Wednesday, August 10, 2016

लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.ए,बी.एड
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( १) खितियाँ घूम रहीआं ने ( २) शिखर दुपहिरा(३) मैं ते मेरी ख़ामोशी (४) बिल्लिआं अक्खां दा जादू
उपन्यास - चुस्त जीभ दी शब्द लीला (पंजाबी, छपने को तैयार  )
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
संपर्क- ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०
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कहानी -:         बिल्ली आँखों का जादू -लेखक -जसवीर सिंह राणा , अनुवाद -  हरकीरत 'हीर'
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" राम नाम ....सत्य है ! ... राम नाम ....सत्य है ! " अर्थी लिए आती भीड़ करीब आ गई थी ।
मैंने बिंदी को चोर नज़रों से देखा ,उसकी नज़रें भी मुझसे मिलीं । हम अर्थी वाली भीड़ के पीछे -पीछे चल पड़े । मरने वाला पता नहीं कौन था !
एक व्यक्ति जल का कलश  , दूसरा पूजा सामग्री की थाली, चार आदमियों के कन्धों पर अर्थी और उनके पीछे 'राम नाम सत्य है' करता पण्डित चला जा रहा था । वह थोड़ी -थोड़ी देर बाद छुट्टे पैसे और खील की मुट्ठी अर्थी के ऊपर से उछाल देता । पैसे और खील धरती पर जा गिरते। उन्हें पैरों से रौंदती भीड़ आगे बढ़ जाती ।
जब आखरी व्यक्ति भी आगे बढ़ जाता , हम धरती पर गिरी खील और पैसों पर झपट पड़ते । खील खा लेते और पैसे जेब में डाल लेते । किसी को कोई ख़बर न थी। पर भीड़ के संग चला जा रहा नाथ ब्राह्मण थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे मुड़कर देख लेता । उसकी आँखें हमें घूरती सी प्रतीत होती । हम रुक जाते । जब वह देखना बंद कर देता ,हम फ़िर से पैसे और खील उठाने लग जाते।
जिस वक्त अर्थी श्मशान पहुँची । पीछे की ओर मुड़ते हुए नाथ ने जूता उतार लिया , " ठहर जाओ तुमलोग कुत्तो ....."
" भों ...भों ....भों ...!!" उसे कुत्तों की सी आवाज़ से भौंकते हुए हम पुल की ओर भाग खड़े हुए ।
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पुल के पास दारू का ठेका था और साथ ही शराब की एक दुकान भी । वहाँ कई लोग बैठे शराब पी रहे थे । हम उनकी ओर देखने लगे ।
" क्यों लगाना है पैग ....? "  एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा।
मेरे साथ खड़े बिंदी ने नहीं में सर हिला दिया ।
वह व्यक्ति साथियों को बताने लगा , " मैं तो बहुत परेशान हूँ यार  ..! .. साला मरने को दिल करता है अब तो  ...! "
" परेशान तो आजकल हर ज़मींदार है बूटे !" .... यूँ ही नहीं तमाशा करते ...!" दूसरे व्यक्ति ने हमारी पोटली की ओर देखा ।
खील खाता हुआ बिंदी उनकी ओर देखने लगा , " क्या कहा तमाशा ! ...बोलो तो सही !.... दिखाते हैं अभी ....!"
"अच्छा !..... चलो तुम भी दिखा लो ! ...आ जाओ बूटे ! ... देखें क्या साँप निकालते हैं ....!" दुकान से निकल शराबियों का जुट बैंच पर बैठ गया ।
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मैं पोटली टटोलने लगा ।
जादू दिखाने के लिए एक रूपये की ज़रूरत थी । बिंदी ने उनलोगों से सिक्का माँगा ।
बिंदी से सिक्का लेकर मैंने डमरू उठा लिया , " चल भई जमूरे !.... ये सिक्का पकड़ कर वो सामने बैठ जा ....!"
वह थोड़ी दूर जा मेरे सामने बैठ गया । शराबी आँखें तमाशा देखने लगीं ।
" ला भई जमूरे !.... रुपया मुझे पकड़ा ...!"  मैंने जोर से डमरू बजाकर हाथ यकसार रोक लिया ।
कमर में कपड़ा बाँधे बिंदी मेरे क़रीब आ गया ।
मैंने उससे सिक्का पकड़ा , लोगों को दिखाया, फ़िर उसके हाथ में रख मुट्ठी बन्द कर दी । वह सीधा होकर खड़ा हो गया । मैंने आँखें बन्द कर लीं । काली देवी को याद किया । डंडे से झुलरु - ढिचक किया और फ़िर बन्द मुट्ठी पर फूंक मारी , " ले भई जमूरे !... अब मुट्ठी खोल दे ....!"
ज्यों ही बिंदी ने मुट्ठी खोली , सिक्का गायब !  मुट्ठी में से मिट्टी गिर रही थी ।
"वाह ! ....कमाल कर दी बूटे !.... रुपया गायब ....!" शराबियों का जुट खाली जेबें टटोलने लगा ।
बिंदी उनसे पैसे माँगने लगा और मैं जोर जोर से डमरू बजाने लगा ।
" न रुपया ग़ायब कहाँ हो गया ....?"
तुम्हारी माँ के सर में ग़ायब हो गया ....!" आवाज़ें आपस में उलझने लगीं थीं ।
अठन्नी , रुपया, दो का सिक्का ... धरती पर छुट्टे गिरने लगे ।
जिस वक्त हम पैसे चुन रहे थे, एक मोटरसाइकिल आकर सामने रुकी ।
उसमें से एक लड़का नीचे उतरा और शराबियों के पास जाकर बोला , " घर चलो बापू !.....माँ दवाई पीकर मर गई है ....!"
" वह क्यों मर गई कमबख्त ! ... मरना तो मुझे था  ....!!" एक शराबी रोने लगा ।
बिंदी भी रोने लगा , " जादू ! .... हम इनके पैसे वापस न कर दें  ...?"
" नहीं ....!"  होठों पर जीभ फिराकर मैंने पोटली उठा ली ।
हम चाय की दुकान की ओर चल पड़े ।
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चाय की दुकान के सामने एक बड़ी दुकान खुल गई थी । उसमें चाय मिठाई और भी कितना ही कुछ मिलने लगा था ।
जिस दिन से वो दुकान खुली , मद्दी को गुस्सा आने लगा था । वह काटी को गालियाँ बकता रहता , " जल्दी चाय बनाया कर मुर्ख !.... तुम्हारे कारण कोई ग्राहक नहीं आता ....!"
" वो ...उन लड़कों को पूछ ! ... चाय पीनी है....!" हमें देख वह हल्का सा हँस दिया था।
काटी को आते देख बिंदी ने दो अंगुलियां खड़ी कर दीं । वह मुड़ गया । मद्दी फटाफट चाय बनाने लगा ।
छींके में गिलास रख काटी हमारी ओर आने लगा । मद्दी बड़ी दुकान की ओर देखने लगा ।
" माँ का यार साला ....!" हमें चाय पकड़ा कर काटी ने मालिक को गाली दी ।
मैं उसकी कटी हुई बाँह को देखने लगा ।
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"तुम्हारी यह बाँह कैसे कट गई थी ...?" चाय का घूँट भरते हुए मैंने काटी से पूछा ।
मेरी बात सुनकर वह क़मीज़ से नाक साफ़ करने लगा, पहले कितनी बार तो बताया ....!"
" एक बार और बता दे ! .... तुम्हारा कौन सा पेट्रोल ख़र्च होता है ...!" बिंदी ने चाय सुड़कते हुए कहा ।
" सालों पर गर्म गर्म चाय फैंक दूँ  ..." मद्दी ने बड़ी दूकान के ग्राहकों को गाली दी ।
मैंने काटी की क़मीज़ खींची , " बता दे भाई .... ऐसा क्यों कर रहा है यार ....!"
" वह तो यार बात यूँ थी .....मेरा बापू आटा चक्की में लगा हुआ था !... एक दिन बोगी उठाते वक़्त पचास किलो के बाट पर गिर गया । काफ़ी चोट आई ! ...फ़िर ....!"  रोनी सी सूरत बना काटी मद्दी की ओर देखा ।
वह काटी को पीटता था , कहता  " अगर अब किसी को वह राम कहानी सुनाई  तो साले छड़ी से पीट पीट मार दूँगा...! "
" फिर क्या हुआ काटी ...?" मेरी बात का जवाब दिए बिना वह चुपचाप मद्दी की ओर चल पड़ा ।
पर उसकी कटी बाँह बता रही थी , " ..फिर मैं बापू की जगह आटा चक्की जाने लगा ....एक दिन चक्की चल रही थी । ... बोरी पाड़छे लगी हुई थी ।..मेरा पैर बोरी में फंस गया ...मैं पलट कर मशीन के पटे के ऊपर जा गिरा ... जब होश आई ...मेरी कटी हुई बाँह उधर गिरी हुई थी । ...वह खून से लथपथ तड़प रही थी । .. मैं रोने लगा ... फ़िर पता नहीं मन में क्या आया ..मैंने कटी हुई बाँह उठाई और घर की ओर चल पड़ा ! ... जब देहली पर पैर रखा ...सबकी चीखें निकल गई ! ... मैंने कहा बापू ये ले मेरी बाँह पकड़ .....!"
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काटी मेरी बाँह हिला रहा था । वह चाय के पैसे माँग रहा था । मैंने उसकी आँखों में झाँका ।
" इसकी आँखों में क्या उसकी माँ को ख़ोज रहा है..? सीधे होकर पैसे निकाल और रस्ता पकड़ अपना ...!" मद्दी की फटकार सुन मैं चुपचाप पैसे निकालने लगा ।
वह फ़िर किसी ग्राहक को उल्टा -सीधा बकने लगा । मैंने आँख बचाकर काटी से कहा ," यहाँ मार खाते रहते हो ... कहीं और काम कर ले ...!"
ना मुझे कहता है ! ... तू ख़ुद क्यों नहीं कर लेता ... साला जादूगर कहीं का ...
!"
मुझसे पैसे पकड़ वह मद्दी की ओर चल पड़ा ।
मैंने गुस्से में अपने दाँत किटकिटा दिए ! मद्दी ने देख लिया ।
उसने थप्पड़ दिखाकर आँखें तरेरते हुए अपनी भाषा में गाली दी ,.. "  सालो जांदे हो या नहीं ... कुत्ते ना होण किसे थाओं दे ....!!
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" ओये बिंदी ! लोग हमें कुत्ता क्यों कहते हैं ....?" मैंने बिंदी से पूछा ।
हम सड़क के किनारे चले जा रहे थे । एक कुत्ता मिट्टी में सर गिराये पड़ा हुआ था । बिंदी ने उसे ठोकर मारते हुए कहा , " आजा ! ... इस कुत्ते से पूछ लेते हैं ...!"
कुत्ता मिमिया कर भाग खड़ा हुआ । मैं उसकी टेढ़ी पूँछ को देखने लगा ।
" बिंदी ! उस शराबी के लड़के की माँ दवाई क्यों पी गई ...? "
" उसका तो मुझे पता नहीं ! ... मुझे तो अपनी माँ का पता है । ... वह मेरे जैसी थी  .... बिल्ली आँखों वाली ..! " बिंदी ने पोटली में से फटा कम्बल निकाल लिया ।
उसे ठण्ड लग रही थी । मैंने उसकी बिल्ली आँखों की ओर देखा । कम्बल लेकर वह झल वाले बोलू जैसा लग रहा था । कहता , " बापू तेरे जैसा था ....जादूगर ...!"
" झल वाला बोलू उस बरगद के नीचे बैठता था ....!" बिंदी का हाथ पकड़ मैं चौंकी वाले बरगद की ओर चल पड़ा ...!
वह इस बरगद के नीचे बैठा होता । हाथ में कटोरी ...छोटा कद ...काला रंग ... घुटनों तक लम्बा कुर्ता। गर्मी हो या सर्दी , न वह जूते पहनता न नीकर । नंग- धड़ंग  ही बना रहता । अग़र कोई उसे छेड़ता , " ओये बोलू !... बरगद की जडें दिखा ...!"
" ये ... ले ...! " कहता हुआ वह अपना कुर्ता ऊपर उठा देता ...।
उसकी इस हरक़त में लोगों को आनन्द आता । बस अड्डे से चौंदे वाला मोड़ , फ़िर मोड़ से चौंकी वाला बरगद, उसका रोज का राह था । सड़क पर जाते हुए वह ख़ुद ही बकते जाता , " झल नूं लै जाऊँ फड़के ...!"
पर वह किसी को कभी पकड़ न सका । अक़्सर वह बरगद के नीचे ही बैठा होता । पर एक रात पता नहीं उसके मन में क्या आया । वह बाज़ार के बीच लेट गया । ठण्ड बहुत थी । पहले अपने आपको बोरी में घुसाया फिर ऊपर कम्बल डाल लिया और पैरों के पास कटोरी रखकर सो गया ।
सुबह सबसे पहले उसकी लाश हमने देखी । वह रब्ब जी हलवाई की दूकान के आगे मरा पड़ा था । रात कोई ट्रैक्टर ट्राली उसके ऊपर से गुज़र गई थी । उसका सर कुचला हुआ था । उसकी लाश को देख हमने एक दूसरे की आँखों में देखा । बिंदी ने कटोरी उठा ली । मैंने लाश के ऊपर से कम्बल उतार लिया ।
जगह मलने के लिए हम चौंकी वाले बरगद की ओर चल पड़े ।
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बरगद के नीचे बचना पीटर बैठा था । बिंदी डर गया । मैं भी पीछे की ओर मुड़ लिया ।
" साला लुच्चा ! ... कमीना ...!!" मन ही मन गालियाँ देते हुए हम आगे बढ़ गए ।
बचना अपनी लुच्ची हरकतों की वज़ह से घर से निकाल दिया गया था । अब वह सारा दिन गुरूद्वारे की सीढ़ियों पर बैठा लोगों को आते जाते देखता रहता । जब रात होती गुरूद्वारे रोटी खाकर कभी कहीं पड़ा रहता कभी कहीं । उसके पास रजाई थी । एक दिन हमसे बोला , " अगर तुम्हें ठण्ड लगती है तो आकर मेरे साथ सो जाया करो ।"
हमने उसकी बात मान ली । ठण्ड  थी भी बहुत , रजाई मिल जाने से आराम से सोने लगे । कुछ दिन तो मजे में कटे । पर इक सुबह बिंदी कहने लगा , " यार जादू !... करीब आधी रात जब मेरी नींद खुली मुझे यूँ लगा जैसे किसी ने मेरी निक्कर उतारी हुई थी ...!!
" चल साले पागल ! यूँ ही हांके जा रहा है ...!" मैंने उसे थप्पड़ जमाते हुए कहा ।
वह रोने लगा , मुझे रजाई का लोभ था । मैंने उसकी बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया । पर जब आधी रात गुजरी, मेरी आँख खुल गई । बचना मेरी निक्कर उतार रहा था । मैंने चीख मारी । बचने ने मेरे थप्पड़ दे मारा । मैंने उसके लात मारी। बिंदी ने दाँतों दे काटा । बचना उलझ गया । हमने रजाई परे फैंकी ।
" बिंदी भाग ...! मैंने पोटली उठाते हुए कहा ।
हम दोनों काफी देर भागते रहे । चौंदे वाले मोड़ पर ख़्याल आया मेरी निक्कर तो बचने की रजाई में ही रह गई थी ..!
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रुक जा जादू !... यह देख कितनी अच्छी ज़गह है ... यहीं बैठ जाते हैं ...! " बिंदी ने मेरा कुर्ता खींचते हुए कहा ।
हम डाक घर की दीवार से पीठ टिकाये बैठ गए । मैं पैसों वाला डब्बा खड़काने लगा , " अक्कड़ बक्कड़ भम्बे भो, अस्सी नब्बे पूरा सौ ! ...सौ ग्लोटा तितर मोटा , चल मदारी पैसा खोटा ....!"
" कितने पैसे बच गए ...!"  डब्बे की ओर देखकर बिंदी ने मेरी ओर लात मारी । मैंने भी उसे झापड़ जमाते हुए कहा , " सात बचे हैं यार !... कितनी बार तो गिन लिया ....!"
" ला मैं गिनकर देखूँ ...! " वह डिब्बा छीनने लगा ।
मैंने उसे धक्का मारा । उसने मेरा कुर्ता पकड़ लिया । मैंने उसके बाल पकड़ लिए । हम उलझ गए । पैसों वाला डिब्बा नीचे गिर गया । हम मिट्टी में लोटने लगे । आते जाते कई लोग रुक गए । आवाज़े आने लगीं , " ओये छोड़ो !... हटो ....हटो ! ...छोड़ो क्या हो गया ....!"
" हमें तो कुछ नहीं हुआ ! ...तुमलोगों को क्या हुआ है ...!" मुझे छोड़ बिंदी ने छलांग मारते हुए कहा ।
" साले तमाशा करते हैं ! ... कुत्ते कहीं के...!" गालियाँ सुनकर मैं भी खड़ा हो गया ।
लोग परत कर जाने लगे । हम मिट्टी में गिरे पैसे ढूँढने लगे । एक रुपया कम था । हमने बहुत ढूँढा  । ...पर ....!
" तुम्हारा रुपया यह रहा ....!"  हमें सिक्का दिखाकर पांडी भागने लगा । बिंदी ने एक पत्थर उठाकर उसे दे मारा । निशाना चूक गया , पत्थर गुजरते हुए एक व्यक्ति की पीठ में लगा । वह बिफर गया ,..." रुक जाओ कमीनों ....तुम्हारी माँ की ....!"
डिब्बा , पोटली और फटा कम्बल उठा हम भाग खड़े हुए ...!
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" बता अब जायेगा या नहीं...? ...बता अब ..! " पांडी का बापू उसे जूते से पीट रहा था ।
पांडी चीख़ रहा था , " मैं नहीं जाऊँगा ..मैं नहीं जाऊँगा ...!"
वह माँगने जाने से इंकार कर रहा था । उसका बापू माँगने जाता था ।
सूरज चढ़ने से पहले ही वह लोगों का द्वार खड़खड़ाने लगता , "  शनिवार का दिन है भाई  ! ... शनि देव !... दान देव !....महाराज राजी रक्खे भाई ...!"
कोई उसके तेल वाले कलश में पैसे डाल देता कोई झोली में आटा डाल देता तो कोई गालियाँ देने लगता , " चल ...चल ...गाहां जा !... दिन नी चड़न दिँदै ! ... मंग खाणी जात साली ....!"
" जब मैं बाजार जाता हूँ ...कोई पैसे नहीं देता ...दुकानों वाले गालियाँ देते हैं बापू ....!" जूते खाता पांडी बाजार की ओर हाथ दिखा रहा था ।"
उसका बापू ज्योत्षी को गालियाँ देने लगा ," एक ये कम्प्यूटर वाले ज्योत्षी ने मार लिया मुझे ।  वर्ना अपना ये माँगने का धंधा बढ़िया चल जाता था ।"
" धंधा तो साले पहले ही नहीं चलता ...! ऊपर से तू जाने से इंकार कर रहा है ....बोल मांगने जायेगा या नहीं ..?" बापू का जूता हवा में घूमने लगा । पांडी डर गया .., " जाऊँगा बापू ....जाऊँगा ...! " बस होर न मारीं ..!" वह डरकर बोला ।
बिंदी मुझसे बोला , " रूपये वाली बात चल इसके बापू को बता देते हैं ।"
" आह थोडा मुंडा ..? साडा रुपैया चक ले आया है बाबा ...!" मैंने जल्दी से कह डाला ।
मेरी बात सुन उसने बीड़ी सुलगाई । माचिस की डिब्बी जेब में रखी और बीड़ी का कश लेता हुआ बोला , " उरे आ ओये मुंडिया ! ... किहड़ा रुपैया चक के लिआंदा इहना दा !.... लिया मैंनू दिखा ...!"
जूते से डरता पांडी नज़दीक आ गया । उसने पगड़ी के नीचे छिपाया रुपया निकाला और बापू की हथेली पर रख दिया । ज्यों ही मैं उठाने लगा पांडी का बापू मुँह से धुआँ निकालने लगा , " किहड़ा रुपया ओये ! ..जाने आं के लाहां जुत्ती ....!"
जूते से डरता बिंदी मुझसे चिपक गया । मैं उसका हाथ पकड़ धूरी की ओर जाती सड़क पर भाग खड़ा हुआ।
कुछ दूर जाकर हमने अपना गुस्सा निकाला , " हे काली देवी ! ... आज़ रात 12 बजे ये दोनों मर जाएं ....!"

