Monday, December 2, 2013

इमरोज़ जी की कुछ नज़मों का अनुवाद ....

पंजाबी की कोयल  ....

बरसों की बात है
पंजाब के इक बाग़ से
इक कोयल मर्जी के गीत गाती - गाती
उड़ती -उड़ती कई राह और दरिया
पार कर ब्रह्मपुत्र की धरती जा पहुंची
इक हरे -भरे दरख़्त पर बैठ कर
गाती रही , गाती रही
गाते -गाते जवान हो गई
जवान होते -होते हीर हो गई
हीर होते -होते प्यार हो गई
प्यार होते -होते कविता हो गई
अब कविता लिखती रहती है
और अपने आपको चुपचाप
गाती रहती है ....... !!

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

मुहब्बत का पंछी  ....
इक मुहब्बत का बाग़ था
इक दिन उसने उसका फल खाया
और मुहब्बत का पंछी बन गया
अब वो दीवानों की तरह हीर को तलाशता
कभी चनाब तो कभी ब्रहम्पुत्र पहुँच जाता है
रंगो से हीर बनाता
जुबां से हीर गाता
वो राँझा -राँझा हो जाता है .... !!

हीर  …

(२)

बराबर का  ....
 कुछ दिनों से
जब भी वो मुझे देखता
उसकी आँखों में
इक ख़ास सी चमक
मुझे दिखती थी
मुझे अभी वह छोटा दिखता था
और था भी वह मुझसे छोटा
उसने अभी कुछ भी नहीं देखा था
मैं तो माँ बनकर भी देख चुकी थी
और एक मुहब्बत करके भी  ....
इक दिन मेरा उसके साथ इक बात
करने को दिल किया
उसे बुलाकर पास बैठा कर कहा
तू पहले दुनिया देख आ
फिर भी अगर तुम्हें मेरी जरुरत हुई
जो भी तुम कहोगे मैं कर लूँगी
उसने मेरी ओर देखा
और उठकर सात चक्कर लगाये
और हँसता -हँसता मेरे पास आ बैठा और बोला
देख मैं दुनिया देख आया हूँ
मेरी ओर देखते उसके हँसते -हँसते बोल सुनकर
और उसे देखकर मैं हैरान रह गई
वह मेरे ही सात चक्कर लगा कर छोटा न रहा था
न दिखने में न समझ में
अब वह मेरे बराबर का भी हो गया था
और ज़िन्दगी के बराबर का भी  ....

(३)
रब्ब की पेंटिंग  ....
वह चुपचाप मुझे देखता
उसकी ड्रॉइंग खूबसूरत थी और मेरे नैन -नक्श
वह जब भी ड्रॉइंग करता
मैं उसके पीछे खड़ी होकर
उसकी ड्रॉइंग को देखती रहती
और उसके ड्रॉइंग में से उसे
उसकी खूबसूरत ड्रॉइंग देख -देख उसकी खूबसूरत पेंटिंग देख -देख
मैं और खूबसूरत होती रहती
आर्ट स्कूल का अंतिम दिन आ गया
एक -दूसरे को मिलकर सभी बिछड़ रहे थे
वह भी मेरे पास आ गया
मैं देख कर हैरान रह गई बोली
तुम तो सचमुच पेंटिंग बना-बनाकर
खूबसूरत हो गए हो
वह बोला हो सकता है पेंटिंग के साथ भी
थोड़ा बहुत हो गया होऊँ
पर खूबसूरत तो मैं रब्ब की पेंटिंग देख -देख हुआ हूँ
मैं हैरान भी और खुश भी हुई
उसके यह खूबसूरत बोल सुनकर
जिस के पीछे खड़े होकर जिसकी ड्रॉइंग से
उसे देखा करती थी
अब वह मेरे सामने बैठा है मैं उसका हाथ पकड़कर
उस खूबसूरत कलाकार को उसकी सोच की
खूबसूरती को  महसूस कर रही हूँ
उसे देख -देख  ……
(४)
खुशबू का फ़िक्र  …
खुश्बू का फ़िक्र करने वाली
आज याद आ रही है २० साल पहले
मैं भी आर्ट स्कूल में था और वह भी मेरी क्लास में थी
बड़ी सयानी और बड़ी प्यारी
वह मुझे भी अच्छी लगती थी और मैं भी उसे
वह सबसे खूबसूरत फूल पेंट कटरी थी मुझसे भी सुंदर
उसे मेरे साथ बोलना अच्छा लगता था
कभी पूछती तुम्हारे रंग बड़े नए हैं कहाँ से लेकर आये हो
मैं हँस कर कहता अपने पिंड से
वह फिर पूछती अपना पिंड कब दिखाओगे
मैं हँसकर फिर कहता जब तुम्हें उड़ना आ जायेगा  ....
वह अपना लंच हर रोज मेरे साथ शेयर करती
और मैं अपने ख्याल  ....
फूलों के एक मुकाबले में उसके फूलों को एक इनाम मिला
अपनी खूबसूरती में बैठी वह और भी खूबसूरत हो रही थी खुश भी थी
और उदास भी हजारों खूबसूरत फूल बनाये पर खुशबू
कभी एक फूल में से भी नहीं आई
जानती है कि पेंटेड फूलों में से खुशबू नहीं आती पर उस सोच में बैठी है
वह उडीक रही खुशबू  ....
जो कभी नहीं हुआ वह मैं करके देख रहा हूँ
मैं तुम्हारे फूल की खुश्बू बन सकता हूँ
पर पेंटेड फूलों की नहीं तुम खुद फूल बनो
तो उस फूल की खुशबू बन जाऊँगा
मंज़ूर जोर से बोली
मैं और कुछ बनूँ न बनूँ
पर मैं तेरी खुशबू के लिए फूल जरुर बनूँगी
तुम पता नहीं क्या हो अपनी उम्र से कहीं बढ़कर
न समझ आने वाले भी और समझ आने वाले भी  …
(५)
ख्याल  …
इक दिन
पेंटिंग में बैठी -बैठी लड़की
गंगा से उठकर चलती-चलती
पोयट्री में पहुँच गई
पोयट्री उस वक़्त
ख्यालों को रंग दे रही थी
और ख्यालों से रंग ले भी रही थी
रंगों की लड़की ने
ऐसे ख्याल कभी नहीं देखे थे न रंग
उसने मुस्कुरा कर देखा था
पर हँस कर नहीं देखा था
आज ख्यालों के पास खड़ी
ख्याल भी हो रही थी रंग भी हो रही थी
और हँस भी रही थी ……
इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Friday, November 22, 2013

रेयर कौम  ....

अगर कभी किसी कौम के लोग ही
हमलावर सिकंदर की
नंगी तलवारों के आगे खड़े होकर
गुलाम होने से इंकार कर देते
तो पागल सिकंदर सारी कौम को कत्ल करके भी
उस रेयर इंकार को कभी भी
 पार न कर सकता  …
काश !
ऐसी रेयर निडर और आज़ाद
एक कौम पैदा हो गई होती अपनी ज़मीन पर
फिर तो अपनी ज़रखेज़ ज़मीन ने
पूरा देश बना देना था
हमेशा के लिए एक निडर देश -रेयर देश
हमलावर मुक्त सिकंदर मुक्त  …
(२)

प्यार  ....
अगर
प्यार ही मज़हब होता
न कोई पूजा होती न पाठ
और न ही किसी को माथा टेकना पड़ता
मज़हब भी आज़ाद होता
और बंदा भी  ....
(३)
दो मुहब्ब्तें  ....
इक औरत ने मुहब्बत से
मुझे ज़िन्दगी दी थी
और इक औरत ने मुहब्बत से
मुझसे ज़िन्दगी ले ली है  ....
(४)
रिश्ते  …
मर्जी रिश्ते बनती
पर मर्जी दखल नहीं बनती
रिश्ते दखल मुक्ति हो सकते हैं
अगर आदर रिश्ते जिए  ....
(५)
मुहब्बत  ....
शुक्र है
ज़िन्दगी में मुहब्बत है
चाहे स्वप्न जितनी ही सही
ज़िन्दगी जितनी तो सिर्फ
हीरों को मिलती है
रांझों को मिलती है  ....
(६)
दीदार  …

मुहब्बत
रब्ब का दीदार है
जितनी बार दिल करे
जब भी दिल करे
न पूजा की जरुरत है न पाठ की  …
मुहब्बत
रब्ब का भी दीदार है
और अपना भी  …

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Monday, November 4, 2013

आज पढ़ें इमरोज़ जी की लिखी कुछ उक्तियाँ  ……
(१)
आज़ाद  …
आज़ाद वह है
जो गुलाम होने से
इंकार कर सकता है …
(२)
धर्म  …
जो तुम सब के साथ चलता है
वह धर्म है
और जिसके पीछे चलना पड़े
वह धर्म नहीं होता ……
(३)
सच  …
किसी का सच
अपना सच नहीं बन सकता
अपना सच
खुद जी कर बनता है  ....
(४)
मज़हब  …
आज़ाद का आज़ाद होना ही
उसका मज़हब है
वैसे कोई भी मज़हब
आज़ाद नहीं  …
(५)
 ज्ञान  .... 
तेरा मेरा प्यार ही
ज्ञान है ज़िन्दगी का  …
(६)
आदर  .... 
न तरस करो
न रहम करो
इनमें आदर नहीं  …
(७)
स्कूल  .... 
आम स्कूल
सिर्फ जुबान सिखाते हैं
पर जीना सिखाते हैं
ज़िन्दगी के स्कूल  ....
(८)
अपना  .... 
जितनी देर मैं अपना हूँ
सब अपने हैं …।
(९)
दान  ....
 
पैसे बाँटना दान नहीं
अपना आप बाँटना दान है  …
(१० )
ख़ूबसूरती  … 
घर में तेरी-मेरी मौजूदगी
रेयर ख़ूबसूरती है
और रेयर घर की सजावट भी  …
(११)
किसी को  .... 
किसी को जानने से पहले
अपने आप को जान लो  …
(१२ )
तलवार  .... 
तलवार से
हकूमत हो सकती है
मुहब्बत नहीं  ....
(१३)
जरुरत  .... 
मैंने भगवान को
कभी नाराज नहीं किया
खुश करने की जरुरत ही नहीं  ....
(१४ )
ग्रेट  … 
हमलावर को
ग्रेट कहते जाना , लिखते जाना
इतिहास नहीं
ग्रेट गलत बयानी है  …
(१५)
भगवान  ....
इक नया ख्याल
पूज लो
चाहे जी लो  …
(१६)
मर्द  ....
मर्द अभी तक नहीं जागा
न अपना आदर करता है
न औरत का  ……
(१७)
जाल  ....
जाल को भूल जाओ
जब मछली पकड़ी गई
ग्रन्थ को भूल जाओ
जब समझ आ गई  ....
(१८)
अर्थ  .... 
यूँ ही ग्रन्थ न पढ़ो
अगर अर्थ नहीं बनता  …
(१९)
न - शब्द  .... 
प्यार सिर्फ एक
न - शब्द जुबान है
कल की हीर भी जानती थी
और आज की हीर भी जानती है   ....
(२०)
बटन पर कोट  ....

इक दीवाने ने
इक घर का दरवाज़ा खटखटाया
औरत ने दरवाज़ा खोला
तो दीवाना बोला
जी बड़ी मेहरबानी होगी
अगर आप मेरे कोट पर बटन टांक दें
औरत ने दीवाने को अंदर बुला लिया
दीवाने ने औरत को बटन पकड़ा दिया
बटन पकड़ कर औरत ने पूछा कोट किधर है ?
मेरे पास तो बटन ही है और सोच लिया था
आप इस बटन पर कोट सी देगीं
औरत सुनकर हैरान
कि बटन पर कोट कैसे सीए  …
अगर मुहब्बत औरत होती
दीवाने को देख - देख
उस के बटन पर भी कोट सी देना था
दीवाने ही रांझे होते हैं  …

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Wednesday, October 16, 2013

अपने आप की हीरे ….

कोई बुरी सोच आई होगी
जो सपना बनकर खत्म हो गई
तुम भी अच्छी भली और मैं भी अच्छा भला
एक हीर वारिश ने लिखकर जी ली
एक हीर हरकीरत लिखकर जी रही है
हीर होकर भी हरकीरत क्यों उदास है ?
उदासी की वजह देख कर
मैसेज भी किया सकता है स्पीड पोस्ट भी
बहुत हुआ तो किसी खाली कश्ती में
नज़्म लिखकर बहा दिया कर …
पर उदासी को ठहरने न दिया कर
जो मैं लिख रहा हूँ
तू इससेकहीं ज्यादा सयानी भी है
और प्यारी भी ….
मैंने भगवान को कभी नाराज़ नहीं किया
खुश करने की जरुरत भी नहीं पड़ी
पर तुझे खुश करने की जरुरत है
बता तू किस तरह खुश हो सकती है ?
खुश हो जाना
और बिल मुझे भेज देना….

