क्या होता है ..?''

'' जो आदमी दुनियाँ में किसी को प्रेम नहीं करता वह मर कर अपने गाँव के दरख्तों पर रहता है . उसकी रूह काली हो जाती है , और रात को उसी की छाती से आग निकलती है . वह रात को गाँव की जवान लड़कियों को डराता है .''

''फिर..?''

'' मुझे उसके मरने का तो गम नहीं था ,पर मैं जानती थी कि कार्तिक ने अगर उसको मार दिया तो गाँव वाले कार्तिक को उसी दिन तीरों से मार देंगे .''

''फिर ..?''

'' मैंने कार्तिक को कपिल धारा में खड़े हो कर वचन दिया कि मैं उस की औरत बनूँगी . हम दोनों इस देश से भाग जायेंगे  . मैं जानती थी कि कार्तिक उस देश में रहेगा तो किसी दिन गुणिया  को जरुर मार देगा . अगर वह गुणिया को मार देगा तो गाँव वाले उसे जरुर मार देगें. ''

'' तो कार्तिक को बचाने के लिए तुमने अपना देश छोड़ दिया ...?''

'' जानती हूँ वह धरती नरक होती है , जहाँ महुआ नहीं उगता , पर क्या करती अगर वह देश ना छोड़ती तो कार्तिक ज़िंदा न बचता और जो कार्तिक मर जाता तो वह धरती मेरे लिए नरक बन जाती . देश-देश इसके साथ घुमती रही . फिर हमारी रोपी भी हमारे पास लौट आई . ''

''रोपी कैसे लौट आई ...?''

''हमने अपनी बिटिया का नाम रोपी रख दिया है . यह भी मैंने कपिल धारा में खड़ी होकर अपने मन से वचन लिया था कि मेरे पेट से जब भी कोई बेटी पैदा होगी मैं उसका नाम रोपी रखूंगी . मैं जानती थी कि रोपी का कोई कसूर नहीं था . जब मैंने बिटिया का नाम रोपी रखा तो मेरा कार्तिक बहुत खुश हुआ . ''

''अब तो रोपी बहुत बड़ी हो गई होगी ...?''

'' अरे बिटिया अब तो रोपी के बेटे भी जवान होने लगे . बड़ा बेटा आठ बरस का है और छोटा छ : बरस का . मेरी रोपी यहाँ के बड़े माली से ब्याही है . हम ने दोनों बच्चों के नाम चन्दरु -मंदरु रखे हैं .''

''वही नाम जो रोपी के बच्चों के थे ...?''

''हाँ वही नाम रखे हैं . मैं जानती हूँ उनमें से कोई भी पाप का बच्चा नहीं था . ''

मैं कितनी ही देर केतकी के मुँह की ओर देखती रही . कार्तिक की वह कहानी , जो किसी गुणिये ने अपने क्रूर हाथों से उधेड़ दी थी, केतकी अपने मन के पाक रेशमी धागों से उधड़ी हुई कहानी को फिर से दोबारा सीने की कोशिश कर रही थी . यह कहानी  एक घटना की  है. और न जाने दुनिया में  कितने 'गुणिये ' दुनिया की कितनी कहानियों को रोज़ उधेड़ते होंगें जिसका न मुझे पता है न आपको.......!!

अनुवाद - हरकीरत 'हीर'
१८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर
हॉउस न.५,गुवाहाटी-८७१००५ (असम)
मो.9864171300

Thursday, September 6, 2012

खास दिन .....३१/८/१२

किसी खास के साथ
कोई भी दिन ख़ास हो जाता है
जिस दिन हीर जन्मी थी
वह दिन भी खास था
और खुद वह इतनी खास थी और ख़ास है भी ...
कि हम आज भी उसे गा-गा कर कभी थके ही नहीं ...

जिस दिन कोई हीर हुई थी -अपनी मुहब्बत से
वह दिन भी ख़ास है और ख़ास है भी
और जिस दिन किसी की तलाश हीर होगी
वह दिन भी खास बन जाएगा ....

इक ख़ास के साथ
आम दिन भी , आम महीना भी
आम साल भी , आम सदी भी
ख़ास हो जाती है , ख़ास हो भी रही है ....

इक ख़ास का
आज जन्म हुआ था
वह दिन भी ख़ास था -३१ अगस्त का दिन
वह खुद कल भी ख़ास थी
और आज भी ख़ास है ......

मूल  : इमरोज़
अनु;हरकीरत हीर

(२)

तलाश ....

किसी की तलाश है
ख्याल के तलाश की तलाश
कोई ख़ास ही
ख्याल की तलाश हो सकता है
जी करता है
इक बादल बन उड़ता फिरूं
ढूंढता फिरूं
जहाँ भी जब भी
वह ख्याल की तलाश दिख पड़े
उस पर सारे का सारा
बरस जाऊँ
और खाली होकर भी खाली न होऊँ .....