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" चल डमरू बजाकर देख ...!"  घरों के दरवाजों के पास लगी चौंकड़ियों के पास खड़ा हो बिंदी आस -पास देखने लगा ।
मैं उसकी बात समझ गया । उसे आस थी , मैंने भी बच्चों को घरों से निकालने के लिए डमरू बजाना शुरू कर दिया । हम कितनी ही देर डमरू बजाते रहे पर कोई घर से बाहर न निकला ।
जब हम चलने लगे , तब कुछ बच्चों की माँयें अपने बच्चों को लेकर बाहर निकलीं । वे अपने बच्चों को ट्युशन पढ़ाने वाली मैडम के घर छोड़ने जा रही थीं । एक टोली मोगरी- गेंद से क्रिकेट खेलने लग पड़ी । चौंकड़ियों पर बैठा लड़कों का टोला मोबाईल में फ़िल्में देखने लगा ।
मैंने डमरू पोटली में डाला और बिंदी का हाथ पकड़ पुल की ओर चल पड़ा ।
ठण्ड बढ़ती जा रही थी ।
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चौंकी वाले बरगद के नीचे बचना रजाई में आ बैठा था । जब हम उधर से गुज़रे वह लुच्ची सी हँसी हँसता हुआ बोला , " मेरी रज़ाई में नहीं सोना आज़ ....?"
बिंदी ने उसे जीभ दिखा दी और मैंने थप्पड़ । उसने मुँह दूसरी ओर फेर लिया ।
" वह देखो जादू ! ... वही शराबी रोता हुआ जा रहा है ...!" बिंदी श्मशान की ओर जाती भीड़ की ओर देखने लगा ।
दवाई पीकर मरने वाली औरत की अर्थी जा रही थी ।
" बस कर बूटे ! ... मत रो मेरे वीर !... सब्र कर !"  अर्थी के पीछे कई लोग शराबी को पकड़े हौसला दे रहे थे ।
चाय की दूकान में मद्दी काटी को पीट रहा था । उसकी नज़र बड़ी दुकान की भीड़ को घूर रही थी ।
सूरज धीरे -धीरे छिपने लगा था । पुलों के नीचे अब अँधेरा उतर आया था ।
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वह गंदे नाले का पुल था ।
पुल के नीचे उतरने के लिए पगडण्डी सी बनी हुई थी । सड़क की तरह वह किसी ने बनाई नहीं थी । रोज़ उतरने चढ़ने के कारण ख़ुद ब ख़ुद बन गई थी ।
हम पगडंडी से धीरे- धीरे नीचे उतर गए । पुल के नीचे कई बड़े- बड़े सीमेंट के पाइप पड़े थे । उन पाइपों में ही हमारा घर था । जो बाप का घर था उसे तो माँ बेच गई थी ।
" न यहाँ क्या तुम्हारी माँ बैठी है ...? अगर रोटी खानी है तो पैसे निकालो । "
मंगी की आवाज़ सुन मैंने पोटली पाइप में रख दी ।
वह लोगों की इकट्ठी की हुई जूठ बेचता था ।
मैंने पैसे वाला डिब्बा उसके आगे ढेरी कर दिया । उसने पैसे उठा लिए और रोटी हमारी ओर उछाल फैंकी । बिंदी ने हाथों में दबोच ली । हम भूखों की तरह रोटी पर टूट पड़े ।
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खासा अँधेरा हो गया था । सब ने अपने पाइपों के मुँह के आगे कम्बल , चादरें , बोरियाँ तान दीं ।
रात टिकने लगी । ठण्ड भी बढ़ गई । फ़टे कम्बल में लिपटा बिंदी मुझसे चिपट गया । मैंने उसके सर पर हाथ फेरा । उसे ठण्ड लग रही थी ।
मंगी किसी से बातें कर रहा था । मैंने ध्यान से सुना । उसके पाइप में से कागज़ चुनने वाली शम्मी की आवाज़ आ रही थी । दूसरे एक पाइप में रजाई ओढ़े पड़ा जोगी शम्मी के भाई को कह रहा था , " ठण्ड बहुत है ..! आजा मेरी रज़ाई आजा ...!"
" बचना पीटर साला ....!" मैंने उसे गाली दी ।
बाहर खड़खड़ाहट हुई । कोई साथ वाले पाइप से निकल किसी और पाइप की ओर चल पड़ा । मेरी नज़र हमारे पाइप के मुँह पर गई । अँधेरे में एक बिल्ली पोटली को खोलने की कोशिश कर रही थी । थोड़ी - थोड़ी देर में वह पोटली को पंजा मारती । कुछ न मिलता देख वह मेरी ओर देखने लगती । मैं उसकी आँखों में झाँकता हुआ धीरे से कहता , " म्याऊँ ..!'
मेरी आवाज़ सुन वह बजी 'म्याऊँ' कर देती । जिस वक़्त वह बोलती मुझे माँ जैसी लगती । मैं उसे फ़िर बुलाने लगता । टिकी रात हमारी ' म्याऊँ - म्याऊँ ' की खेल चल रही थी । पाइपों में बसी दुनियां सो चुकी थी । क़रीब आधी रात ज्यों ही मेरी आँख लगी । शोर मच गया , " उठो  ..!  भागो ... भागो ...पानी आ गया ...!"
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जिसका जिधर मुँह हुआ उधर ही समान उठाकर भाग खड़ा हुआ । हम भी भागकर बापू वाले घर के आगे जा बैठे थे ।
भीगे हुए कम्बल में पड़ा बिंदी सारी रात काँपता रहा । मैं बापू की तरह सख़्त हड्डी का था । न काँपा न सोया । मेरी सुरति कभी घर के अंदर चली जाती कभी बाहर निकल आती । बापू को यह घर दादू से मिला था । पर हमें यह भी नहीं मिला । माँ ने भी अच्छी की ... रिक्शे वाले संग भाग गई । रिक्शे वाले को ही घर भी बेच गई । बिंदी ठीक कहता था , वह बिल्ली थी ।
उसकी आँखें बिल्ली जैसी थीं । हर कोई उसे बिल्ली कहता । बापू कहता था , " बिल्ली आँखों में जादू होता है ..!...जिसे यह जादू करना आ गया वह महान जादूगर बन जाता है ....!"
बापू की बात न माँ समझ सकी , न ही मैं समझ सका । न बापू को समझ आई ।
अगर वह बिल्ली आँखों का जादू करना जानता होता वह दुनिया का महान जादूगर होता । पर वह तो छोटा मोटा जादूगर था ।
जब से हमने होश संभाला , मैं और बिंदी उसके जमूरे थे ।
रुमाल का फूल बना देना , रस्सी काटकर जोड़ देना , हवा से मिठाई पकड़नी ।
वह बिंदी को पीठ करके खड़ा कर लेता और ख़ुद उसके पीछे डिब्बा लेकर खड़ा हो जाता । जब बिंदी खाँसता पैसे निकल कर उसके डिब्बे में गिरने लगते ।
बापू मुझे चादर के नीचे डालता , छूरी उठाता , मेरा सर धड़ से अलग करके फ़िर से जोड़ देता ।
यह उसका सब से बड़ा जादू होता था ।
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" जादूगर ... ओ ....जादूगर ! ... चाय पीनी है ...?" शम्मी की आवाज़ सुन मैं डर गया ।
गोबर के ढेर से वह कागज़ चुनती लोगों के घरों से चाय भी माँग लेती थी । उसके हाथ में चाय का डोलू था । मैंने अपना मग उसकी ओर बढ़ा दिया । वह चाय डालकर चली गई । फ़िर परत कर मुझे दो लड्डू पकड़ाती हुई बोली , " यह रूड़ी के ढेर से मुझे एक लड्डुओं का डिब्बा मिला है ...ले पकड़ ...साफ़ करके खा लेना ...!"
मैं कम्बल से लड्डू साफ़ कर बिंदी को जगाने लगा । वह तो न जगा अंदर से रिक्शे वाला जाग गया । वह दरवाज़ा खोल हमें देख कहने लगा , " बिल्ली आँखों वाली स्त्री चालाक होती है ....!"
उसकी बात सुन बिंदी जाग गया । रिक्शे वाला अंदर चला गया । हम चाय के संग लड्डू खाने लगे ... ।
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" जादू ! वह देख लड्डू और उसके साथी जा रहे हैं  ...!' चाय सुड़क कर बिंदी खड़ा होते हुए बोला ।
लड्डू , अंजलि और दीसा भीख माँगने जा रहे थे । मैंने लड्डू और कम्बल पोटली में डालते हुए बिंदी से कहा , " इन लोगों को आवाज़ दे ...!"
" लड़ ....डू ....डू ....!!" उसने जोर से आवाज़ दी ।
तीनों रुक गए । ठण्ड से काँपती अंजलि बोली ," क्या है बे ....?'
" हमें भी साथ ले चलो ...!" मैं काम की बात पर आया ।
दीसा उसकी ओर देखने लगा । वह होंठ काटकर बोली , " आ जाओ ...! "
हम भी उनके साथ चल पड़े ।
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बस स्टैंड पर अभी भीड़ कम ही थी ।
बस में चढ़ने से पहले दीसे ने हमें माँगने का तरीका समझा दिया था ।
लड्डू ने अपनी निकाली गई आँख खोल ली और दूसरी साबूत आँख बन्द कर ली और मेरे कन्धे पर हाथ रख लिया । मैं पोटली उठा आगे -आगे चलने लगा । बिंदी और लड्डू दूसरी ओर चल पड़े । कतार बनाकर हम बस में चढ़ गए । लड्डू ने मेरे कन्धे में चिकोटी काटी । उसका इशारा समझ मैं रोनी सी सूरत में बोलने लगा , " अंधे पर तरस करो बाबा ! ....दो दिन से रोटी नहीं खाई ! ... पैसे दे दो बाबा ...!"
एक बुढ़िया ने एक रुपया दे दिया । बाकी सवारियों ने देखकर मुँह फेर लिया । हम पिछली ओर से चढ़े थे आगे की ओर से उतर गए । बस से उतरते ही लड्डू ने अपनी दूसरी आँख खोल ली । मुझसे रुपया ले लिया और बोला , " चलो अब अगली बस में ...!"
पर अगली बस से कुछ भी न मिला । दो बसें और खाली गईं ।
" चलो अब बाज़ार चलते हैं ...!" लड्डू की बात सुनकर हम रिक्शा स्टैंड की ओर चल पड़े ।
वहाँ अंजलि और दीसा खड़े थे ।
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बाज़ार में घुसने से पहले दीसे ने उसे नई स्कीम समझा दी थी । दीसा और लड्डू तेलियों के बाज़ार की ओर चले गए । मैं , अंजलि और बिंदी लाल बाज़ार की ओर चल पड़े ।
" जरा सा रुकना ...!"  अंजलि ने अपनी टेढ़ी टाँग ऊपर उठाकर पीछे की ओर मोड़ ली ।
हमारे कन्धे का सहारा लेकर वह एक टाँग से चलने लगी , " ठण्ड लगती है बाबू जी तरस खाओ ! ... जूतों के लिए पैसे दे दो बाबा ....!"
हम दुकानों के आगे जा -जाकर हाथ पसार माँगने लगे ।
" चलो ....चलो ...आगे बढ़ो..!" कहते हुए पहले तो किसी ने कुछ न दिया । फ़िर दो दुकानदारों को तरस आ गया । जब हम तीसरी दूकान के आगे आये , दुकानदार आग बबूला हो गया । वह क्रोध में बाहर आया और बिंदी को एक जोरदार चांटा जमा दिया । अंजलि को धक्का मार नीचे गिरा दिया , मुझे बाँह से पकड़कर बोला , " चल जरा ..खोल अपनी ये पोटली .... दिखा  तो ज़रा...!"
मैं डर गया । पोटली नीचे रख दी । उसमें हम तीनों टूटे हुए जूते थे ।
दुकानदार जोर -जोर से चीखा , " देखो ! ... देखो इनकी चलाकी !..... जूते पोटली में छिपाकर रखे हैं ... माँगने का अच्छा धंधा बना रखा है सालों ने .....!"
" न यह क्या तमाशा है ओये ...!" पहले उसने हमें लातों से मारा फ़िर धक्के मारकर बाज़ार से निकलवा दिया ।
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तुम लोगों को कोई चीज़ मांगनी नहीं आ सकती ...! तुम लोग जाओ अपना तमाशा करो ...! " हमें फटकारती हुई अंजलि बीड़ी पीने लगी । उसके साथ लड्डू और दीसा भी कश लेने लगे । मैं बिंदी के साथ नए बाज़ार की ओर चल पड़ा । वहाँ से कुछ मिलने की उम्मीद थी ।
गांधी चौक के पास पहुंच कर जैसे हमारे पैर जम गए । कागज़ चुनने वाली शम्मी बिजली वाले खम्भे से बन्धी हुई थी । एक व्यक्ति उसके ऊपर ठंडा पानी डाल रहा था । वह जोर -जोर से रोये जा रही थी । लोग तमाशा देख रहे थे । पानी डालने वाला व्यक्ति बोला , " मेरी दूकान से रद्दी वाली टोकरी चोरी कर रही थी ...!"
जब उस व्यक्ति ने हमारी ओर देखा हम डर गए ।
वह हमारी ओर भागा ...।
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भागते -भागते हम हाँफ गए । पर रुके नहीं । वह थककर परत गया । भागने से ठण्ड लगनी तो कम हो गई पर भूख से अब जान निकलने लगी थी। जेब में कोई पैसा नहीं था ।
" बिंदी ! अब क्या करें ...?" बिंदी की ओर देखकर मैंने पोटली ठीक की । मेरी बात सुनकर वह सोच में पड़ गया । कुछ पल सोचता रहा ।
फ़िर बापू की तरह बोला , " जादू का तमाशा ...!"
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"अगर जीना है तो तमाशा करो ....!" बापू का कथन याद कर मैंने बिंदी की आँखों में झाँका ।
बिल्ली आँखें ....!
जब वह लोगों की ओर देखता । देखन1े वाला सम्मोहित सा हो जाता । उसकी 8तरह माँ भी लोगों को सम्मोहित कर लेती थी ।
बापू की मौत के बाद वह बाज़ार में जूते पालिश करने ठीहा लगाने लगी थी । सुबह सवेरे उठकर धूप बत्ती करती और बन संवर कर ठीहे पर बैठ जाती । जो भी जूते पॉलिश करवाने आता माँ की आँखों की ओर देखता रहता । एक रिक्शे वाला तो सारा सारा दिन उसे निहारता रहता ।वह भी उसकी और देखती रहती ।
वे एक दूसरे को क्यों देखते थे हमें तो उस दिन पता चला जिस दिन वह रिक्शे वाले के संग भाग गई थी ।
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"चलो बाहर निकलो ! .... यह घर अब मेरा है । ...तुम्हारी माँने इसे मुझे बेच दिया है ....! " जिस दिन रिक्शे वाले ने हमें घर से निकाला ,लोग कहने लगे , " बहुत बुरा हुआ इन मासूमों के संग ।  ... माँ भी भाग गई ... बापू भी मारा गया ।.....रिक्शा चलाये बिना क्या गुज़ारा न होता उसका ? .... इससे अच्छा था तमाशा ही करता रहता ...!"
वह कभी जादू का तमाशा दिखाने लगता तो कभी रिक्शा चलाने लगता । जिस दिन सवारी न मिलती वह अस्पताल के आगे जा खड़ा होता । अग़र किसी को खून की ज़रूरत होती , वह पैसे लेकर अपना खून भी दे देता ।
" कहते हैं उसदिन भी किसी को खून बेचकर आया था !.... कमजोर पहले ही था ...खून देने की वज़ह से शरीर में और कमज़ोरी हो गई ! ... उस पर उसी वक़्त उसे सवारी मिल गई । सवारी को बिठाकर कहते हैं बीस क़दम भी न चला होगा कि ये अनहोनी हो गई ! ....आँखों के आगे अँधेरा ....और रिक्शा सीधे ट्रक से भीड़ गया ....!"
बापू की अंत्येष्टी करने के बाद लोग बातें कर रहे थे । उस दिन सवारी , रिक्शा , बापू तीनों की मौत हो गई थी ।
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" अब मौत की बातें मत कर जादू ! ....विवाह की ....खाने की बात कर ....!" मैं बिंदी की बात समझ गया ।
भूख और तेज़ हो गई थी । मैंने अपने हाथों की ओर देखा । बापू की बात याद आ गई । वह कहता था , " जादू कुछ नहीं होता !..... देखने वाले की आँख का धोखा होता है ! ... या करने वाले की हाथ की सफ़ाई होती है ..!"
हमें जादू दिखाने की ज़गह मिल गई थी ।
हम विवाह वाले पैलेस की ओर चल पड़े ।
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पैलेस के गेट पर एक व्यक्ति बुलबुले बेच रहा था । वह साइकिल लेकर गेट के एक तरफ़ खड़ा था । हम दूसरी ओर जा बैठे ।
रंग - बिरंगा पैलेस , कारें , सुंदर - सुंदर लोग । हमारी आँख बच्चों पर टिकी हुई थी ।
जिस वक़्त कोई बच्चा बुलबुला लेने आता । उसके साथ उसके माता - पिता या भाई- बहन भी होते । उनकी ओर देख मैं डमरू बजाने लगता । " हाँ ! भई मेहरबान ! ..... कद्रदान ! ... तुहाडी खैर होवे ! .... साडा जादू ....."
पर कोई भी मेरी बात पूरी न होने देता । हमारी ओर बिना देखे ही परत जाता ।
डमरू बजा- बजाकर, बोल - बोलकर मैं थक चुका था । भूख से पेट अंदर जाता जा रहा था । पर फ़िर भी इक आस लिए मैं डमरू बजाये जा रहा था ।
" बन्द करो यह तमाशा ....!"  गेट पर खड़े  वर्दी वाले गार्ड ने हमें घूरते हुए कहा ।
हम उन बच्चों की ओर देखने लगे जो अंदर चटकारे लेकर भोजन का आनन्द ले रहे थे ।
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" चल जादू ! ... अब मौका है ! .... लोग अंदर खाने जा रहे हैं.....!"
बिंदी की बात सुन मुझे रोटी की खुशबू आने लगी ।
मैंने पोटली बगल में दबा ली और बिंदी का हाथ पकड़ अपने आस -पास देखा । हमें कोई देख नहीं रहा था । हम आँख बचाकर बेलों के क़रीब से अंदर जाने लगे ।
अंदर के गेट के पास रुककर अंदर नज़र मारी । अंदर गीत - संगीत चल रहा था । स्टेज़ पर लड़कियाँ नाच रही थी । नीचे बाराती नाच रहे थे । उनकी तरफ़ से ध्यान हटाकर दीवार की ओर से हम रोटी वाले मेज तक जा पहुँचे । लोग भोजन करने में मग्न थे । हमारी ओर किसी का ध्यान नहीं था ।
" आ जा अब ....!"  मैंने पोटली संभालते हुए बिंदी की बाँह खींची ।
वह मेरे साथ एक मेज की ओर खिसकने लगा ।
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मेजों की चद्दरें नीचे तक लटक रहीं थीं । हम लटकती हुई एक चद्दर को हटाकर मेज के नीचे जा घुसे । बिंदी मुझसे बोला , " आज़ आयेगा मज़ा ...!"
खाना खाकर कोई जब प्लेट पास पड़ी टोकरी में रख देता या कोई मेज के नीचे सरका देता , हम उसपर टूट पड़ते । रोटी , दाल , सब्जी , चावल , दही , पनीर , सलाद .....पहली बार इतना कुछ खाने को मिला था ।
जिस वक़्त हम मेज के नीचे बैठे जूठन खा रहे थे । पंडाल में शोर मचने लगा , " कमाल की बात है ! ...घडी , चूड़ियाँ , पैसे  ....इतना कुछ एक साथ कैसे चोरी हो गया ....?"
" जिसने भी चोरी किया होगा वो अभी यहीं होगा  ....गेट बन्द कर दो ..! ...कोई हॉल से बाहर न जाये ...!" तरह तरह की आवाज़ें आने लगीं ।
स्टेज पर गाने बजने बन्द हो गए । लड़कियों का नाच बन्द हो गया । गेट बन्द कर दिया गया ।
" अब ये लोग क्या करेंगे जादू ...? "  बिंदी मुझसे चिपक गया ।
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" ये रहे चोर ...!!! " मेज के नीचे प्लेट रखने को झुका एक व्यक्ति हमें देख 'चोर -चोर' चिल्लाने लगा ।
उसका चिल्लाना सुनकर सारे लोग मेज के इर्द -गिर्द एकत्रित हो गए । हमें घेर लिया गया । दो लोगों ने खींच कर हमें बाहर निकाला । बिंदी रोने लगा । एक व्यक्ति हमें गालियाँ देने लगा , " क्यों बे कुत्तो ! ....हरामियो ! ...लाओ  चोरी किया समान बाहर निकालो ....!"
ना ... ना... हमने कोई चोरी नहीं की ! हम तो जूठन खाने मेज के नीचे छुपे हुए थे ...!" मैंने बिंदी को अपने से चिपटाते हुए कहा ...।
पर किसी ने हमारी बात न सुनी । आवाज़ें आने लगीं , " ये लोग ऐसे नहीं बकेंगे ...! उल्टा करो इन्हें ...और जूतों से धुलाई करो इनकी ..!"
" ना जी ..ना जी ...हमने चोरी नहीं की ... कसम ले लो काली देवी की ....!"
मैं मिन्नतें करने लगा ।
एक थप्पड़ मेरे मुँह पर आ पड़ा । किसी ने बिंदी की पीठ में लात मारी ।
हमारी गीदड़-धुलाई होने लगी ।
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" बस अब बहुत हो गया ! ....ये उठाइगिरों की जात यूँ नहीं मानती !....पहले हम लोग डोली विदा कर लेते हैं ...फ़िर इन लोगों को ......!" एक ग्यानी सा बाबा सब को समझाने लगा ।
हमारी गीदड़- धुलाई बन्द हो गई । स्टेज पर गान बजने लगा । लड़कियों के साथ आधी भीड़ भी नाचने लगी । कुछ लोग भोजन करने लगे । ग्यानी ने हमें पकड़ कर खड़ा कर लिया  और बोला , " सेठ जी ! आप बेटी की विदाई करवाओ !....इन कुत्तों से मैं निपट लूँगा ...!"
हमें बाँह से पकड़ वह पैलेस के मालिक के पास ले गया ।
उसकी बात सुनकर मालिक सोच में पड़ गया । बोला , " देखो सरदार जी ! यह हमारे पैलेस की इज़्ज़त का सवाल है ! ....आप डोली विदा करो मैं पुलिस को बुलाता हूँ ....!"
उसने हमें अपने कमरे में बन्द कर दिया ।
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हमारी नज़र डोली वाली कार पर टिकी हुई थी । जब डोली विदा होने लगी , लड़की के पिता ने डोली के ऊपर से पैसे फेंके । चुनने का बड़ा दिल किया ,पर हम तो कमरे में बन्द थे ।
" जादू ! ...अब हमारा क्या होगा ...!"  जब ये बात बिंदी मुझसे पूछ रहा था कमरे के आगे खड़ा मालिक पुलिस को फोन कर रहा था ।

