Sunday, July 8, 2012

गुरूद्वारे की बेटी .....

मेरे  बापू गुरूद्वारे के पाठी  हैं
जब मैं पूछने योग्य हुई
बापू से  पूछा , बापू लोग मुझे
गुरूद्वारे की बेटी क्यों कहते हैं ....?
पुत्तर मैंने तुझे पाला है
तुझे जन्म देने वाली माँ
तुझे कपड़े में लपेट कर मुँह -अँधेरे
गुरूद्वारे के हवाले कर
खुद पता नहीं कहाँ चली गई है
तेरे रोने की आवाज़ ने मुझे जगा दिया, बुला लिया
गुरूद्वारे में माथा टेक कर मैं
तुझे गले से लगाकर अपने कमरे में ले आया
मैंने जब भी पाठ किया कभी तुझे पास लिटाकर
कभी पास बिठाकर , कभी सुलाकर तो कभी जगाकर
पाठ  करता आया हूँ ....

तुम बकरी के दूध से तो कभी गाँव की रोटियों से
तो कभी गुरूद्वारे का पाठ सुन-सुन बड़ी हुई हो ....
पर पता नहीं तुझे पाठ सुनकर कभी याद क्यों नहीं होता
हाँ ; बापू मुझे पता है पर समझ नहीं आता क्यों ...?
एक लड़का है जो दसवीं में पढता है
गुरूद्वारे में माथा टेक सिर्फ मुझे देख चला जाता है
कभी दो घड़ी  बैठ जाता है तो कभी मुझे
एक फूल दे चुपचाप चला जाता है ....
अब मैं भी जवान हो गई हूँ और समझ भी जवान हो गई है
जब भी मैं पाठ सुनती हूँ जो कभी नहीं हुआ
वह होने लगता  है ...
पाठ के शब्द नहीं सुनते सिर्फ अर्थ ही सुनाई देते हैं
कल से सोच रही हूँ
मुझे अर्थ सुनाई देते हैं ये कोई हैरानी वाली बात नहीं
मुझे शब्द नहीं सुनाई देते यह भी कोई हैरानी वाली बात नहीं
शब्दों ने अर्थ पहुंचा दिए बात पूरी हो गई
पहुँचने वाले के पास अर्थ पहुँच गए बात पूरी हो गई ...

आज गाँव की रोटी खा रही थी कि
वह लड़का दसवीं में पढता स्कूल जाता याद आ गया
अपने परांठे में से आधा परांठा  रुमाल में लपेट कर
जाते-जाते रोज़ दे जाता ...
कोई है जिसके लिए मैं गुरूद्वारे की बेटी से ज्यादा
कुछ और भी थी ...

इक दिन गुरूद्वारे में माथा टेक वह  मेरे पास आ बैठा
यह बताने के लिए कि उसने दसवीं पास कर ली है
बातें करते वक़्त उसने  किसी बात में गाली दे दी
मैंने कहा , यह क्या बोले  तुम ...?
वह समझ गया ...
मेरे इस 'क्या बोले' ने उसकी जुबान साफ-सुथरी कर दी
कालेज जाने से पहले मुझे खास तौर पर  मिलने आया -
'तुम्हारे जैसा कोई टीचर नहीं देखा ..'
स्कूलों में थप्पड़ों से , धमकियों से , बुरी नियत .से पढाई हो रही है
निरादर से आदर नहीं पढ़ाया जा सकता
तुम जैसे टीचरों का युग कब आएगा
तुम उस युग की पहली टीचर बन जाना
युग हमेशा अकेले ही कोई बदलता है ....

वह कालेज से पढ़कर भी आ गया
सयाना  भी हो गया और सुंदर भी
इक दिन मुझे मिलने आया
कुछ कहना चाहता था
मैं समझ गई वह क्या चाहता है ...