मूल  : इमरोज़
अनु;हरकीरत हीर
इमरोज़ के हीर को लिख खतों का हिंदी अनुवाद ......

उडीक ...
..:इमरोज़  (२७/८/१२)

वक़्त की शायरी को भी
और वक़्त के रंगों को भी याद है
जिस दिन तू हीर हुई थी ...

हीर को देख
कोई भी कुछ भी हो सकता है
बांसुरीगाने  वाला भी
कागचों को शायरी से रंगने वाला भी
और कैनवास को ख्यालों से जगाने वाला भी .....

तू चूरी बना
अपनी नयी नज़्मों की चूरी
और दिल का दरवाजा खोल कर देख
किसी न किसी ओर से
कोई गाती बांसुरी पर गाता आ रहा है
उड़ते कागचों की उड़ती आ रही शायरी को
और कैनवास पर चले आ रहे जागते ख्यालों को ....

अय हीर ! तू ही उडीक है
और तू ही हीर  ......

अनु. हरकीरत हीर

(२)

तुम्हारा नाम  .... .....इमरोज़

कोई नज़र में है ....
अभी तो अपना आप ही नज़र में है
और अपना आप
अपनी मर्ज़ी का बन रहा है
उठते -बैठते इक नया ख्याल
और कितना जरुरी भी ....

तुम किस तरह मिलोगी ...?
जिस तरह आज मिली थी ...?
तुम्हारा नाम
मर्ज़ी .....

तुम ये क्या कर रही हो ...
ख्यालों को रंग दे भी रही हो
और ख्यालों से रंग ले भी रही हो ....?
कितना खूबसूरत है
तुम्हारा ये लेना देना ...
कब मिलोगी ...?
जिस दिन कोई नया ख्याल मिल गया ....?
तुम्हारा नाम ...
''ख्याल....''

अनु. हरकीरत हीर

(३)

अपने आप के रंग ....इमरोज़

इक कैनवास
 ऐसा भी है
जिसे ....
अपने आप के रंगों से
रंग लिया जाता है ...
लेकिन ....
 अपने आप के रंग
किसी-किसी के पास ही
होते हैं ......

अनु: हरकीरत हीर

(४)

मनचाही किस्मत ......इमरोज़

तुम्हारे कमरे में लगीं
तुम्हारी  पेंटिंग्स कहाँ हैं ....?
मेरे आज को जगा कर सारी की सारी
मेरा कल हो गईं ....

हँस कर कहने लगी
जाग कर क्या कर रहे हो
आज तक मर्ज़ी की पेंटिंग नहीं बना पाए
मर्ज़ी की पेंटिंग बनाने के लिए
अपने आप को मर्जी का बना रहा हूँ ...

यह सोच सुन  ,यह रेयर  सोच सुन
वह सोचने लग पड़ी ...
किसी पढाई में यह सोच क्यों नहीं ..
न बाहर की पढाई में
न अन्दर की पढाई में ....

सोचना छोड़ ...
आ अपनी मर्ज़ी के रंग देखें ....
तुम मेरी आँखों में देखो
मैं तुम्हारी आँखों में ...
सादा सहज ज़िन्दगी के खूबसूरत रंग
तुम भी देख सकती हो और मैं भी
ज़िन्दगी की पेंटिंग अपने-अपने अनुभवों से
तुम मेरे लिए बनाओ और मैं तेरे लिए बनाऊँ ....

मेरी पीठ पर अब तुम क्या लिख रही हो ...
जो सिर्फ तुम्हारी पीठ पर ही लिख सकती हूँ ....
अपनी किस्मत ....
अपनी मनचाही किस्मत ......

मूल : इमरोज़
अनु: हरकीरत हीर

Tuesday, August 21, 2012

हीर के नाम इमरोज़ का ख़त ....(पंजाबी से अनुदित )
(1)
ज़रखेज .....

खेतों में खेलते-खेलते
सरसों के पीले फूलों को देखते -देखते
आर्ट स्कूल के रंगों से खेलते-खेलते
आ पहुंचा मुहब्बत के रंगों तक ....

मुहब्बत के ...
कुछ ऐसे रेयर रंग देखे
जो पेंटिंग के रंगों में कभी न देखे थे
पेंटिंग करते करते
मुहब्बत के इस युग में
इक रेयर मुलाकात हो गई
इस रेयर मुलाकात से ज़िन्दगी भी कुछ और हो गई
और ख्याल भी ..