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" तूँ डर ना बिंदी !" ....आपां किहड़ा चोरी कित्ती आ....!" पुलिस की गाड़ी देख मैंने बिंदी को हौंसला दिया ।
वैसे डर मैं भी रहा था । लम्बा - चौड़ा ,  सर से गंजा , काली मूँछे , दाढ़ी सफ़ाचट , लाल आँखें ....थानेदार बड़ा डरावना था ...!
गाड़ी से उतर वह कमरे की ओर आने लगा । उसके साथ पैलेस का मालिक और विवाह वाले कई अन्य लोग भी थे । बाहर बन्दूकों वाले सिपाहियों के पास वह ग्यानी खड़ा था । हमारी ओर अंगुली करके वह उन्हें कुछ बता रहा था ।
" वर्मा साहेब ! ये बैठे हैं आपके चोर ....!" कमरे का दरवाजा खोल पैलेस के मालिक ने हमारी ओर अँगुली की ।
अंदर आते ही थानेदार नीचे झुका । लाल आँखों से हमें घूरा । उसकी आँखें देख बिंदी रोने लगा । मैंने पोटली जोर से पकड़ ली । हमें देख पहले तो थानेदार हँसा फ़िर उसका हाथ उठा ... एक-एक थप्पड़ रसीद कर बोला , " मैं सिखाता हूँ तुम्हें चोरी करनी ...!"
ना जी ना...हमने चोरी नहीं की साहेब जी .....हम तो ...!" डर से बिंदी का पेशाब निकल लगा ।
" इनको उठाकर गाड़ी में फेंको ...!"  कान से फोन लगाकर थानेदार बाहर की ओर चल पड़ा ।
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जब गाड़ी थाने में घुसने लगी , सूरज छिप रहा था और अँधेरा उतरने लगा था । ठण्ड भी बढ़ गई थी । गाड़ी नीम के नीचे जाकर रुक गई । थानेदार नीचे उतरा । सिपाहियों ने हमें भी उतार लिया ।
" इनका स्वागत करो ...!" हुकुम सुनाकर थानेदार कमरे की ओर चला गया ।
"  ना क्या बैंड - बाजे वाले लेने आएंगे तुम्हें अब....?.... चलो आगे बढ़ो ...!" एक सिपाही ने मेरे थप्पड़ जमाते हुए कहा । दूसरा धक्के मारता हुआ हमें टुटियों के पास ले गया । तीसरा सिपाही डंडा उठाये खड़ा था ।
जब थानेदार बाहर आया हम बेवकूफों की तरह खड़े झाँक रहे थे । वह आते ही बोला , " इन पोटलियों  में क्या है ओये ....दिखाओ ...!"
मैंने पोटली का सारा सामान उलट दिया । डिब्बा , डमरू , चद्दर, झुलरु, फटा कम्बल ।
" तमाशा जादूगर साले ....!" समान देख थानेदार हँसने लगा ।
हम रोने लगे ।