देखो मैं गुरूद्वारे में जन्मी -पली हूँ
अन्दर-बाहर से गुरुग्वारे की बेटी हूँ
और गुरूद्वारे की हूँ भी
यह तुम समझ सकते हो
मुझे अच्छा लगता है
 बड़ा अच्छा लगता है ...

किसी अच्छे घर की
खुबसूरत लड़की से विवाह कर लो
आजकल जो मुझे आता है
मैं गाँव कि औरतों को गुरूद्वारे में बुलाकर
पाठ में से सिर्फ अर्थ सुनने सीखा रही हूँ
तुम भी अपनी बीवी को गुरूद्वारे
मेरे पास भेज दिया करना
मैं उसे भी पाठ में से
सिर्फ अर्थ सुनना सीखा दूंगी ......
हाँ सिर्फ अर्थ ......!!

       .................. इमरोज़ (अनु: हरकीरत हीर )
वक़्त और मुहब्बत .....


वक़्त मुहब्बत को
अक्सर
ठहर कर देखता है
पर कभी-कभी
साथ चल कर भी
देख लेता है .......


                 इमरोज़ .....(अनु: हरकीरत हीर )
इमरोज़ का इक ख़त हीर के नाम ...............


जाने मन जाने
जब मैंने हक़ीर को हीर लिखा था
मुझे न अपना पता था न तेरा
मैंने तो अपना वियुल ठीक किया था
पर खुद ही वियुल के साथ कुछ और भी हो गया था
जो हुआ था मैं उससे शर्मा गया था
पर जब मैं शर्मा रहा था
हीर को हीर देखकर लिख रहा था
तेरी नज़्म ने
जिस एहसास और जिस शिद्दत के साथ
यूँ  लिखा है जैसे तुमने ये खुद भोगा हो खुद जिया हो
तुम रियर हीर हो वारिस मूरत
अपना आप लिखा है
हीर- हीर होकर  राँझा-राँझा लिखा है, इमरोज़ लिखा है
प्यार कभी नहीं शर्माता
सच्च कभी नहीं शर्माता
हीर कभी नहीं शर्माती न लिखते वक़्त न जीते वक़्त .....
हम जीते हैं
कि हमें प्यार करना आ जाये
हम प्यार करते हैं
कि हमें जीना आ जाये ......

               इमरोज़ ......(अनु; हरकीरत हीर )
हीर को लिखे खतों में इमरोज़ की इक नज़्म..............


अब तुम ...
कहीं मत जाना
न गुवाहाटी
न दिल्ली
न तख़्त-हजारे
बस अपने भीतर  रहना
यह अपना राँझा ही
कह सकता है
यह अपना वारिस
ही लिख सकता है ......

              इमरोज़ ....(अनु: हरकीरत हीर )
इमरोज़ जी के मेरे पास ढेरों ख़त पड़े हैं ...अक्सर वे नज़्म रूप में ही ख़त लिखते हैं ....उनके लिखे कुछ खतों का हिंदी .अनुवाद ....

मनचाही किस्मत....

तुम्हारे  कमरे लगीं हुई
तुम्हारी पेंटिंग्स कहाँ हैं ...?
मेरे आज को जगाकर सारी की सारी
मेरा कल हो गईं हैं
हँसकर  कहने लगी
जागकर क्या कर रहे हो ...?
आज तक मर्ज़ी की पेंटिंग नहीं बना पाए ...?
मर्ज़ी की पेंटिंग बनाने के लिए
अपने आपको मर्ज़ी का बना रहा हूँ
यह सोच सुनकर , यह रेयर सोच सुनकर
वह सोचने लग पड़ी ...
किसी पढाई में यह सोच क्यों नहीं
न बाहर की  पढाई में , न अन्दर की पढाई में 
सोचना छोड़
आ अपनी मर्ज़ी के रंग देखें
तुम मेरी आँखों में देखो...
और मैं तुम्हारी आँखों में देखता हूँ
सादा- सहज ज़िन्दगी के खुबसूरत रंग
तुम भी देख सकती हो और मैं भी
ज़िन्दगी की पेंटिंग अपने - अपने अनुभवों से
तुम मेरे लिए बनाओ और मैं तुम्हारे लिए बनता हूँ ....
मेरी पीठ पर अब तुम क्या लिख रही हो ...?
जो सिर्फ तुम्हारी पीठ पर ही लिख सकती हूँ
अपनी किस्मत ....
अपनी मनचाही किस्मत .......!!

