Tuesday, March 31, 2009

लेखक परिचय -
नाम- जसवीर सिंह 'राणा'

जन्म- १८ सितम्बर १९६८
शिक्षा - एम.ए., बी.एड
संप्रति - शिक्षण

प्रकाशित संकलन- दो कहानी संग्रह , ) खितियाँ घूम रहियां ने , ) सिखर दुपहरा

पुरस्कार- कहानी संग्रह 'सिखर दुपहरा' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा ' नानक सिंह ' पुरस्कार
कहानी " नसलघाट " बी..के पंजाबी सेलेबस में शामिल
कहानी '' चूड़े वाली बांह '' २००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी ''पत् ते वही मोरनी'' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित


तारामंडल घूम रहा है ....(.
पंजाबी कहानी-खितियाँ घूम रहियां ने ) लेखक- जसवीर राणा ,अनुवाद: हरकीरत कलसी 'हीर '


' रोशनी सदा अंधेरों के गर्भ से ज़न्म लेती है' ..... यह पंक्ति कालेज समय से ही मेरे दिमाग़ में बसी हुई है। डायरी के पहले पन्ने पर भी मैंने यह पंक्ति लिखी हुई है। कुछ देर पहले अलमारी से निकाली डायरी टेबल पर पड़ी है। पास ही बाल पेन भी रखा है। कमरे की खिड़की खुली है । दस बजे डिस्कवरी चैनल पर एक प्रोग्राम आने वाला है । ध्यानमग्न होने की कोशिश करती हूँ , पर ध्यान एक जगह केंद्रित नहीं होता...कभी युद्धवीर की मृत्यु याद आ जाती है.... तो कभी सुखचैन की मौत की ओर ध्यान चला जाता। लोगों की कही बातें दिमाग़ में बसी उक्ति से टकरा- टकरा जातीं हैं
"जब भी कोई दो विरोधी वस्तुएँ आपस में टकराती हैं तो उनके टकराहट से एक तीसरी वस्तु पैदा होती है...."! कालेज में इलेक्टिव पंजाबी वाला प्रोफ़ेसर शाही अक्सर यह मिसाल दिया करता .... !
जब इस दृष्टि से देखती हूँ.... ज़िन्दगी उल्टे पैर चलती नज़र आती है । सभी उलटी बातें करने लगे हैं ...जब मैंने सीधी बात कही तो हर कोई सिरे तक जल - भुन गया....ससुराल की दहलीज़ पार कर मायके आने तक। औरतों ने भी पूरा जोर लगा लिया हर तरीका अपनाया पर कोई भी सफल न हुआ। पता तो मुझे भी था, पति की मृत्यु के बाद अगर कोई औरत नहीं रोती तो उसके साथ कुछ भी घटित हो सकता है । पर सुखचैन की मृत्यु के बाद जो कुछ मेरे साथ घटा वह सबसे अलग था । उसकी मौत से पहले जो कुछ घटा वह भी सबसे अलग था ।
" ना यह ....ना वह....! कुछ भी घटित नहीं होना चाहिए था...!" मेरे होंठ हिले...!
नज़र बार-बार टी.वी. स्क्रीन पर जा रही थी....प्रोग्राम आने में अभी कुछ समां बाकी है ...क्यों न डायरी....!?
मेज पर से डायरी और बाल पेन उठा मैं फिर पलंग पर आ बैठती हूँ । यह डायरी मेरी हमराज़ है , आज तक जो भी मेरे साथ घटा सब इस डायरी में दर्ज है। पता नहीं ठीक हूँ या गलत एक अजीब सी आदत की शिकार हूँ। नया पन्ना लिखने से पहले पिछली सारी डायरी पढ़ जाती हूँ । कई दिनों से एक 'नया पेज' लिखना चाहती हूँ पर सबसे पहला पेज ही खोले बैठी हूँ जिस पर वही पंक्ति लिखी हुई है ....
दिसम्बर- दीवार पर लगा बॉडी बिल्डर का पोस्टर मुझे तंग कर रहा है । मेरी स्मृति में सुखचैन का कमजोर जिस्म घूम रहा है । जिस दिन हम पटिआला घुमने गए थे .... वहीँ से यह पोस्टर भी लाये थे । मेरे जोर देने पर वह डम्बल भी लाया , खींचने के लिए स्प्रिंग भी ....पर उसने इस्तेमाल कुछ नहीं किया । उसके जिस्म की ओर देख कर मुझे कुछ -कुछ होने लगता ... मैं उसे प्रेक्टिस करने के लिए कहती । मेरी बात सुन वह चुप-चाप दीवार पर लगा पोस्टर देखने लग पड़ता । मैं उसकी कमजोर बाँहों की ओर देखने लगती पर रात का अँधेरा जैसे अपने अन्दर सब-कुछ समेट लेता। मैं उसकी बाँहों में होती। जब रात टिक जाती, कुछ टूटने की आवाज सुनाई देती। मैं लाइट आन कर लेती, पर पुनः ऑफ होते ही वही आवाज़ सुनाई देने लग पड़ती।
वह आवाज अब भी सुनाई दे रही है । उसी से मेरी नींद खुल गई है ...ऐसा सिर्फ आज ही नहीं हुआ हर रात होता है । लगभग ग्यारह के बीच मेरी नींद खुल जाती है। सुखचैन को छुट्टी काट कर गए आज पन्द्रहवां दिन है । नहीं ....पंद्रहवीं रात है। उसके साथ बितायी रातें , रात सपना बन मेरी नींद तोड़ जातीं ।
कुछ पल पहले देखा सपना अभी भी आँखों में तैर रहा है। जब मेरी आँख खुली , बाँहों का चूड़ा खनक रहा था। कुछ पल पहले यह बाहें सुखचैन की बाँहों में..... । जब आँखें उठाकर देखती हूँ कमरे की सफ़ेद दीवार गुलाबी सी दिखाई देने लगती है ......जानती हूँ यह सच नहीं । भी जानती हूँ ऐसा होना ही था । अभी तो कोई ख्वाहिश भी पूरी न हुई थी कि सुखचैन की छुट्टी खत्म हो गयी । जिस दिन वह गया उस दिन पहली बार मुझे फौज की नौकरी अच्छी नहीं लगी थी । हाँ उस वक़्त जरुर मीठा-मीठा सा लगा था जब चलते वक़्त सुखचैन ने कहा था, 'डोंट वरी जशन...! जाते ही मैं दो महीने की छुट्टी आने की प्लानिग करूँगा...! ' कब उसकी छुट्टी मंजूर हो, कब वह आये और कब यह सपना आना बंद हो, पता नहीं। सारी रात तन्हाई से लड़ती रहती हूँ । पलंग पर जाने से पहले अजीब सी हालत हो जाती है । काफी वक़्त ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रहती हूँ। बत्ती बंद करते ही मेरे अन्दर कुछ बुझने सा लगता है, पर सुबह होने पर फिर महसूस करती हूँ । घर का काम ख़त्म कर मेक-अप कर तैयार हो जाती हूँ । होंठों पर लिपस्टिक ,चेहरे पर पाउडर और हाथों-पैरों में लिपस्टिक से मैच करती नेल पालिश। पर इस वक़्त सारा मेक-अप गायब है। गुलाबी रंग का सूट और सारे गहने उतार कर अलमारी में रख दिए हैं। पर परफ्यूम की महक अभी भी आ रही है। मेरी बाँहों का चूड़ा डायरी से टकरा रहा है...बाल- पेन चल रहा है ... दिमाग थोड़ा सा रिलैक्स हो रहा है....!
