इमरोज़ जी की कुछ और नज्में .....
नया जन्मदिन ....
वह किसी की बीवी थी
या किसी की माँ
या किसी की दोस्त
मुझे मिली
मेरा सब कुछ हो के मिली
इक नया जन्म हुआ
उसका भी और मेरा भी .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(2)
हाजिर ही ...
तुम बनी रही
अपने आप संग हाजिर
भले मुश्किलें भी बनी रहें
अपने आप संग चलने वालों के
साथ ही सब कुछ चलता है
मुश्किलें भी मुहब्बतें भी ...
सोहणियों और हीरों संग
दरिया चलते रहते हैं
और मुश्किलें डूबती ....
तुम बनी रहो अपने आप संग हाजिर
हाजिर ही दरिया होते हैं
सब रुकावटें तैरने वाले
पार करने वाले .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(3)
खुशबू चारो ओर की ...
इक कब्र का फूल
तेरा भी मेरा भी
पर खुशबू चोरों ओर की
वैसे ..
धरती का फूल तेरे जैसा मेरे जैसा
धरती से जन्म लेता
धरती पर खिलता
पर खुशबू चारो ओर की
फ़ैल जाती तुझ तक
जहां भी तू हो
जहां भी मैं होऊँ ....
अपनी झोली देख
मैं भी देखता हूँ
झोली से झोली भरी .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(4)
समझ जी कर बनती है .....
ग्रन्थ भी और अपना आप भी
लिखा हुआ पढ़ कर समझ नहीं बनती
सब लिखा हुआ, जी कर समझ बनती है ...
बगीचे में
फूलों से खेलता हूँ
घर में माँ संग
और ख्यालों में
अपने आप से खेलता हूँ ....
इक दिन फूलों संग खेल कर
इक फूल से पूछा -
वीराने में भी
फूल कैसे खिल पड़ता है ?
मैं बता नहीं सकता
कभी फूल बनकर देखना
खुद ब खुद जान जाओगे .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
नया जन्मदिन ....
वह किसी की बीवी थी
या किसी की माँ
या किसी की दोस्त
मुझे मिली
मेरा सब कुछ हो के मिली
इक नया जन्म हुआ
उसका भी और मेरा भी .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(2)
हाजिर ही ...
तुम बनी रही
अपने आप संग हाजिर
भले मुश्किलें भी बनी रहें
अपने आप संग चलने वालों के
साथ ही सब कुछ चलता है
मुश्किलें भी मुहब्बतें भी ...
सोहणियों और हीरों संग
दरिया चलते रहते हैं
और मुश्किलें डूबती ....
तुम बनी रहो अपने आप संग हाजिर
हाजिर ही दरिया होते हैं
सब रुकावटें तैरने वाले
पार करने वाले .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(3)
खुशबू चारो ओर की ...
इक कब्र का फूल
तेरा भी मेरा भी
पर खुशबू चोरों ओर की
वैसे ..
धरती का फूल तेरे जैसा मेरे जैसा
धरती से जन्म लेता
धरती पर खिलता
पर खुशबू चारो ओर की
फ़ैल जाती तुझ तक
जहां भी तू हो
जहां भी मैं होऊँ ....
अपनी झोली देख
मैं भी देखता हूँ
झोली से झोली भरी .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'
(4)
समझ जी कर बनती है .....
ग्रन्थ भी और अपना आप भी
लिखा हुआ पढ़ कर समझ नहीं बनती
सब लिखा हुआ, जी कर समझ बनती है ...
बगीचे में
फूलों से खेलता हूँ
घर में माँ संग
और ख्यालों में
अपने आप से खेलता हूँ ....
इक दिन फूलों संग खेल कर
इक फूल से पूछा -
वीराने में भी
फूल कैसे खिल पड़ता है ?
मैं बता नहीं सकता
कभी फूल बनकर देखना
खुद ब खुद जान जाओगे .....
इमरोज़ -
अनु . हरकीरत 'हीर'