                           इमरोज़.......(अनु; हरकीरत हीर )


इमरोज़ जी द्वारा मुझे लिखे नज़्म रूपी खतों का पंजाबी से हिंदी  अनुवाद ......

क दिन मुँह -अँधेरे
दिल का दरवाजा खड़का
दरवाजा खोला ....
कोई सामने खड़ी थी, पहचानी नहीं गई
मैं वही नज़्म हूँ तुझे फिर मिलूंगी
जिसे जाते वक़्त मैं तुझे दे गई थी ....
तुझे याद है कि नहीं मुझे रोज़ सुबह की चाय भी
तुम खुद बना कर देते थे जब मैं लिख रही होती
उसे देख-देख कर और उसे सुन-सुन कर
मुझे वह भी याद आ गई और उसकी नज़्म भी और अपनी चाय भी
पर तुम नज़्म देकर कहाँ चली गई थी
अनलिखी नज़्म लिखने ...?
कहाँ हैं वे नज्में ...?
तुझ तक आते-आते सारी नज्में राह में ही राह हो गईं ..
फिर मत जाना कहीं ....
ठीक है नहीं जाऊँगी .. ...
इस बार मैं अपने आप संग जाग कर सीधी तुम्हारे पास  आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना , चाय पी कर हम पहले की तरह मिलकर
रसोई पकायेंगे और मिलकर घर-घर बनायेंगे...
तुम्हारे रंग कहाँ हैं दिख नहीं रहे ..?
मेरे सारे रंग और हीर गाने लग पड़े हैं
क्या सुरीला चेंज है ....
अब तुम वक़्त के समय  में बैठ हीर गाया करना
और मैं तुम्हारे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर भी और राँझा बनकर भी
और वारिस बनकर भी .....

इमरोज़ ........(अनुवाद : हरकीरत हीर )

Saturday, July 7, 2012

नाम-    सुरजीत कौर
जन्म-    देव नगर , न्यू दिल्ली
शिक्षा-    B.A. Hons., M.Phil. in Punjabi Language and Literature
कृतित्व-   देश और विदेश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित , दो काव्य पुस्तकें - शिकस्त रंग , हे सखी  , नेट पे अपना हिंदी और पंजाबी का www.surjitkaur.blogspot.com www.sirjanhari.blogspot.com नामक ब्लॉग
सम्मान-   अमरीका  एवं भारत की  अन्य साहित्यिक  सभाओं द्वारा सन्मानित
सम्प्रति-    working as an interpreter.

संपर्क-    surjit.sound@gmail.com 
                 905-216-4981 
                 33 Bonistel Crescent
                 Brampton, ON, L7A3G8
                 Canada
सुरजीत कौर की क्षणिकाएं ....(पंजाबी से अनुदित, अनु. हरकीरत 'हीर' )

(१)

ठहर गया ...
चलता-चलता
समुन्द्र भी
जरुर इसने मेरा ख़त
पढ़ लिया होगा ....!!

(२)
यूँ तो ...
रौशनी ही रौशनी है
इस शहर में
पर जिस घर में भी
दस्तक दी , वहीँ
चिराग गुल मिले  ....

(३)

सुहावनी सुब्ह
खुबसूरत मौसम
झील में तैर रही  कुछ बत्तखें
सिखा रही हैं तैरना
सीख रहे हैं चूजे
आनंदित हैं बच्चे
तालियाँ बजाकर ....!!

(४)

हवा भी ..
उसकी गवाह न थी
जो हादसे हुए
दिल के अन्दर

(५)

लिख दिया ...
अपना पता मैंने
हवा के ज़िस्म पर
देना है ग़र तो दे दे
फिर किसी हादसे को ....