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" चोरी का समान निकालो ! ....बताओ कहाँ छुपाया है ....?" थानेदार ने हमें थप्पड़ जमाते हुए कहा ।
बिंदी फूलों वाली क्यारी में जा गिरा। मैं दीवार से टकराया । थानेदार आँखें निकालकर बोला , " बताओ समान कहाँ रखा है ....?"
" जी ... हमने चोरी ... न ..नहीं की ..हम तो जी ..." मेरी बात सुन थानेदार ने पास खड़े सिपाही के हाथों से डंडा पकड़ लिया ।
" आ...आ ...ई...माँ ...!" हम चिल्लाते हुए इधर -उधर भागने लगे । वह भी हमारे पीछे भागा । सिपाहियों ने हमें हाथ -पैरों से पकड़ लिया । डंडा चलने लगा । हम बचने के लिए हाथ -पैर मारने लगे । डंडा और जोर से चलने लगा । जब आँखों के आगे तारे नज़र आने लगे सिपाहियों ने हमें नीचे गिरा दिया । मैं तो बड़ी मुश्किल से उठकर बैठ गया पर बिंदी धरती पर लोटने लगा ।
" इन्हें नंगा करो ...!' डंडा फैंक थानेदार ने सिगरेट जला ली ।
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हमारे शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था । हम काँप रहे थे । भरपेट भोजन करआया थानेदार शराब के नशे में मदमस्त था ।
" मैं निकालता हूँ इनसे चोरी का माल ...!" उसने कुर्सी पर रखा सरिया उठा लिया ।
मैं हाथ जोड़ने लगा , " मेरे भाई को मत मारना जी ! ....आप मुझे मार लो ...!"
पर थानेदार ने उलटी बात की । वह बिंदी को सरिये से पीटने लगा ।
मैं बिंदी के ऊपर लेट गया , " ना जी इसे मत मारो .... मुझे ...मा ..र ...."
"आ ...आ....आई ...आ ...आ ....!!! हमारी चीखों से थाना काँप गया ।
थानेदार हमारी टांगों , बाँहों , पैर , पीठ पर सरिये से प्रहार करने लगा । एक सरिया बिंदी के सर पर लगा । वह चीख़ कर धरती पर गिर पड़ा । मैं उसकी ओर भागा । एक सरिया मेरे माथे पर लगा । मैं भी नीचे गिर गया । किसी सिपाही की आवाज़ आई , " बस करो जनाब ! बच्चे हैं ...! ....इतना क्यों मारते हो ...! अग़र इन्होंने चोरी की होती ... चार थप्पड़ों में ही क़बूल लेते ...!"
" अग़र नहीं देख सकते ...तो दफ़ा हो जाओ यहाँ से ...!" थानेदार उसे गालियाँ देते हुए बोला ।
सिपाही चुप कर गया । कुछ देर बाद सरिये के गिरने की आवाज़ आई ।
फ़िर थानेदार की आवाज़ आई , " इन्हें इस दरख़्त से बाँध दो ...!"
उसका हुक़्म सुन हमें नीम के पेड़ से बाँध दिया गया ।
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" माँ ....माँ .....मर गया ....माँ ....!" बिंदी आधी रात तक बोलता रहा । मैं दाँतों में जीभ दबाये उसका बुरा हाल देखता रहा ।
हमारे  नंगे शरीर बर्फ़ की तरह जमते जा रहे थे । सारा थाना सो चुका था ।
रात बहुत धीरे- धीरे बीत रही थी ।
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" लगता यह तो मर गए ....!" सिपाहियों की आवाज़ सुनकर मुझे ज़रा सी होश आई ।
पर मैं आँखें बन्द किये बिंदी की तरह लटकता रहा । उसका सर नीचे की ओर लटक गया था । बाहें हवा में झूल रहीं थीं । मैंने चोर आँखों से देखा वह ठण्ड से नीला हुआ पड़ा था ।
सिपाहियों की बात सुनकर थानेदार बाहर आ गया । उसने बारी - बारी से हमें हाथ लगाकर देखा । कुछ पल खड़ा सोचता रहा फिर बोला , " जादूगर हैं ! ....तमाशा  कर रहे हैं साले ...! इन पर ठंडे पानी की दो बाल्टियाँ डालो ....!"
ज्यों ही नंगे शरीरों पर पानी फेंका गया ।
मैं बिंदी की तरह सारी ठंड चुपचाप पी गया ।
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"इन्हें नीचे उतारो....!" हुक्म सुना थानेदार सिगरेट पीने लगा ।
हमें मरा हुआ समझ नीम से खोल नीचे उतार लिया गया । एक सिपाही कम्बल ले आया । हमें उसमें लपेटकर दीवार के संग रख दिया गया । मैं सारा दिन साँस रोके बिंदी के साथ वहीं पड़ा रहा ।
उसकी नब्ज़ डूबती जा रही थी ।
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जिस वक़्त मेरी आँख खुली । घुप्प अँधेरा था । कार चलने की आवाज़ आ रही थी । कम्बल में लपेट कर हमें पिछली सीट पर रखा गया था ।
एक जगह कार रुकी । दरवाज़े खुले । दो जन नीचे उतरे । थानेदार की आवाज़ आई , " क़िस्मत ख़राब है अपनी ....! आज़ कोई मसान नहीं जल रही वर्ना यहीं फेंक देते इन्हें ....!"
शायद वे श्मशानघाट में खड़े थे । मैं डर गया ।
कार के दरवाजे बन्द हो गए । कार चल पड़ी । पता नहीं कितनी देर सड़कों पर भागती रही । आखिर एक ज़गह जाकर रुक गई ।
पिछला दरवाजा खुला । चार हाथों ने हमें उठाया और झाड़ियों में उछाल दिया ।
हमारे कपड़े और समान वाली पोटली भी वहीं फैंक दी ।
कार की आवाज़ दूर होती गई ।
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मैं काफी देर साँस रोके वहीं पड़ा रहा । जब कार की आवाज़ सुनाई देनी बन्द हो गई मैंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं । बिंदी को हिलाया पर वह नहीं बोला । बेसुध पड़ा रहा । कम्बल हमारे चारों ओर बिस्तरे की तरह लपेटा गया था । मैंने पलट - पलट कर बड़ी मुश्किल से उसे खोला ।
ठण्ड से सुन्न , मार से बेहाल , हम नंगे पड़े थे । मैं पड़ा -पड़ा अँधेरे में कपड़े टटोलने लगा । कपड़े पोटली के पास ही पड़े थे ।
वे हमें झाड़ियों में फेंक गए ये बात तो समझ आई पर वे हमारे कपड़े और पोटली भी फेंक गए , ये बात मुझे समझ नहीं आई ।
मैंने पहले बिंदी को निक्कर और कुर्ता पहनाया । वह ठण्ड से अकड़ा हुआ था । अपना निक्कर कुर्ता पहन मैंने उसे कम्बल में लपेट दिया और अपने ऊपर भी फटा हुआ कम्बल ले लिया ।
" अब क्या करूँ ? ....किधर जाऊँ ....?" कम्बल में पड़ा मैं आधी रात तक सोचता रहा ।
अधचेतन अवस्था में मेरी सुरति में बापू घूमता रहा ।
जैसे वह कह रहा हो , " जीना है तो तमाशा करो ....!"
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बापू के कथन की स्मृति मुझे ऊर्जा दे गई । मेरा शरीर गर्म होने लगा । मैंने बिंदी के शरीर पर हाथ फिराया वह बर्फ़ की तरह ठंडा था ।
" बिंदी ! ...ओये बिंदी  ...!" मैं उसे हिलाने लगा ।
पर शायद अभी उसकी सुरति नहीं लौटी थी , नहीं तो वह बोलता । उसकी बेहोशी देख मुझे डर लगने लगा ।
मैंने बिंदी को अपने संग लिपटा लिया । रात बीतने लगी ।
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गुरूद्वारे के पाठी की आवाज़ गूँजने लगी  , मन्दिर में घण्टियाँ बजने लगी , मौलवी ने बांग दी ...। रात बीत चुकी थी पर बिंदी अभी भी बेसुध था । मैं हौले - हौले बड़ी मुश्क़िल से उठा । पूरा शरीर दुख रहा था । इतनी मार पड़ी थी कि अंग - अंग टूटा जा रहा था । मैंने दाँतों में जीभ दबा ली । अपना कम्बल ठीक किया , पोटली उठाई और हिम्मत करके पूरे जोर से बिंदी को अपने कन्धे पर डाल लिया ।
एक उसका भार , दूसरे कम्बल , पोटली...मैं गिरते- गिरते बचा। दर्द से आँखें बन्द हो गईं । बड़ी भूख लगी हुई थी । पर मैंने हिम्मत न हारी । धीरे - धीरे मैं बाजार की ओर चल पड़ा ...!
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बस स्टैंड के पास धूनी जल रही थी । कोई कुर्सी पर बैठा आग ताप रहा था ।
बिंदी को उठाये मैं उसकी ओर चल पड़ा । वह चौकीदार था । आग की रौशनी में उसकी आँखें मुझे घूर रही थीं ।
" क्यों जादूगर ! इतनी सवेरे -सवेरे  किधर को ...? रात कहीं तमाशा करते रहे हो क्या ...?" उसने कुर्सी के पास रखा डंडा धरती पर मारा ।
मेरा दिल किया यही डंडा उसके दे मारूँ । पर पिटाई का ख़्याल आते ही मुझे थानेदार का चेहरा नज़र आने लगा । उसकी लाल आँखें मुझे डराने लगीं ।
मैं उसकी बात का ज़वाब देने की बजाय धूनी के पास बैठ गया । धीरे से बिंदी को नीचे रखा , पोटली रखी और बैठकर आग तापने लगा । मेरा जमा हुआ खून गर्म होने लगा ।
मैंने बिंदी को खींच कर धूनी के पास कर लिया ।