इमरोज़ -
अनुवाद - हीर

(2)पूजा  ….



इक दिन

भगवान को पूछा

टूटे बाजारी फूलों से

किसी की पूजा हो सकती है ?

भगवान ने हँस कर कहा

तूने देखा होगा

मंदिरों में घरों में

जहाँ कहीं भी टूटे फूलों से

पूजा होती है या हो रही है

वहाँ मैं पत्थर हो जाता हूँ

न सुनता हूँ न बोलता हूँ न देखता हूँ

पर जो खुद फूल बनकर

मेरी पूजा करता है

वहाँ मैं बुत नहीं बनता

उसे देख -देख

मैं भी फूल हो जाता हूँ

प्यार हो जाता हूँ  …।

इमरोज़ -
अनुवाद - हीर


(४)
फूल …. 
 
मैं फूल देख - देख
फूल होता रहता हूँ
पूजा के रूप में
भगवान होने के लिए  … 
(5)
रब्ब  … 

रब्ब पाठ नहीं बनता
अरदास भी नहीं बनता
सिर्फ आने वाला ख्याल बनता है  …. 
(6)
भगवान  …. 

भगवान को मैंने
कभी नाराज़ नहीं किया
खुश करने की जरुरत भी नहीं हुई  …. 
(7)
पूरा अच्छा  …

पूरा अच्छा लेखक
किसी अच्छे लेखक को
कभी बुरा नहीं कहता  … 
(8)
शर्म  …. 

आदमी  रेप करता है
हमें शर्म आ जाती है
सिकंदर
मुल्कों के मुल्क
रेप करता रहा
उसे ग्रेट कहने वालों को
आज तक शर्म नहीं आई  …. 
(9)
जरुरत  … 
रांझे तख़्त हजारे के जन्म पल
जिन्हें औरत हीर दिखती है
ज़िन्दगी की खूबसूरती
बाकी के मर्द
हैरम की पैदावार
जिन्हें औरत जिस्म दिखती है
सिर्फ जिस्म की जरुरत  …. 
(10)
नया पानी  …. 
दरिया हर रोज़
नए पानी संग दरिया होता है
मज़हब भी एक दरिया था
नया पानी न मिलने के कारण
खड़ा पानी बनकर रह गया  ….
 (11)
ख्याल …
उसका ख्याल आया
बिजली सी चमकी
जंगल में भी राह दिख गया
मुझे भी और डर को भी  …. 
(12)
अपना मज़हब  …. 
मज़हब अब मज़हब नहीं रहा
ताकत बन गया है, सियासत बन गया है
अब वक़्त आ गया है
खुद
अपना मज़हब बनने का ….

इमरोज़ -
अनुवाद - हीर

Friday, October 4, 2013

 imroz ki kuchh nazmein .....
हीर भी शायरा भी  …
सोचता रहता हूँ
शायरी की कला भी
जीने की कला भी
खूबसूरत जीने की कला हो जाये
सोचें
सोच भी हो जाती हैं
 अपनी इस सोच को
सच होते मैंने भी देख लिया है
और सबने भी
इक खूबसूरत शायरा को जब मुहब्बत हुई
उसकी शायरी और खूबसूरत हो गई
और उसकी ज़िन्दगी
उसकी शायरी से भी खूबसूरत ….
मुहब्बत संग
कोई भी हीर हो सकती है
कोई भी शायरी भी  …।
(२)
मानता ……………
समझ, समझ के बनती है
पर मानता बगैर समझे ही बन जाती है मानता
लोग मानता के साथ ही
काम चला रहे हैं
मज़हब चला रहे हैं
ज़िन्दगी चला रहे हैं
और अपना आप भी  …
………………
(३)
दरिया ….
रोज नए पानी से
दरिया होता है
मज़हब भी दरिया था
नया पानी न मिलने के कारण
खड़ा पानी ही रह गया  ….
……………….
(४)
………………
मर्जी की मर्जी  ……
मैं सोहनी हूँ
सोहनी से सोहनी
मुझे मनचाहे की तलाश है
मास्टरपीस बनने की तलाश नहीं
 दुनिया के सारे मास्टरपीस
दीवारों से टंगे हुए हैं सब स्टिललाइज
मैंने खिला फूल बनना है
हमेशा रहने वाला पेटिंड फूल नहीं
मैं सोहनी हूँ
सोहनी से सोहनी
हर दरिया हर रोक
पार करूँ अपने आप संग
कच्चे घड़े के संग भी और पक्के घड़े के संग भी  …

(५)
पेंटिंग के बीच की लड़की……
इक दिन
पेंटिंग के बीच की लड़की
रंगों से बाहर आकर
एक नज़्म के ख्यालों को
देखने लगी
देख देख उसे
अच्छा लगा ख्यालों को रंग देना भी
और ख्यालों से रंग लेना भी
ख्यालों ने देखती हुई लड़की से पूछा
तू बता पेंटिंग के रंगों में
क्या - क्या बनकर देखा
मैंने मुस्कराहट बनकर देखा
पर हँस कर नहीं
मैंने  खड़े होकर देखा है रंगों में
पर चलकर नहीं ….

……………………
मज़हब और ईश्वरवाद
कोई जरुरी नहीं  …
अपना सच
और अपनी मर्ज़ी जरुरी है  …
……………….
मुहब्बत ही तो
ज़िन्दगी भी महबूबा है  …
………………
रब्ब को सोचा
नया ख्याल आ गया  …
……………
लोग पुराने नहीं होते
ख्याल पुराने होते हैं  …
…………
हर रात कल हो जाती है
हर सबेर आज भी
और कल भी  ….
…………
उसका ख्याल आया
बिजली चमकी
जंगल में भी राह दिख गई
मुझे भी और डर  को भी  ….
…………….
कहते हैं
मानता जड़ हो गई
पर न कभी कोई नया पत्ता लगा
न फूल  …
…………
भगवान रोज़
आज हो जाता है
पर लोग पता नहीं
कल को ही
क्यों दोहराते रहते हैं …….
…………
मज़हब अब मज़हब नहीं रहा
ताकत बन गया है
सियासत बन गया है
अब वक़्त आ गया है
खुद
अपना मज़हब बनने का  ….
……………….
मेरा दिल करता है
फूल- फूल होकर
खुशबू बन जाऊं
खुशबू होकर अक्षर
अक्षर-अक्षर होकर
नज़्म
नज़्म-नज़्म होकर
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी होकर
प्यार
और प्यार-प्यार होकर
जीना आ जाये
जैसा मेरा जी करता है …
…………….
कभी-कभी
खाली सोच की तरह
जिधर भी दिल करे
चलता-फिरता रहता हूँ
हालांकि
जिसे मिलना था वह तो मैं खुद ही हूँ ……
……………….
हीर बने बिना
हीर समझ नहीं आती ……
जितनी देर लोग
अर्थ नहीं बनते
शब्दों का काम खत्म नहीं होगा  ….

………………….
रंग भी नहीं होते
कैनवास धरती नहीं होती
लाइफ धरती है
और कैनवास सिर्फ स्टिल लाइफ ….
……………

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

Sunday, September 8, 2013

इमरोज़ की नज्में  ……

ज़िंदा पूजा  …
फूल टूटा और फूल मर गया
सब जानते हैं
और नहीं भी जानते
एक दिन
मैंने  को पूछा
टूटे बाजारी फूलों के साथ
किसी ज़िंदा की पूजा हो सकती है ?
भगवान ने हँस कर कहा
तुमने देखा होगा
मंदिर में और कहीं भी
टूटे बाजारी फूलों से
पूजा होती है और हो रही है
वहां मैं पत्थर का हो जाता हूँ
न कुछ सुनता हूँ न कुछ बोलता हूँ
न देखता हूँ
और जो खुद फूल बनकर
मेरी पूजा करता  है
वहां मैं बुत नहीं बनता
वहां मैं महक - महक
पूजा करने वाले को देखता भी हूँ
और सुनता भी हूँ  ….
(२)
खामोश  ….
रंग भी खामोश और कैनवास भी
तो र खामोश पेंटिंग ही बनती है
मोनालिसा की खामोश मुस्कराहट
खूबसूरत है बहुत खूबसूरत
पर शब्द
न ख़ामोशी देख सकते
न ही पढ़ सकते  ….
मुहब्बत भी खामोश और ज़िक्र भी
मुहब्बत सिर्फ ज़िन्दगी बनती है
न लिखत बनती है न बोल  …
पोइट्री भी खामोश और पहचान भी
नज्में बहुत
पर किसी किसी के नज़र में ही
पोइट्री चमकती  है  …
(३)
सात चक्कर  …
 
घर में आती अखबार के
सन्डे एडिशन में लेखकों का कालम पढ़ा
मुझे अपनी नज्मों की किताब के लिए
नई तरह का कवर डिजाइन चाहिए था
अपने एक वाकिफ आर्टिस्ट को पूछा
कोई नई तरह का है आर्टिस्ट पोइट्री जैसा
कहने लगा - 'है '
और फोन करके वह नई तरह का आर्टिस्ट आ गया
सचमुच नई तरह का था देखने में  भी बोलने में  भी
न मैं उसे देख फार्मल हुई न वह मुझे देख
नई तरह का कवर डिजाइन मेरी पसंद का बन गया
और नई तरह का आर्टिस्ट भी मेरी पसंद बन गया
मिलने लगा फोन करने लगे
इक दिन उसने आकर कहा अब बस पर नहीं
आज से स्कूटर पर रेडिओ स्टेशन जाया करेंगे
मैं सुनकर बोली इतनी देर से क्यों मिले हो ?
क्या करता जवानी भी देर से आई और पैसे भी
जब से तुम्हें बस पर जाते देखा है
स्कूटर के लिए पैसे जोड़ता रहा
मैं बोली अब तुम मेरी शाम का फूल हो
शाम भी खिलती रहेगी और रात भी महकती
वह रोज़ शाम को मुझे रेडिओ स्टेशन ले भी जाता और ले भी आता
मैं उसके पीछे बैठ कर
उसकी पीठ पर जो जी चाहता लिखती रहती
कभी कोई नया ख्याल कभी कोई नया शेर  ….
वह मुझसे छोटा था
पर मुझसे पहले ही मेरे साथ सीरियस
होता जा रहा था
एक दिन जब हम दोनों ही कमरे में थे
मैंने उससे कहा तू पहले दुनिया देख आ
दुनिया देखकर अगर फिर भी तुम्हें मेरी जरुरत हुई
फिर ठीक है जो कहोगे करूंगी  …
वह उठा उसने सात चक्कर लगाये और बोला
मैं दुनिया देख आया हूँ
यह सुनकर मैं उसे देखती रह गई
मेरे ही सात चक्कर लगा
वह मेरे बराबर का भी हो गया था
और ज़िन्दगी के बराबर का भी  …
यह कालम पढ़ के
मैं कितनी देर अपने आप को सोचता ही रहा
और देखता भी रहा
मेरे रंगों में मेरी औरत भी
मेरी न बन पाई
और आर्टिस्ट के रंगों में
वह मेरी औरत आर्टिस्ट की
मनचाही हो गई
मैं ही मिसमैच हूँ और अपने आप में गैर हाजिर भी
मैच सिर्फ आर्टिस्ट है
आर्टिस्ट जैसा कोई कम ही होगा इतना खूबसूरत
लेखकों को और आर्टिस्टों को भी हाजिरी देख देख
दोनों की खूबसूरती देख देख
मैं मिसमैच भी खूबसूरत होकर
जा रहा हूँ अपने आपको साथ लेकर भी
अलविदा  ….
- इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Tuesday, September 3, 2013

इमरोज़ की कुछ नज्मों का अनुवाद  ….