वह रेयर हीर है
जो अपने आप में मुहब्बत का दरिया है
वह ज़िन्दगी लिखती है
और शायरी ऐसी करती है कि पढो तो मुहब्बत-नामे
वह अपने मुहब्बत नामों में ही कर लेती है
अपनी मुहब्बत का दीदार
कभी-कभी दरिया भी दरिया में मिल जाता है
और कभी-कभी मुहब्बत का दरिया भी मुहब्बत के दरिया में
मिलने की सोचता है ...
कभी-कभी मुहब्बत के दरिया मिल भी जाते हैं
पर हीर की मुहब्बत का दरिया
अभी उडीक रहा है ....

दरिया संग ज़मीं
ज़रखेज हो जाती है
और मुहब्बत के दरिया से ज़िन्दगी ....
इस वक़्त हीर की नज़्म पढ़ रहा  हूँ
उसकी नज़्म में का ...
उसका मुहब्बत नामा भी ...
और पढ़ते-पढ़ते ज़रखेज हो रहा हूँ .....

                                इमरोज़ ......३.अगस्त .१२

 (2)
उसे कब मिले  ...?
जब वह हीर न थी ....
हीर कब हुई ...?
जब याद कराया .....
याद आ गया तो हीर हो गई ...
मिल कर क्या करते हो ...?
इक-दुसरे की अनलिखी नज्में

पढ़ते हैं लिखते हैं ....


                    इमरोज़......३.८.१२


मुहब्बत हर रोज़ बढती है

और ज़िन्दगी हर रोज़ घटती है ......

Sunday, July 8, 2012

गुरूद्वारे की बेटी .....

मेरे  बापू गुरूद्वारे के पाठी  हैं
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से  पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ  करता आया हूँ ....

तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी  बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता  है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...

आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा  रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...

इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह  मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने  किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले  तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर  मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....

वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना  भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...

देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
 बड़ा अच्छा लगता है ...

किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!

       .................. इमरोज़ (अनु: हरकीरत हीर )
वक़्त और मुहब्बत .....


वक़्त मुहब्बत को
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......


                 इमरोज़ .....(अनु: हरकीरत हीर )
इमरोज़ का इक ख़त हीर के नाम ...............


जाने मन जाने
जब मैंने हक़ीर को हीर लिखा था
मुझे न अपना पता था न तेरा
मैंने तो अपना वियुल ठीक किया था
पर खुद ही वियुल के साथ कुछ और भी हो गया था
जो हुआ था मैं उससे शर्मा गया था
पर जब मैं शर्मा रहा था
हीर को हीर देखकर लिख रहा था
तेरी नज़्म ने
जिस एहसास और जिस शिद्दत के साथ
यूँ  लिखा है जैसे तुमने ये खुद भोगा हो खुद जिया हो
तुम रियर हीर हो वारिस मूरत
अपना आप लिखा है
हीर- हीर होकर  राँझा-राँझा लिखा है, इमरोज़ लिखा है
प्यार कभी नहीं शर्माता
सच्च कभी नहीं शर्माता
हीर कभी नहीं शर्माती न लिखते वक़्त न जीते वक़्त .....
हम जीते हैं
कि हमें प्यार करना आ जाये
हम प्यार करते हैं
कि हमें जीना आ जाये ......

               इमरोज़ ......(अनु; हरकीरत हीर )
हीर को लिखे खतों में इमरोज़ की इक नज़्म..............


अब तुम ...
कहीं मत जाना
न गुवाहाटी
न दिल्ली
न तख़्त-हजारे
बस अपने भीतर  रहना
यह अपना राँझा ही
कह सकता है
यह अपना वारिस
ही लिख सकता है ......

              इमरोज़ ....(अनु: हरकीरत हीर )
इमरोज़ जी के मेरे पास ढेरों ख़त पड़े हैं ...अक्सर वे नज़्म रूप में ही ख़त लिखते हैं ....उनके लिखे कुछ खतों का हिंदी .अनुवाद ....

मनचाही किस्मत....

तुम्हारे  कमरे लगीं हुई
तुम्हारी पेंटिंग्स कहाँ हैं ...?
मेरे आज को जगाकर सारी की सारी
मेरा कल हो गईं हैं
हँसकर  कहने लगी
जागकर क्या कर रहे हो ...?
आज तक मर्ज़ी की पेंटिंग नहीं बना पाए ...?
मर्ज़ी की पेंटिंग बनाने के लिए
अपने आपको मर्ज़ी का बना रहा हूँ
यह सोच सुनकर , यह रेयर सोच सुनकर
वह सोचने लग पड़ी ...
किसी पढाई में यह सोच क्यों नहीं
न बाहर की  पढाई में , न अन्दर की पढाई में 
सोचना छोड़
आ अपनी मर्ज़ी के रंग देखें
तुम मेरी आँखों में देखो...
और मैं तुम्हारी आँखों में देखता हूँ
सादा- सहज ज़िन्दगी के खुबसूरत रंग
तुम भी देख सकती हो और मैं भी
ज़िन्दगी की पेंटिंग अपने - अपने अनुभवों से
तुम मेरे लिए बनाओ और मैं तुम्हारे लिए बनता हूँ ....
मेरी पीठ पर अब तुम क्या लिख रही हो ...?
जो सिर्फ तुम्हारी पीठ पर ही लिख सकती हूँ
अपनी किस्मत ....
अपनी मनचाही किस्मत .......!!