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" ओये तेरा भाई तो मर गया ....! .... लाश को उठाये फिरता है साले ....!"
चौकीदार की आवाज़ सुनकर मेरी आँख खुल गई ।
धूनी की गर्माहट से मुझे नींद आ गई थी । मैं बिंदी को जगाने लगा , " बिंदी ! ....ओये बिंदी ! ....उठ ...!"
" यह अब नहीं उठेगा पगले  ....!" चौकीदार मुझे समझाने लगा ।
वह यह क्या कह रहा है ...? बिंदी मर गया ....??  नहीं .... नहीं ....यह नहीं हो सकता !
" बिंदी मर नहीं सकता ...!" लाश के ऊपर गिरकर मैं रोने लगा ।
चौकीदार बड़ी डरावनी आवाज़ में बोला , " जा ...अब जाकर इसका संस्कार कर दे ....!"
बिंदी को आग लगा दूँ ....? नहीं ....नहीं ...मैं ये नहीं कर सकता !
"पर ये तो करना ही पड़ेगा ...!" मुझे चौकीदार की आँखों में मसान जलता दिखा।
मैंने खाली जेब में हाथ मारा । काली देवी का नाम लेकर पोटली उठा ली ।
बिंदी को कंधे पर डाल श्मशान की ओर चल पड़ा ।
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बाज़ार खुलने तक मैं श्मशान में छिपा बैठा रहा ।
मेरे सामने बिंदी की लाश पड़ी थी । उसकी बिल्ली आँखें मुझे घूर रही थीं । मैं थोड़ी -थोड़ी देर बाद रोने लगता , " तूँ वी धोखा कर गया बिंदी ....!"
" कौन किससे धोखा कर गया ! ...यह तो वही जानता है बूटे ....!" लोगों की आवाज़ सुनकर मेरे भीतर एक डर सा समा गया ।
पोटली कन्धे पर रख मैंने बिंदी की लाश उठाई और श्मशान की पिछली टूटी हुई दीवार से बाहर निकल गया।
शराबी की घरवाली की अस्थियां चुनने आई भीड़ श्मशान में जा घुसी ।
सूने पुल पर निगाह डाल मैं सड़क पर आ गया ।
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रस्ते में काटी मिल गया । वह मद्दी की दुकान की ओर जा रहा था । लड्डू , अंजलि , दीसा भीख माँगने बस स्टैंड की ओर जा रहे थे । शम्मी कागज़ बिन रही थी ।
" ये बिंदी को क्या हो गया ...?" सबका यही सवाल था ।
पर मैं कुछ न बोला और तेज -तेज चलने लगा ।
गाँधी चौक थोड़ी ही दूर था ।
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मैं बिंदी को उठाये चौंक में खड़ा था ।
दूर दूर तक शीशे की बड़ी-बड़ी दुकाने थीं ।
दुकानों की ओर देख मैंने कमर में कपड़ा बाँध लिया ।
भूख से आंतें ऐंठ रही थीं । पेट की आग के लिए , मसान की आग के लिए मैं खाली जगह पर खड़ा हो गया ।
मज़मा लगाना शुरू कर दिया ।
धरती पर कम्बल बिछाया । धीरे से बिंदी को नीचे रखा । ऊपर चद्दर डाल दी ।
पोटली से झुरलू निकाला। उससे लाश के चारों ओर एक लकीर खींच दी ।
मैंने आँख बचाकर डमरू उठा लिया ।
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" हाँ जी ! .....मेहरबान ....कदरदान ! .... ज़िन्दगी और मौत का खेल देखो  ....!" बाँह ऊँची करके मैं बापू की तरह बोलने लगा ।
डमरू बजने लगा ! एक ....दो ....तीन ....चार ! लोगों की भीड़ जुटने लगी ।
मैं बिंदी के चारो ओर खीचीं लकीर की परिक्रमा करने लगा , "जै काली कलकत्ते वाली ! ...तेरा वार न जाये खाली ! ... बच्चा लोग बजाओ ताली ....!!"
तालियाँ बजने लगीं । मैं चद्दर के नीचे पड़ी लाश से बातें करने लगा , " चल भई जमूरे ! ....उठकर खड़ा हो ...!  ... देख तुझे देखने वाले आये हैं ....!"
" क्या कहा ! .... सर की न पैर की ! ....तू बिंदी सारे शहर की ....!"
चद्दर से कान लगा मैंने ख़ुद ही ज़वाब दे दिया ।
लोगों की ओर देख डमरू बजाया । काफ़ी भीड़ जमा हो गई थी । अगर सम्भाला न गया ......?
पर मैंने बापू की तरह दिमाग लगाया । मैंने ऐलान किया , " लो बदमाशो ! ...अपनी आँखों पर यकीन रखना ! ...आज़ सबसे बड़ा जादू ....!"
" ऐसे ही बकवास करता है ! ....इनके पास हाथ की सफ़ाई होती है ....!" मेरी बात सुनकर खुसर -फुसर होने लगी ।
एक व्यक्ति बोला , " यह अपने जादू से देखने वालों की नज़र बाँध देते हैं ...!"
" नहीं माई - बाप ! यह हाथ की सफ़ाई नहीं !....यह नज़र का धोखा नहीं  ! ....यह बिल्ली आँखों का जादू है ....!" मैंने बापू की तरह शब्दों का जाल फेंका  ...!
डमरू बजाता हुआ मैं बिंदी के सर की तरफ़ जा बैठा ।
आँखें बन्द कर काली देवी को याद किया । मुँह में मन्त्र पढ़ा । चद्दर के ऊपर से सात बार झुरलू घुमाया ।
मैंने लोगों की नज़र बाँध दी ।
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जो भी अपनी जगह से हिला ....उसे माँ -बाप की कसम लगे ....! " मेरी आँखों के आगे रोटी नाचने लगी थी ।
मैंने डमरू और झुरलू नीचे रखा । पोटली में से छूरी निकाल ली ।
" भूख का ....आग का ....ज़िन्दगी और मौत का सवाल है माई बाप ....! .... कोई भी अपनी जगह से ......" कहते हुए ज्यों जी मैंने अपनी छूरी वाला हाथ चद्दर की ओर बढ़ाया .... भीड़ की नज़र कुछ ढूँढने लगी । आवाजें शोर करने लगीं , " नकली छूरी है ....!"
" ये ले ....! ...अब दिखा जादू ....! " किसी ने मेरी तरफ़ असली छूरी उछाल दी ।
मैंने छूरी उठाकर अपना हाथ चद्दर के नीचे बढ़ा दिया ।
भीड़ में खुसर -फुसर होने लगी । चद्दर लाल हो गई ।
" नकली लाल रंग है ....!" भीड़ हँसने लगी ।
मैंने बिंदी की लाश से चद्दर उठा दी ।
उसका सर धड़ से अलग हो गया था ।
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" जादू ! तूँ अज्ज  अपणा अंदर क्यों मरण दित्ता पुत्त ....? " आसमां से बापू जैसे मुझे पूछ रहा था...!
मेरी ओर छूरी फेंकने वाला व्यक्ति अपनी जगह छोड़कर खिसकने लगा । लोगों की भीड़ भी बाजार की ओर चल पड़ी ।
मैं लाल हुई चद्दर की ओर देखने लगा । बिंदी का कटा हुआ सर मेरी ओर देख रहा था ।
उसकी बिल्ली आँखों में आँसू थे ।
" जब कोई मर जाता है ...उसकी आँखों से आँसू नहीं बहते ...!"  बापू की कही ये बात याद आते ही मेरी चीख़ निकल गई ।
                                                                                       समाप्त
सम्पर्क -

लेखकः जसबीर 'राणा '
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः९८१५६५९२२०
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अनुवादिका  :हरकीरत 'हीर' १८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुरहॉउस - , गुवाहाटी-७८१००१ (असम) फोन- ९८६४१७१३००

Tuesday, August 9, 2016

लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( १) खितियाँ घूम रहीआं ने ( २) शिखर दुपहिरा(३) मैं ते मेरी ख़ामोशी (४) बिल्लिआं अक्खां दा जादू
उपन्यास - चुस्त जीभ दी शब्द लीला (पंजाबी, छपने को तैयार  )
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
संपर्क- ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०

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कहानी-
 पट्ट ते वाही मोरनी -
लेखक -जसवीर सिंह राणा , अनुवाद -  हरकीरत 'हीर'
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" बस वैसे ही चला गया ! ....जाते हुए बता कर भी नहीं गया ....।"  करवट लेकर माँ ने मेरी ओर पीठ कर ली ।
वह बापू की बात कर रही थी । आख़िर वह चला किधर गया ? मैं सोच में पड़ गया था ।
माँ तो कहती थी मर गया पर वह मरा नहीं मारा गया था। वह मुझे उसका क़ातिल समझती । कहती मैंने ही उसे मरने के लिए मज़बूर किया था। पर नहीं , बापू इतनी कच्ची मिट्टी का नहीं था । उसकी तो बात ही और थी । जिस वक़्त लड़ाई होती वह जोर जोर से बोलने लगता , "बस यही साल है ! ....अगले साल मैंने कहीं दूर चले जाना है  ! फ़िर कभी किसी से नहीं मिलूँगा ....!
वह घर क्यों छोड़ना चाहता था ? कौन सी दूरी उसे कहीं दूर ले जाना चाहती थी ? माँ कभी भी इन सवालों को समझ न सकी । न मैं समझ सका । अगर समझ जाता , न माँ तड़पती, न बापू जाता , न मैं .....!
" मैं तो गया ही था ! ... तू बता क्यों चला गया  ....? " मुझे माँ के सिरहाने खड़ा बापू दिखाई दिया ।
वह कुछ पूछ रहा था । उसकी पूछ में कोई गहरी रम्ज़ थी ।
पर मैं कुछ न बोला । वह तो कब का ....! वह मुझे कैसे पूछ सकता था । मैंने भी माँ की तरह पासा परत लिया ।
"पासा परतने से कोई ओझल नहीं हो जाता ! " बापू मुझे फ़िर दिखने लगा ।
मैंने गौर से देखा  ... पर कुछ न दिखा । शायद मेरा वहम था ।
" कई  भरम बड़े खूबसूरत होते हैं ....! आवाज़ से मैं आवाक था ।
बैठक में ज़ीरो वाट के बल्ब की रौशनी थी ।  पलंग के एक तरफ़ मनी सोई हुई थी । बीच में बच्चे और ज़रा सा हटकर खटिये पर माँ लेटी थी ।
पर बापू कहाँ था ...?
शायद वह कहीं बाहर नहीं मेरे भीतर ही था ।
जब तक वह घर में रहा उसकी हर बात ज़हर लगती । पर जब से वह गया उसकी हर बात सही लग रही थी ।
" जाने वाले की हर बात अच्छी लगती है ....!" ख्यालों में खोई माँ हवा से बातें कर रही थी ।
उसकी ओर देख मेरा दिल बैठने लगा । सुरति बापू से जुड़ने लगी । मुझे मोरनी वाला दृश्य नज़र आने लगा ।
ज्यों ही मोरनी नृत्य करते मोर की ओर बढ़ने लगी सामने की कोठी का गेट खुला । हाथ में राइफ़ल उठाये एक काला बाहर आया ।
आँगन में आकर उसकी शिकारी आँख चारो ओर घूमने लगी । वह  नज़दीक के खाली पड़े प्लॉट में जा खड़ा हुआ ।
मोर ने पंख और फैला लिए थे । मोरनी नाचने लगी । काला सुलग उठा । राइफ़ल कंधे से उतार निशाना लगाया और घोड़ा दबा दिया ....!
' ठाय ....य ....य....!'
" हाय ! ओये मार दित्ता ....!" दाहिना पट्ट(जाँघ ) पकड़े बापू दोहरा हो गया ।
मैंने चोर आँखों से उसकी ओर देखा । वह अपना पट्ट ( जांघ ) देख रहा था । उसकी नज़र वहाँ टिकी हुई थी जहाँ कभी उसने मोरनी खुदवाई थी । पर अब वहाँ सिर्फ़ गोली का निशान था ।
" निशान कभी मिटा नहीं करते ..!"  कहीं दूर देखता हुआ बापू ख्यालों में खो गया था...!
जवानी में घटी वो घटना उसका पीछा आज़ भी नहीं छोड़ती । जब भी उसे वह घटना याद आती है ।बापू को गोली चलाता हुआ काला दिखाई देने लगता । उसके चेहरे पर एक रंग आता एक रंग जाता । आँखों में खून उतर आता । धीरे -धीरे उसका सारा शरीर सख़्त होता जाता ।
जब कोई पेश न चलती वह अपना दाहिना जाँघ पकड़ दोहरा हो जाता , " वह मेरी मोरनी थी ....!"
" बापू ....!!" मेरा दिल करता कि उसका ख्याल तोड़ दूँ पर अगला ही पल मुझे रोक लेता । बापू के पास अब ख्यालों के सिवा है भी क्या था ...!
" बड़ा कुछ है ...!" आवाज़ सुनकर मैं दहल गया ।
वही लहज़ा , वही नखरा , वही आँख !
मेरी सुरति में अड़ा बापू माँ की ओर देख रहा था ।
उसकी ओर देख मैं उसके 'छोटे से इतिहास ' के पन्ने पलटने लगा ।
" जैसे इक कौम का इतिहास होता है , वैसे ही हर इंसान का भी इतिहास होता है । भले ही वह छोटा सा ही क्यों न हो  ....!" कई बार फौजी मूड में आकर बापू मुझे दुश्मनों की तरह देखने लगता ।


उसका इतिहास घर से फ़ौज तक , फ़ौज से पिंड (गाँव) तक और पिंड में मोरनी से लेकर जाफी की घरवाली तक फैला हुआ था ।
मैं उसके फैलाव को बांधना चाहता था ।
" कोई बात नहीं बेटे ! तूने भी एक दिन मेरी तरह ही फैलना है ....!"  जब वह कहता , मुझे आग सी लग जाती , " देखता जा मैं तेरा क्या करता हूँ  ....!"
मैं बापू को रोकना चाहता था या फ़िर अपने आपको ? अपने इन अजीब सवाल से उलझता हुआ मैं आँखें बन्द कर कुछ देर चुपचाप पड़ा रहा । पर अगला ही पल मुझे अंदर तक झिंझोड़ गया ।
आँगन में चली आ रही माँ बड़बड़ा रही थी , " पता नहीं बुड्ढे बारे एहदी की जवार निस्सरदी ती ....!"*
शायद वह पेशाब करके लौट रही थी ।
मैं समझ गया उसने बरामदे में दीवार पर टँगी मोरनी वाली तस्वीर देख ली है । वह जब भी इस तस्वीर को देखती उसके अंदर आग सी मच उठती । वह कितनी ही देर जली कटी सुनाती रहती ।
" आह फोटो वी हुण नाल ई लै जांदा ....!" फटाक से दरवाज़ा बन्द कर वह पलंग पर गिर पड़ी ।
बापू के कारण वह रोगी हो गई थी ।
" रोगी तो मैं हुआ पड़ा हूँ ...!" जब बापू शराब के नशे में होता तो दिल पर हाथ रख लेता ।
मैंने माँ की ओर देखा वह पेट पर हाथ बांधे छत की ओर देख रही थी ।
बापू उसका कभी न जाने वाला रोग था । उसका कितना ही कुछ माँ के उदर में समा गया था ।
जिस वक़्त उसकी बात चलती माँ रोने लगती , " जिद्दण दी एहदे घर आईं हां इक दिन नी सुख दा वेखिआ ....! कोई राय नी ....कोई प्यार दी गल्ल नी ...! एहदे तां सारी उमर इशने -बिशने ई लोट नी आये ....!"
मैं बापू के इशने बिशने के बारे सोचने लगा । वो बातें ही कुछ ऐसी थीं जिनपर मुझे भी एतराज़ था ।
"अगर ऐतराज़ था तो फ़िर तुम्हारी मति क्यों मारी गई ...?" माँ नहीं यानि उसका पेट बोला , " जो तुम्हारे बाप बेटे के पेट में है वो मेरे नाखूनों में है  ....!"
मैं माँ की ओर देखने लगा । उसके नाखूनों में क्या था ...? मैं डर गया । बापू की तो वह रग -रग जानती थी । पर उसे मेरा कैसे पता चल गया । जिसे पता चलने का डर था वह तो सोई हुई थी । मैंने मनी का हाथ चूम लिया । वह थोड़ा सा बच्चों की तरफ़ सरकी और करवट लेकर फ़िर लेट गई ।
" चल लेट जा अब ! .....बहुत हो गया ...!" माँ मुझसे कह रही थी या अपने आपको । पता करने के लिए मैंने पूछ ही लिया, " किसे कह रही हो माँ ..?"
" कहती हूँ तुम्हारे बाप को ! ... पहले तो उसके पीछे पड़ा रहा ......कहता बूढ़ा लड़कों जैसी हरक़तें करता है ! ....यह औरतों के पास जाता है ! ..जब तक वह मरा नहीं ... यह बाप का बेटा हटा नहीं ! ...अब आधी - आधी रात बैठा पता नहीं क्या सोचता रहता है  ...!" मेरा सवाल सुनकर वह आग की तरह भड़क उठी ।
मैं चुप कर गया । वह मेरी ओर झाँकने लगी । मुझे उसकी आँखों में कितना कुछ झुलसता नज़र आया । वह राख़ से भरी हुई थी । बापू उसकी बेरुख़ी से भरा था । जाने से पहले उसने एक बार कहा था , " एक तो तुम्हारी माँ ने ...और दूसरे इस घर ने ...मुझे दिया ही क्या है ! ...मैं तो वैसा ही हूँ जैसा आया था ! ...एक दिन ऐसे ही चुपचाप चले जाना है ...!"
वह किधर चला गया था ? उसे ढूँढती माँ कहीं गहरे गुम गई थी ।
उसने खेस से मुँह धक लिया । मैं काफी देर उसकी ओर देखता रहा । वह सीधी अडोल पड़ी थी .....ख़ामोश ...गुमसुम ...!
सुबह होने तक अब उसके कुछ नहीं बोलना था । जिस दिन दे बापू गया हमारा रोज़ का ही किस्सा था । मनी बच्चों के साथ सो जाती माँ आधी रात तक मुझे बापू का क़ातिल ठहराती रहती । पहले तो मैं बड़ा विरोध करता था । माँ से बहसता पर 'उस रात वाली घटना' के बाद मैं गहरी सोच में डूब गया । माँ बोलती रहती मैं चुपचाप बापू का व्ह इतिहास खंगालता रहता ...जो उससे लेकर मुझ तक फैल गया था ...!