(१)

हाजिर हो कर  …

जब भी मेरा दिल करता है
भगवान से मिलने का
भगवान मुझे धरती पर
हाजिर दिखने लगता है
और मैं हाजिर हो कर
हाजिर से मिल लेता हूँ
हाजिर को हाजिर हो कर
सब मिल जाता है
जो बताया नहीं जा सकता
हाजिर हो कर
जाना जा सकता है  …
(२)
आज जीने के लिए  …
पेंटेड मास्टरपीस
मियुजियम के लिए  होते हैं
कल को देखने के लिए जानने के लिए
मुहब्बत ही सिर्फ
ज़िंदा मास्टरपीस ज़िन्दगी के लिए होती है
आज को जीने के लिए हर रोज़  …
(३)
ज़िन्दगी के बराबर   ….
कुछ दिनों की मैं उस को
देख - देख सोच रही हूँ
वह छोटा - छोटा लग रहा था , वैसे ही
उस ने ज़िन्दगी में  मुझ जैसा
कुछ देखा नहीं था
इक दिन मैं घर में भी और कमरे में भी
अकेली थी
उसे पास बिठा कर कहा
तुम भी दुनिया देख आओ
अगर फिर भी तुझे मेरी जरुरत हुई
तो फिर ठीक है तुम जो भी कहोगे
मुझे देख कर मेरे बोल सुन कर कर
वह उठा
उस ने मेरे सात चक्कर लगाये
और आकर हँसता - हँसता
मेरे पास बैठ गया , बोला -
देख ले मैं दुनिया देख आया हूँ
यही दुनिया थी मेरे देखने लायक
मैं उसे देख - देख उसके हँसते- हँसते
बोलों को देख सुन  हैरान रह गई
वह  छोटा नहीं था
वह तो मेरे ही सात चक्कर लगा कर
मेरे बराबर का भी हो गया है
और ज़िन्दगी के बराबर का भी  …

(४)
खामोश मुहब्बत  …
मैंने जब अपने आपको
फूल सोचा था उसे खुशबू सोच लिया था
पर  …
किसी के साथ चल कर भी देखा
किसी के साथ फूल बनकर भी देखा
किसी के साथ शायरी करके भी देखी
किसी को न अपने साथ
जागना आता है न औरत के साथ  …
मैं तो कब की खामोश
फूल बनी खुशबू को उडीक रही हूँ
आज मेरी उडीक ने
इक नज़र पढ़ ली है
उसकी जो है
जो हवाओं को पूछता है
मैं भी तुम्हारी तरह आज़ाद और अदृश्य
रहना चाहता हूँ
हवाओं ने कहा
खामोश मुहब्बत कर ले
किसके साथ
जो भी अच्छा लगे
अभी तो अपना आप ही मुझे अच्छा लगता है
जब कोई अच्छी लगी
फिर खामोश मुहब्बत भी कर लूंगा
मैं आज उसे मिलने जा रही हूँ  …
( ५ )
हर रोज़  …
 फूल हो के
उगते सूरज के साथ जागता हूँ
खिलता हूँ
और कितनी ही देर महक कर
खुशबू हवाओं के हवाले कर
अपने रंगों के साथ हँसता हूँ खेलता हूँ
और शाम को सूरज के साथ
रंगों के साथ मिलकर
अपना फूल होना
पूरा कर लेता हूँ  …
(६)
जो दिल करे  …
कोई भी मजहब
जो भी दिल करे करने की छूट नहीं देता
पर लोग जो भी दिल करे
करना चाहते हैं कर रहे हैं
और मजहब जो भी करे करने वालों को
रोक नहीं पा रहे रोक भी नहीं रहे
लोग जब भी दिल करता है
झूठ बोल लेते हैं
किसी को लूटने का दिल करे
लूट लेते हैं
किसी को रेप करने का दिल करे
गैंग रेप कर लेते हैं
और मिलकर क़त्ल भी कर लेते हैं
आसमान से रब्ब क्या देख सकता है
मजहब तो जमीन से भी न देख रहा है
न रोक रहा है
अपने लोगों को अपना निरादर
कर रहे लोगों को
कुछ समझ नहीं आ रहा किसी को
क्या लोग अभी मजहब
के काबिल नहीं या  मजहब अभी लोगों के
काबिल नहीं   …

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Saturday, August 17, 2013

इमरोज़ की कुछ और कविताओं का अनुवाद ….
(१)
अधिकार …

सिर्फ
आज़ादी ही
हमारा जन्म-सिद्ध
अधिकार नहीं
मनचाही ज़िन्दगी भी
हमारा जन्म- सिद्ध
अधिकार है …. !!

-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर
(२)
 बोलती आँखें ….
कुछ दिनों से
जब भी मैं उससे मिलता
वह मुझे सोचती - सोचती
देखती रहती
कभी हैरानी से भी देखती
कभी मुस्कुरा कर भी
इक दिन मुझे सामने बैठा कर
कहने लगी …
पहले तुम दुनिया देख आओ
फिर जो भी तुम कहोगे
मंज़ूर ….
मैं इन्तजार करुँगी
जितने दिन भी करना पड़ा
उसके सामने से उठ कर
मैंने उसके सात चक्कर लगाये
और हँसते - हँसते  उसे कहा
देख ! मैं दुनिया देख आया हूँ
वैसे जिसे देखने की कोई जरुरत नहीं थी
अपनी तरह दुनिया देख आये को हँसते  को
मुस्कुराती हैरानी से देखती
वह भी हँस पड़ी
और उसकी बोलती चमकती आँखों में अब
इन्तजार की जरुरत भी खत्म हो गई थी ….

-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर
(३)
एक बार फिर …. 
सवेरे सवेरे
तुम्हारे साथ सवेर कर रहा था
कि मोबाइल से इशारा हुआ
कि पैसे खत्म हो गए हैं
कैसे इत्तिफ़ाक हैं कि संस्कार भी
कभी मोबाईल से पैसे खत्म हो जाते हैं
तो कभी रिश्तों में से रिश्ते
इक दो ईदों से
ईद नहीं होगी
जितने वक़्त मनचाही ज़िन्दगी
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार नहीं बनता
ईदें मनचाही नहीं होंगी
मनचाहे रिश्तों के रोज़े
क्या पता कब खत्म हों या न हों
ख्यालों के चाँद
और नज्मों की ईदें ही अब तो
अपनी मनचाही ईदें हैं …
चल आ
बच्चों की तरह मासूम बन
इक बार फिर
फूलों में दौड़ - दौड़ कर खिल - खिल कर
और खुशबूओं संग उड़ -उड़ कर हँसे
सभी अनचाहे रिश्तों से अनचाहे संस्कारों से
और अनचाहे रोजों से बेफिक्र होकर
तितलियों की तरह बेफिक्रों की तरह ….

-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर

(४)
रूह जिस्म में
नहीं होती
रूह प्यार में होती है


----------------------------
रब्ब कहीं न कहीं है
पर समाज कहीं भी नहीं ….

---------------------------------
पाप जिस्म नहीं करता
सोच करती है
गंगा जिस्म धोती है
सोच नहीं …

……………………….
पटरियों पर
मज़हब चलते हैं
दरिया नहीं ….

------------------------
मनचाहे ही
अपने आप को
जानते हैं
संस्कार नहीं ….

------------------
(५)
मर्जी … 
कोई नज़र में है
अभी तो अपना आप ही
नज़र में है
और अपना आप
अपनी मर्जी का बन रहा है
कितना नया ख्याल है
और कितना जरुरी भी
किस तरह मिलोगी
जैसे आज मिल रही हूँ
तेरा नाम
मर्जी ….
----------------

ख्याल ….

तुम क्या कर रही हो
ख्यालों को रंग दे रही हूँ
और ख्यालों से रंग
ले भी रही हूँ
क्या खूब देना - लेना है
कब मिलोगी
जिस दिन नया ख्याल मिल जाएगा
 तुम्हारा नाम … ?
ख्याल ….

-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर

Wednesday, July 31, 2013

इमरोज़ जी की कुछ और नज्में … 



जी रहे फूलों के संग

फूल तोड़ा फूल मर गया
घरों में मदिरों में टूटे फूलों संग
पूजा होती आ रही है और आज भी हो रही है
किसी को भी कभी जीते फूलों संग पूजा करने की
न कभी सोच आई है न ख्याल
राम कृष्ण एक बार एक मंदिर का पुजारी बना था
उस मंदिर में भी टूटे फूलों संग पूजा होती आ रही थी
पर राम कृष्ण ने टूटे फूलों संग पूजा नहीं की
कितने ही दिन मंदिर में कोई पूजा न हुई
लोगों ने मंदिर के मालिक को शिकायत की
मंदिर के मालिक ने राम कृष्ण से कारण पूछा
राम कृष्ण ने कहा टूटे हुए फूलों से कोई पूजा नहीं हो सकती
मंदिर के मालिक को राम कृष्ण समझ आ गया
एक दिन राम कृष्ण मंदिर के बाहर बैठा मंदिर के अहाते
में लगे फूलों के पौधे देख रहा था , देखते हुए लगा
कि पौधे भी उसे देख रहे हैं ,फूलों का देखना देख
राम कृष्ण को अपनी मर्ज़ी की पूजा दिख गई
राम कृष्ण की मनचाही पूजा शुरू हो गई
जब देवता  को फूल चढाने का वक़्त आया
मंदिर की खिड़की से दिखते फूलों के पौधों को देखकर
पौधों के फूल पौधों समेत राम कृष्ण ने हाथ जोड़कर
देवता से कहकर देवता को चढा दिए
पौधों समेत पौधों के फूल देवता को चढ़े , देवता ने भी पहली बार
बंद आँखों संग भी देखे
पूजा ने भी पहली बार जी रहे फूलों संग पूजा करके देखी
और जी कर भी …
अब यह अपनी तरह की पहली पूजा
हर रोज़ हो रही है पौधों के फूलों की हाजिरी में
और राम कृष्ण की हाजिरी में भी ….


इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

(२ )

आसमान मैला नहीं ….

एक विद्द्वान को किसी ने पूछा
अच्छे -अच्छे लेखक एक दुसरे के बारे
बुरा लिखते रहते हैं बुरा सोचते रहते हैं
विद्द्वान ने कहा - इन
लिखने वालों को
अभी लिखना ही आया है
जीना नहीं आया
जिस दिन जीना आ जाएगा
कोई भी बुरा जीना नहीं चाहेगा
न बुरा लिखकर न बुरा बोलकर
अभी सोच साफ़ नहीं
जब सोच साफ़ हो जाएगी
सोच आसमान हो जाएगी
और आसमान कभी भी मैला नहीं होता ….



इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

(३ )

कुछ बोल …

आज उसे मिल रही थी
कई सालों बाद
सैर करते चुपचाप
देख -देख चलते जा रहे थे
इक  जगह रूककर
मैंने कहा - कुछ बोल
कहने लगा मैं रौशनी में नहीं बोल सकता
यह फिकरा सुनते मुझे उम्र
हो चली है
गुस्से में मेरा दिल किया
सूरज को पकड़कर बुझा दूँ …
न वह कभी कुछ बोला
न मैं सूरज बुझा पाई  ….
अब अँधेरा हो चुका है
पर बोलने वाला ही न रहा ….


इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

(४ )


देखा नहीं …
कल मैं आया था
तू कहीं भी नहीं मिली
न राह में
न गली में
न दरवाजे पर
न माँ के कमरे में
न अपने कमरे में
न रसोई में
न आँगन में .
न कुएँ पर
न ही दरिया पर
 तुम कहाँ थी ?
जहाँ तूने देखा नहीं
अपने आप में देखता
तो मैं दिख जाती  ….


इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर


Tuesday, July 30, 2013

मोनालिसा की जगह …

आर्ट स्कूल में
एक दिन हमारी सारी  क्लास
 नैशनल मियुजियम में
पेंटिंग के मास्टर पीस
स्डीज कर रही थी
मोनालिसा की मुस्कराहट देखकर
एक स्टूडेंट ने टीचर को  लिया
सर यह मुस्कराहट कभी हँसती नहीं ?
यह पेंटिड मुस्कराहट है
यह जवाब सुनकर मोनालिसा की जगह
साड़ी क्लास हँस पड़ी …

(२)

पेंटिंग …

ज़िन्दगी की पेंटिग
पता नहीं कब की बनती
आ रही है
पर अभी तक पूरी नहीं हुई
नए - नए हाथों के साथ
नए रंगों के साथ
यह पेंटिंग बन रही है
बनती जा रही है
न कभी ज़िन्दगी ने पूरा होना है
 और न ही ज़िन्दगी की पेंटिंग ने
पूरा होना है
बनती रहना ही
इसका पूरा होना है - जीते रहना है
मुहब्बत की तरह …

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

(3)

फूल बन ….

फूल तोड़ा
फूल मर गया
तोड़ने वाला नहीं मरा
पर बचा भी नहीं
वह कभी फूल नहीं बनेगा  ….

(४)

मुहब्बत की हीर …
मुहब्बत से कोई रांझा हो सकता है
कला से कोई शायर
पर कला से कोई रांझा नहीं हो सकता
शायर की नज्में
शायर की शायरी क्यों नहीं बनती
शायर की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी की खूबसूरती
शायर की कला ही है शायरी लिखने की
सोचता रहता हूँ कि किसी तरह
शायरी की कला भी
जीने की कला खूबसूरत जीने की कला हो जाये
सोच सच भी तो हो जाती है …
इक बार अपनी इस सोच को
सच होते मैंने भी देखा है और सब ने भी
इक खूबसूरत शायरा को जब मुहब्बत हुई
उस की शायरी और खूबसूरत हो गई
और उसकी ज़िन्दगी उसकी शायरी से भी खूबसूरत ….
मुहब्बत  के साथ कोई हीर भी हो सकती है
और शायरा भी …

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर 

(५)

लाइल्टी ….