(६)

लफ्ज़ शीरी
सुखन शीरी
सूरत शीरी
रब्ब बरकरार रखे
 ये दोस्ती हमारी   ....

(७)

वह...
बिजली बन
कड़कता रहा...
मैं...
घटा बन ...
बरसती रही .....

(८)

जल रहा है दीया
जल रही है सोच कोई
जागेंगे हर्फ़ आज
बनेगी नज़्म कोई
जल दीये जलता चल .....

(९)

सूरज ...
समुन्द्र में उतर गया
पंछी नीड़ों ओर मुड़ गए
एक शख्स अब भी उलझा है
झील की तरंगों में
भूल कर घर का पता ....

(१०)
कच्चा है मन
कच्चा है तन
बता अय  सखी
कौन सा खेल खेलें
मतवाली रुत में ....

अनु. हरकीरत 'हीर'
डॉ. कुञ्ज मेधी की क्षणिकाएं .....(असमिया से अनुवाद )

नाम - डॉ कुञ्ज मेधी
जन्म-१९४२ , १२ नवम्बर
शिक्षा- ऍम ए , पी एच.डी (राजनितिक विज्ञान)
कृतित्व - अब तक पच्चीस पुस्तकें , सात काव्य संग्रह  , चार अनुदित संग्रह ,  संस्मरण यात्रावृत व राजनितिक विषय पर पुस्तकें ....
सम्मान- देश और विदेश से अनेकों सम्मान व प्रशस्ति -पत्र
सम्प्रति - गुवाहाटी विश्व -विद्यालय से अवकाश प्राप्त ....
संपर्क - १८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर , हॉउस न -16
गुवाहाटी-५
मो. 9435104096
(१)
कोरा सा ...

शून्य और खोखले हैं
सभी पल और अनुपल मेरे
मानो दोपहर के सूरज के ताप से
जला हुआ है मेरा ह्रदय
कोरा सा
विमर्श,विधुर .....

(२)
अग्नि परीक्षा....

जलते जलते अंगार हो गई
ज्वाला की चिंगारी मेरी
लेकिन खत्म नहीं हुई अब भी जलकर
अपमान ,लांछना के बीच
फिर अग्नि परीक्षा है मेरी .....

(३)
नारी ....

 नारी हूँ मैं
मैं ही हूँ मेरा परिचय
स्वप्न , नक्षत्र ,पतित
विपन्न आकाश में
सारे विषाद ढोकर भी
छिपाकर जलाती हूँ
मंगल दीप ......
(४)

गांधारी पृथ्वी .....

तमोमय ध्वंस यज्ञ में
अविरत अशुभ आहुति
अवश्यम्भावी परिणाम देखकर
आँखें बांध कर रह जाती है
गांधारी पृथ्वी ......

(५)
बालक की हँसी में .......

मंदिरों में पूजा की सुगंध
मस्जिदों में आजान की ध्वनी
गिर्जा-गुरद्वाराओं की प्रार्थनाओं में
उसी तृप्ति का अनुभव है
जो इक नन्हें बालक की
हँसी में .......

(६)
रजत पुष्प ...

दूर कहीं अन्तरिक्ष में
सोन चिड़िया की चोंच में है
चांदनी का रजत पुष्प
जी चाहता है
मुट्ठी भर कर छिड़क दूँ
इधर-उधर
और उज्जवल कर दूँ इस
अरण्यमय धरती को .....
(७)

खोज ....

जगह-जगह गड़े हैं
मिल के पत्थर ....
उन्हीं निशानों  का सहारा लेकर
हे ईश्वर तुम्हें
ढूंढती फिर रही हूँ
अब तक ......
(८)
परिचित सौरभ .....