"  हुण इस फैलाअ नूं वड्ड मार पुत्त ...!" बापू मुझे फ़िर दिखने लगा था ।
उसकी आवाज़ मेरा अंतर काटने लगी ।
मैं उसकी ज़िन्दगी की एक एक घटना याद करने लगा ।
" जिसके साथ बीती हो पुत्र ...उसे कुछ याद करने की ज़रूरत नहीं होती । सब कुछ अंदर -बाहर रेखांकित होता है । जैसे मेरे अंदर मोरनी ..!" बिल्लू की दूकान पर बैठा वो अक़्सर बताया करता ।
कई बार जब ज्यादा पी होती । वह सारी हदें सरहदें फलांग जाता । यहाँ तक कि मैं कौन हूँ वो ये भी भूल जाता और मैं उसका दुःख-दर्द सुनने वाला यार बन जाता ।
वह बताने लगता , " उस वक़्त मैं कहीं किसी स्कूल में पढ़ता था । ... देख ले फ़िर ...!"
जिस वक़्त वह ' देख ले फ़िर ' कहता मुझे लांगड़ियों का पेट्रोल पम्प नज़र आने लगता । बापू वहाँ से ब्राह्मणों के प्रकाश के संग डीजल लेने गया था ।
लाइन बहुत लम्बी थी ।  उन्होंने पीपा लाइन में रख दिया । जब तक बारी आई तब तक बापू की प्रकाश के साथ योजना बन चुकी थी । वे तेल का भरा हुआ पीपा भूरे के बेटे शीतर को पकड़ा नाभे वाली बस में चढ़ गए ।
वहां फ़ौज की भर्ती हो रही थी । दोनों के शरीर हट्टे - कट्टे थे । कोई लौट कर न आया । दोनों की भर्ती फ़ौज में हो गई । फ़ौज में लड़कों की सख़्त ज़रूरत थी । वहीं से उन्हें ट्रेनिंग के लिये भेज दिया गया । बापू चला तो गया पर उसकी सुरति घर में ही रह गई । घर की वह बैठक उसे परेशान करने लगी जिसमें पहली बार उसे लाली मिली थी ।
" उसकी मोरनी सी चाल थी ..!"  बताता हुआ बापू भिलोआल के मेले की घटना सुनाने लगता , " जब मैं ट्रेनिंग पूरी कर घर लौटा  ....रात होने का बेसब्री से इंतज़ार था ...मैंने लाली को लांगे वाले दरवाजे पर बुला लिया ...वह आई ...मैं न जाने कितनी देर उसके गले लगकर रोता रहा ...वह मोरनी की तरह मेरे आँसू पीती रही .....सारा पिंड सोया हुआ था .....हम जाग रहे थे ...जब पिंड जागा ....हम अपने अपने घर परत सो गए थे ....!"
जिस वक़्त वह अपनी प्रेम कथा छेड़ लेता फ़िर सोता नहीं । सारी रात अपनी जाँघ का वह हिस्सा चूमता रहता जहाँ मोरनी अंकित थी ।
" अब वह मोरनी खुदवाने वाला किस्सा भी सुना ....!" मेरे अंदर की उत्कंठा उसे फ़िर ख्यालों में उतार देती ...
बापू फिर भिलोआल के मेले का किस्सा सुनाने लगता , " हम उसदिन मेले में ज़रा सा आगे -पीछे योजना बनाकर गए थे ..
पहले एक खतान से में बनी दुकान में गए वहाँ टाट बिछी हुई थी । वहाँ बैठ हमने जलेबियाँ , पकौड़े खाये  । फ़िर मैंने लाली को एक दुकान से चूड़ियाँ , गानी (कण्ठी) और एक मिट्टी का मोर लेकर दिया ..
! .... जाते- जाते वह जो बात कह गई ..बस जैसे मेरी जान ही ले गई ...!"
" वह कौन सी बात थी बापू ...?' मेरी बात सुनकर बापू जाँघ पर थापी मारता हुआ बोला , " कहिन्दी तेरा पट्ट बड़ा सोहणा ...इस ते मोरनी वहा लै ..! ...जदों मैं याद आई इसनूं वेख लिया करीं ....!"
" देख शर्म नहीं आंदी दोहां नूं ...!" जिस वक़्त बापू मुझे मोरनी खुदवाने का किस्सा बता रहा होता माँ गालियां देने लग पड़ती । उसकी गालियाँ बापू का अंतर जला देतीं ।
वह कितनी ही देर बरामदे की दीवार पर टँगी मोरनी की तस्वीर को देखता रहता ।
" बे यह तो कंजर (निर्लज्ज) है ही ऐसा ....तेरी शर्म क्यों चली गई ....?" माँ की बात सुन मैं सोचने लगता ....!
मैंने तो मनी से लव -मैरिज की थी , फ़िर कौन सी गाँठ थी जिसे खोलने के लिए मैं बापू की प्रेम गाथा सुनने लगता हूँ ? माँ के कहने के मुताबिक़ तो वह कंजर था । क्या मेरे अंदर भी कोई कंजर छिपा बैठा था ?
सोचते ही मैं डर गया । मुझे एक भय सा सताने लगा , "अगर मनी को यह पता चल गया कि वह एक 'कंजर के बेटे' से व्याही है फिर ...?" इस ख़तरनाक ख्याल को तुरन्त झटक मैं करवट बदल मनी की ओर पीठ कर सो गया ।
" देखना पीठ मत दिखाना बेटे ...!" बापू मेरी पीठ थपथपाने लगा । मेरी अवचेतना में वह ' कंजर के अड्डे ' की ओर चला जा रहा था ।
बिल्लू की दुकान को माँ 'कंजरों का अड्डा ' कहती थी । वह क्या सारा पिंड ही कहता था । जो भी दुकान के सामने से गुज़रता उसकी निगाह सामने की दीवार से जा टकराती । कोई उसपर लाल रंग से लिख गया था , " कई शादियों के शौक़ीन ...! ...बिल्लू से मिलें ....!

" दीवारों पर लिखी बातों का भी अपना एक स्वाद होता है ....!" लिखा हुआ मिटाने की बजाय बिल्लू गर्व से कहता ।
उसकी दुकान पर बापू जैसे बूढ़ों की टोली बैठती थी ।
वैसे तो पंचायत ने 'सीनियर सिटीजन होम ' बनाया हुआ था ।
पर बापू का किसी से सुर न मिलता । वहाँ अधिकतर 'रिटायर्ड लोग ' बैठते थे । कोई ताश खेलता , कोई टी वी देखता , कोई अखबार या किताब पढ़ता तो कोई बातों में ही मशगुल रहता । बापू को उनका कुछ भी रास न आता । किसी बेचैनी से भरा वह हवा सा इधर - उधर घूमता रहता । घूमता घामता एक दिन वह बिल्लू की दुकान पर जा बैठा । वहाँ आठ -दस बुजुर्ग बैठे कमाल की बातें कर रहे थे । कोई शराब की बातें कर रहा था ,  कोई किसी गैर स्त्री से अंतरंग रिश्तों की बातें करता तो कोई पुराने इश्क़- मुश्क़ के किस्से सुनाता ।
बापू को उनमें अपना आप नज़र आता । उसके अंदर की दबी आग सुलह उठती। ज्यों ही सूरज चढ़ता उसके कदम बिल्लू की दुकान की ओर चल पड़ते । जिस दिन उसने बताया , " लाली मेरी मोरनी थी ....!"
" हई शावा ...! इह वी मुंडा ही निकलिआ ...!" बूढ़ों में ठिठोली चल पड़ी ।
बापू को उनकी हँसी बुरी लगी । वह घर आकर आधी रात तक बड़बड़ाता रहा , " साले सारे के सारे बेवकूफ़ों के सरदार हैं ..! ...मैं बताता कुछ और हूँ ये समझते कुछ और हैं ....!""
" ला मुझे समझा ...!" उसकी बेबसी देख मुझे उसपर तरस आता ।
" जहाँ लाली बैठती थी ..फ़िर मैं दोनों कलश वहाँ रख आया ...!" अपनी प्रेम कथा सुनाते हुए बापू की आँखें भीग जाती ।
जिस वर्ष लाली का विवाह हुआ । वह साल बापू के लिए प्रलय जैसा था । उसे पिंड में घुसते ही पता चल गया था । वह घर तक बड़ी मुश्किल से पहुँचा । जब रात हुई बापू ने फौजी ट्रंक में से रसगुल्लों के दो कलश  निकाल लिए । वह दिल्ली से लाली के लिए लेकर आया था । अब अकेले कैसे खाता । उदास मन से वह लांघे वाले दरवाजे की ओर चल पड़ा । राह में कई लोगों ने बुलाया भी पर वह कुछ न बोला । वह उस जगह जा बैठा जहाँ लाली बैठा करती थी । उस स्थान में उसकी मुहब्बत की निशानियाँ थी । बैठते सार ही वह जोर - जोर से रोने लगा , पर अब उसके आँसू पीने वाली मोरनी कहीं नहीं थी ।
जब वह रोकर हल्का हो चुका , रसगुल्लों वाला कलश लाली की बैठने वाली जगह पर रख घर लौट आया ।
" रात यह जादू -टोना पता नहीं कौन कर गया ...!" सुबह होते ही लोग बातें करने लगे ।
कइयों की राय थी , "फ़ौजी तो ऐसा लगता है जैसे किसी टोने को लांघ गया हो ...!"
पर बापू पर किसी जादू टोने का असर नहीं था । एक गहरी ख़ामोशी उसके अंदर समा गई थी । वह चुपचाप घर की दीवारों को एकटक देखता रहता । जिधर भी देखता उसे अलीपुर वाले सरदारों का काला दिखाई देता । जो लाली को ब्याह कर ले गया था । बापू की मोरनी उसकी कोठी में कैद थी ।
उसकी कोठी में और भी बहुत कुछ कैद था ।
दीवार पर टँगी राइफ़ल , मोर के पंख , भूसा भरवा कर जगह -जगह रखी मोरनियाँ ...!
वह मोरनियों का शिकारी था ।
जब भी कोई नृत्य करती जोड़ी दिखाई देती वह सबसे पहले मोरनी का निशाना बाँधता ।
" नी उड जा मोरनिये ...तेरे मगर बन्दुकां वाले ...!" जिस दिन बापू की ख़ामोशी टूटती उसकी जुबां पर ये गीत घूमता रहता ।
इस वक़्त वह पता नहीं कहाँ घूम रहा था ।
उसकी यही बात माँ को मार गई । नहीं तो माँ अभी मरने वाली न थी ।
जब वह ब्याही आई थी , आते ही उसने टूटे बापू को सम्भाल लिया था । गुड़ खाने वालों की बुढ़िया कभी-कभी बताया करती , कहती माँ बहुत सुंदर हुआ करती थी । उसने आते ही हारे हुए बापू को जीत लिया था । जब वह छुट्टी आता माँ उसकी मोरनी बन जाती । बापू उसके साथ फ़िर से जीने लगा था । जब वापसी का समय होता माँ को छोड़कर जाने का ख्याल भी उसे उदास कर जाता ।
"दिल ही उदास है जी बाकी सब ख़ैर है ....!" मुझे बापू की तुक याद आ गई ।
उदासी दूर करने के लिए वह सीधे बिल्लू की दुकान की ओर हो लेता था । " आपां ऐथे उदासी दूर करण ही बैठे हाँ फौजिया ! .....लिया कड्ड पंज सौ ....ते बोल वाहेगुरू .....!" बिल्लू की बात सुनकर बापू जेब में हाथ डाल लेता ।
उसकी दुकान में बैठने वाले बुजुर्गों की टोली का दस्तूर जग से अनोखा था ।
पिंड की नज़रों में उनकी टोली 'नौजवान क्लब' थी । बुज़ुर्ग उसी के मैम्बर थे ।
मेम्बरशिप फ़ीस पाँच सौ महीना थी ।
जिसदिन बापू को पेंशन मिलती वह सबसे पहले फ़ीस जमा करवाकर आता ।
बिल्लू उनका खजांची से लेकर सबकुछ था । वह बूढ़ों की तबीयत ख़ुश रखने वाला मसीहा था । शराब वाले के लिए शराब हाज़िर करनी , शबाब वाले के लिए औरतें जुटानी और जो भी कुछ मांगता उसकी इच्छानुसार चीजें पेश कर बिल्लू सबका मन जीत लेता था ।
पर बापू उसके काबू न आता । वह शराब पीकर एक ही बात दोहराता रहता , " कहीं से मोरनी ढूँढकर ला दे ...!"
बिल्लू कहाँ से ढूंढकर लाता मोरनी ? वह तो बापू माँ के अंदर भी न ढूँढ पाया था  ।
" एक बार तो मिल गई थी ! पर उसे भी साला जंग छीन ले गया ...अलीपुर वाला काला ,साला कुत्ता कहीं का...!" जब भी बापू को गुस्सा आता वह जंग चाचे की माँ -बहन एक कर देता । गालियाँ देते वक़्त वह सगे भाई -बन्धु का पन्ना ही फाड़ देता ।
" वह मेरा भाई नहीं ...मेरी मोरनी का चोर है ...! ..मैं वहाँ सरहदों पर ढूँढता फिरता रहता हूँ ..दुश्मन तो साला मेरे घर में ही बैठा है ...!" छुट्टी में आया बापू ज़हर उगलने लगता ।
जंग चाचा उसकी पीठ का ज़ख्म था ।
" मेरे पीछे ये क्या करते हैं मुझे सब पता है चाची  ...!" जाने से पहले बापू गुड़ खाने वालों की बुढ़िया से अपना दुःख -दर्द बाँटने जाता ।
उसका इतिहास खंगालता हुआ जिस दिन भी मैं उसके पास जाता , वह मुझे सबकुछ बता देती । वह सारे पिंड की ख़बर रखती थी ।
बापू को उससे सबकुछ पता चल गया था ।
छुट्टी आकर वह जब भी मेरे ननिहाल जाता । स्कूटर नहर की पटरी पर डाल लेता । माँ उसके पीछे बैठी होती । बापू प्यार की बातें करने लगता वह हाँमी भर्ती रहती । जब बापू ख़ुश हो जाता अचानक उसके दिमाग में जंग चाचा का ख्याल आ जाता और फ़िर वो बुझ सा जाता । जब माँ पूछती , " क्यों अब क्या हो गया ? "
" जंग के पीछे भी ऐसे ही बैठती होगी ...!" खून का घूँट पीकर वह स्कूटर की रफ़्तार बढ़ा देता ।
"तुम्हारे ननिहाल जाकर भी उसे सुध नहीं आती थी ...?" मेरे पूछने पर गुड़ खाने वालों की बुढ़िया अगली परत खोलती ।
वह कहती मेरे ननिहाल जाकर बापू बुझ सा जाता । आस -पड़ोस की लड़कियाँ उससे हास -परिहास करती पर वह गुमसुम सा बैठा रहता । जब रात होती चारपाइयाँ कोठों पर चढ़ा ली जातीं । सबकी दीवारें साँझी थीं । आधी -आधी रात तक बातें चलती रहतीं । लड़कियों के बीच बैठी माँ की हँसी गूंजती । पुरुषों के बीच लेटा जुआला पटवारी सबसे ऊँचा हँसता । बापू को वो सब रास न आता । अँधेरे में बैठा वह फसी हुई मैना की तरह फड़फड़ाता रहता । जब गोइयों का नक्षत्र पूछता , " क्यों जमाई राजा ...है कि नहीं ...?"
" हां मासड़ा !...गल्ल तां थोडी ठीक आ ...!" कहने को तो बापू कह जाता । पर उसे कुछ भी ठीक न लगता । कितनी ही शक्लें उसके अंदर बनती बिगड़ती रहतीं ।
सुबह होने तक वह ज़हर से भर जाता ।
वापसी के वक़्त स्कूटर तो वह चला रहा होता पर उसे सारे रस्ते जंग चाचे के पीछे बैठ कर जाती माँ नज़र आती रहती ।
मुझे हर रात बापू क्यों दिखता रहता था ...मैं अब भी उसके पीछे क्यों पड़ा हुआ था ...वह कौन सी बात थी जिसकी वजह से वह मुझे अच्छा भी लगता और बुरा भी ...?
मैंने बहुत सोचा । जब कुछ समझ न आया मैं माँ की ओर देखने लगा ।
वह मुद्दतों से खेस में लिपटी हुई थी ।
उसकी ओर देख मुझे बहुत ही डरावना ख्याल आया । यानि वह माँ नहीं बापू थी । वह खेस में नहीं सफ़ेद कपड़े में लिपटा हुआ था ।
क्या वह सच में मर गया ...?