दिसंबर - मम्मी -पापा करीब दस मिनट पहले कमरे में से बाहर गए हैं । मैंने दोनों को कभी सास या ससुर नहीं समझा । मम्मी - पापा ही कहती हूँ । उन्होंने भी मुझे कभी बहु सा नहीं समझा । हमेशा बेटी ही कहते हैं। आज मैंने अपनी शादी की मूवी लगा रखी थी । मम्मी-पापा को भी बुला लिया । जब मूवी खत्म हुई डिस्क निकाल मैंने सी. डी प्लेयर आफ कर दिया । पर टी.वी.स्क्रीन पर मुझे काफी देर सेहरा बांधे सुखचैन दिखाई देता रहा । आज दिन में कई पड़ोसी औरतें भी आई थीं सभी ने हमारे एल्बम देखे पर उनसे ज्यादा ध्यान से मैं देखती रही । किसी तस्वीर में अपनी पीठ या कंधा देखने की जल्दी में जब कोई औरत तेजी से पेज पलट देती मैं उसे रोक देती। दुबारा वही पेज पलट कर देखती और मेरी नज़र सुखचैन की तस्वीर पर जा टिकती । एल्बम देख रही औरतें मेरी ओर इशारा कर एक दूजे को कोहनी मारतीं...पर मैं किसी की परवाह न करती । मैंने तो अभी भी एल्बम निकाल सिरहाने रखी है । सुखचैन को न सही उसकी तस्वीरों को तो देख ही सकती हूँ ...! सोने से पहले इन्हें एक बार जरुर देख कर सोऊंगी ।
१० दिसम्बर - '' तुझे एक दिन जान से मार कर छोडूंगा मैं .....कहाँ से साली चुड़ैल सी पीछे लग गई है ....ज़िन्दगी तबाह कर के रख दी मेरी ....साली हर रोज़ चली रहती है ....! "पापा द्वारा मम्मी को दी जा रही गालियाँ मुझे अभी भी सुनाई दे रही हैं ।
सवेरे का साढ़े पाँच बजे तक का समय रहा होगा जब उनके लड़ने की आवाज़ सुन मैं तबक उठी । आँखें मलते हुए खिड़की से बाहर नज़र दौड़ायी अभी काफी अँधेरा था । वे क्यों लड़ रहे थे कुछ समझ नहीं आया । बिस्तर पर पड़ी मैं काफी देर आँखें बंद किए सुनती रही । काफी देर बाद मम्मी की आवाज़ आई , ''जरा धीमें बोलो बहु ने सुन लिया तो क्या कहेगी...! शर्म करो कुछ ...!!"
मैं नहीं बोलता धीमां....मुझे क्या किसी का.....!'' पापा की आवाज़ का सुर मुझे हैरान कर रहा था ।
अभी तक हैरान हूँ कि उनके बीच की लड़ाई कि आख़िर वजह क्या हो सकती है । जब दिन चढा उनके बीच की घुटन की झलक साफ दिखाई दे रही थी । पर लड़ाई पर परदा डालने की कोशिश दोनों ओर से जारी थी । करीबन दस बजे चौंकी वाले डेरे पर सत्संग था । मम्मी तो तैयार हो वहाँ चली गई पापा ने आँगन में कुर्सी ड़ाल ली । सामने रखे मेज पर शीशा, कैंची ,कलफ और ब्रश रख लिया । जब तक मम्मी वापस लौटी पापा की तराशी हुई दाढ़ी काली हो चुकी थी । साधारण सी ये बात मुझे न जाने क्यों असाधारण सी लगती जा रही थी ।
१२ दिसम्बर- आज सुखचैन की पहली चिट्ठी आई है । उसे गए महीना भर हो गया । महीने में सिर्फ़ एक चिट्ठी ,राह देखते-देखते आँखें थक सी गयीं थीं । अब तो डाकिये के आने -जाने का वक्त भी याद सा हो गया है , आज जब वह घर के सामने आकर रुका तो मैं केवल टी.वी.पर सन्नी देओल की 'बॉर्डर ' फ़िल्म देख रही थी । गीत -'संदेशे आते हैं....बडा तड़पाते हैं ' चल रहा था । अक्षय खन्ना,कभी सुनील सेट्टी तो कभी सन्नी देओल, फौजी वर्दी पहने तीनों हीरो बारी-बारी से स्क्रीन पर उभरते ...उनके हाथों में चिट्ठी और चेतना में प्रेमिका या पत्नी लहरा रहे होते । मेरी चेतना में भी सुखचैन लहरा रहा था जब बाहर साईकिल की घंटी की आवाज़ गूंजी । मैंने वाल घड़ी की ओर नज़र दौडाई ...डाकिया ...! मैं एकदम से दरवाज़े की ओर भागी ...नंगे पैर....! मुझे चिट्ठी पकड़ा वह आगे बढ़ गया । गिनती नहीं की कितनी बार पढ़ चुकी हूँ । लिफाफे में दो ख़त थे , एक मम्मी- पापा के लिए दूसरा मेरे लिए । पढ़ते ही रूह नशिया गई ...एक एक हर्फ़ याद हो गया । लिखा था-
माई डियर जशन,
प्यार..........
मेरा नाम ही सुखचैन है । यूँ मेरे पास न सुख है न चैन । मेरा सुख तो तेरे पास है और मेरा चैन भी तुमने छीन लिया है । रातों में नींद नहीं आती तुम्हारा चेहरा आँखों के आगे घूमता रहता है ...सुबह नींद नहीं खुलती पी . टी. के लिए भी लेट हो जाता हूँ आफिसर से डाँट सुननी पड़ती है ...जब रात आती है तेरा चेहरा फिर आँखों में उतरने लगता है .....आफिसर की डाँट भूल जाती है ... जब तेरे साथ बिताई रातें ........