किसी भी क्रिमनल वकील को
पूछकर देख लो
कि तुम्हारी लाइल्टी किसके साथ होती है ?
हमारी लाइल्टी  हमारे क्लाइंट के साथ होती है
सभी तरह के कातिल
उनके क्लाइंट होते हैं
सब तरह के कातिल ही
इन वकीलों को करोड़पति बना रहे हैं …
हैं कुछ वकील
जिनकी लाइल्टी आम लोगों के साथ भी है
और इन्साफ के साथ भी …

(६ )

बीबा - 'खामोश चीखां ' को अब हिंदी में छाप लेना
पंजाबी में फिर छापने की जरूरत नहीं
कुछ मात्राएँ ठीक नहीं यह ख़ास बात नहीं
नज्में ठीक हैं यही ख़ास है
जिसने सबसे पहले तेरी किताब पढ़कर
तुझे लिखा था वह पंजाबी पढ़ाती है
टीचर है उसे पहले स्पेलिंग दिखे
कविता बाद में …
जिसने कविता पढ़ी उसे बहुत अच्छी लगी
जिसने स्पेलिंग पढ़े टीचर हैं
टीचरों को मत सोच
तू कविता है कविता को सोच
कविता को जी …
कहीं 'चीखां' बोलते हैं तो कहीं 'चीकां '
तेरे ख़त में 'चीखां' ही थीं -
क्योंकि चीखां वाले इलाके में ही तू
जन्मी पली है - टीचर ही
गलतियों पर शोर मचा रहे हैं
कविता पढ़ने वाले नहीं
कम पैसे लेकर छापने वाले अच्छा नहीं छाप सकेंगे
किसी की बातों में आकर पैसे न गवा लेना
खराब छप गई किसी ने जिम्मेवारी नहीं लेनी
किताब भी और ड्राइंग भी तुझे रजिस्ट्री कर दी हैं
हिंदी में छापने के लिए ….
मैं अमृता को 'है ' लिखता हूँ टीचर 'थी' लिखते हैं
टीचरों को कभी मुहब्बत समझ नहीं आई
न कभी कविता ….
.
इमरोज़ ….

Wednesday, July 10, 2013

इमरोज़ जी की कुछ और कविताओं का अनुवाद .......!

इक जरा सी समझ ...


हीर को जब मुहब्बत हुई
घर के लोगों को समझ नहीं आई
और चाचे को तो कबूल ही नहीं हुई
मुहब्बत में और खूबसूरत हो जाते हैं
हीर भी और खुबसूरत हो गई थी
मुहब्बत की खूबसूरती देख-देख कर
कइयों की खूबसूरती जाग जाती है
वे भी खूबसूरत होने लग पड़ते हैं ...
पर कई ...
मुहब्बत की खूबसूरती देख बुझ जाते हैं
जैसे हीर का चाचा बुझ कर चाचा ही न रहा
कैदो हो गया ...
वैसे हीर का चाचा ही हीर की मुहब्बत देख
बुझ कर कैदो नहीं हुआ ...
जिस घर में भी हीर जन्म लेती है अनचाहे
माँ - बाप को मुहब्बत कबूल नहीं होती
उस के माँ- बाप भी हीर के चाचे की तरह
बुझ कर कैदो हो जाते हैं .....
आँखों को देखना आता है
देख कर समझना नहीं
आम लोगों को जो दिखता है
वह समझ नहीं आता
यह लोग ही हमारा समाज हैं
जिस दिन भी लोगों को यह सब जागना बुझना
समझ आ गया
दुनिया बदल जाएगी
यह समाज बदल जाएगा
सब के चाचे सब के माँ - बाप अपने आप को भी समझ लेंगे
और अपनी हीरों को भी ...
अपने आप से गैर हाजिर ही
अपने आप संग अनचाहे हैं
और अपने आप संग हाजिर मनचाहे
इक जरा सा समझ का फर्क है इक अनगोली समझ का .....



इमरोज़ -
अनुवाद - हरकीरत  हीर

(2)

सोच जैसा ....

कई चीजे ढूंढते नहीं मिलतीं
वे अपने आप मिल जाती हैं मिलती रहती हैं
वह भी आज अपने आप ही मिल गई
उसने मिल कर
न कोई संकोच किया न शरमाई बस मुझे ही देखती रही
जैसे सुबह की शाम की  कल की
मुझे ही उडीकती रही हो सोचती रही हो
तुम मुझे कब की सोच रही हो ...?
जब मैंने अपने आपको सोच लिया
तुझे भी सोच लिया
जितनी देर तुम नहीं मिले मैं सोचती रही
मैंने जहां भी लिखा जा सकता था
तेरी गैर हाजिरी लिखती आ रही हूँ
आज कल दफ्तर जाते भी और आते भी
तेरे स्कूटर के पीछे बैठ कर भी
तेरी पीठ पर तेरी गैर हाजिरी लिखती जा रही हूँ
अभी-अभी मुझे होश आई है
कि यह मैं क्या कर रही हूँ
हाजिर की पीठ पर ही गैर हाजिर लिखती आ रही हूँ
अब पहले मुझे तेरी पीठ चूम-चूम कर
सब लिखा अनलिखा कर लेने दे
देख मेरे जैसे गैर हाजिर कोई नहीं
और तेरे जैसी सोच जैसा हाजिर भी
कोई नहीं होगा ......


- इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर


(३)
फ्रेम मुक्त ....

रात सपने में इक सपना देखा
मोनालिसा जैसी खुबसूरत लड़की
इक फ्रेम में लगी दीवार पर टंगी
मेरी और देख -देख कर मुस्कुरा रही थी
जब मैंने उसे देखती को देखा वह भरी आँखों से
मुस्कुरा कर देखती हुई बोली
मैंने देख कर तुझे देख लिया हैं
तेरा ही इन्तजार था
अपना हाथ पकड़ा मैं फ्रेम मुक्त होना चाहती हूँ
तेरे हाथों में आकर फ़िक्र मुक्त भी
हमें फ्रेम मुक्त देख देखकर फ्रेम मुस्कुरा रहा था ..
और हम हँसते जा रहे थे ..
फ्रेम पेटेंड तस्वीरों के लिए होते हैं
म्यूजियम में टांगने के लिए
और संस्कार चलती फिरती तस्वीरों के लिए होते हैं
समाज की दीवारों में टांगने के लिए ...
मैं सुबह की चाय पी रहा था
कि उसका बड़ा खुश मैसेज मिला
कि वह फ्रेम मुक्त होकर आ रही है .....



- इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

(४)

उडीक ...

तूने मुझ में ख़ास क्या देखा है
तुझे ही उडीक कर देखा है
तुम अपनी तरह की खूबसूरत हो
तेरी हर चीज तेरे जैसी खूबसूरत है
तुझे मैं तब से सोच रहा हूँ उडीक रहा हूँ
जब से मैंने अपने आप को सोच लिया था
हर मर्जी उडीक कर ही मिलती है
इस टी सैट को ही देख ले
इसे पिछले साल ही पसंद करके आया था
और इस साल लेकर आ सका हूँ
तेरे कमरे को सजाने की जरुरत नहीं
सजावट की जरुरत भी है और सजावट भी है
मेरी मौजूदगी मेरे कमरे की सजावट है
अपनी मौजूदगी से ज्यादा खूबसूरत कोई सजावट नहीं
तुम खूबसूरत किसे समझते हो
जिसे देखकर देखने वाला भी खूबसूरत होता रहे
अच्छा लगा यह जानकार
जिसे मैं उडीकता रहा हूँ
वह भी मुझे उडीकती रही है
चल आ अब नए टी सैट में चाय बना
और दोनों उडीकों को मिलकर चाय पीते देखें
लगता है
ज़िन्दगी उडीकते प्यालों में
चाय पीते रहना ही है ......

- इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Saturday, June 15, 2013

 इमरोज़ की कुछ और नज्मों का अनुवाद ......

खुशबू की फ़िक्र ....
पेटेंड फूलों में खुशबू नहीं होती
पेटेंड कैनवास की भी लाइफ़ नहीं होती

सभी आर्ट स्कूलों में
आज भी फूल पेंट कर रहे हैं
खुशबू की न कोई फ़िक्र है न कोई जिक्र

इक खुशबू की फ़िक्र करने वाली
मुझे याद आ रही है -
२० साल पहले मैं भी आर्ट स्कूल में था
मेरी क्लास में इक बड़ी प्यारी सी सयानी सी लड़की थी
जो मुझे अच्छी लगती और मैं भी उसे अच्छा लगता
वह जब भी फूल बनाती
सारी क्लास से खूबसूरत बनाती मुझ से भी
उसे मेरे साथ बोलना अच्छा लगता था
कभी पूछती तेरे रंग बड़े नए-नए से होते हैं
कहाँ से लेकर आये हो ..?
मैं हंस कर कहता अपने पिंड (गाँव) से
वह फिर कहती मुझे अपना पिंड कब दिखलाओगे ..?
मैं फिर हंसकर कहता जब तुझे उड़ना आ जाएगा

वह अपना लंच हर रोज
मुझ से शेयर करती
और मैं अपने ख्याल उस संग
शेयर कर लेता ....
तीसरे साल आर्ट स्कूल में
फूल पेंट करने का मुकाबला हुआ
उसमें भी उसके फूल सबसे खूबसूरत रहे
बड़ी खुश भी हुई और उदास भी
बोली मैं सैंकड़ों खूबसूरत फूल पेंट कर चुकी हूँ
पर किसी भी फूल में कभी खुशबू नहीं आई
जानती है कि पेटेंड फूलों में कभी खुशबू नहीं होती
पर वो अपने फूलों से खुशबू की उम्मीद बना बैठी है
और हर बार उडीकती भी है
जो कभी नहीं हुआ मैं करके देख रहा हूँ
मैं तुम्हारे फूलों की खुशबू बन सकता हूँ
पेटेंड फूलों की नहीं
तू खुद फूल बने तो मैं उस फूल की खुशबू बन जाऊंगा
मंजूर , वह जोर से बोली
मैं और कुछ बनूँ न बनूँ
पर मैं तेरी खुशबू के लिए फूल जरुर बनूँगी
तुम पता नहीं क्या हो अपनी उम्र से कहीं ज्यादा
न समझ आने वाला भी और समझ आने वाला भी ....

(२)
प्यार ....

कल रात
सपने में मैंने रब्ब से पूछा
सुना है
आप लोगों को हर रोज़
बहुत कुछ देते हो
फिर प्यार क्यों नहीं देते ..?
प्यार न दिया जा सकता है
न लिया जा सकता है
प्यार हर किसी को
खुद बनना होता है .....

इमरोज़ -
अनुवाद - हरकीरत हीर

(३)
इक याद ...

आर्ट स्कूल में
इक दिन  हमारी सारी क्लास
नैशनल मियुजियाम में
पेंटिंग के मास्टर पीस
स्डिज़ कर रही थी
मोनालिसा की मुस्कराहट देख कर
एक स्टूडेंट ने टीचर को पूछ लिया
सर , यह मुस्कराहट कभी हंसती नहीं ..?
यह पेटेंड मुस्कराहट है
यह जवाब सुनकर
साड़ी क्लास हँस पड़ीं ....

(४ )

खुले दरवाजे ...
लोग फूल पालते
और प्यार महक पाले
बुरे बोलों का क़र्ज़
नज्में उतारती हैं
समाज है ही नहीं
जब भी सुनो दिल की सुनो
अगर तुम न होते हुए भी होती हो
फिर रब्ब है
और कोई समझे या न समझे
प्यार समझ लेता है
कोई मानता नहीं
मैं रोटी चूम के खाता हूँ
(माँ चूम कर खाती थी )
देर सवेर जब भी आओ
 दरवाजे खुले हैं .....

(५)

मैंने पूछा ....
कल क्या करती रही ...?
उड़ना सीखती रही ...
किससे ...?
उड़कर आई
अपनी माँ से ....

मूल - इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

Friday, June 7, 2013

(1)

धूप लड़की .....

इक लड़की है
जो उदासी की छाँव में बैठी भी
फूल बीज लेती
और फूल खिल पड़ते
अक्षर बीजती
तो कविता खिल पड़ती
वह प्यारी सी लड़की
उदासी की छाँव-छाँव चलती भी
अपने आप की धूप जी लेती है ....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(२)

किस दिन ...

जितने वक़्त भीग कर न भीगना याद है
जितने वक़्त बरस के न बरसना याद है
जितने वक़्त खाली हो कर खाली न होना याद है
और जितने वक़्त अपना आप भी तुझे याद है
मुझे भी याद है
उतने वक़्त कोई भी और कुछ भी याद रह जाता है
वह भी भूल कर भीगें
कि भीगना भी याद न रहे
अन्दर की बाहर की आँखें बंद करके
और दिल खोल कर आसमां की तरह हद भूल कर
छुए अनछुए का कोई ख्याल न आये न रहे ...
बता देना वह दिन
मेरे दिल के मोबाईल पर ...

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(३)

जब तक ...