बापू की मौत का ख्याल मुझे रीढ़ की हड्डी तक कँपा गया था ।
मैंने उस ख्याल से पीछा छुड़ाना चाहा । पर छुड़ा न सका । माँ की कही बात मुझे घेरती रही , " मर तो वह बहुत पहले ही गया था .....!"
वह ठीक कहती थी । बापू के अंदर माँ के मरने की इच्छा जन्म ले चुकी थी । कई बार वह सुबह चार बजे ही उठ जाता । हाथ -मुँह धोकर बाबा ज्ञान दास की समाधि की ओर चल पड़ता । जब वापस आता मैं पूछता , " कहाँ गए थे बापू ....?"
" तुम्हारी माँ के मरने की मन्नत मांगने गया था ...!" दाँत पीसता हुआ वह मारने पर उतर आता ।
बुजुर्गों की टोली में बैठा बिल्लू भी बापू की यह इच्छा बताया करता , " भई फ़ौजी कमाल का बन्दा था ! ..एक बार घरवाली को स्कूटर पर बैठाकर नहर के किनारे -किनारे चला जा रहा था ! ..जब आधे रस्ते पहुँचा आगे से नहर की पटरी पर चार , पाँच लोग चले आ रहे थे । किसी के पास गंडासी किसी के पास लाठी , दो जन के हाथों में राइफलें । देखकर पहले तो फौजी डर गया ...भई आज तो सबकुछ गया । पर अगले ही पल वह चुपचाप सबकुछ देने को तैयार भी हो गया । घड़ी , कड़ा , अंगूठी , स्कूटर ....! वह मन ही मन यही सोच रहा था कि बदमाश सबकुछ ले जाएं ...पर मेरी घरवाली को मार दें ...!"
" फ़िर मार के नहीं गए ..?"  बूढ़ों की टोली पूछती ।
बिल्लू जोर -जोर से हँसने लगता , " ना ! वे लोग वैसे ही चुपचाप चले गए ! जब काफी दूर चले गए फौजी पता है क्या कहता था ....?"
" क्या कहता था ...?"  वैलियों का बूढ़ा एड़ियों के भार बैठता हुआ बोला ।
" कहता था मेरा छोटा सा काम तो कर न सके ! ....टट्टू की बदमाशी है यह ...!" हाथ पर हाथ मारता हुआ बिल्लू साथ -साथ ही  नया किस्सा छेड़ बैठता । और तो और ...वह तो अपने बेटे को भी जंग का बेटा बताता था ।"
" हाँ ! बताया करता था ! तुम्हारी पहली लोहड़ी के वक़्त इसने क्या -क्या कुफ़्र तोला था । "
यूँ तो मुझे माँ पर रब्ब जैसा यकीन था । पर बापू की कही बात मुझे परेशान करती रहती । हर साल जब भी लोहड़ी आती मुझे अपनी पहली लोहड़ी याद आने लगती ।
लोगों का जमावड़ा , धूनी की आग , रेवड़ी , गचक के साथ बंटती मूंगफली और मुझे गोद में लिए बैठी माँ ।
" तेरी ओये माँ दी तेरी दी पिंडा ....!" जिस वक़्त शराबी हुआ जंग चाचा ललकारे मारता । उसे गालियाँ देता बापू लांघे वाले दरवाजे की ओर चल पड़ता , " ठहर ज़रा तेरी माँ दी ...तेरी दी ...! ...अलीपुर वाले काले .... माँ की जंगा साले ...!"
दरवाजे पर जाकर वह थमले को जफ्फी पा लेता । वहाँ बैठा वह आधी -आधी रात तक रोता रहता ।
" पर वहाँ मेरे आँसू पीने वाली मोरनी नहीं थी ....!" मेरे अंदर बैठा बापू दाँत पीसने लगा ।
दाँतों की किरच -किरच सुनकर माँ तड़प उठी । वह खेस में लिपटी हुई ही बोली , " वे दंद ना वड्ड मुंडिया ! माड़े हुंदे ने रात नूं ...!" ( दाँत मत पीस बेटे ! अच्छा नहीं होता रात को ...!)
शायद मुझे यह कोई रोग था । पर बापू का रोग मुझसे भी बुरा था । वह रोग उसकी भीतरी ताकत को खत्म कर रहा था । स्वस्थ रहने के लिए वह बहुत कोशिश करता पर कोई न कोई वाकया ऐसा घट जाता कि वह अंदर तक ज़ख़्मी हो जाता ।
फ़ौज में बापू ने दो लड़ाइयाँ लड़ी थीं । पहली लड़ाई में पाकिस्तानी फौजियों ने संभु जोड़ियों का पुल उड़ा दिया था । भारतीय फ़ौज की काफी मशीनरी डूब गई थी ।
बापू टैंक चलाता था । उसका टैंक भी दरिया में गिर गया था ।
वह भी दूसरे फौजियों की तरह तैरने लगा ।
एक जगह उसे अपने ही गाँव का दरबारा तैरता नज़र आया । तैरता हुआ बापू उसके बराबर जा पहुंचा । अपने ही गाँव के व्यक्ति को देखकर वह खुश हो गया था , पर जब दरबारे ने कहा , " मुझे आते हुए जंग मिला था ! ....वह कहता था फ़ौजी को कह देना परिवार की फ़िक्र न करे ....!...मैं हूँ ...!"
उसकी बात सुनकर बापू  डुबकी लगा गया ।
मैं जिन सोचों में डूबता जा रहा था वहाँ से बापू की दूसरी लड़ाई शुरू होती थी ।

वह बताया करता , सुबह का वक़्त था । उनकी टुकड़ी एक जगह खड़ी थी । फौजी बातें कर रहे थे । टैंक के पास खड़ा बापू चढ़ते सूरज की लाली को देख रहा था ।
उसकी जाँघ पर अंकित मोरनी नाच रही थी ।
बापू को ख़बर भी न हुई कि कब एक पाकिस्तानी फौजी दरख़्त के पीछे घात लगाये बैठा था । जब गोली चली तब ही पता चला ।
बापू गिरा नहीं दर्द को पी गया । गोली उसकी जाँघ में लगी थी ।
" उड़ा दो साले को ...!" अफ़सर ने हुक़्म दे दिया ।
पर बापू ने उसे रोक लिया , " एक मिनट ! ....एक मिनट रुक जाओ ....!"
टाँग घसीटते हुए वह पाकिस्तानी फौजी के पास आकर खड़ा हो गया ।
कुछ पल उसके चेहरे को देखता रहा । पहले वह उसे जंग चाचे की तरह लगा फ़िर अलीपुर वाले सरदारों का काले का सा लगा ।
शक्लों में उलझा बापू झट से टैंक में जा चढ़ा । लोहे की चेन घुमी ...धूल उड़ी ...और एक लम्बी चीख़ ...!
जब उसे तसल्ली हो गई बापू टैंक से नीचे उतरा , लाश के टुकड़ों को इकट्ठा किया ...पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी ।
फ़ौजी बापू की खून से लथपथ जाँघ देख रहे थे ।
" उसने जाँघ में गोली नहीं मारी ...! " भीतर का दर्द पीता हुआ वह आग के बीच की लाली को देख रहा था ।
मैं बिस्तर के परले सिरे पर लेटी मनी को देखने लगा । वह बेपरवाह सी सोई हुई थी । पर आज़ मैं उसका गुनहगार बनता जा रहा था । जिसे प्यार किया , जिससे प्रेम विवाह किया आज़ मेरे भीतर उसके मर जाने की इच्छा जन्म ले रही थी । वह तो फ़िर भी मेरी पत्नी थी मैं तो उस बापू के मरने की कामना करने लगा था जिसने मुझे जन्म दिया था ।
" वे हुण किहदे मरण दीआं सुक्खां सुखदां ...? मर तां गिआ ओह ...!" ( बे अब किसके मरने की कामना कर रहा है ? मर तो गया वह ..!) माँ की आवाज़ सुनकर मैंने उसकी ओर देखा ।
वह मुँह से खेस उतारे मेरी ओर देख रही थी ।
मैं उसे क्या बताता । मुझे तो अपना डर सता रहा था । उसी के समाधान के लिए ही 'वाहेगुरू वाहेगुरू' कर रहा था । मन ही मन बापू के परत आने की अरदास कर रहा था ।
" राम -राम कर हुण ! ...ओह नी आउँदा ! ...ओह तां मर गिआ ! ...हां मर गिआ ...!" खेस से मुँह ढककर माँ फ़िर लाश हो गई ।
उसकी ओर देखकर मेरी जान ही निकल गई ।
मैं बापू को घर से निकाल देने की हद तक क्यों जा पहुँचा था ?
" मैं कहीं पहुँचूँ या न पहुँचूँ ! पर तू अब कहीं नहीं पहुँच सकता ...!" मेरी स्मृति में बैठा बापू रहस्मयी आवाज़ में बोला ।
मुझे उसपर शक़ सा हो रहा था । जिस वक़्त बिल्लू की दुकान में चर्चा सुनी मेरा शक़ पक्का हो गया । बापू मुझे मरा हुआ समझता था ।
उनकी टोली की यही यही नीति थी ।
गाँव में जिसका पति मर जाता उसका नाम बिल्लू की लिस्ट में चढ़ जाता था ।
बूढ़ों की टोली सहानुभूति दिखाती , " अभी उम्र ही क्या थी बेचारी की ....! ...पहाड़ सी जवानी कैसे गुजरेगी भला ..? कोई पुरुष तो चाहिए होगा ..!"
"जरुरत के वक़्त आदमी ही आदमी के काम आता है  ...!" बिल्लू हर विधवा के घर जाकर उसे शब्दों से टटोलता ।
कई बार गालियाँ खाकर लौट आता । कई बार जूते चप्पलों से धुनाई भी होती । पर ज्यादातर वह सफ़ल दलाल बनकर लौटता था , " लै फौजिआ बण गया कम्म ... अज्ज रात मोरनी तुरदी वेखीं ...!"(ले फौजिया बन गया काम ...आज़ रात मोरनी चलती देखना )
जिस रात बापू जाफी की घरवाली के पास से लौटा । वह रोटी देने आई मनी को अज़ीब सी नज़रों से घूरता रहा था ।
" तेरी आँख को क्या हो गया बापू ...?" उसकी आँखों में आई गन्दगी को भाँप कर मैं काँप उठा ।
वह बोला , " अपनी मनी भी मोरनी की तरह चलती है ..!"
" रुक जा तेरी ...कंजर की ...!" मैंने उसका गिरेबान पकड़ लिया ।
उसने रोटी वाली थाली उछाल फेंकी । मैंने उसके पेट में लात मारी । वह तगड़ा था मैं नीचे गिर पड़ा । मेरा गला पकड़ता हुआ वह जोर -जोर से रो रहा था , " ओये मैं की करां ! ...मैंनूँ मोरनी दिसणों नी हटदी ...।"
नीचे गिरे -गिरे जब मैंने बापू की आँखों में देखा , एक डर मेरे आर -पार हो गया ।
"  डरन दी लोड नी मुंडिया ! एह ओहनु देखण जादाँ बस ! इस तों वद नी ! जदों वेख आंदा ...मेरे कोल  अद्दी -अद्दी रात तक रोंदा रहिंदा ....!" ( डरने की ज़रूरत नहीं लड़के ! यह उसे देखने जाता है बस ! इससे ज्यादा कुछ नहीं ! जब देख आता है ...मेरे पास आधी -आधी रात तक रोता रहता है ।)