                           इमरोज़.......(अनु; हरकीरत हीर )


इमरोज़ जी द्वारा मुझे लिखे नज़्म रूपी खतों का पंजाबी से हिंदी  अनुवाद ......

क दिन मुँह -अँधेरे
दिल का दरवाजा खड़का
दरवाजा खोला ....
कोई सामने खड़ी थी, पहचानी नहीं गई
मैं वही नज़्म हूँ तुझे फिर मिलूंगी
जिसे जाते वक़्त मैं तुझे दे गई थी ....
तुझे याद है कि नहीं मुझे रोज़ सुबह की चाय भी
तुम खुद बना कर देते थे जब मैं लिख रही होती
उसे देख-देख कर और उसे सुन-सुन कर
मुझे वह भी याद आ गई और उसकी नज़्म भी और अपनी चाय भी
पर तुम नज़्म देकर कहाँ चली गई थी
अनलिखी नज़्म लिखने ...?
कहाँ हैं वे नज्में ...?
तुझ तक आते-आते सारी नज्में राह में ही राह हो गईं ..
फिर मत जाना कहीं ....
ठीक है नहीं जाऊँगी .. ...
इस बार मैं अपने आप संग जाग कर सीधी तुम्हारे पास  आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना , चाय पी कर हम पहले की तरह मिलकर
रसोई पकायेंगे और मिलकर घर-घर बनायेंगे...
तुम्हारे रंग कहाँ हैं दिख नहीं रहे ..?
मेरे सारे रंग और हीर गाने लग पड़े हैं
क्या सुरीला चेंज है ....
अब तुम वक़्त के समय  में बैठ हीर गाया करना
और मैं तुम्हारे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर भी और राँझा बनकर भी
और वारिस बनकर भी .....

इमरोज़ ........(अनुवाद : हरकीरत हीर )

Saturday, July 7, 2012

नाम-    सुरजीत कौर
जन्म-    देव नगर , न्यू दिल्ली
शिक्षा-    B.A. Hons., M.Phil. in Punjabi Language and Literature
कृतित्व-   देश और विदेश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित , दो काव्य पुस्तकें - शिकस्त रंग , हे सखी  , नेट पे अपना हिंदी और पंजाबी का www.surjitkaur.blogspot.com www.sirjanhari.blogspot.com नामक ब्लॉग
सम्मान-   अमरीका  एवं भारत की  अन्य साहित्यिक  सभाओं द्वारा सन्मानित
सम्प्रति-    working as an interpreter.

संपर्क-    surjit.sound@gmail.com 
                 905-216-4981 
                 33 Bonistel Crescent
                 Brampton, ON, L7A3G8
                 Canada
सुरजीत कौर की क्षणिकाएं ....(पंजाबी से अनुदित, अनु. हरकीरत 'हीर' )

(१)

ठहर गया ...
चलता-चलता
समुन्द्र भी
जरुर इसने मेरा ख़त
पढ़ लिया होगा ....!!

(२)
यूँ तो ...
रौशनी ही रौशनी है
इस शहर में
पर जिस घर में भी
दस्तक दी , वहीँ
चिराग गुल मिले  ....

(३)

सुहावनी सुब्ह
खुबसूरत मौसम
झील में तैर रही  कुछ बत्तखें
सिखा रही हैं तैरना
सीख रहे हैं चूजे
आनंदित हैं बच्चे
तालियाँ बजाकर ....!!

(४)

हवा भी ..
उसकी गवाह न थी
जो हादसे हुए
दिल के अन्दर

(५)

लिख दिया ...
अपना पता मैंने
हवा के ज़िस्म पर
देना है ग़र तो दे दे
फिर किसी हादसे को ....

(६)

लफ्ज़ शीरी
सुखन शीरी
सूरत शीरी
रब्ब बरकरार रखे
 ये दोस्ती हमारी   ....

(७)

वह...
बिजली बन
कड़कता रहा...
मैं...
घटा बन ...
बरसती रही .....

(८)

जल रहा है दीया
जल रही है सोच कोई
जागेंगे हर्फ़ आज
बनेगी नज़्म कोई
जल दीये जलता चल .....

(९)

सूरज ...
समुन्द्र में उतर गया
पंछी नीड़ों ओर मुड़ गए
एक शख्स अब भी उलझा है
झील की तरंगों में
भूल कर घर का पता ....