मुट्ठी भर उष्म प्रहर में
ह्रदय को टांक दिया है मैंने
धूप भरे आकाश में
ढूंढती हूँ फिर रही हूँ
मंदिर के प्रांगन में
फिर वही
परिचित सौरभ .....
***********************************

अनु : हरकीरत 'हीर'
गुवाहाटी
डॉ सुशिल रहेजा की क्षणिकाएं ......(पंजाबी से अनुदित )

नाम: डॉ सुशिल रहेजा
जन्म: ११सितम्बेर १९६२
शिक्षा : :M.A,LL.B,Ph.D,
कृतित्व: अमबडी (कहानी संग्रह ) , चौरस ग्लोब (उपन्यास), सी कोई (ग़ज़ल संग्रह ), अगले जन्म'च लिखांगा (काव्य संग्रह ), पंजाबी ग़ज़ल डा रूप विधान (शोध प्रबंध ) .......
सम्प्रति- वकालत
संपर्क : drsushilraheja@gmail.com

(१)
मुहब्बत .....

जो मुहब्बत कर सकता है
वही बगावत कर सकता है
जो बगावत कर सकता है
वही मर सकता है
जो मर सकता है
वही मुहब्बत कर सकता है ......

(२)

हिन्दुस्तान......

बेटा
क्या कर रहे हो ....?
पापा ....
हिन्दुस्तान गलत बन गया  था 
रबड़  से  मिटा  रहा  हूँ  .....!

(3)

एहसास .....

मैंने उसे पूछा ...
मुझे भूल तो न जाओगी ...?
वह बोली ...
इन्सान साँस लेना
कब याद रखता है ..?

(४)

ज़िन्दगी ...

ज़िन्दगी ...
कोई मसाला फिल्म नहीं
जिसके  अंत में
सब ठीक हो जाये .....

(५)
तुम्हें भुलाना ....

तुम्हें भुलाने के लिए
शायद मुझे बहुत कुछ करना पड़े ...
 खाली वक़्त में  भी
खुद को ....
व्यस्त  रखना पड़े ....
या बेवजह
उन चीजों को तोड़ना पड़े
जिन्हें कभी तूने छुआ था ......

(६)
मैं बच्चा था खिलौने चाहता था
पर कोई मेरे ढंग का न था ....
मैं जवान हुआ साथी चाहता था
पर यह बात बताने से डरता रहा .....
मैं अधेड़ हुआ नेकी चाहता था
पर कोई तगमा मेरे रंग का न मिला
अब मैं बूढ़ा हुआ ,अपनत्व चाहता हूँ
पर  इक  डर मेरे साथ खांसता है .....

(७)

मैं हर रोज़
कुछ न कुछ भूल जाता हूँ
कभी पर्श
कभी रुमाल
कभी ऐनक
कभी मोबाईल
तो कभी  पैन ...
पर तुम कैसे हो वक़्त ...?
न कभी गिरते हो
न कभी कुछ भूलते  हो ........
(८)
अगर ....
किसी के बारे जानना चाहो
तो
ताज्जुब का कारण यह नहीं होगा
कि
वह मर चुका है
बल्कि यह होगा कि
वह अभी तक जिंदा है ......

अनुवाद - हरकीरत 'हीर'
पंजाबी कवयित्री   सुखविंदर 'अमृत' की क्षणिकाएं .....(अनु . हरकीरत 'हीर')

नाम- सुखविंदर 'अमृत'

जन्म- ११ दिसम्बर १९६३, सदरपुर (लुधियाना)

शिक्षा -  एम् . ए  ( पंजाबी)

कृतित्व- ५ ग़ज़ल संग्रह , २ काव्य संग्रह , गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस के कवि सम्मलेन में भाग , देश-विदेश की अनेकों काव्य गोष्ठियों में भाग , कुछ कवितायें स्कूल व कालेज के सिलेबस में शामिल .

सम्मान- शिरोमणि कवि पुरस्कार (भाषा विभाग पंजाब )व अनेक साहित्यिक अनुष्ठानों द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत
संपर्क- ८४५ आई  ब्लोक , बी . आर. एस नगर , लुधियाना
मो. 9855544773

(१)
लहू की किस्म ....