इक दरिया
खामोश मुहब्बत का दरिया और
सब नज्में
अनलिखी हो जायें
धरती पढ़े
या आसमां
लोग नहीं
जब तक
पढने योग्य नहीं हो जाते ....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(४)

अपने आप संग ...

सड़क के किनारे बैठे एक फकीर से
इक मुसाफिर ने पूछा
बाबा यह सड़क कहाँ जाती है ..?
फकीर ने कहा
मैंने इस सड़क को कभी भी
कहीं भी जाते नहीं देखा
हाँ लोग आते -जाते रहते हैं
फकीर का जवाब सुना  अनसुना कर
मुसाफिर चल पड़ा अपने आप संग
अपने आप संग चले जा रहे मुसाफिर को
सड़क दूर तक देखती रही
ऐसा राही सड़क ने पहले
कभी न देखा था .....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(५)

क़र्ज़ ....

बार - बार
कर्ज़दार होकर
क्यों कर्ज़दार करती हो
खामोश मुहब्बत  भी
हँसेगी .....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(६ )

मर्जी की मर्जी ...

मैं सोहणी हूँ
सोहणी से सोहणी
मुझे मनचाहे की तलाश है
मास्टरपीस बनने की तलाश नहीं
दुनिया के सारे मास्टरपीस
दीवारों पर टंगे हुए हैं सब स्टिललाइज
मैं खिला फूल बनना चाहती हूँ
हमेशा रहने वाला पेटिंड फूल नहीं
मैं सोहणी हूँ
सोहणी से सोहणी
हर दरिया हर रुकावट
पार करुँगी
कच्चे घड़े संग भी और पक्के घड़े संग भी ....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(७)
सच जीने के लिए ...

ज़िन्दगी सच है सच जीने के लिए
यह वाक् किसी न किसी  अर्थ में
हर ग्रन्थ में शामिल है
लोग रोज़ पढ़ते हैं पढ़ छोड़ते हैं
सुनते हैं सुन छोड़ते हैं
और वाक् किसी की भी ज़िन्दगी नहीं बनता
किसी भी वाक् का सच जिए बगैर
अपना सच नहीं बनता ज़िन्दगी का सच नहीं बनता ...

प्यार भी इक वाक् है सच का वाक्
अपने आप में से पढने -सुनने वाला
जिसने यह वाक् अपने आप में से पढ़ लिया
वह कोई हीर हो गया कोई रांझा हो गया
प्यार भी सच है सच जीने के लिए ....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


(८)
तेरे रंग मेरे रंग ...

उसका जब भी दिल करता
मेरे मन के खाली कैनवास पर
अपनी अनलिखी कविता
अक्षर - अक्षर करती
मैं उसे भी देख - देख पढ़ता
और अपने आपको भी पढ़ता
जब कभी मैं भी अपनी रौ में होता
उसके मन के खाली कागजों पर
फूलों के खाके बनाकर
उनमें मनचाहे रंग भरता
वह मेरे रंग भी देखती
और रंग भरने वाले को भी देख -देख
चहकती  रहती
और कहती तेरे हाथों में रंग आकर
और भी खूबसूरत हो जाते हैं
तुम  इतना खूबसूरत पेंट कर लेते हो
कभी खूबसूरत सोच भी पेंट की
सोच पेंट नहीं होती
खूबसूरत से खूबसूरत सोच जी जा सकती है
यह सुनकर वह और खूबसूरत हो गई
मेरे और पास आकर बोली
चल आ
अपनी -अपनी सोचें जी कर
पेंट करते हैं
तुम मेरे रंग बन जाओ
और मैं तेरे रंग बन जाऊं .....

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर


Wednesday, June 5, 2013

इमरोज़ की कुछ और नज्मों का अनुवाद .....

समझ न आने वाला ....

यह एक उसकी बात है
जो उम्र में मुझसे छोटा था
पर और किसी तरह से बिलकुल छोटा न था
इक दिन वह मिलने आया
उस दिन मैं उसे ही सोच रही थी
वह मेरे साथ संजीदा होता जा रहा था
बार - बार उसे देख कर
मैंने उससे कहा
जा पहले दुनिया देख आ
फिर भी अगर मैं तेरी जरुरत हुई
तो ठीक है ...
हम दोनों ही कमरे में थे
उसने उठकर कमरे के सात चक्कर लगाये
और बोला - ''मैं दुनिया देख आया हूँ ''
तुझ जैसा सिर्फ तू ही है
अपने आप से कहीं ज्यादा
न समझ आने वाला .....

इमरोज़ ......
अनुवाद - हरकीरत हीर

(२)

न समझ आने वाला ....

आर्ट स्कुल में
इक ख़ूबसूरती मेरी हमजमात थी
वह जब भी क्लास में आती
मैं सीट से उठकर उसे देखता
वह भी कभी-कभी देखते को देख लेती
मुस्कुरा भी लेती
इक दिन लंच के वक़्त जब क्लास
लंच के लिए गई हुई थी
वह मेरे पास आई और बैठ कर पूछा
तुम मेरी खूबसूरती में ख़ास क्या देखते हो हर रोज ..?
तेरी खूबसूरती में इक ख़ास खूबसूरती है
जिसे देख कर मैं खूबसूरत होता रहता हूँ
तुम कोई ख़ास हो
स्टूडेंट होते हुए भी तुम कहीं ज्यादा हो अपने आप से
न समझ आने वाला .....

(३)
सच जीने के लिए ....

किसी ग्रन्थ का इक वाक् है
ज़िन्दगी सच है सच जीने के लिए
किसी न किसी अर्थ  में यह वाक्
हर ग्रन्थ में शामिल है
लोग हर रोज इस वाक् को सुनते हैं
इस वाक् को पढ़ते हैं
और सुन- सुनकर सुन छोड़ते हैं
और पढ़ - पढ़कर पढ़ छोड़ते हैं
यह वाक् वाक् ही रह जाता है
किसी की ज़िन्दगी नहीं बनता ...
कभी -कभी ...
किसी की ज़िन्दगी प्यार-प्यार
हो जाती है सच हो जाती है
जैसे हीर की ज़िन्दगी
रांझे की ज़िन्दगी
अपने आप सच हो गई
प्यार भी सच होता है सच जीने के लिए ....

(४)
दरिया ...

तुम बनी रहो
अपने आप संग हाजिर
भले मुश्किलें भी बनी रहें
अपने आप संग चलने वालों के साथ
सबकुछ चलता है
मुश्किलें भी मुहब्बतें भी
सोहणीयों और हीरों संग
दरिया भी चलते रहे हैं
और मुश्किलें डूबती ....
तुम बनी रहो अपने आप संग हाजिर
हाजिर ही दरिया होते हैं
इक - दुसरे में बहते दरिया ....

(५)

इक युवती  .....

दरिया के उस पार से
किसी की बांसुरी इस पार को
मस्त कर रही थी ...
दरख्त से सटकर खड़ी एक युवती
अपना आप भूल कर बांसुरी सुन रही थी
पास खड़ा वक़्त
बांसुरी के साथ भी मस्त हो रहा था
और युवती को देख -देखकर भी
अच्छी लगती युवती को
वक़्त ने पूछ ही लिया
बीबी तुम हीर हो या सोहणी ..?
घर से चली तो मैं हीर थी
यह दरिया पार करके मैं
सोहणी हो जाऊंगी ....

(६ )
इक और सुब्ह ...

तेरे ख्यालों संग रात भर जागती रही
और सुब्ह होने से पहले इक और सुब्ह देखती रही
मिलूंगी उससे और जाग कर देखूंगी उसे
उसके ख्यालों को भी .
जब मिली ...
देखते ही कहने लगा
तुझे उडीक-उडीक कर
देख मैं क्या से  क्या हो गया हूँ
तुम मुझे कब के जानते हो ?
जब से मैं अपने आपको जानता हूँ
ठीक है फिर नहीं जाऊँगी कहीं
इक बार माँ जनती है
और दूसरी बार मुहब्बत
देख आज मेरा जन्मदिन है
सिर्फ तेरे साथ मनाने वाला
फिर तो आज मेरा भी जन्मदिन हो गया ..
चल मिलकर मनाएं
यह दो जनों का एक ही जन्मदिन
तेरे ख्यालों संग भी
मेरे ख्यालों संग भी
सारी  रात इक -दूजे संग जागकर
देखेंगे सुब्ह होने से पहले
हो रही इक और सुब्ह तेरी मेरी सुब्ह ...

(७)
हाज़री ...

खुला दरवाजा मत खड़काओ
कब से खोल कर रखा है ...?
जब तुम चली थी
मैं ही रूकती - रूकती
आ रही हूँ
राहों संग रुकावटों संग
तेरी देरी
मेरी गैर हाज़री
पर मेरी पहुँच
तेरी हाज़री भी है ....


इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर .

Wednesday, May 29, 2013

 असमिया कवि 'अनुभव तुलसी' की  कविताओं का हिंदी अनुवाद .....

मारी शारदीय की माँ ... (असमिया कविता )
हमारी बेटी शारदीय का जन्म
अस्पताल के एक गलियारे में हुआ था
क्योंकि उस दिन अस्पताल की
सेवाएं बंद थीं ...
शारदीय की माँ के लिए
जमीन पर ही बिछा दिया गया था
 प्रसूति बिस्तर
वहीँ से किया शारदीय ने प्रथम बार
भूमि रूपी माँ को
साष्टांग प्रणाम ...

हमारी बेटी शारदीय का जन्म
हुआ था मेंड़ पर
जहां से बहा ले गया था
मदमाता पानी शारदीय की माँ को
लगा दिया गया था फिर पानी में ही
शारदीय की माँ का प्रसूति बिस्तर
पानी के बिस्तर से ही शारदीय ने किया था
 पानी रूपी पिता को
साष्टांग प्रणाम ....

एक दिन
प्रात: भ्रमण के समय
कचरे के ढेर से उठा लाई थी माँ
हमारी शारदीय को ...

हमारी बेटी शारदीय के जन्म के दिन
हँस पड़े थे लाल-नीली हँसी में
कुमुद के फूल ...
हमारी बेटी शारदीय के जन्म के दिन
हर सिंगार रो पड़ा था फूट-फूट कर
क्यों रोया कोई नहीं जानता ....

हमारी बेटी शारदीय की
 दो आँखें हैं जैसे शबनम की दो बूंदें
देव और असुर दोनों तारे वहीँ
स्नान किया करते हैं ...

जन्म के दिन ही माँ ने
खिलाई थी शारदीय को शपथ
रणभूमि में जब धर ही चुकी हो पैर
साँसे रहने तक लड़ना ..

शारदीय के ....
स्वप्न धारण करने के दिन से लेकर
माँ का था अपविश्वास के विरुद्ध युद्ध
एसिड ,किरासिन ,दांत,नाख़ून के विरुद्ध युद्ध
बार  -बार दु:शासन द्वारा
नग्न किये जाने के विरुद्ध युद्ध
कभी इस युद्ध से  कभी उस युद्ध से
लड़ते-लड़ते शारदीय की माँ के
दोनों  हाथों की जगह उग आये थे
दस - दस हाथ .....

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

(२)

रोग ग्रस्त ...(असमिया कविता )

एक ऐसा शुष्क सा परिवेश फैला दिया है
कि पत्नी की आँखों का जल सूख गया है

एक ऐसी आग निशदिन जला रखी है
कि उसके के चेहरे की हँसी जल गई है

एक ऐसा मानसिक दबाव बना रखा  है
कि पत्नी की रक्त-प्रवाह गति थम सी गई है

उसे ऐसी कड़वाहट के बाद कड़वाहट दी है
कि उसे मीठे और नमकीन से हो गई है अरुचि

मुसलसल शब्दों से मेरा विस्फोटन जारी है
अब उसकी वाकशक्ति भी खत्म हो गई है

अति आधुनिक माइक्रोवेब में उसे यूँ तला है
कि अब वह जरा सी चोट से ही बिखर जाती है

विलायती बनियों के कड़कड़ाते डालरों की तरह
पत्नी बदलने का यही उचित समय है ....!!

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

(३)

पानी ....

पानी जा घुसा  है
उस मनुष्य के घर

वो मनुष्य
बिलकुल अकेला है

घर के चारो ओर
पड़ी वस्तुओं में
लगे उसके स्पर्श को
छूना चाहता है पानी


 गर्भ शून्य हवा
बेड़े की दरारों से
देखती है पानी को

पानी आने की खबर सुन
जमीनी बिस्तर पर लेटा
फर्श भी सर उठाता है

 अतिथि पानी को
अकेला मनुष्य करता है
स्नेह से स्वागत

पानी को आती है
उसकी शारीरिक गंध

दोनों गंधों के
मिलन के पश्चात

वह निकल पड़ता है
अपने काम के लिए

उसके बिना उस घर में
पानी भी नहीं ठहरता
ज्यादा देर

आ गए पानी से
एक बार मिल चुकने के बाद
वह नहीं भूलता जल्द उसे

सूख जाने के बाद भी
पानी की स्मृति में
रहता है वह

जब तक कि
जीवन में पानी है ...!!

