Sunday, July 8, 2012

इमरोज़ का इक ख़त हीर के नाम ...............


जाने मन जाने
जब मैंने हक़ीर को हीर लिखा था
मुझे न अपना पता था न तेरा
मैंने तो अपना वियुल ठीक किया था
पर खुद ही वियुल के साथ कुछ और भी हो गया था
जो हुआ था मैं उससे शर्मा गया था
पर जब मैं शर्मा रहा था
हीर को हीर देखकर लिख रहा था
तेरी नज़्म ने
जिस एहसास और जिस शिद्दत के साथ
यूँ  लिखा है जैसे तुमने ये खुद भोगा हो खुद जिया हो
तुम रियर हीर हो वारिस मूरत
अपना आप लिखा है
हीर- हीर होकर  राँझा-राँझा लिखा है, इमरोज़ लिखा है
प्यार कभी नहीं शर्माता
सच्च कभी नहीं शर्माता
हीर कभी नहीं शर्माती न लिखते वक़्त न जीते वक़्त .....
हम जीते हैं
कि हमें प्यार करना आ जाये
हम प्यार करते हैं
कि हमें जीना आ जाये ......

               इमरोज़ ......(अनु; हरकीरत हीर )

1 comment:

  1. हम जीते हैं
    कि हमें प्यार करना आ जाय......



    कतरा-कतरा बनती कविता...

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