आगे उन बातों का ज़िक्र था जो सपने में आकर मेरी नींद तोड़ जातीं थीं ।
१६ दिसम्बर - एक अजीब सा डर मेरे भीतर कहीं गहरे तक समा गया है । आज दिन में पापा की जो हालत देखी ज़िन्दगी में पहले कभी की नहीं देखी । सुबह करीबन साढ़े दस बजे का समय रहा होगा । घर का काम-काज निपटा मैं कमरे में आराम कर रही थी । मम्मी सत्संग जाने की तैयारी कर रही थी । उसके साथ रात भी पापा की लडाई हुई थी । लड़ाई की जड़ कहाँ थी सोच- सोच मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था । जब पापा ने वह हरकत की उस वक्त तो मेरा दिमाग ही हवा में तैरने लग पड़ा था । कोठी के बनेरे की ओर ऊँगली किए खड़े पापा के मुंह से अजीब सी आवाज़ निकलने लग पड़ी थीं ....'' हैं !......वह बनेरे पर चिड़ियाँ बैठीं हैं .....?.....नहीं वह बनेरा नहीं .....वह तो लम्बी सी स्टेज है ......और फ़िर वो चिड़ियाँ थोड़े ही हैं.... वो तो लड़कियाँ हैं...आज फैशन परेड होनी है....एक मिनट ध्यान से सुनो....! नुसरत फतह अली गा रहा है ....आफरीन !.....आफरीन.....!! "
आवाज़ भले धीमी थी पर कमरे में पड़ी मैंने सब सुन लिया । मुझे करेंट सा लगा , उठ कर आँगन में आ गई । सर की चुन्नी ठीक करती मम्मी जहर घोल रही थी ..., '' दिमाग हिल गया है तेरा ....! "
" क्या हो गया मम्मी....?" जब मैंने पुछा, पापा और मम्मी दोनों की हालत पकड़े गए चोर सी हो गई थी।
" दौरा पड़ता है इसे....." बाहर का गेट पार करती मम्मी का जवाब मुझे दुविधा में डाल गया ।
'' दौरा....? किस तरह का दौरा....?'' मन ही मन सोचती जब मैं कमरे के अन्दर जाने लगी मेरी नज़र पापा के चेहरे पर जा टिकी । अजीब सा चेहरा था वह....देखकर मुझे भी दौरे का सा एहसास होने लगा ...!
१९ दिसम्बर - मेरी जान सुखचैन
बहुत - बहुत प्यार !
मुझे ही पता है तुम्हारे बिना कैसे जी रही हूँ । पर एक तुम हो कि बस तुम हो। एक महीने में तुम्हें दस चिट्ठियाँ पोस्ट कर चुकी हूँ पर तुम्हारी सिर्फ़ दो चिट्ठियाँ आई हैं या फ़िर कुछ फोन आए हैं बस .....। वैसे भी अपनी मैरिड- लाइफ के खाते में पन्द्रह दिनरात के सिवाय कुछ नहीं है । क्या बात है सुखचैन ? क्या तुम्हें मुझसे प्यार नहीं...? तुम्हारे बिना मैं तो सारी रात.......!
चिट्ठी मैंने यहीं बंद नहीं की थी । इससे आगे मैंने उन बातों का ज़िक्र किया था जो सपने में आके मेरी नींद उजाड़ जातीं थीं । सुखचैन को चिट्ठी लिखने के बाद दिल से जैसे बोझ सा उतर जाता । इस बार चिट्ठी में मैंने दो बातों का विशेष ज़िक्र किया था । एक तो पापा से कह कर एक 'काड - लैस' फोन मंगवाने का ज़िक्र किया है , उनके सामने मैं अक्सर खुल कर बात नहीं कर पाती जीतनी बार भी सुखचैन का फोन आया कोई न कोई पास खड़ा ही होता । बात करते वक्त मुझे उपस्थिति चुभती रहती ,कभी भी खुल कर बात नहीं कर पाई । दूसरी बात मैंने मम्मी- पापा की लडाई का ज़िक्र कर विशेष तौर पर मैंने पापा के दौरे के बारे में बताया और पूछा है ।
२१ दिसम्बर- सुबह का वक्त है । हाथ-मुंह धोकर सीधे डायरी लिखने बैठ गई हूँ । कमरे का दरवाज़ा ढोया हुआ है । प्लेट से ढका चाय का गिलास टेबल पर पड़ा है । चाय पीने से जरूरी मुझे अन्दर की भावनाओं को बाहर निकालना ज्यादा जरुरी लगा । अगर मैंने ऐसा न किया तो शायद पागल हो जाऊँ । मैं ही जानती हूँ कि मैंने रात कैसे गुजारी । सारी रात मैं संकट में फंसी रही । डरावनी फिल्मों से भी ज्यादा डरावना सपना देखती रही । सपने में टूटी हड्डियों की बारिश ...........!
( इससे आगे कुछ नहीं लिख पाई ...उस दिन मेरी सास के अचानक आ जाने पर मुझे डायरी बंद करनी पड़ी थी )

२३ दिसम्बर - कई स्वयं विरोधी बातें दिमाग में फंसी पड़ी हैं। इन बातों का सीधा या उल्टा पहलू कौन सा है समझ नहीं आता .....! उस वक्त मैं कमरे में बैठी सी.आई.डी. धारावाहिक देख रही थी जब मार्डन कालोनी वाली राजी आई । हमारे परिवार से उनका खासा सहचर है मम्मी बताया करती थी । पर मैं उससे पहली बार मिल रही थी । मम्मी के पैर छू वो लगभग पॉँच मिनट बात करती रही होगी फ़िर मेरे पास आ बैठी । उससे मेरा परिचय करवा मम्मी चाय बनाने चली गई । मेरा ध्यान राजी में कम और धारावाहिक में ज्यादा था । लेकिन उस वक्त मेरा ध्यान खींचा चला गया जब राजी ने कहा - " जशन मेरा हसबैंड भी फौज में है ...."
फौजियों की कुर्बानी को सलाम करना बनता है । अगर फौजी सरहद पर खड़ा होने से इनकार कर दे पूरा हिन्दोस्तान पैरों से उखड़ सकता है । मुझे अपने हसबैंड पर गर्व है । उसकी बातें सुन मुझे सुखचैन पर बड़ा फक्र महसूस हुआ ।
"तेरी तो नई मैरीज़ है ....ज़िस्म का युद्ध जितने के लिए तू क्या करती है ....?" राजी की यह बात मेरी छाती चीर गई । सुन्न और जड़वत ...... अभी मैं संभल भी नहीं पाई थी कि वह फ़िर बोली ....." मैंने तो दो लड़कों से चक्कर चला रखा है .....तुम भी कोई ....." ??
" शट अप राजी....! तुम अभी यहाँ से चली जाओ प्लीज़ .....!!" मैंने कब कहा, कब राजी उठ के चली गयी और कब मम्मी चाय वाले खाली कप उठाकर ले गई मुझे कुछ ध्यान नहीं ....ध्यान आते ही मेरे मुंह से निकला था , " चरित्रहीन....!!"
आज अखबार पढने के बाद भी मैंने यह शब्द इस्तेमाल किया था . पढ़ी लिखी जवान लड़कियाँ संतों के आश्रम में दान करने की खबर थी । पढ़ के दहल गई थी मैं । दिमाग में अनेकों प्रश्न विचरने लगे थे .....संत आश्रम में लड़कियाँ दान करने का तात्पर्य क्या है ....? लड़कियाँ वहाँ करती क्या हैं ....? लोगों की मति क्यों मर गई है ....?
