Sunday, July 8, 2012

इमरोज़ जी द्वारा मुझे लिखे नज़्म रूपी खतों का पंजाबी से हिंदी  अनुवाद ......

क दिन मुँह -अँधेरे
दिल का दरवाजा खड़का
दरवाजा खोला ....
कोई सामने खड़ी थी, पहचानी नहीं गई
मैं वही नज़्म हूँ तुझे फिर मिलूंगी
जिसे जाते वक़्त मैं तुझे दे गई थी ....
तुझे याद है कि नहीं मुझे रोज़ सुबह की चाय भी
तुम खुद बना कर देते थे जब मैं लिख रही होती
उसे देख-देख कर और उसे सुन-सुन कर
मुझे वह भी याद आ गई और उसकी नज़्म भी और अपनी चाय भी
पर तुम नज़्म देकर कहाँ चली गई थी
अनलिखी नज़्म लिखने ...?
कहाँ हैं वे नज्में ...?
तुझ तक आते-आते सारी नज्में राह में ही राह हो गईं ..
फिर मत जाना कहीं ....
ठीक है नहीं जाऊँगी .. ...
इस बार मैं अपने आप संग जाग कर सीधी तुम्हारे पास  आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना , चाय पी कर हम पहले की तरह मिलकर
रसोई पकायेंगे और मिलकर घर-घर बनायेंगे...
तुम्हारे रंग कहाँ हैं दिख नहीं रहे ..?
मेरे सारे रंग और हीर गाने लग पड़े हैं
क्या सुरीला चेंज है ....
अब तुम वक़्त के समय  में बैठ हीर गाया करना
और मैं तुम्हारे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर भी और राँझा बनकर भी
और वारिस बनकर भी .....

इमरोज़ ........(अनुवाद : हरकीरत हीर )

1 comment:

  1. पर तुम नज़्म देकर कहाँ चली गई थी
    अनलिखी नज़्म लिखने ...?
    कहाँ हैं वे नज्में ...?



    तुम्हारी बारिश में

    यहीं कहीं....

    भींगी सी मदहोश थी...

    ReplyDelete