(१०)
कच्चा है मन
कच्चा है तन
बता अय  सखी
कौन सा खेल खेलें
मतवाली रुत में ....

अनु. हरकीरत 'हीर'
डॉ. कुञ्ज मेधी की क्षणिकाएं .....(असमिया से अनुवाद )

नाम - डॉ कुञ्ज मेधी
जन्म-१९४२ , १२ नवम्बर
शिक्षा- ऍम ए , पी एच.डी (राजनितिक विज्ञान)
कृतित्व - अब तक पच्चीस पुस्तकें , सात काव्य संग्रह  , चार अनुदित संग्रह ,  संस्मरण यात्रावृत व राजनितिक विषय पर पुस्तकें ....
सम्मान- देश और विदेश से अनेकों सम्मान व प्रशस्ति -पत्र
सम्प्रति - गुवाहाटी विश्व -विद्यालय से अवकाश प्राप्त ....
संपर्क - १८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर , हॉउस न -16
गुवाहाटी-५
मो. 9435104096
(१)
कोरा सा ...

शून्य और खोखले हैं
सभी पल और अनुपल मेरे
मानो दोपहर के सूरज के ताप से
जला हुआ है मेरा ह्रदय
कोरा सा
विमर्श,विधुर .....

(२)
अग्नि परीक्षा....

जलते जलते अंगार हो गई
ज्वाला की चिंगारी मेरी
लेकिन खत्म नहीं हुई अब भी जलकर
अपमान ,लांछना के बीच
फिर अग्नि परीक्षा है मेरी .....

(३)
नारी ....

 नारी हूँ मैं
मैं ही हूँ मेरा परिचय
स्वप्न , नक्षत्र ,पतित
विपन्न आकाश में
सारे विषाद ढोकर भी
छिपाकर जलाती हूँ
मंगल दीप ......
(४)

गांधारी पृथ्वी .....

तमोमय ध्वंस यज्ञ में
अविरत अशुभ आहुति
अवश्यम्भावी परिणाम देखकर
आँखें बांध कर रह जाती है
गांधारी पृथ्वी ......

(५)
बालक की हँसी में .......

मंदिरों में पूजा की सुगंध
मस्जिदों में आजान की ध्वनी
गिर्जा-गुरद्वाराओं की प्रार्थनाओं में
उसी तृप्ति का अनुभव है
जो इक नन्हें बालक की
हँसी में .......

(६)
रजत पुष्प ...

दूर कहीं अन्तरिक्ष में
सोन चिड़िया की चोंच में है
चांदनी का रजत पुष्प
जी चाहता है
मुट्ठी भर कर छिड़क दूँ
इधर-उधर
और उज्जवल कर दूँ इस
अरण्यमय धरती को .....
(७)

खोज ....

जगह-जगह गड़े हैं
मिल के पत्थर ....
उन्हीं निशानों  का सहारा लेकर
हे ईश्वर तुम्हें
ढूंढती फिर रही हूँ
अब तक ......
(८)
परिचित सौरभ .....

मुट्ठी भर उष्म प्रहर में
ह्रदय को टांक दिया है मैंने
धूप भरे आकाश में
ढूंढती हूँ फिर रही हूँ
मंदिर के प्रांगन में
फिर वही
परिचित सौरभ .....
***********************************

अनु : हरकीरत 'हीर'
गुवाहाटी
डॉ सुशिल रहेजा की क्षणिकाएं ......(पंजाबी से अनुदित )

नाम: डॉ सुशिल रहेजा
जन्म: ११सितम्बेर १९६२
शिक्षा : :M.A,LL.B,Ph.D,
कृतित्व: अमबडी (कहानी संग्रह ) , चौरस ग्लोब (उपन्यास), सी कोई (ग़ज़ल संग्रह ), अगले जन्म'च लिखांगा (काव्य संग्रह ), पंजाबी ग़ज़ल डा रूप विधान (शोध प्रबंध ) .......
सम्प्रति- वकालत
संपर्क : drsushilraheja@gmail.com

(१)
मुहब्बत .....

जो मुहब्बत कर सकता है
वही बगावत कर सकता है
जो बगावत कर सकता है
वही मर सकता है
जो मर सकता है
वही मुहब्बत कर सकता है ......

(२)

हिन्दुस्तान......

बेटा
क्या कर रहे हो ....?
पापा ....
हिन्दुस्तान गलत बन गया  था 
रबड़  से  मिटा  रहा  हूँ  .....!

(3)

एहसास .....

मैंने उसे पूछा ...
मुझे भूल तो न जाओगी ...?
वह बोली ...
इन्सान साँस लेना
कब याद रखता है ..?

(४)

ज़िन्दगी ...