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

(४)

मोहतरमा की आँखें ....

घी के दीये की सी दो गहरी नीली आँखें
आम्र मंजरी सी वो तुम्हारी ही हैं मुदर्रिस मोहतरमा
ख़त के गर्भ से मुड़े -तुड़े अक्षरों से
झड़े हुए सूखे फूलों की पंखुड़ियों के साथ
अमलतास के पत्तों  की तरह
इस छोर से उस छोर तक खिंची
काजल की स्याह असंभव रेखा
समेट लेता हूँ हौले से
भीग जाती हैं अंगुलियाँ छूते ही

पर घर में पहले ही हैं एक जोड़ी आँखें
फिर इन दो आँखों की और कैसे लूँ मुसीबत ...?
कहाँ रखूँ छुपाकर  ...कहाँ रखूँ ....?
तकिये के नीचे रख नहीं सकता
रखते ही भिगो देगीं ये बिस्तर
फेंक दो इन्हें  , कौन देखता है , दूर फेंक दो
बात- बात में सिसकना
मानो आँखें न होकर कोई मोल ली आफत हो
फिर भी मैं चाहता हूँ वो यहीं रहे
मुसीबत के बीच भी मेरे साथ
साथ न रहने पर भी गर तुम्हारा बोझिल ह्रदय
हो जाता है हल्का ....!!

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

(५)
बरसात ....

बरसात में भी है कुछ काँटों जैसी चुभन
जो बेंध जाती है मेरा तन-मन आते ही

तकिये के सहारे बैठ मेरे बिस्तर पर
जला जाती है सपनो की शमा ....

और मैं रख देता हूँ धीरे से शमादान में
भविष्य  के कुछ सुनहरी गुलाब

बरसात मुझे बनाती है उपजाऊ और मैं
रोप देता हूँ उसकी छाती में उम्मीदों के पौधे

कभी पतंग उडाता हूँ बारिश के संग ,और
कभी दोनों खेलते हैं डोर काटने का खेल ...

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

(६ )

गहरे नील तारे के चारो ओर ..

कल तक जो नहीं थी चिड़िया
थी कुछ और ही .....

आज सुबह भी पैदल चलकर
किया था उसने  पुल को पार

 अकस्मात् ही कुछ और से
वह बन गई थी चिड़िया

बड़ी अनहोनी सी बात थी
न पहले कभी सुनी न देखी

हमारे बीच कईयों ने देखा है उसे
और कइयों  की है बातचीत भी ....

जिसकी चोंच से चोंच मिलाकर
कईयों ने  चूमा है आकाश

उस चिड़िया के गहरे नील पंखो का
एक मैं भी हूँ  प्रशंसक ....!!

मूल - अनुभव तुलसी
अनुवाद - हरकीरत हीर

Saturday, May 11, 2013

इमरोज़ की कुछ और नज्मों का अनुवाद ..... 
खूबसूरत मर्द ......

खेतों में ..
तितलियों संग खेलते खेलते
उड़ते- उड़ते , हँसते -हँसते
पता ही न चला
कब इक तितली के खास रंगों से
रंगा मैं जवान भी होता गया
और अपनी मर्ज़ी का भी होता-होता
आर्ट स्कूल पहुँच गया ....

क्लास की लड़कियों में
इक लड़कीअपनी -अपनी सी लगी
 वह लड़की जब भी क्लास में आती
अपनी सीट से उठकर मैं उसे देखता
वह भी मुझे देखता देख
मुस्कुराती भी रहती और देखती भी ....
पता नहीं उस तितली के रंगों से
या वक़्त के रंगों से या सोच के रंगों से
या उस ख़ास की खूबसूरती के रंगों से
मेरी पेंटिंग भी
और खूबसूरत होती जा रही थी
और मैं भी उसे रोज -रोज देखकर ...

इक दिन
लंच के वक़्त जब सभी लंच को चले गए
वह मेरे पास आकर बैठ गई और बोली
तुम रोज -रोज मुझमें क्या खास देखते हो ...?
तुम्हारी खूबसूरती में मुझे
इक खास खूबसूरती दिखती है
जिस देख -देख मैं खूबसूरत होता रहता हूँ
 और हो भी रहा हूँ
क्या तुम कोई ख़ास हो ...?

इक खूबसूरती को देख - देख
खूबसूरत होने वाला
तेरे जैसा और कोई न होगा
खूबसूरती से भी खूबसूरत मर्द .....



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हर  में टेस्ट में
रब्ब का टेस्ट है

तुम्हारा नाम .....
(१)

कोई नज़र में है
अभी तो अपना आप ही नज़र में है
और अपना आप
अपनी मर्ज़ी का बन रहा है
कितना नया ख्याल है
और कितना जरुरी भी
फिर किस तरह मिलोगी
जैसे आज मिली हूँ
तेरा नाम
मर्जी ....

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(२)
तुम क्या कर रही हो
ख्यालों को रंग दे रही हूँ
और ख्यालों से रंग ले भी रही हूँ
क्या खूब देना -लेना है
अब मिलोगी
जिस दिन कोई नया ख्याल मिल गया
तुम्हारा नाम
ख्याल .....
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रब्ब का कोई भी नाम हो सकता है
प्यार का भी हीर का भी .......

इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर ....

Saturday, May 4, 2013

इमरोज़ की कुछ नज्में ....

अर्थ ....


अगर बिजली की मौजूदगी में
दो गैसें आक्सीजन और हाइट्रोजन 
आपस में मिलकर
पानी बन सकती हैं
फिर तो ...
मुहब्बत की हाजिरी में
हम भी अपने अपने इनकार और इकरार को
मिलाकर बादल बना  सकते  हैं ...
क्या कर रही हो ..?
नींद आ गई थी  ...?
दिल की लगी वालों को कभी नींद नहीं आती
तुझे कैसे आ गई ?
तुम कोई बलोच हो
नहीं मैं बादल हूँ
तेरी मर्जी पूछने आया हूँ
चाहने वाले मर्जी नहीं पूछते मर्जी करते हैं ....
तुम तो सचमुच सारे के सारे बरस गए हो
भीगना नहीं चाहते हुए भी आज मैं
सारी की सारी भीग गई हूँ
तुम्हारे साथ भी और अपने साथ भी ...
सच बताना ...
तुम इनकार के बादल हो या इकरार के ..?
मैं दोनों का अर्थ हूँ ..
जैसे तुम और मैं इक दूजे के अर्थ
मुहब्बत के अर्थ .....

(२)
इलाही गीत ....


इंसान आज़ाद नहीं
अपने आप से
हवाएं आज़ाद हैं
अपने आप से ...
शब्द नज़्म बनते हैं
पर हीर नहीं बनते
हीर मुहब्बत बनती है ....
किस्से , कहानियाँ सोच बनाती है
पर सोच मुहब्बत नहीं बनाती
हीर किसी की कोई नज़्म बने न बने
पर हीर मुहब्बत का
एक इलाही गीत बन गई है
जिसे खामोश सदियाँ
गाती आ रही हैं जाग- जाग कर  ....
इस इलाही गीत को
जो भी मुहब्बत संग जागकर
गाता है वह रांझा-रांझा हो जाता है
और मुहब्बत के संग जागकर
जो भी इस इलाही गीत को सुनती है
वह हीर हीर हो जाती है ...
इस गीत को गाते -गाते भी
और सुनते -सुनते भी
मैं भी कई बार वारिस वारिस हुआ हूँ ....

(३)

कर्ज़दार ...

बार -बार कर्ज़दार हो -होकर
क्यों कर्ज़दार बना रही हो
देख ...
खामोश मुहब्बत भी
हँस रही है .....

अनुवाद - हरकीरत हीर

Wednesday, April 3, 2013

इमरोज़ की कुछ नज्में ...... 
आज़ाद मुहब्बत ....

मनुष्य  आज़ाद  नहीं
हवाएं आज़ाद हैं
हवाओं को मुहब्बत का भी पता है
और खामोश मुहब्बत का भी

शब्द नज़्म बनता है
वारिश बनता है
पर हीर नहीं बनता
हीर मुहब्बत का नाम है
किस्से कहानियाँ सोच लिखती है
पर सोच मुहब्बत नहीं बनती
ना सोच मुहब्बत की गवाह बनती है
गवाह सिर्फ हवाएं बनती हैं
हवाओं में मुहब्बतों ने मुहब्बत की सांस ली
खामोश मुहब्बत की साँस .......
हीर को मुहब्बत को वारिश की जरुरत नहीं
वारिश को हीर की जरुरत है किस्से  लिखने के लिए
हीर कोई नज़्म बने ना बने
हीर मुहब्बत का एक इलाही गीत है
मुहब्बत के साथ जाग कर गाने वाला .....

पता नहीं कब
पर जब कोई औरत पहली  हीर हुई होगी
मुहब्बत  हुई होगी
तभी इस मुहब्बत का इलाही गीत बना होगा
मुहब्बतें  गा रही हैं यह इलाही गीत
हवाएं गा रही हैं यह इलाही गीत
हवाएं सुना  रही हैं यह इलाही गीत
इस मुहब्बत का हीर का गीत
हवाओं में से
कोई भी सुन सकता है
यह इलाही गीत ,यह मुहब्बत का गीत
मुहब्बत के साथ जागकर .....

(2)
खाली कागज़ ....

वह खाली कागज़ पढ़ रही है
पता नहीं कब से
आकर मैं उसे देख रहा हूँ
पर उसने मुझे नहीं देखा
जब उसने मुझे देखा
उठकर बोली
कमाल है
प्यार के आने की भी
कोई आवाज़ नहीं आई
जैसे खाली कागज़ पढ़ते वक़्त
किसी अर्थ की आवाज़ नहीं आती .....
तुम कितने अच्छे हो
हर वक़्त मेरी उडीक बने रहते हो
आ पहले  मिलकर चाय बनाते हैं
चाय पिटे हैं
खाली कागज़ पढ़ -पढ़कर
आज कुछ लिखा है
चाय पीकर तुझे
सुनाती हूँ
तुझे भी और अपने आप को भी .....

(३)

ख़ुशी ....

हालात कुछ भी हों
अब अपने आपसे
 खुश होना आ गया है
सादगी भी, स्पष्टता भी मिलकर
ज़िन्दगी के साथ- साथ चलती हैं
अपने आप जैसा होकर
आज़ाद होकर
अपना सच आप बन रहा हूँ
सोच ....
दिन की ख़ूबसूरती देख -देख
खूबसूरत होती रहती है
और रात की ख़ूबसूरती देख -देख
 खूबसूरत भी होती रहती है और जागती भी रहती है ...
ख़ुशी .....
खुद ही अपना मजहब भी होती रहती है
और खुद ही अपनी पूजा भी ......


(४)
मनचाही नस्ल ....

किसान भी
फसल बीजते वक़्त
मनचाहा बीज सोचता है
पर पता नहीं क्यों
न औरत
बच्चा जन्मते वक़्त
मनचाहा मर्द सोचती है
और न ही मर्द
नस्ल जन्मते वक़्त
मनचाही औरत सोचता है
किसी के साथ भी
कहीं  भी सोकर
जागती नस्ल पैदा नहीं हो सकती .....


 इमरोज़
अनु - हरकीरत हीर

Thursday, March 28, 2013

संक्षिप्त परिचय -
नाम- परगट सिंह सतौज
जन्म- १९८१ , संगरूर , पंजाब
शिक्षा - स्नातकोत्तर
कृतियाँ - तेरा पिंड ( काव्य संग्रह ), भागू  (उपन्यास ) , तीवीयाँ (उपन्यास )
सम्मान - , कर्नल नारायण सिंह भट्टल कहानी सम्मान , नंगे हर्फ़ साहित्य पुरस्कार , प्रकाश कौर सोढ़ी कहानी पुरस्कार, साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार
सम्प्रति - शिक्षक 
संपर्क -गाँव - सतौज , -  धरमगढ़ , जिला- संगरूर- 148028 (पंजाब)
मोब - 09417241787, 09592274200

पंजाबी कहानी - गलत-मलत  ज़िन्दगी          

          लेखक - परगट सिंह सतौज (अनु : हरकीरत हीर )

         मौसम हुमस भरा है, पूरी तरह तूफ़ान आने के पहले की सी शान्ति। पर मैंने उसके घर आज तूफ़ान जरुर ला देना है। उसने मुझे समझा क्या है ..? मैं इतना भी गया -गुजरा नहीं कि अपना हक़ गवांकर यूँ चुप बैठा रहूँ। मैंने भी उसे आज दिखा देना है , अगर तू मेरे साथ ऐसा कर सकता है तो बनिये के मैं भी नहीं जन्मा। ध्या ले आज जिस भगवान को ध्याना है ... मांग ले जौन सी मनौतियाँ मांगनी हैं ....!