उसने मेरी नब्ज़ काटकर
मेरे लहू की किस्म धुंध ली
और बेफिक्र होकर तश्दाद करने लगा
वह जान गया था कि मेरा लहू
मोहब्बत के बिना हर शै से
ना वाकिफ है .....

(२)
सांप और मोर ...

कुछ समां आया था
उनके फुंफकारने पर रोष
फिर मन के मोर ने
साँपों के सरों  पर
नाचना सीख लिया ...

(३)

मन में ....

हर पानी के मन में
मरुस्थल था
और मुझे
ज़िस्म की प्यास न थी ....

(४)

शुभचिंतक.....

उसने...
मेरे पंख कुतर कर कहा
देख
मैंने तुझे थोड़ा सा संवारा
और तू कितनी खूबसूरत हो गई ....

(५)
तितलियाँ और फूल ....

जब कागची फूल
तितलियों का मूल्य आंकने लगे
जब तितलियाँ
कागची फूलों को सच्चे सौदागर समझ लें
तो बहारें रूठ जाती हैं .....

(६)
मेरे बदन में .....

मेरे बदन में
जितना लहू था
उससे मैंने
प्यार भरी कवितायें लिख डाली हैं
अब तो बस आँखों में नीर बचा है
क्या तुम मुझे
प्यार करते रहोगे ......?

(७)

चोरी की आग .....

आलणे का मोह करने वाले
आग को चुरा कर
कहाँ रखेगा ....?

(८)
दीया और चन्न  .....

वह रात भर
घर के दीये को बचाता रहा
पर हवाएं
उसका चन्न उड़ा ले गयीं .....

(९)
आग का तंद ...

मैं
बर्फ के तकले पर
आग का तंद डालती रही
और
मेरे एहसासों जितना
कफ़न उतर आया .....

(१०)
प्यास ...

पार होते दरिया को
हाक मारते  वक़्त
ध्यान ही न रहा
कि मैं तो रेत के घर में
रहती हूँ .....

अनु . हरकीरत 'हीर
स्वर्णजीत 'सवी ' की पंजाबी क्षणिकायें ....
नाम- स्वरणजीत 'सवी'
जन्म- २० अक्तू. १९५८ ,लुधियाना (पंजाब)
शिक्षा- ऍम. ए. (अंग्रेजी )
कृतित्व- पोस्टर कविताओं की  पैंतीस चित्र प्रदर्शनियाँ , ७० से अधिक पोस्टर चित्रकला .., कई चित्र प्रदर्शनियाँ , सात काव्य संग्रह -दायरियाँ दी कब्र चों(१९८५) , अवज्ञा (१९८७),दर्द  पियादे होण दा, १९९०,देहि नाद (1994.), काला हाशिया ते सूहा गुलाब (१९९८),डिजायर (English) १९९९,आश्रम ( २००५), माँ  (२००८)

सम्प्रति- आर्ट केव प्रिंटर्स
संपर्क- 1978/2, महाराज  नगर , बिहाइंड  सर्केट हॉउस , लुधिअना
swarnjitsavi@gmail.com
फ़ो . 0161-2774236 , 0987666899
(१)
मंत्र.....

ज़िस्म पर पड़ते चिमटों से
 झुलसता रहा  ज़िस्म
धीमे -धीमे.....
रूह काँप उठी देख बिलखती आँखें
पर वह बाबा ....
 बेरहमी से पीटता गया
 किसी रूह से मुक्त करने की खातिर..... 
पता नहीं कौन से मंत्र
पढ़ी जाता है .....!!!

(२)
झूठ....

  झूठ....
मेरे ज़िस्म की वह किताब है
जो घुन की तरह
चाटती जा रही है हर पल मुझे
और वह गर्द जो धीमे-धीमे
झड़  रही है मेरे ज़िस्म से
इस दहशत का कारण है
पता नहीं मैं कब जिन्दा हूँ
कब नहीं ....
(3)
साजिश  .....