ज़िन्दगी ...
कोई मसाला फिल्म नहीं
जिसके  अंत में
सब ठीक हो जाये .....

(५)
तुम्हें भुलाना ....

तुम्हें भुलाने के लिए
शायद मुझे बहुत कुछ करना पड़े ...
 खाली वक़्त में  भी
खुद को ....
व्यस्त  रखना पड़े ....
या बेवजह
उन चीजों को तोड़ना पड़े
जिन्हें कभी तूने छुआ था ......

(६)
मैं बच्चा था खिलौने चाहता था
पर कोई मेरे ढंग का न था ....
मैं जवान हुआ साथी चाहता था
पर यह बात बताने से डरता रहा .....
मैं अधेड़ हुआ नेकी चाहता था
पर कोई तगमा मेरे रंग का न मिला
अब मैं बूढ़ा हुआ ,अपनत्व चाहता हूँ
पर  इक  डर मेरे साथ खांसता है .....

(७)

मैं हर रोज़
कुछ न कुछ भूल जाता हूँ
कभी पर्श
कभी रुमाल
कभी ऐनक
कभी मोबाईल
तो कभी  पैन ...
पर तुम कैसे हो वक़्त ...?
न कभी गिरते हो
न कभी कुछ भूलते  हो ........
(८)
अगर ....
किसी के बारे जानना चाहो
तो
ताज्जुब का कारण यह नहीं होगा
कि
वह मर चुका है
बल्कि यह होगा कि
वह अभी तक जिंदा है ......

अनुवाद - हरकीरत 'हीर'
पंजाबी कवयित्री   सुखविंदर 'अमृत' की क्षणिकाएं .....(अनु . हरकीरत 'हीर')

नाम- सुखविंदर 'अमृत'

जन्म- ११ दिसम्बर १९६३, सदरपुर (लुधियाना)

शिक्षा -  एम् . ए  ( पंजाबी)

कृतित्व- ५ ग़ज़ल संग्रह , २ काव्य संग्रह , गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस के कवि सम्मलेन में भाग , देश-विदेश की अनेकों काव्य गोष्ठियों में भाग , कुछ कवितायें स्कूल व कालेज के सिलेबस में शामिल .

सम्मान- शिरोमणि कवि पुरस्कार (भाषा विभाग पंजाब )व अनेक साहित्यिक अनुष्ठानों द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत
संपर्क- ८४५ आई  ब्लोक , बी . आर. एस नगर , लुधियाना
मो. 9855544773

(१)
लहू की किस्म ....

उसने मेरी नब्ज़ काटकर
मेरे लहू की किस्म धुंध ली
और बेफिक्र होकर तश्दाद करने लगा
वह जान गया था कि मेरा लहू
मोहब्बत के बिना हर शै से
ना वाकिफ है .....

(२)
सांप और मोर ...

कुछ समां आया था
उनके फुंफकारने पर रोष
फिर मन के मोर ने
साँपों के सरों  पर
नाचना सीख लिया ...

(३)

मन में ....

हर पानी के मन में
मरुस्थल था
और मुझे
ज़िस्म की प्यास न थी ....

(४)

शुभचिंतक.....

उसने...
मेरे पंख कुतर कर कहा
देख
मैंने तुझे थोड़ा सा संवारा
और तू कितनी खूबसूरत हो गई ....

(५)
तितलियाँ और फूल ....

जब कागची फूल
तितलियों का मूल्य आंकने लगे
जब तितलियाँ
कागची फूलों को सच्चे सौदागर समझ लें
तो बहारें रूठ जाती हैं .....

(६)
मेरे बदन में .....

मेरे बदन में
जितना लहू था
उससे मैंने
प्यार भरी कवितायें लिख डाली हैं
अब तो बस आँखों में नीर बचा है
क्या तुम मुझे
प्यार करते रहोगे ......?

(७)

चोरी की आग .....

आलणे का मोह करने वाले
आग को चुरा कर
कहाँ रखेगा ....?

(८)
दीया और चन्न  .....

वह रात भर
घर के दीये को बचाता रहा
पर हवाएं
उसका चन्न उड़ा ले गयीं .....

(९)
आग का तंद ...

मैं
बर्फ के तकले पर
आग का तंद डालती रही
और
मेरे एहसासों जितना
कफ़न उतर आया .....

(१०)
प्यास ...

पार होते दरिया को
हाक मारते  वक़्त
ध्यान ही न रहा
कि मैं तो रेत के घर में
रहती हूँ .....