" मति तो इन अखबार वालों की मारी गई है ....जो इतने पहुंचे हुए संतों पर झूठा इल्जाम लगा रहे हैं .....! कहीं कंधा नहीं मिलेगा इन पापियों को ......तू ही बख्शनहार है स्वामी ....! " संत आश्रम की वकालत करती मम्मी मुझे नसीहतें देने लग पड़ती ......" जशन तू ये अखबार मत पढ़ा कर , यह तो मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट कर देता है ....संत तो महापुरुष हैं ....महान ...तेजस्वी ....! इतवार को चौंकी वाले डेरे से उनके आश्रम का दर्श-दीदार करने संगत जा रही है .....मैं भी आ रही हूँ स्वामी ....! "
इस बात से ही मैं हैरान हूँ , चौंकी वाला डेरा और संतों का आश्रम पापा की नज़र में ;कोठा' है . पर इस बार पापा ने भी मम्मी को झट हाँ कह दी , ''चल तू भी देख ले ...गर तेरी रूह राजी होती है तो ...''
२५ दिसम्बर - हमारी शादी को सवा महीना हो गया , आज मैंने चूडा ( एक विशेष प्रकार की चूड़ियाँ जो विवाह के समय पहनाई जातीं हैं इसे सवा महीने तक पहना जाता है ) भी उतार दिया , लाल रंग की चूड़ियाँ पहने बैठी हूँ समसपुर व्याही मेरी ननद आई है , चूडा उतारने की रस्म उसी ने निभाई , शाम चार बजे वाली बस से वह गाँव लौट गई दोपहर आटा गूंथते वक़्त मेरी चूड़ियाँ छन्न - छन्न करती रहीं , पर सुनने वाला कोई न था आज अगर सुखचैन यहाँ होता इन चूड़ियों ने टूट जाना था कुछ पल बाद खुद ही बाँहों को देख लेती हूँ और खुश हो लेती हूँ और फिर खुद ही उदास भी हो जाती हूँ ... !
२८ दिसम्बर- आज पापा ने शराब पी रक्खी है पता नहीं नशे का असर है या क्या बात है पापा का चेहरा रंग बदलता जा रहा है वैसे तो मैं किसी से डरती नहीं पर आज अजीब सी घबराहट हो रही है चाय देते वक़्त पापा का व्यवहार कुछ अलग सा महसूस हुआ जैसे कि मेरी अँगुलियों को छूने की कोशिश हो या घर में चलते वक़्त मेरे साथ सट कर पार होने की कोशिश हो या फिर जब मैं कमरे में सोई हुई थी दरवाजे की दरारों से मुझे चोरी- चोरी देखा जा रहा हो....मेरा अंदाजा गलत भी हो सकता है ....पर मैंने ऐसा महसूस किया वैसे इस वक़्त पापा का पलंग बरामदे के साथ वाले कमरे में है मैं कमरे में बैठी सुखचैन को चिट्ठी लिखने की सोच रही हूँ ...यह फिलिंग सुखचैन से साँझा करना चाहती हूँ ....!
३१ दिसम्बर - साल की आखिरी तारीख है आज ...यह भी रात बारह बजे बदल जायेगी....बदलाव जरुरी है ....पर मैं एक ही स्थिति भोग रही हूँ ....हर रोज़ की तन्हाई । सुखचैन को तो पिछली चिट्ठी में ही नव वर्ष का कार्ड पोस्ट के दिया था ....बुर्ज़ बघेल सिंग को बाद में किया ...उनका भी कई दिनों से कार्ड आया पड़ा था । लेकिन सुखचैन ने कार्ड तो क्या चिट्ठी तक का जवाब नहीं दिया । अगर चिट्ठी नहीं डाल पाया तो फोन ही कर लेता ....जो नंबर वह देकर गया था वह लगता ही नहीं कंप्यूटर रांग नंबर कह देता ...मैंने बहुत कोशिश की जब नहीं लगा बुर्ज़ बघेल सिंह को फोन कर ' हैपी निउ इयर ' कह दिया था ...पर सुखचैन की बात कुछ और होती ..... रात के बारह बजने वाले हैं ...सारी दुनिया फोन टू फोन हुई पड़ी है ...मैंने टी.वी.लगा रखा है ....अकेली बैठी चैनल बदलती जा रही हूँ ....हर चैनल पर नए साल का प्रोग्राम चल रहा है ...पर मुझे कोई नहीं जँच रहा ...सोनी चैनल पर इकत्रित भीड़ चीखें मार रही है ....लड़के -लड़कियां गले मिल रहे हैं ...शैम्पियन उड़ाई जा रही है....लाइटें बंद ....अँधेरा ....बारह बज चुके हैं .....आवाजें उभर रहीं हैं ,....हैप्पी ...निउ...इयर....!! "
जनवरी- नए वर्ष का पहला दिन ही संकट सा बीता ...अभी रात बाकी है ...अन्दर से चिटकनी लगा दरवाज़ा बंद किए बैठी हूँ ...मेरा ससुर उधर शराब पिए बैठा है ...मैं अब उसे पापा नहीं कह सकती । वह इस शब्द के काबिल नहीं ...मेरी सास भी मम्मी कहलाने के योग्य नहीं । दोनों शैतान हैं । उधर के कमरे में पड़े पता नहीं क्या खुसर-पुसर कर रहे हैं । सुबह ससुर का गिलास पकड़ते वक्त मैंने झिझक के साथ कहा , ''पापा ....हैप्पी ... निउ... इयर .....!''
'' हैप्पी ...निउ...इयर...जशन । यह कार्ड मैं तेरे लिए....''। तकिये के नीचे से कार्ड निकाल मेरी ओर बढाते हुए उसने तिरछी नज़र से देखा है । उसका 'बेटा ' शब्द की जगह 'जशन' कहना भी मुझे विचलित कर गया है ।
'' ओह ....नो......अ ....अ.....!! '' कमरे में आकर जब मैंने लिफाफा खोला ...मेरी चीख निकल गई । नंगी तस्वीरों वाला कार्ड था ।
दोपहर मेरी सास आश्रम से वापस लौटी थी । वह संतों की महिमा बताने लगी । मैं उसके गले लग रोने लग पड़ी । जब उसने कारण पुछा मैंने कार्ड निकाल उसके सामने रख दिया । कार्ड के टुकड़े -टुकड़े कर चूल्हे में फेंकती हुई वह बोली थी , चूल्हे में डाल इस बात को ...इसे तो दौरा पड़ता है ...!''
सास की बात सुन मुझे झटका सा लगा । उस वक्त थोडी नार्मल हुई जब बुर्ज़ बघेल सिंग का फोन आया । उधर से सभी बारी-बारी ' हैप्पी निउ इयर ' कह रहे थे । मैं भी सभी को कहती रही । हँसने की कोशिश भी की लेकिन मेरे दिमाग में ससुर का दिया कार्ड अब भी घूमता जा रहा था ।
जनवरी- काफी रात बीत चुकी है । अब सोना ही पड़ेगा । अगर सो गई तो फ़िर वही सपना आएगा । ख्याल आते ही तबक जाती हूँ । दो रातों से एक ही सपना आ रहा है । सपना भी क्या ...पिछली हुई बीती बातों की परते खोल कर रख जाता है । काफी अपसैट हुई पड़ी हूँ । जिन बातों की कब्र बन चुकी है मैं उनकी परछाई भी सुखचैन पर नहीं पड़ने देना चाहती .....पर मेरे ससुर की बदली हुई आँख ......?