साजिश है ....
हमारी गैरत वाली आँख को
हमसे दूर करने की
साजिश है ....
ताबूत में लाशों की जगह
जीते ज़िस्म रख
उन्हें मुर्दा घोषित करने की ...
साजिश है ....
हमें एकलव्य की जून में डाल
हमारे कारगर हथियारों को हथियाने की .....
(4)

पंजाब.....

यह मिटटी
बड़ी उपजाऊ है
पर कोई खूनी क्यारियाँ बना
  रोप गया है गोलियां
और उग  आये हैं धमाके
तो मिट्टी का क्या दोष ..?
मिट्टी तो बड़ी उपजाऊ है  .....
(5)
धर्म....

हथियारों की
नोक पर तंगी
बुजुर्ग बेबस
 देह .....
(6)
सरहदें.....

यह लकीरें ...
तकदीर की तो नहीं ....
फिर दिन-पर-दिन
 गहरी क्यों होती जा रही हैं .....?
क्यों रिस रहा है खून ....?
आखिर यह ...
मिट क्यों नहीं जाता .....?

(7)
देश का भविष्य ...

यह बच्चा ....
बेबस जवानी के झटको की पैदावार है
यह ज़र्द चेहरा ..
गन्दी बस्तियों के फुटपाथों पर
कमजोर टांगों और बेजान हाथों से
देश का भविष्य लिखेगा .....

(8)
ईश्वर....

क्या हूँ मैं ...?
हवा, चेतना,शब्द ,काल
मैं नहीं .....
तो इक पारदर्शी सा हर तरफ
क्या है जो देख रहा है
मेरे अन्दर का  सबकुछ
मेरे ही जरिये ....
******************************
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अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

दर्शन दरवेश की क्षणिकाएं .......(पंजाबी से अनुदित )
नाम- सुखदर्शन सेखों
शिक्षा - स्नातक , डिप्लोमा इन नैचुरोपैथी
कृतित्व- टी.वी धारावाहिक दाने अनार के (
लेखक निर्देशक  ),ए.डी फिल्म(हिंदुस्तान कम्बाइन,गुरु रिपेयर ,डिस्कवरी जींस , राजा नस्बर, बिसलेरी, ओक्सेम्बेर्ग, डोकोमेन्ट्री फिल्म (चौपाल गिद्दा , नगर कीर्तन , एक अकेली लड़की, यू आर इन अ क्यू ) टेली फिल्म (एक मसीहा होर, सितारों से आगे , बचपन डा प्यार , है मीरा  रानिये, धोखा , झूठे साजना, सोनिका तेरे बिन , बरसात आदि )
संवाद लेखन , धारावाहिकों के शीर्षक गीतों का लेखन , गीत, नज्में , कहानियाँ ,उपन्यास ,फीचर फिल्म  
सम्प्रति - फिल्म निर्माता निर्देशक और लेखक 
संपर्क -  darshan darvesh M.I.G.

1362/11 , sector -65
S.A.S Nagar , Mohali-160062 (punjab )

sukhdrshnsekhon@in.com
adablok@yahoo.com
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 Phone: +919779955887, +919041411198 .

जब भी मिलता है
उसमें आग  लगी होती है
और वह मुझे
 झुलसा जाता है
सारे का सारा
भीतर तक .....
(२)
राख़ के ढेर में
तुम देख सकते हो
उसका तांडव
पर वह ...
मेरे अन्दर कहीं
संभाल रहा होता है
नागमणि....
(३)
वोडका के नशे सा बातें करता
वह तुम्हारे अन्दर
ज़हर का छींटा देता है
और तुम जब अपनी नसों में
उतरता महसूस करते हो ज़हर
तब वह वर्तमान के कुएं में
उतर रहा होता है
और तुम उसके साथ चल रहे होते हो......