अनु . हरकीरत 'हीर
स्वर्णजीत 'सवी ' की पंजाबी क्षणिकायें ....
नाम- स्वरणजीत 'सवी'
जन्म- २० अक्तू. १९५८ ,लुधियाना (पंजाब)
शिक्षा- ऍम. ए. (अंग्रेजी )
कृतित्व- पोस्टर कविताओं की  पैंतीस चित्र प्रदर्शनियाँ , ७० से अधिक पोस्टर चित्रकला .., कई चित्र प्रदर्शनियाँ , सात काव्य संग्रह -दायरियाँ दी कब्र चों(१९८५) , अवज्ञा (१९८७),दर्द  पियादे होण दा, १९९०,देहि नाद (1994.), काला हाशिया ते सूहा गुलाब (१९९८),डिजायर (English) १९९९,आश्रम ( २००५), माँ  (२००८)

सम्प्रति- आर्ट केव प्रिंटर्स
संपर्क- 1978/2, महाराज  नगर , बिहाइंड  सर्केट हॉउस , लुधिअना
swarnjitsavi@gmail.com
फ़ो . 0161-2774236 , 0987666899
(१)
मंत्र.....

ज़िस्म पर पड़ते चिमटों से
 झुलसता रहा  ज़िस्म
धीमे -धीमे.....
रूह काँप उठी देख बिलखती आँखें
पर वह बाबा ....
 बेरहमी से पीटता गया
 किसी रूह से मुक्त करने की खातिर..... 
पता नहीं कौन से मंत्र
पढ़ी जाता है .....!!!

(२)
झूठ....

  झूठ....
मेरे ज़िस्म की वह किताब है
जो घुन की तरह
चाटती जा रही है हर पल मुझे
और वह गर्द जो धीमे-धीमे
झड़  रही है मेरे ज़िस्म से
इस दहशत का कारण है
पता नहीं मैं कब जिन्दा हूँ
कब नहीं ....
(3)
साजिश  .....

साजिश है ....
हमारी गैरत वाली आँख को
हमसे दूर करने की
साजिश है ....
ताबूत में लाशों की जगह
जीते ज़िस्म रख
उन्हें मुर्दा घोषित करने की ...
साजिश है ....
हमें एकलव्य की जून में डाल
हमारे कारगर हथियारों को हथियाने की .....
(4)

पंजाब.....

यह मिटटी
बड़ी उपजाऊ है
पर कोई खूनी क्यारियाँ बना
  रोप गया है गोलियां
और उग  आये हैं धमाके
तो मिट्टी का क्या दोष ..?
मिट्टी तो बड़ी उपजाऊ है  .....
(5)
धर्म....

हथियारों की
नोक पर तंगी
बुजुर्ग बेबस
 देह .....
(6)
सरहदें.....

यह लकीरें ...
तकदीर की तो नहीं ....
फिर दिन-पर-दिन
 गहरी क्यों होती जा रही हैं .....?
क्यों रिस रहा है खून ....?
आखिर यह ...
मिट क्यों नहीं जाता .....?

(7)
देश का भविष्य ...

यह बच्चा ....
बेबस जवानी के झटको की पैदावार है
यह ज़र्द चेहरा ..
गन्दी बस्तियों के फुटपाथों पर
कमजोर टांगों और बेजान हाथों से
देश का भविष्य लिखेगा .....

(8)
ईश्वर....

क्या हूँ मैं ...?
हवा, चेतना,शब्द ,काल
मैं नहीं .....
तो इक पारदर्शी सा हर तरफ
क्या है जो देख रहा है
मेरे अन्दर का  सबकुछ
मेरे ही जरिये ....
******************************
**
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

दर्शन दरवेश की क्षणिकाएं .......(पंजाबी से अनुदित )
नाम- सुखदर्शन सेखों
शिक्षा - स्नातक , डिप्लोमा इन नैचुरोपैथी
कृतित्व- टी.वी धारावाहिक दाने अनार के (
लेखक निर्देशक  ),ए.डी फिल्म(हिंदुस्तान कम्बाइन,गुरु रिपेयर ,डिस्कवरी जींस , राजा नस्बर, बिसलेरी, ओक्सेम्बेर्ग, डोकोमेन्ट्री फिल्म (चौपाल गिद्दा , नगर कीर्तन , एक अकेली लड़की, यू आर इन अ क्यू ) टेली फिल्म (एक मसीहा होर, सितारों से आगे , बचपन डा प्यार , है मीरा  रानिये, धोखा , झूठे साजना, सोनिका तेरे बिन , बरसात आदि )
संवाद लेखन , धारावाहिकों के शीर्षक गीतों का लेखन , गीत, नज्में , कहानियाँ ,उपन्यास ,फीचर फिल्म  
सम्प्रति - फिल्म निर्माता निर्देशक और लेखक 
संपर्क -  darshan darvesh M.I.G.

1362/11 , sector -65
S.A.S Nagar , Mohali-160062 (punjab )

sukhdrshnsekhon@in.com
adablok@yahoo.com
adablok@gmail.com
 Phone: +919779955887, +919041411198 .