मेरा डर देखकर एक दिन गुड़ खाने वालों की बुढ़िया बताती थी , " इसकी हालात तो उस शराबी जैसी है ...जो ठेके पर बैठ शर्बत पीया करता था ।"
पर मुझे इस बात पर यकीन न होता ।
मैं बापू पर नज़र रखता । उसकी हर बात का अर्थ निकलता । कई बार वह मुझे सही नज़र आता और मैं गलत और कई बार लगता मैं सही हूँ वो गलत ।
" गलत -सही कुछ भी नहीं होता पुत्त !  ....बस देखने का ढंग होता ....!"
इक रात बापू की अज़ीब सी हरक़त देख मैं शर्म के मारे कितनी ही देर रज़ाई में मुँह छिपाये पड़ा रहा ।
जब बापू चला गया मैंने रज़ाई उतार कर देखा वह रसोई में गुरुओं की फोटो के आगे हाथ जोड़े खड़ा था ।
पर कुछ पल पहले वह हमारे पैरों के पास खड़ा मनी को घूर रहा था । तभी अचानक मेरी आँख खुल गई थी । मैं चोर आँखों से उसे देखता रहा ।
मैं उसे रंगे हाथ पकड़ गुड़ खाने वालों की बुढ़िया की बात झूठी साबित करना चाहता था ।
मुझे उसकी अगली हरक़त का इन्तजार था । पर बापू , बापू ही निकला ।
" रज़ाई लै लओ मेरे बच्चओ ! ...थोनूं ठण्ड लग रही सी ...!" रजाई हमारे ऊपर देता हुआ बापू 'वाहेगुरू  वाहेगुरू ! ' बोलने लगा ।
उस वक़्त गुड़ खाने वालों की बुढ़िया जीत गई और मैं हार गया ।
पर बापू की यह हरक़त भी मेरे अंदर जन्म ले चुके शक़ के कीड़े को मार न सकी । मैं और शक्की हो गया ।
बापू  अब तक अपनी पहली उम्र में ही क्यों खड़ा था ? वह उम्र के साथ - साथ आगे क्यों न बढ़ा ? किस मिट्टी का बना था वह ? कई बार मैं सवालों से घिर जाता और मेरा सर चकराने लगता ।
जब कभी बापू शराब पीकर घर आता । माँ उसपर झपट पड़ती , " देख आया मोरनी तुरदी ...? ..हुण ऐथे बैठा देखू ! ...मार एहदे ! ...मार मुंडिया ...!" ( देख आया मोरनी चलती ...? ..अब यहाँ बैठ कर देखेगा ! ...मार इसके ! ...मार लड़के ...!)
" मेरा मुंडा नी इह ! ....मेरा नी ! ...जंग दी रन्न साली ! ...ज्वाले पटवारी दी रन्न ...!"( मेरा लड़का नहीं यह ! ....मेरा नहीं ! ...जंग की औरत साली ! ....ज्वाले पटवारी की औरत ....!)  ज्यों ही बापू प्रत्युत्तर में जवाब देता । माँ मुझे हथियार बना लेती , " मैं कहिनी आं मार एहदे ...!"
ठीक वही पल होता जब मैं अर्जुन की तरह हथियार फेंक कर खड़ा हो जाता । मुझे समझ न आती किसकी बात सुनूँ । बापू की या माँ की ....?
"  मैं कहिनी आं अजे वी मेरी मन्न ! ...एहनू मार दे ! ...नहीं ते इहने इक दिन सारिआं नूं मार देना ....!" (मैं कहती हूँ अभी भी मेरी मान ले ! ....इसे मार दे ! ..नहीं तो इसने एकदिन सबको मार देना है ...!) दुपट्टे से आँखें पोंछते हुए वह मनी की ओर देखने लगती।
उसका इशारा समझ मैंने फ़िर हथियार उठा लिया , " अगर ख़ैरियत चाहते हो तो चले जाओ बापू ! ....नहीं तो ...!"
" नहीं तां की अलीपुर आला काला बनजेंगया ? ... की जंग बनजेंगा ...?" ( नहीं तो क्या अलीपुर वाला काला बन जायेगा ? ...या जंग बन जायेगा ...?) मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरता हुआ बापू बरामदे की ओर चल दिया ।
बापू का इतिहास खंगालता हुआ मैं बरामदे में आकर क्यों खड़ा हो गया था , कुछ समझ न आया । मैंने बापू के बिस्तर की ओर देखा । वह सूना पड़ा था । मेरी नज़र कुछ ढूँढ रही थी । मोरनी वाली तस्वीर या कुछ और ...? बात की सतह तक जाने के लिए मैं बिस्तर पर बैठ गया । वहाँ जहाँ कभी बापू बैठा करता था ।
" ओहदे ते तेरे बैठण च' फ़र्क ऐ ..!" उसके और तुम्हारे बैठने में फर्क है ) यह कौन बोला था ? मैंने बाहर की ओर झाँका । फ़िर आवाज़ आई , " अपने अंदर झाँक ... !"  मैंने अंदर की ओर देखा । खेस की बींध में से माँ बाहर की ओर झाँक रही थी ।
वह कुछ ढूँढ रही थी । अगर मनी भी जाग गई तो मैंने पकड़े जाना है । अपने बचाव के लिए ही शायद मैं बरामदे में आकर बैठ गया था ।
" हुण ऐथे बैठा की करदां ....।" मुझे माँ की मद्दिम सी आवाज़ सुनाई दी ।
मैं मनी को लेकर हैरान था । उसे एक भी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी । किस मिट्टी की बनी थी वह । उसकी बगल में कितना कुछ बन -बिगड़ रहा था पर वह घोड़े बेचे सो रही थी ।
पर बापू यूँ नहीं सोता था । ज्यादातर रातें उसकी आँखों में जागते हुए कटती । वह बार -बार एक ही हरक़त करता । पहले काफी देर बिस्तर पर बैठा रहता ,जैसे किसी के इन्तज़ार में हो और फ़िर जब कोई न आता तब कुर्ता पैजामा उतार कर कील पर टाँग देता और तौलिया बाँध लेता । फ़िर तौलिया उठाकर कितनी -कितनी देर अपनी जांघ को देखता रहता ।

" लक्षण देख की करदा  ...।" उसकी हरक़त देख माँ दाँत पीसने लगती ।
आँगन में काम करती मनी भी बड़बड़ाने लगती , " बापू जी की ये हरक़त मुझे ज़रा पसन्द नहीं ....।"
" इह थोनु किवें पसन्द आऊ ! ...तुसीं किहड़े मेरे ओ ...!" जिस वक़्त बापू माँ के साथ -साथ मेरी ओर इशारा करता, मैं राख़ हो जाता । माँ गालियों का पाठ शुरू कर देती । मैं तड़प उठता , " मैं किसे दिन तेरे पट्ट (जांघ) ते गोली मारनी ऐ ....!"
जिस दिन मैंने ये बात बापू से कही वह दरख़्त की तरह गिर गया था।
उस दिन के बाद वह फ़िर कभी उठ नहीं पाया  ।
बस जाने से पहले एक दिन बिल्लू की दुकान पर गया था ।
" देखीं फौजिया ! ...हुण तां डिग पिया लगदां ....।" (देखना फौजिया ! ...अब तो गिर गए लगते हो ...।) उसकी चाल देखकर बूढ़ों की टोली उसकी नब्ज़ पहचान लेती ।
बिल्लू बताया करता , कहता वैलियों का बूढ़ा कहता था , " क्यों फौजिया तुम तो गोली से भी नहीं गिरते थे ....फ़िर अब कैसे ....?"
" तब दुश्मन ने गोली मारी थी ....अब मेरे अपनों ने मारी है ... ।" मुझे अपना कहते हुए बापू ने अपनी जीभ काट ली थी।
" पर मारी कहाँ है खसम ने गोली...?" पूछने वाला उसकी जड़ पकड़ना चाहता था ।
" उसने जाँघ पर नहीं .....जाँघ पर अंकित मेरी मोरनी पर गोली मारी है ...!" दाहिनी जाँघ पकड़े बापू यूँ गायब हुआ कि फ़िर किसी को नज़र न आया ।
हमने सारी दुनिया छान मारी । पर कहीं से भी उसका अता -पता न चला । माँ कहती , " वह मर गया ! ...अगर ज़िंदा होता तो लौटता नहीं ...?"
मैं कैसे बताता वह मेरी सुरति में रोज़ आता है ।
" अब तुम जाओ ....!" यह किसने किससे कहा ...?
मैंने बापू से कहा या बापू ने मुझसे ? समझ न आया ।
" समझ आएगी भी नहीं पुत्र ! ...यह गोरखधंधा ही ऐसा है ...।" मुझे बापू की मौत का ख्याल परेशान करने लगा था ।
मैंने बिस्तर से उठकर भागना चाहा । पर भाग न सका ।
वो कौन सी चीज थी जो मुझे भागने नहीं दे रही थी ? मैं सोचने लगा ।
अवचेतन में जैसे आग सी जलने लगी । बापू की चिता जल रही थी....मैं रो रहा था ....।
लोग बापू की अस्थियाँ चुनने लगे । मैं भी चुनने लगा । वे दाँत , कड़ा , नाख़ून , हड्डियाँ के टुकड़े ढूँढ रहे थे और मैं दरांती से कुछ और ढूँढ रहा था । जब काफी देर ढूँढने के बाद भी कुछ न मिला तो जागर ताऊ मुझसे बोला ," भाई तू भी डाल दे , दो अस्थियाँ ! ...क्या ढूँढता जा रहा है  ...?''
" मैं तो वह हड्डी ढूँढ रहा हूँ ताऊ ...!" मैं हाथों की राख़ झाड़कर कहने लगा ।
" कौन सी हड्डी पगले ...?'' कई आवाज़ें आईं ।
" बापू के जाँघ की हड्डी ....जिस पर मोरनी अंकित थी ...।" कहा तो मैंने धीमे से था । पर मेरी आवाज़ पूरे श्मशानघाट में गूँजती चली गई ।
" धीरे बोल बेटा ! कोई सुन ना ले..... ! "  माँ धीमे से बोली थी , " और ये ले तसला ! इसे राख़ के ऊपर उल्टा रख दे ...।"
आँगन में जिस जगह से बापू की लाश उठाई थी मैंने उस जगह बिछाई बापू की राख़ पर तसला उल्टाकर रख दिया ।
" सवेरे उठाकर देखेंगे ...! जिसके भी पैरों के निशान इसपर होंगे तेरा बापू उसी योनि में पड़ा होगा । " माँ यह क्यों देखना चाहती थी ...? मैं सारी रात सोचता रहा ।
वह रात हमारी जागते हुए कटी थी । सुबह जब तसला उठाकर देखा । बापू की राख़ पर मोरनी के पैरों के निशान थे ।
" निशान नहीं मिटा करते ..।" शायद सच कहा करता था बापू ।
बरामदे में टँगी तस्वीर तो बापू साथ ले गया था  पर दीवार पर अब भी उस तस्वीर के निशान थे । पर हमें उस निशान की जगह अब भी तस्वीर ही नज़र आती थी । क्या हो गया था मेरी और माँ की मति को ...? हमारी नज़र क्यों धोखा खा जाती है...?
श्मशानघाट ....हड्डियाँ ....अस्थियाँ ....पैरों के निशान ....कुछ भी तो नहीं था कहीं ...!
" फ़िर मैं ये कहाँ से लौटरहा हूँ ....?" मैंने अपने आप से सवाल किया ।
पर कोई जवाब न मिला। क्योंकि उस रात मैं लौटा ही नहीं था ।
बापू के जाँघ की हड्डी मुझे खींचे जा रही थी । मैं तेज़ क़दमों से चला जा रहा था ।
जहाँ जाकर रुका वहाँ जाफी की घरवाली का घर था ।
" हाँ जी ! कोई कम्म सी ...?" जिस वक़्त उसने कुण्डी खोलकर पूछा ...मुझे दूर कहीं मोरनी बोलती सुनाई दी ...
" जा बेटा ...! अब ये पता करना इंसान फैलता क्यों है ....!"
मेरे अंदर बैठा बापू जोर -जोर से हँसने लगा ।
उसकी आवाज़ सुनकर मेरे लिए बैठे रहना कठिन हो गया । मैं उठ खड़ा हुआ ।
कुछ पल अपने आर -पार देखता रहा । फ़िर अंदर की ओर चल दिया ।
खेस बदन पर ओढ़ माँ उठकर बैठी थी ।
मनी सोई हुई थी पर आज़ उसे देख मेरे मस्तिष्क में एक नए ख्याल ने जन्म लिया । क्या मनी सचमुच सोई हुई थी या महज़ सोने का दिखावा कर रही थी ...?
मैं उसकी आँखों की ओर देख उसे पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि .....!
" भले ही लाख बुरा था पर ....!" गले से निकलती -निकलती बात माँ के कण्ठ में अटक गई थी ।
" पर क्या माँ ....?" मैंने डरी हुई आवाज़ में पूछा था ।
" पर इतनी सी बात के लिए कोई मार थोड़े ही न देता है ....!" आँखें पोंछती माँ का खेस नीचे उतर गया था ।
जब उसके खेस दोबाराओढ़ने के लिए अपना हाथ उठाया ...मेरी नज़र उसके दाहिने हाथ पर जाकर टिक गई ...!
उसके हाथ पर मोर अंकित था ....!!
                                                                   समाप्त
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लेखकः जसबीर 'राणा '
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