(४)

वो भीतर से गहरा है
वानगाग के चित्रों जैसा
और शोभा सिंह की तुलिका के
स्पर्श जितना ....
ऊपर से सरल है
तरल भी
और जुझारू भी .....

(५)
संदीपिका
उसकी पत्नी नहीं
पूर्ण प्रेमिका है
ग़र वह पत्नी तक ही महदूद होती
तब  वह शायर नहीं
इक
चिड़चिड़ा
अध्यापक होता .....
(6)

जब वे किसी भी गीत को
मर्सिया बनते देखते
तो
अपने ही
अन-पहचाने बोलों के परदे में चलते
इतने खामोश हो जाते थे
कि....
क़त्लगाह का खौफ़ भी
चला जाता था
दूर  .....

(७)

तेरे सिवा उसे
कोई न मिला
जो उसकी कब्र के कुतबे पे
चार सतरें  लिख सकता
विलाप की ....
और उस ख़ामोशी को
दे सकता इक नाम ....

(८)
अब तो उसे
जो भी तकता है 
इक रेतेली सी हँसी
हँस जाता है ...
और उसके तप को
कह जाता है
दर-ब-दर का
इक काला दाग ......

(९)
तुम....
लौट आना
मज़ार से
मिलकर
आंसुओं को  .....

अनु: हरकीरत 'हीर'
गुवाहाटी


धर्मेन्द्र सिंह सेखों की क्षणिकाएं .......(पंजाबी से अनुदित , अनु: हरकीरत 'हीर')

नाम  :    धर्मेन्द्र  सेखों
जन्म  :   8 अप्रैल 1977
शिक्षा  :   ऍम.ए..बी.एड ,PGDCA,  IT
कृतित्व : कासिका ( काव्य संग्रह) , नेट पर dsekhon.blogspot.com नामक ब्लॉग 
संपर्क  :  गाँव- बोडावाल , तहिसाल , बुढलाडा , जिला मनसा  -151502
मौजूदा पता :   615, फौज -2, मौहाली
मो.  : +91 89680 66775
ई मेल  :    dharminderbittu@gmail.com



(१)
उन्होंने  ...
फिर  किस  वक़्त
छेड़ दी हथियारों की बात ?
जरा पूछो तो सही
जिनसे मैं सारी रात
फूलों की बात करता रहा ......!!
(२)
तेरे ही कारण
आज धूप निकली
तेरे ही कारण फूल खिले
और शुरू कर दिया
भंवरों ने गीत गाना
तेरे ही कारण
किण मिन बारिश हुई
तेरे  ही  कारण 
आँसू हैं इन आँखों में  .....
(3)
मेरी  कविता 
नहीं  करती  सामाजिक
सरोकारों  की  बात
मेरी कविता  नहीं  करती 
आर्थिक समस्याओं की भी  बात
यह नहीं करती चोरी -डकैती  पे सवाल
मेरी  कविता  देखती है
ढाबे पे ...
रोटियाँ बांटता वह बाल .....
(4)
सूखे पत्तों ,
हवाओं दरख्तों  की
बड़ी अजीब सी कविता
कलिष्ट भरे शब्दों का डाल जंजाल
मैं उसे सुनाता हूँ
देख मेरी नई कविता ...
वह सुनती है ,मुस्कुराती है
बहुत बढ़िया कह कर
गहरी सांसे लेने लगती है
बोली -यहाँ दम घुटता है
चलो कहीं हरियाली ढूँढें ....
(५)
जब हम जुदा हुए थे
तब यूँ ही इक छोटा सा वादा था
'' फिर मिलेंगे .''
आज उस जगह पर उगा
छोटा सा पौधा
दरख़्त  बन गया है
पर न कभी तुम लौट पाई
और न मैं ......

(6)

कभी-कभी की बात ....


उसे जाकर बता दे
अंधे ज़ख्मों की
चलितरी हँसी
अँधेरे की होंद से
मुकरना हो गया
चल यार
घूँट पी
कविता फिर लिखेंगे ....


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