सारी रात सपने में इक आँख दिखती रहती है । वह आँख कभी नीली हो जाती है कभी सफ़ेद । कभी बड़ी हो जाती है कभी छोटी । फ़िर एक चेहरा उभरता ....चेहरे का आधा हिस्सा जवान दिखाई देता आधा बूढा . हवा में तैरती आँख चेहरे के बूढी और चिपक जाती है । अन्दर हलचल होती है
। बूढी और से आँख गायब हो जवान चेहरे पर उभर आती है । मुझे जिस्म पर कुछ चुभता सा महसूस होता है । धमाके की आवाज़ आती है । आँख में से खून की धार निकल पड़ती है । चीखें मारता चेहरा खून से लथपथ हो जाता है । दिखाई तो नहीं देता पर युद्धवीर की आवाज़ मैं लाखों में पहचान सकती हूँ । वह ऊंची आवाज़ में कहता है , '' जशन इसे इस तरह नहीं देखना चाहिए था ...! ''
आवाज़ सुन मेरी नींद खुल जाती है । ख्यालों में युद्धवीर विचरने लगता है । कालेज समय में घटी एक घटना आँख के सामने साकार होने लगती है । एक लड़का हर रोज़ मुझे छेड़ने लग पडा था । पहले तो मैं इग्नोर करती रही । पर एक दिन वह मेरे साथ ही बस में चढ़ पड़ा । भीड़ के कारण मैं ड्राइवर की सीट के पास खड़ी हो गई....वह लड़का भी मेरे नजदीक ही खड़ा हो गया । कुछ ही देर बाद वह मुँह बनाकर फूंक मारता, हवा मेरी गर्दन से टकराती ....जब मैं पीछे देखती वह आँख दबा मेरी ओर देखने लगता । लगातार दो दिन ऐसा ही करता रहा । तंग आकर मैंने युद्धवीर से बात की ...अगले दिन कालेज में अफवाह थी , '' किसी लड़के ने ईंट मारके बन्टी की आँख फोड़ दी ...! ''
'' मैंने फोड़ी है वो आँख ....उसे इस तरह नहीं देखना चाहिए था ...जशन ....!! ''
नहीं....नहीं .....मुझे इस तरह नहीं सोचना चाहिए ......!
जनवरी - बाहर चाँदनी रात है । मैं अन्दर बैठी हूँ । कुछ पल पहले अल्फा चैनल पर बब्बू मान का गीत चल रहा था - ' चन्न चानणी रात महिरमा ....टिमटिमौंदे तारे .....!' गीत के बोलों के साथ स्क्रीन पर पिछली गली में एक लड़का- लड़की मिल रहे दिखाई दे रहे थे । उनकी ओर देखकर एक पल के लिए युद्धवीर का ख्याल आया ...दुसरे ही पल मैंने अपना ध्यान सुखचैन की ओर मोड़ लिया । गीत चलता ही छोड़ बाहर आ गई । मेरी नज़र आसमान की ओर उठ गई । चाँद की किरणें मेरी चूड़ियों पर पड़ रही थी । मैंने अभी जी भर कर देखा भी नहीं था कि दुसरे कमरे से खांसने की आवाज़ आई । मेरा ध्यान चाँद पर पड़े दाग पर केंद्रित हो गया । आंखों में रड़क सी हुई ..मैं सोचने लगी किसका दाग है यह .....? चरखा कातती बूढी माई का ...? ग्रहण का या फ़िर गौतम ऋषि द्बारा मारे गए गीले अंग वस्त्र का ? सोचती-सोचती अन्दर आ ड्रेसिंग टेबल के सामने आ खड़ी हुई हूँ ....क्या हुश्न है ...क्या मेक-अप है मेरा .....एक पल के लिए अपना आप कोह्काफ़ की परी सा लगा ...दुसरे ही पल लगा जैसे पीछे किसी ने दरवाजा खोला हो ....जैसे मेरा ससुर दबे पांव इधर ही चला आ रहा हो ...मैं सर घुमा पीछे की ओर देखती हूँ ...कुछ नहीं था ...नज़रों का भ्रम था ....!
११ जनवरी- ''नहीं जशन यह तेरा भ्रम है ......पापा तो....'' सुखचैन से सिर्फ़ इतनी ही बात हो पाई थी । उसके बाद उस ओर से फोन कट गया या काट दिया गया । लिंक टूट जाने की लम्बी टोन कानों में सुई जैसी चुभती रही । कान से रिसीवर लगा मैं काफी देर यूँ ही खड़ी रही । फ़िर रिसीवर रख कितनी ही देर इन्तजार करती रही । पर दोबारा फोन नहीं आया । मैं निराश हो अपने कमरे की ओर चल पड़ी । लेकिन अन्दर न जा सकी । कारण थे मेरे सास- ससुर । आँगन में खाट पे बैठे वे हँस रहे थे । मुझे देखते ही चुप हो गए । बहाना बना मैंने वाश-बेसिन की टूटी खोल ली । सास को कुछ कह कर ससुर फ़िर हँसा । फोन सुनता हुआ भी हँस रहा था । फोन साथ के कमरे में है , जिस वक्त घंटी बजी साथ ही साथ उन्होनें फोन उठा लिया था । पता नहीं क्या गोल-मोल सी बातें की फ़िर मुझे रिसीवर दे दिया । मैंने तो सुखचैन से कितनी ही बातें करनी थी , मन काफी भरा हुआ था । फोन भी काफी समय बाद आया था । वह भी डेढ़ बात कहकर काट दिया ..वह डेढ़ बात करते हुए भी हँस रहा था । उसकी हंसी ....फोन कट जाने की लम्बी टोन ...आपस में गड-मड हुई जा रही थी .... !
१३ जनवरी -
मेरी जान सुखचैन ,
बहुत - बहुत प्यार .....।
युद्ध सिर्फ़ वो ही नहीं होता जो सरहदों पर लड़ा जाता है । युद्ध के और भी बहुत से रूप होते हैं । युद्ध सिर्फ़ फौजी ही नहीं लड़ता , फौजन भी लडती है । मैं अखबार पढ़ती हूँ , टी. वी. देखती हूँ ....मुझे पता है तेरी सरहद पर आज कल कोई युद्ध नहीं हो रहा ...पर अपने घर में अब युद्ध छिड़ चुका है । मैं हर रोज़ लडती हूँ ....!
इसके बाद मैंने ससुर की हरकतों का जिक्र किया है । सास के पाखंड के बारे भी लिखा है । धागे- ताबीज और राख मुझसे चोरी चोरी सुखचैन की फोटो के पीछे छुपाती रही है , पता नहीं उसे किस बला से बचना चाहती है । कई बार मैंने उसे बड़-बड़ करते सुना है , '' मेरे बेटे को बचा लेना दाता ....!''