         ''मैंने कहा सुनो जी  ! मैं कब की आवाजें देती जा रही हूँ ''  मेरी पत्नी रसोई में रोटियाँ सेंकती मेरे सर पर आ खड़ी हुई। मैं तबक कर उसकी तरफ देखता हूँ जैसे काफी सालों से बिछड़ी को बड़ी मुश्किल से पहचान रहा होऊँ।
         ''बाहर मुंडा (लड़का ) कब से रोये जा रहा है उसे देख लो जरा मैं रोटियाँ सेंक रही हूँ। '' पत्नी मुझे घूरती सी मुड़  रसोई में जा घुसी है। मैं बाहर से अपने तीन साल के बेटे को गोदी में उठा कमरे में आ गया हूँ। थोड़ी देर बाद पत्नी गीले हाथ तौलिये से पोंछती अन्दर आ जाती है।  
''तुम्हारी नज़रें आज कैसी उखड़ी - उखड़ी  सी लग रही है ..?  '' पत्नी मेरी आँखों में देखती,  मेरी अन्दर की उथल-पुथल को पकड़ने की कोशिश करती है।
          '' नहीं तो !  यूँ ही वहम हो रहा है तुम्हें   '' मैं अपने आस-पास झूठ की दीवार चिनता हूँ ताकि वह मेरे अन्दर प्रवेश न कर सके। 
        ÒÒ रोटी लाऊँ ..? ÓÓ पत्नी पूछती है।
        ÒÒ हैं ..! हाँ ....! ÓÓ मैं अपने भीतर के समुंदर में फिसलता- फिसलता मुड़ परत के उसे Òहाँ Ó कर देता हूँ और मुड़ उसी समुंदर में डुबकी लगा जाता हूँ।

           'कभी माँ भी इतनी निर्मोही बन जायेगी?' मैंने यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था पर यदि कभी यह सच हो जाए तो ...? तो बन्दे के अन्दर ऐसे झक्खड़ झूलते हैं कि जहां से भी ये पार हो जाएँ सबकुछ पलों में तहस-नहस हो जाए  ।
            माँ को तो मैं दुसरा नहीं पहला  दर्जा देता था रब्ब का । फिर उसे क्या मज़बूरी आन पड़ी थी कि उसने मेरा मांस काटकर किसी दुसरे को खिला दिया ? जब मुझे पता चला तो मैं तो जीता जी ही  मर गया था। माँ ने मार दिया था। माँ ने अपने हिस्से की सारी  जमीन बड़े के नाम लगवा दी थी। मैंने रिश्तेदारों को भी बुलाया पर उसने किसी की न मानी। उलटे भैया मुझे मारने दौड़ा ।
पत्नी ने तो मुझे पहले ही बहुत समझाया था, '' यह काला नाग है, काला नाग ! इसे दूध मत पिला एक दिन तुझे ही डस लेगा. '' 

           ''अरे भोली ! खून के रिश्ते हैं , यूँ ही नहीं टूटते !'' मुझे उसकी बातें बुरी लगतीं।
''तुम तो सतयुग की बातें करते हो। अब पहले जैसा खून नहीं रहा !'' वह समाज के ऐसे सच का आइना मुझे दिखाने की कोशिश करती पर मैं आँखें  मूंद लेता।  
पर जब जमीन बड़े के नाम हो गई तो मेरी आँखें , मुंह , कान सब खुल गए और फिर बंद नहीं हुए।

           मुझे पिछले समय के दौरान उनकी ओर से मेरे साथ की गई ज्यादती इस अनहोनी के लिए अभ्यास   लगी। अगर मैं पहले ही सचेत हो जाता तो .....!
           पहली बार बड़े ने मेरे साथ तब की,  जब मैं किसी दोस्त के पास तीन - चार दिन बाहर गया हुआ था। मुझे पीछे से मामा जी का फोन आया , '' मक्खन अलग होना चाहता है। कहता है बना हुआ घर मैंने लेना है। अब कैसे करें ..?''
'' मामा जी अभी उसे अलग होने की क्या आन पड़ी थी ...? अभी तीन महीने ही तो हुए हैं  उसकी शादी को  ...?''

          '' हमने तो बहुत समझा के देख लिया पुत्तर , मानता ही नहीं किसी की ! ''

           '' चलो यूँ करो फिर जो घर माँगा है दे दो उसे। '' मैं ज्यादा बखेड़े में नहीं पड़ना चाहता था । 
जब मैं वापस गाँव आया तो माँ-बाप के साथ मेरा समान तुड़ी (भूसे ) वाले कमरे में पड़ा था। फिर कितने ही समय में मैं उसे धीरे- धीरे बैठने योग्य बना पाया था। 

          ''लो जी रोटी !''

          ''........! ''

          '' रोटी ...!  कहाँ खो गए ...?'' पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा। उसकी मुस्कराहट के पीछे छुपा व्यंग मुझे प्रत्यक्ष दिख रहा था। 

           मैं रोटी खाने लग पड़ा।  वह पता नहीं क्या बोलती  गई। मुझे उसकी बात समझ नहीं आई। मैं बस ऊपरी सी  ' हाँ -हूँ' करता रहा।  मेरे मन में तो उसकी एक ही बात कील की सी गडी थी,  '' तुझे मर्द कौन कहता है  ? तू तो नामर्द  है नामर्द।  दुसरा  चाहे तो तुम्हारे सर पर हग जाए तुझे फिर भी सुरति नहीं आएगी।  अब तो अपने हिस्से की जमीन भी ले उड़ा वह  अब इससे ऊपर क्या होगा ? अब खुद तो मरे ही पड़े हैं कहीं वह सर पर ही न चढ़ बैठे  , पर तुम जैसे मिटटी के ढेर पर कोई असर हो इन बातों का तब  न ...? '' 

           जब से पत्नी ने यह बात कही हैं  मेरे अन्दर कोहराम सा मच गया है।  क्रोध का गोला मेरे सर की तरफ चढ़ने लगा है। जी करता है बम सा फट जाऊं। खुद भी तबाह हो जाऊं और अपने आस -पास का सबकुछ तहस - नहस कर दूँ।  मैं अपनी पत्नी के सामने नीचा नहीं होना चाहता था । मैं तो हर बार दूर की  सोचकर चुप  रह जाता था। पर मेरी इसी सोच ने मुझे मेरी पत्नी के आगे नामर्द बना दिया था। डरपोक और कमजोर। पर अब मैंने उसे दिखा देना है, तेरा सुक्खा कमजोर नहीं। मैं अपनी मर्दानगी के गिर रहे मीनार को मुड़ उसकी आँखों के आगे उसारूंगा। आज के बाद वह मुझे कभी नहीं कहेगी तुझ में तो जरा भी अनख नहीं है। '' 

           '' मुझमें अनख है राजी।  कल का सूरज तेरे सुक्खे की अनख  की गवाही लेकर चढ़ेगा, तुम देखती रहना !'' मेरा अंतर बोलता है। 

           पत्नी बर्तन मांजकर बिस्तर पर आ बैठी है। मैं आने वाले समय को देखते हुए उसका मन पढ़ने की खातिर बात चलाता हूँ , '' अगर मैं मर जाऊं तो तुम क्या करोगी ...?''
            '' लो जी ..! ऐसी बातें क्यों करते हो जी , मरें तुम्हारे दुश्मन !'' पत्नी के इस जवाब पर मुझे लगा मैंने बात कुछ ज्यादा करड़ी पूछ ली है। मैंने बात को जरा नरम करते हुए दोहराया, '' अगर मैं कई सालों के लिए बाहर चला जाऊं , घर को तुम अकेली संभाल लोगी  न ...?'' मेरी आँखों के आगे जेल दिखाई दे रही थी। 

             '' बाहर कहाँ ..?'' वह मेरी बिना सर -पैर की बातों पर हैरान होती है।
             '' ना, मान लो अगर मैं चला जाऊं तो ...? ''
             '' मुझे नहीं तुम्हारी कोई भी बात समझ आती।'' वह नराजगी सी दिखाती पासा पलट लेती है जैसे मुझे देख कर अपने मन का दरवाजा बंद कर लिया हो। उसने अपना मन पढ़ने देने से पहले ही मुझे दर से वापस मोड़ दिया था।
          अब मैं उसके सो जाने का इन्तजार करता हूँ। वह मेरे साथ कुछ देर बातें करती है और फिर बेटे को दूध पिलाकर सो जाती है। मुझे उस समय की इतनी बेसब्री हो रही है कि मैं  बीत रहे एक - एक मिनट को गिन रहा हूँ। समय चींटी की चाल चलता १२ तक पहुँच गया है। मैं धीरे से उठकर चप्पलें पहनता हूँ और अन्दर आ जाता हूँ फिर अलमारी की ओट से  किरच (दाव जैसा हथियार ) उठा लेता हूँ । उसे उलट-पुलटकर किसी कीमती  शय की तरह निहारता हूँ  और फिर कमर में खोंस लेता हूँ। अलमारी के पास से गुजरने लगता हूँ तो मुझे आदमकद शीशे में से अपना चेहरा नज़र आता है। एक पल रूककर मैं शीशे में अपना चेहरा निहारता हूँ , '' मुझे अपना चेहरा ही अपना नहीं लगता। मैं और नजदीक होता हूँ तो माथे पर पड़ा काट का पक्का निशान मुझे यकीन दिला देता है कि यह मैं सुक्खा ही हूँ। मैं निशान के ऊपर हाथ फेरता हूँ जैसे वह दुबारा ताजा हो गया हो और उसमें से लहू रिस -रिस कर चेहरे पर लकीरें बना  गया हो।

             उस दिन भी इसी तरह खून की धारें चलीं थीं  जब दीवार  की लड़ाई के पीछे बड़ा मुझे सोते वक़्त गंडासा मार गया था। वह आया तो मुझे मारने के इरादे से ही था पर निशाना  गलत लगने के कारण मैं जल्दी से उठकर पीछे हो गया था। वह उलटे पैर वापस भाग गया था।
         यह निशान  देखकर मेरा क्रोध और उबाल खा गया। मैं बाहर निकलता हूँ। राजी और जोनी  सोए हुए हैं। मैं उनके सिरहाने जा खड़ा होता  हूँ। जोनी सोया हुआ हँस रहा है। मुझे उसके भोले चेहरे पर तरस आता है। फिर मुझे उसका हँसता चेहरा रोता हुआ जान पड़ता है। उसके फटे मैले-कुचैले कपडे  हैं। राजी का भी यही हाल है। बिखरे बाल,  टूटी चप्पलें , पैरों में मोटी -मोटी  बिवाइयां। चेहरे पर बिवाइयों जैसी क्रूर झुर्रियां; जैसे कोई भिखारन हो। वे दोनों दरवाजे पर खड़े मेरा इन्तजार कर रहे हैं पर मैं नहीं आता। जब मैं वापस आता हूँ तबतक वे खड़े - खड़े वहीँ बुत बन जाते हैं। 

           राजी पासा पलटती है तो मुझे सोच में से बाहर खींच लाती है। मैं जोनी का एक बार मुंह चूमता हूँ और किरच को संभालता बाहर निकल जाता हूँ। 
      
           बाहर गली में आता हूँ तो अमरु बाबे के घर के बाहर का बल्ब जलता हुआ दिखता है। उसके दरवाजे  के आगे पड़ी चौकड़ी सूनी है। मुझे बाबे अमरु की बात याद आती है। वह परसों चौकड़ी पर बैठा मेरी सुनाई किसी घटना पर टिप्पणी करता हुआ जैसे मुझे समझा रहा था ,   ÒÒ अब वो वक़्त नहीं रहा पुत्तरा सतयुग वाला। अब तो सारी  ज़िन्दगी ही गलत -मलत सी हुई पड़ी है। जैसे कई रंग एक साथ गिर कर इकट्ठे हो जायें , तो फिर उनकी कोई पहचान नहीं रहती। आज के जमाने के बन्दे भी बस ऐसे हुए पड़े हैं। हमें पता ही नहीं चलता कौन अपना है और कौन बेगाना ? यह भी नहीं पता कब हमारा भाई ही दुश्मन का सा काम कर जाए या कोई गैर भाई से भी बढ़कर निकल जाए। इस समय तो पुरानी कहावतों के अर्थ ही सारे उलट हो गए हैं ! बस रब्ब भली करे ! ÓÓ बाबे ने किलोमीटर का सा लंबा सांस लिया था जैसे वह सारे रिश्तों की कड़वाहट को अपने अन्दर भरकर खत्म कर देना  चाहता हो।

         ÒÒ हाँ बाबा तेरी बात सोलह आने सच निकली ÓÓ यह बोल मेरे अन्दर से उठे और फिर अन्दर ही जप्त हो गए। 