जब भी मिलता है
उसमें आग  लगी होती है
और वह मुझे
 झुलसा जाता है
सारे का सारा
भीतर तक .....
(२)
राख़ के ढेर में
तुम देख सकते हो
उसका तांडव
पर वह ...
मेरे अन्दर कहीं
संभाल रहा होता है
नागमणि....
(३)
वोडका के नशे सा बातें करता
वह तुम्हारे अन्दर
ज़हर का छींटा देता है
और तुम जब अपनी नसों में
उतरता महसूस करते हो ज़हर
तब वह वर्तमान के कुएं में
उतर रहा होता है
और तुम उसके साथ चल रहे होते हो......

(४)

वो भीतर से गहरा है
वानगाग के चित्रों जैसा
और शोभा सिंह की तुलिका के
स्पर्श जितना ....
ऊपर से सरल है
तरल भी
और जुझारू भी .....

(५)
संदीपिका
उसकी पत्नी नहीं
पूर्ण प्रेमिका है
ग़र वह पत्नी तक ही महदूद होती
तब  वह शायर नहीं
इक
चिड़चिड़ा
अध्यापक होता .....
(6)

जब वे किसी भी गीत को
मर्सिया बनते देखते
तो
अपने ही
अन-पहचाने बोलों के परदे में चलते
इतने खामोश हो जाते थे
कि....
क़त्लगाह का खौफ़ भी
चला जाता था
दूर  .....

(७)

तेरे सिवा उसे
कोई न मिला
जो उसकी कब्र के कुतबे पे
चार सतरें  लिख सकता
विलाप की ....
और उस ख़ामोशी को
दे सकता इक नाम ....

(८)
अब तो उसे
जो भी तकता है 
इक रेतेली सी हँसी
हँस जाता है ...
और उसके तप को
कह जाता है
दर-ब-दर का
इक काला दाग ......

(९)
तुम....
लौट आना
मज़ार से
मिलकर
आंसुओं को  .....

अनु: हरकीरत 'हीर'
गुवाहाटी


धर्मेन्द्र सिंह सेखों की क्षणिकाएं .......(पंजाबी से अनुदित , अनु: हरकीरत 'हीर')

नाम  :    धर्मेन्द्र  सेखों
जन्म  :   8 अप्रैल 1977
शिक्षा  :   ऍम.ए..बी.एड ,PGDCA,  IT
कृतित्व : कासिका ( काव्य संग्रह) , नेट पर dsekhon.blogspot.com नामक ब्लॉग 
संपर्क  :  गाँव- बोडावाल , तहिसाल , बुढलाडा , जिला मनसा  -151502
मौजूदा पता :   615, फौज -2, मौहाली
मो.  : +91 89680 66775
ई मेल  :    dharminderbittu@gmail.com



(१)
उन्होंने  ...
फिर  किस  वक़्त
छेड़ दी हथियारों की बात ?
जरा पूछो तो सही
जिनसे मैं सारी रात
फूलों की बात करता रहा ......!!
(२)
तेरे ही कारण
आज धूप निकली
तेरे ही कारण फूल खिले
और शुरू कर दिया
भंवरों ने गीत गाना
तेरे ही कारण
किण मिन बारिश हुई
तेरे  ही  कारण 
आँसू हैं इन आँखों में  .....
(3)
मेरी  कविता 
नहीं  करती  सामाजिक
सरोकारों  की  बात
मेरी कविता  नहीं  करती 
आर्थिक समस्याओं की भी  बात
यह नहीं करती चोरी -डकैती  पे सवाल
मेरी  कविता  देखती है
ढाबे पे ...
रोटियाँ बांटता वह बाल .....
(4)
सूखे पत्तों ,
हवाओं दरख्तों  की
बड़ी अजीब सी कविता
कलिष्ट भरे शब्दों का डाल जंजाल
मैं उसे सुनाता हूँ
देख मेरी नई कविता ...
वह सुनती है ,मुस्कुराती है
बहुत बढ़िया कह कर
गहरी सांसे लेने लगती है
बोली -यहाँ दम घुटता है
चलो कहीं हरियाली ढूँढें ....
(५)
जब हम जुदा हुए थे
तब यूँ ही इक छोटा सा वादा था
'' फिर मिलेंगे .''
आज उस जगह पर उगा
छोटा सा पौधा
दरख़्त  बन गया है
पर न कभी तुम लौट पाई
और न मैं ......

(6)

कभी-कभी की बात ....


उसे जाकर बता दे
अंधे ज़ख्मों की
चलितरी हँसी
अँधेरे की होंद से
मुकरना हो गया
चल यार
घूँट पी
कविता फिर लिखेंगे ....


संपर्क : गाँव-बोड़ावाल (मनसा) पंजाब-१५१५०२
मो 08968066775