अगर मूर्खों के सींग होते तो मेरी सास बारह सिंगी होती । बचने की जरुरत तो मुझे है । कल से तो यह जरुरत बहुत महसूस होने लग पड़ी है । मेरी सास संतों के प्रवचन वाला चैनल लगाये रखती है । उसके जाते ही रिमोट पर ससुर कब्ज़ा कर लेता है । कल तो हद ही हो गई.... मुझे कहता, '' जशन.... तूने कंडोम वाली मशहूरी देखी है .....?''
'' हाँ देखी है ....जब समसपुर से आती है अपनी बेटी को भी दिखाया कर .....'' कहकर मै रसोई में काम करने चल पड़ी थी ...!
अन्दर ही अन्दर खासा वक्त घुलती रही । उस वक्त तो मेरा मूड बिल्कुल खराब हो गया जब राजी आई । उसके साथ उसकी लगभग आठ साल की बेटी थी । मैंने जालीदार खिड़की से चोर आँख से देखा उसकी आँख मेरे ससुर की आँख से मिली ...मैं बल खा कर रह गई ..!
राजी मेरी सास से बातें करने लग पड़ी । ससुर उसकी लड़की को टोनी की दूकान की ओर ले गया । जब वह वापस आया लड़की के हाथ में चाकलेट थी । उसे लेकर वह मेरे कमरे में आ गया । टी.वी.आन होने की आवाज़ आई ।जोर-जोर से बोलती राजी मेरी सास को बता रही थी , '' देख लो बीजी ....आज सवेरे ज्योति फौजन मर गई ...पता ही था उसने अब क्या बचना ....! ''
ज्योति फौजन किस तरह मर गई ....? उसका हसबैंड तो ट्रक ड्राइवर है । फ़िर वो फौजन कैसे हुई ? दिमाग में प्रश्न तो कई उठ रहे थे लेकिन मैंने काँटी मार दी । किसी आवेश में आकर अपने कमरे में घुसी । कोई इंग्लिश मूवी चल रही थी । राजी की लड़की को गोदी में बैठाये मेरा ससुर उसका चेहरा चूम रहा था । उसकी आंखों में चमक थी । चाकलेट खा रही लड़की टी.वी. की ओर देख रही थी । मंजर देख मेरे मुँह से चीख निकल गई । आंखों के आगे अँधेरा छा गया और मैं चक्कर खाकर गिर पड़ी ।
जब होश आया , राजी , उसकी लड़की और मेरा ससुर घर में से सभी गायब थे । बिस्तर के पास खड़ी मेरी सास हवा में राख धूढ़ रही थी ।
१५ जनवरी- आज बुर्ज बघेल सिंह वाला की बहुत याद आ रही है । पूरी कोशिश है कि यह नाम दिमाग में न घुसने दूँ .....लेकिन सफल नहीं हो रही । यह मेरे मायेके का गाँव ही नहीं युद्धवीर का भी गाँव है ....गाँव तो उसी तरह बसा हुआ है पर अब उसमें युद्धवीर नहीं बसता । जहाँ वह रहता है वहाँ तो.....उफ्फ यह युद्धवीर ......!!
ज़िन्दगी भी बड़ी अजीब शै है ....जिस वक़्त चैनल बदलती है सब कुछ बदल जाता है । जो नाम कभी सांसों में घुला हुआ होता, उस नाम से भी खौफ आने लगता ....तभी तो बुर्ज़ बघेल सिंह वाला जाने से कतराती हूँ..... । विवाह के बाद जब पहली बार गयी थी , मैं ही जानती हूँ कितनी मुश्किल से कंट्रोल किया था । इक बार तो सब कुछ आँखों के आगे से गुजर गया । हर बात हर घटना जीवंत हो उठी । उद्धवीर से मेरी पहली मुलाकात । मैं दसवीं में पढ़ती थी ...युद्धवीर प्लस वन में । हमारी फेयर वेळ पार्टी वाले दिन उसने मुझे पहला ख़त पकड़ाया । उस समय तो मैंने लेकर किट में डाल लिया था पर जब घर आकर पढ़ा ....पहली ही पंक्ति थी - ' जशन ! ...प्यार ही ज़िन्दगी है!' जवाबी रूप में मैंने इसी पंक्ति से ख़त शुरू किया । फिर तो इक सिलसिला सा चल पड़ा खतों और मुलाकातों का । विवाह कर इक हो जाने का फैसला भी हमने किया । पर हमारी इच्छानुसार कुछ भी न हुआ । जो भी हुआ परस्थितियों की उपज था । अगर युद्धवीर फौज में भर्ती न होता उसके पापा ने तंग आ ख़ुदकुशी कर लेनी थी ।
मैंने प्लस टू पास कर ली । बी.ए पार्ट वन में कालिज दाखिला ले लिया । युद्धवीर सरहदी इलाके में तैनात था । जिस दिन वो छुट्टी आता सबसे पहले मुझे मिलता । फाहा लगाने ( पंजाब में इक विशेष जाति को इस उपनाम से संबोधित किया जाता है ) वालियों के खंडहर हुए मकां में घंटों बैठे हम बातें करते । समय बीतते पता ही नहीं चलता । उसकी छुट्टी खत्म हो जाती मैं उदास हो जाती । युद्धवीर चला जाता पर मैं कहाँ जाती । घर बैठी पढ़ती रहती। किताब खोलने से पहले युद्धवीर की कही बात याद आती , '"जशन !.. मेरी पढाई तो अधूरी रह गयी पर प्लीज़ तुम पढाई मत छोड़ना ....तुझे मेरे हिस्से का भी पढना है ....."
मैंने उसका हिस्सा पढ़ा है या अपना ...पता नहीं । पर इतना पता है कि मैंने बी.ए. कर ली । युद्धवीर के साथ-साथ मुझे फौज से भी प्यार हो गया था । जब भी किसी फौजी को देखती मुझे युद्धवीर की याद आ जाती ।
जिसे भूलना चाहती हूँ वही याद आते जा रहा है और जिसे याद करना चाहती हूँ वह भूलते जा रहा है ....नहीं ...नहीं ...सुखचैन को भला कैसे भूल सकती हूँ ....उसी के जरिये तो दोबारा ज़िन्दगी से जुड़ी हूँ ....!
१८ जनवरी - मैं पूरी तरह चौकस हूँ । इनके ऊपर अब जरा भी विश्वास नहीं रहा , कुछ भी कर सकते हैं । नया खरीदा प्लाट और तीस हजार कैश... मेरे नाम करवाने का लालच दिया था । सास ने मिन्नतें भी की , ससुर पैरों पे गिरा ...पर नहीं ....उसका यह गुनाह माफ़ी योग्य नहीं । फोन कर चुकी हूँ गाँव से पापा चल पड़े होंगे ...डायरी लिख अन्दर का तनाव खारिज़ करने की कोशिश कर रही हूँ । बाहर से दरवाज़ा खटखटाने की उडीक है । मिनट भर पहले अन्दर से बंद की चिटकनी को देखने लगती हूँ ....अजीब हालत हुई पड़ी है ....चिटकनी खुलने-बंद होने की आवाज़ ही सुनी जा रही हूँ .....!