          मैं बाबे अमरु  के घर की ओर  देखता हुआ आगे की ओर चल पड़ता हूँ। पीछे फ़म्मन के डेरे की ओर से आये दो कुत्ते मुझे देखकर भौंकने लगते हैं। पर मैं उनकी ओर से बेध्याना हुआ चला जा रहा हूँ। आगे जी . टी . रोड पर वाहनों की लाइटें उनकी गूंज के साथ- साथ भागी जा रही हैं।  मैं सड़क पर आ गया हूँ। सामने आ रहे ट्राले की गूंज सुनकर रुक जाता हूँ। वह शोर मचाते  , दैत्य की तरह धरती हिलाता पार हो जाता है।  उसके जाने के बाद धरती फिर शांत हो जाती है जैसे भूचाल झटके देकर लौट गया हो। मैं आस-पास देखता सड़क पार कर जाता हूँ।


         मैंने अपने खेत की ओर जाती पगडण्डी पकड़ ली है। धान के खेतों से गर्माहट भरी इक भड़ास सी आ रही है । खेतों में कोठियों में लगे बल्ब जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं। ज्यों -ज्यों मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ सड़क पर चलते वाहनों की आवाज़ भी किसी के मुंह पर हाथ रख देने जैसी गहरी होती जा रही है। मैं समय देखता हूँ: एक बजने वाला है। दो बजे खेतों वाली लाईट भी चली जायेगी । मक्खन एक बजे किसी क्यारे में नक्का करके पड़  जाएगा और फिर सुबह उठकर घर को जाएगा। जाएगा नहीं,  जाता था पर अब नहीं जाएगा।

        मैं कुछ समय और  पार करने के इरादे से पक्के सूए की पुलि पर बैठ जाता हूँ और उसकी मौत की घड़ियाँ गिनने लगता हूँ।

         मक्खन अब तक मेरे ऊपर चढ़ता आया था। पहले घर के बंटवारे के समय मुंह लगा फिर ट्रैक्टर के बंटवारे पर अड़कर खड़ा हो गया। मैंने , ''चलो भाई है समझ कर वह भी छोड़ दिया। फिर जमीन की आध भी करवा ली। बोला मैं बापू को आधे कीले का ठेका दे दिया करूंगा। दो साल दिया फिर ठेका भी बंद। बोला जिधर काम करता है उधर ही रोटी भी खाए। मैंने फिर मन को समझा लिया, Ò वह बेशक कपूत बन जाये पर मैं नहीं बनता  , मैं करूंगा  सारा खर्च माँ -बाप का !Ó
         कोई साइकिल वाला मेरे पास से गुजरने लगता है तो मैं सर झुका लेता हूँ ताकि मुझे पहचान न ले। उसकी मौत के बाद तो मैंने खुद ही प्रत्यक्ष हो जाना है।

            मैं फिर समय देखता हूँ एक से पार हो चुका है। मैं उठकर चल पड़ता हूँ।  बड़ी पगडण्डी से हमारे खेत की और जाती पगडण्डी पर मुड़  जाता हूँ। आगे हमारी जमीन है पूरे छह कीले का टक । मैं फसल पर निगाह मारता हूँ।  मेरे दो कीलों  की फसल मेरे जैसी ही दब्बू हुई खड़ी थी।  उसके चार कीलों में खड़ी फसल मेरी फसल से दुगुनी फैली हुई लगती है जैसे वो भी मक्खन के जैसे हकारी हुई मेरी फसल के ऊपर से फ़ैल जाना चाहती हो। मैं उधर से ध्यान हटाता मुड़कर कोठे की ओर चला जाता हूँ। सामने खाट  पर वह पड़ा है। कभी बापू की लाश भी यहीं पड़ी थी।जब बापू रात जीरी को पाने देने गया सुबह मुड़कर नहीं लौटा ... तो मैं साईकिल लेकर उसे देखने चला गया था। धूप चढ़ी हुई थी पर बापू अभी भी मच्छरदानी में इस तरह पड़ा हुआ था जैसे उसके लिए अभी भी आधी रात हो। मैंने पास जाकर देखा बापू का चेहरा मुझे बड़ा डरावना लगा। एक डर मेरे शरीर में जहर जैसे फ़ैल गया। मैंने मच्छरदानी उतारकर बापू को हिलाया पर वह तो .....!

           मेरी चीख निकल गई।  मुझे जोर -जोर से रोता देखकर बाबे अमरु का बेटा जमेर मेरे पास आया। होनी तो घट चुकी थी। उसने ही मुझसे मोबाईल लेकर मक्खन को फोन लगाया । वह कई लोगों को साथ भी ले आया था । लाश घर ले जाई गई।

            '' अब मिटटी रोलने से क्या मिलेगा ताऊ; हमें सबकुछ दिख तो रहा है !'' जब बापू की लाश को डाक्टर के पास ले जाने की बात चली तो बड़े ने आँखें पोंछते हुए दबी सी आवाज़ में ना नुकर कर दिया था।
बापू की लाश को तो खपा दिया गया था पर लोगों के मनों के अन्दर के सवाल उनके अन्दर न खपे। कुछ ही दिनों के बाद बात की भाप उठने लगी थी। जिसका सारा शक मक्खन की ओर जाता था। लोग बातें करते थे , लाश के गले में नील पड़े हुए थे , आँखें बाहर को निकली हुई थीं . '' किसी ने बापू का गला घोंटा था। सिद्दर मज़बी ने तो उस रात मक्खन को खेत की ओर जाते भी देखा था।

             लोगों की इन बातों ने मुझे सोच में डाल दिया था।


         पहले तो मुझे ऐसा सोचने की होश ही नहीं थी। पर लोगों की अजीब -अजीब बातों ने मेरे अन्दर कई सवाल उठा दिए थे। जिससे  शक की सुई मक्खन के ऊपर ही जा खड़ी होती थी।
            
           उसी रात मैं पेशाब करने उठा था तो मुझे माँ और मक्खन की खुसर - फुसर सुनाई दी और फिर उनका बाहर का बार भी खड़का था। इस सब में माँ भी शामिल थी।
           शराबी बापू से मार खाने के बाद माँ जब भी बापू को गालियाँ देती तो वह अपनी इस भयानक नियत का संकेत जरुर कर दिया करती थी ,ÒÒ टैठिया! मैं तां कहिनी आं तूं पिआ ही रहिजे।जे तूं मरजें , मैं शुकर मनावा! तेरे बिना मेरा कोई देश सूना नहीं हुंदा। जेहडियाँ रंडियां ने वधिया नींद सोंदियाँ ने वधिया नींद उठदिआं नेÓÓ (ÒÒ नीच मैं तो कहती हूँ तुम पड़े ही रह जाओ। अगर तू मर जाये मैं शुक्र मनाऊँ। तेरे बिना मेरा कोई देश सूना नहीं हो जाएगा। जो रंडियां हैं खुद की  नींद सोती हैं और खुद की नींद उठती हैं !ÓÓ)
        
           कभी - कभी लड़ाई के बिना भी माँ के अन्दर की यह ख्वाहिश होंठों पर आ जाती। वह कितनी - कितनी देर गाँव की रंडी औरतों के सुखी जीवन की बातें करती रहती।
         
          अब मुझे लगता है बापू ने भी अपनी मौत की राह आप ही तैयार कर ली थी। बापू बड़ा जिद्दी था। जो बात कह देता , करके दिखाता। वह जब भी मक्खन के साथ लड़ता यह सुनाई जरुर करता, मैं मरने से पहले तुझे मांगने जरुर लगाके जाऊंगा , देखते जाना तुम जो तुझे मांगने न लगवाकर गया तो।  बच्चू ! आँखों में घूंसे दे-दे  रोयेगा !

          मक्खन को डर था बापू जमीन उसे नहीं देगा। उसने मन में यह डर पाल रखा था बापू सारी  ज़मीन  मेरे नाम लिखवा देगा। मैंने  उसके इस डर को कितनी बार निकालने की कोशिश भी की, उसे यकीन दिलाया , कसमें खाईं , मैं बापू को ऐसा नहीं करने  दूंगा पर वह मेरे यकीन दिलाने पर भी विश्वास न कर पाया।

          बापू की मौत से कुछ दिन पहले मैंने माँ और मक्खन को कितनी बार खुसर -फुसर करते सुना था। जैसे वे कोई गहरी साजिशें रच रहे हों। पर उस समय मेरे ध्यान में यह बात बिलकुल नहीं आई थी ।
       अब मुझे बापू का मौत देखता वह चेहरा नज़र आने लगा है।पीला पड़ गया बापू का चेहरा, गिड़गिड़ाती आँखें। मुझे दिख रहा है मक्खन ने बापू की गिड़गिड़ाहटों को पैरों तले रौंदते हुए गले पर पकड़ और मजबूत कर दी है। बापू हाथ-पैर मारता है , देह तोड़ता है और फिर शांत हो जाता है। मक्खन हँस रहा है। उसकी इस हँसी में माँ भी शामिल हो जाती है और फिर उसकी पत्नी भी। हँसते हुए उन्होंने मुझे सामने खड़ा देख लिया है। उनके हँसते चेहरे गंभीर हो गए हैं। वे तीनों आपस में नज़रें मिलाते हुए मेरी ओर बढ़ने लगे है और .....!
           सामने की डाल से कोई पक्षी चिर .....चिर .....करता उड़ जाता है। मेरी सुरति लौट आती है। मैं कोठे के पास खड़ा मक्खन को देख रहा हूँ। वह डरावने खर्राटे मार रहा है जैसे कोई लोक कथाओं  के बीच  का दैत्य मानव खून पीकर डकारें मार रहा  हो ।
           मैं किरच अपने हाथ में कस लेता हूँ। इक ताप मेरे पैरों से निकलकर सर तक फ़ैल गया है। मुझे महसूस होता है जैसे मेरे अंगों में दुगुनी ताकत भरती जा रही है। मैं धीरे - धीरे पैर उठाता उसकी खाट  की ओर बढ़ने लगता हूँ। मैं उसकी खाट के बराबर जा खड़ा हुआ हूँ। वह मेरी रातों की नींद , दिन का चैन छीनकर  खुद बेफिक्र सोया हुआ है। उसे यूँ सोया देख मेरा क्रोध भड़क उठता है। मेरा दिल तेज - तेज धड़कने लगता है। बस ! आज सब हिसाब बराबर करने का मौक़ा है। अगर यह मौक़ा छिन गया तो .....!

           मैं अपने शरीर में इतनी शक्ति भर लेना चाहता हूँ कि उसे जागने का मौक़ा भी न मिले। वह जागने से पहले ही सदा की नींद सो जाए।
                
            मैं खाट के और नजदीक हो गया हूँ। बिजली की सी तेजी जितनी जल्दी से मैं मच्छरदानी का लड़ उठाता हूँ और पलों क्षणों में ही एक , दो , तीन , चार, पांच ...पता नहीं कितने वार मैं उसके ऊपर कर देता हूँ। मैं वार इतनी तेजी से करता हूँ कि  मुझे खुद भी पता नहीं चलता  कि उसने जागकर मेरा विरोध किया था या नहीं। जब मेरी सुरति लौटती  है, वह खाट पर खून से लथपथ पड़ा था।

            मैं जीत  के अंदाज़ में बाहें ऊपर उठाता हूँ। अपने खेत की मिटटी को चूमता हूँ फिर खेत का एक फेरा लगाता हूँ। मुझे लगता है जैसे मेरी फसल उसकी फसल से आज रात भर  में  ही दुगुना कद बढ़ा गई है। मुझे सुनाई देता है जैसे गाँव वाले कह रहे हों ,   ÒÒअच्छा किया,  इस पापी का तो यही अंत होना चाहिए था। जैसे मैं अपनी पत्नी के आगे एक बित्ता ऊंचा हो गया होऊँ। वह मुझे शाबाशी देती कह रही हो, ''वाह रे अनखिया !ÓÓ
             मैं गाँव की ओर तेज कदमों से बढने लगा हूँ। पर ..यह क्या ....?  धीरे -धीरे मेरी चाल कम होती जा रही है। मेरे अन्दर कुछ तिड़कने सा लगा है जैसे मैं अपने आप को कहीं पीछे छोड़ आया होऊँ। अन्दर कहीं सुनामी उठने की सी उथल - पुथल मची है। मुझे आगे कदम बढ़ाना मुश्किल हो रहा है जैसे मेरे पैर चलने से जवाब दे गए हों। मैं कुछ देर खड़ा सोचता रहता हूँ। फिर अचानक घूमकर पीछे की ओर भागने लगता हूँ। कोठे के पास जाते ही मैं भाई की मच्छरदानी उठाकर दूर फेंक देता हूँ। उसकी खून से लथपथ हुई देह से लिपट जाता हूँ। टिकी रात में मेरी दहाड़ें दूर-दूर तक सुनाई दे रही हैं .....

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अनु :   हरकीरत हीर
18 ईस्ट लेन , सुन्दरपुर, पोस्ट - दिसपुर 
हॉउस न -5 , गुवाहाटी -5 ( असाम )
मोब - 9864171300