चिटकनी तो रात भी अन्दर से बंद थी । मुझे नींद में चल रहा सपना याद है । सुखचैन का हाथ मेरे बालों में फिर रहा था । जब उसका हाथ चेहरे तक आया , मुझे टी.वी.चलने की आवाज़ सुनाई दी ..नींद खुल गई थी । धीरे-धीरे आँखें खोली तो कमरे में मद्धम सी रौशनी थी । स्क्रीन पर ब्लू मूवी चल रही थी । सी.डी.प्लेयर की चलती नम्बरिंग देख मैं सस्पेंस में पड़ गई ...इसका मतलब 'डिस्क' चल रही है । इक पल के लिए तो भूल ही गयी थी कि मूवी चलाने वाला हाथ तो मेरे चेहरे पर रेंग रहा है । मैं बिजली की फुर्ती से उठी ...ऊपर झुकी परछाई को परे धकेला ...वह दूर जा गिरा ....मैं फटाफट भागी पहले टी.वी.ऑफ़ किया साथ ही टियूब भी आन कर दी ....मेरा ससुर था । उठ कर वह फिर मेरी ओर बढ़ा ...मेरा दिमाग चरखी की तरह घुमा । कालेज के दौरान इक कैम्प में ली जुडो की ट्रेनिंग का इक पैंतरा याद आ गया । मैंने उसकी टांगों के बीच टांग मारी वह गिर पड़ा ...मैंने उसके गुप्तांग में तीन-चार टांगे और जमाईं ...उसकी सांसें और आँखें ऊपर चढ़ गयीं ...कंठ से आवाज़ निकलनी कठिन हो गयी ...मैं बुरी तरह हांफ रही थी ....! उसे टांगों से घसीट आँगन में फेंक जब मैं वापस पलटी ...फर्श पर गिरा 'कंडोम' मैंने उठा लिया ....सी.डी.प्लेयर से डिस्क निकाल ली । दोनों चीजों को अलमारी में बंद कर बिस्तर पर जा बैठी । बाहर से काफी देर बाद मेरी सास की आवाज़ उभरनी शुरू हुई ....मेरे दिमाग में अभी भी अँधेरी चल रही थी ...ससुर अन्दर कैसे दाखिल हुआ ...?? कहीं ....बिस्तर के नीचे......???? मुझे तो बताया गया था कि वह शाम की बस से समसपुर मेरी ननद के पास गया है । इतनी बड़ी साजिश....?? इसका मतलब है मेरी सास भी इसमें ......?????
२० जनवरी- कल सुबह पहली बस से जाने का फैसला हो चुका है । मैंने दोनों सबूत मम्मी को पकड़ा दिए थे ...मम्मी ने पापा को दिखाए ....भईया और भाभी भी देख चुके हैं । पापा लोगों ने मेरे सास और ससुर की वो बेइज्जती की कि बस ....... ।
मैं तो यह सोच कर ही मरी जा रही हूँ कि सुखचैन का सामना कैसे करुँगी । कैसे बताऊंगी सब- कुछ । पर बताना तो पड़ेगा ही । पापा उनलोगों को बताने से पहले भी मेरी यही हालात थी ....अगर न बताती तो दिमाग में ....... ।
दिमाग में गेट की शक्ल उभर रही है ।
शहीद युद्धवीर सिंह यादगारी गेट। (बुर्ज़ बघेल सिंह वाला )
गाँव घुसने से पहले मुझसे गेट ऊपर लिखी ये इबादत जरुर पढ़ी जाती है । वापसी के वक़्त फिर पढ़ लेती हूँ ....आँखें भर आती हैं । आँसू बड़ी कठिनता से रोकती हूँ । जिस दिन फौजी गाड़ी में युद्धवीर की डैड- बाडी गाँव आई देखने के लिए सारा इलाका आ जुडा था । हर आँख नम थी । युद्धवीर के घर वालों की जो हालात हुई वो समझी जा सकती है ....पर मेरी हालात समझ से बाहर थी । उसकी मौत की खबर सुन गहरा सदमा लगा था । वैसे तो देख-सुनकर समझ रही थी । पर सब-कुछ सहन के बाहर था । न मैं आखिरी बार युद्धवीर का चेहरा देख सकी ...न खुलकर रो सकी । और न ही मरने वाले से अपना रिश्ता बता सकती थी । जिस वक़्त शमशान घाट में सारा इलाका युद्धवीर की चिता को अग्नि भेंट कर रहा था ...मैं फाहे लेने वालों के खंडहर हुए मकान के आगे खड़ी रो रही थी । श्मशान घाट से उठ रहा धुआं मेरे अन्दर इकठ्ठा होता जा रहा था ...... ।
जिस दिन गाँव में युद्धवीर की याद में गेट बना ...सबसे ज्यादा मैंने फख्र महसूस किया । जब उसकी सरहद पर हुई सहादत की बातें होती ....मैं सर ऊँचा कर सुनती । पर उसके चले जाने की रड़क इक लम्बा अरसा मेरे अन्दर रड़कती रही । मैं ही जानती हूँ कि फिर ज़िन्दगी के साथ जुड़ने के लिए मुझे कितना संघर्ष करना पड़ा ..... । मेरा तो विवाह से मोह ही भंग हो गया था । मम्मी-पापा और सारे रिश्तेदार ...मेरी सहेलियां कोई मेरे अन्दर झांकना ही नहीं चाह रहा था । सबकी समझौतियाँ सुनने के बाद मैंने इक शर्त रख दी थी , '' मम्मी मैं जब भी शादी करुँगी इक फौजी लड़के से ही करुँगी बस....... । "
सुखचैन पर मुझे पूरा मान है । मैं तो उसके छुट्टी आने की उडीक कर रही थी ...पर कल ये किस रूप में मिलने जा रही हूँ ...!
२६ जनवरी- डा.सोनिक के साथ डिस्कस के बाद स्थिति कुछ नार्मल हुई है । मैं तो जैसे कोमा में ही चली गयी थी । कई दिनों बाद होश आया है । मेरी सारी शक्तियाँ जैसे मृत सी हो गयी थीं । फौजी छावनी से वापसी ...बस का सफ़र.... और ये हादसा ....या फिर उसे क्या नाम दूँ समझ नहीं आता .....। बस में सारा अरसा हमारे बीच ख़ामोशी सी छाई रही ....घर आते ही वही ख़ामोशी घर में भी पसर गयी थी .... । मम्मी-पापा,भैया -भाभी सबका बर्ताव अजीब सा हो गया था ...मेरे पास आते ही सबका चेहरा खौफ से जकड़ जाता ...... । मैं भी उस खौफ से मुक्त नहीं थी । सबसे बड़ा वार तो मुझ पर ही हुआ था । ज़िस्म से जैसे खून का इक-इक कतरा निचोड़ लिया गया हो । बाथरूम से वापस परतते वक़्त आईने के सामने से गुजरी तो देखा वह मेरा चेहरा नहीं था ...मुझे आईने में इक खोपड़ी सी नज़र आई ...कला रंग...सुर्ख आँखें ...और बड़े-बड़े दांतों का जबाडा । कदम उठाना मुश्किल हो गया ...मैंने खोपड़ी के नीचे लिखा लफ्ज़ पढ़ लिया था ...." ख...त...रा....!! "
फौजी छावनी के अन्दर भी यह शब्द कई जगह पढ़ा । सवेरे की पहली बस से हम दोपहर लगभग बारह बजे वहाँ जा पहुंचे थे । पापा ने मेन गेट पर खड़े संतरी से बात की , मुझे संतरी का व्यव्हार कुछ रहस्यमयी लगा । पहले तो वह हमारी ओर देखता रहा ....फिर पीछे खड़े दुसरे फौजी से डिस्कशन सा करने लगा ।
''चलिए....!'' कहकर वह फौजी चुपचाप हमारे आगे-आगे चल पड़ा । हमें गेस्ट- रूम में बिठा चुपचाप ही वापस परत गया । काफी देर बाद गेस्ट-रूम का दरवाज़ा खुला ...इक और फौजी अन्दर आया ....संतरी की तरह उसकी आँखों में भी रहस्य था । उसने पहले हमें ध्यान से देखा, फिर बोला - ''आपको... हमारे साहब से ....मिलना होगा .....!!''
मेजर साहब के आफिस में मेरे चेहरे से कुछ पढ़ा जा रहा था । ज्यों ही मैंने सुखचैन से अपना रिश्ता बताया ...मेजर साहब की दहाड़ से आफिस गूंज उठा ..., व्...हा...ट ....?? सुखचैन का वाइफ ....? ...मैरिज...?? नो....नो...नो....ये नहीं हो सकता ....!!"
" क्यों...? क्यों नहीं ...हो...सकता...?? " हमारी जुबान लड़खड़ा गयी ।
" क्योंकि सुखचैन तो एड्स का मरीज़ है ...!!! " मेज़र साहब का इक-इक लफ्ज़ गोलियों की बौछार में तब्दील होता गया ।
मैं सुन्न हो गयी ....दिल दिमाग जाम हो गया ....क़दमों की आवाज़ ....मिलटरी अस्पताल ....एड्स पीड़ित मरीजों की लिस्ट में सुखचैन का नाम....मेरी फैली हुई आँखें .....और बुख़ार में तप्त बैड पर पड़ा सुखचैन ....! यहाँ तक मुझे थोडा-थोडा याद है ....इसके बाद हर सीन पर आवाज़ धुंधली होती चली गयी थी ....!
फरवरी- वैसे तो दिन भी बड़ी मुश्कित से कटता है अब ...पर रात इससे भी बुरी गुजरती है । अजीब-अजीब से ख्याल आते हैं ....दिल डूबने लगता है । पहले कमरे में लाल रंग का बल्ब था । जब मैं स्विच आन करती ....आँखों के आगे हड्डियों के क्रास वाली खोपड़ी तैरने लगती ....मैं आँखें बंद कर लेती । कानों के पास मेजर साहब की आवाज़ गूंजने लगती ...''जब सुखचैन को एड्स था ....फिर उसका मैरिज क्यों हुआ..?....मैरिज करने से पहले तुमने इन्वैस्टिगेशन क्यों नहीं किया ...?....कैसे पैरेंट्स हो तुम ....? ''
मेजर साहब सवाल -दर-सवाल करते रहे । कमरे में कई आवाजों का शोर उभरता रहा ...कभी हाजी के हंसने की आवाज़ आती...कभी मर चुकी ज्योती फौजन हंसती सुनाई देती ....और कभी सुखचैन हंसने लग पड़ता । आखिर तीनों की हंसी एकहो जाती .....
'' दिमाग पर कुछ असर .....पर समझना जरुरी है ....अधूरी जानकारी खतरनाक हो सकती है ...! '' सी.एम्.सी.लुधिआना के डाक्टरों की राय भी डा.सोनिक से मिलती है । उसकी हिदायतों के बाद कुछ नार्मल हुई हूँ । चैक-अप के दौरान कई टेस्ट हो चुके हैं । कई अभी होने बाकी हैं । वैसे स्पष्ट हो चूका है मैं एच .आई.वी.पोजिटिव हूँ । डा.सोनिक की हिदायतों के अनुसार चलने की कोशिश कर रही हूँ। वह कहता था सफ़ेद रंग से घबराहट कम होती है । कमरे से लाल रंग का बल्ब उतार चुकी हूँ ....दिन में पहले से नार्मल रही हूँ ....शायद आज रात भी ......!
२७ फरवरी- सुखचैन की डैथ हो गयी है । सवेरे पांच बजे ससुराल से फोन आया था । उस तरफ सास थी । सुनके मम्मी रोने लगी ...हाथ से रिसीवर छूट गया । जब मैं बाहर आई , पापा ,भईया - भाभी गुमसुम से खड़े थे । रिसीवर नीचे लटक रहा था ....मुझे पता नहीं क्या सूझी ..मैंने रिसीवर कान से लगा लिया । फोन कट जाने की लम्बी टोन आ रही थी । मम्मी रोती हुई सुखचैन की मौत के में बता रही थी । सब की नज़रें मेरी ओर थी । मेरी नज़र कलाइयों में पड़ी चूड़ियों पर टिकी थी । सुरति में सुखचैन घूम रहा था ......'' बैड पर पड़ा वह अजीब हरकतें कर रहा था ....कभी उसका हाथ गुप्तांग की ओर सरकता ....कभी हवा में उठता ....मुँह से चीख निकलती ...हाथ दुसरे हाथ से जा जुड़ता ....सर इक ओर जा गिरता । वह उट-पटांग बोल रहा था ....डाक्टर नर्सें सब हैरान थे । जिस दिन हमने उसे छावनी अस्पताल में देखा , उस रात से ही वह पागलों की सी हरकतें करने लग पड़ा था । इक दिन भाग कर अस्पताल की छत पर जा चढ़ा ....इस से पहले की कोई उसे पकड़ पाता उसने नीचे छलांग लगा दी थी ....'' जब मम्मी ये सारी बातें बता रही थी मेरे दिमाग में तेजी से कुछ दौड़ रहा था .....
न जाने कैसी स्थिति थी ये ....पति की मौत.....मेरा संस्कार पर न जाने का मन ...पर जाना तो है....जाने लगी ने मैंने कुछ चूडियाँ साथ ली थीं ।
( उफ्फ्फ ....डायरी पढ़ते-पढ़ते साँस उखड़ने लगी है ....अन्दर से सेक सा निकल रहा है ...हाथ भी गर्म है ....अपने आप को कंट्रोल कर रही हूँ.....। नज़र टी.वी.स्क्रीन की ओर जा रही है । प्रोग्राम आने में अभी आधा घंटा बाकी है । तब तक डायरी......पास पड़ा बाल-पेन उठा वह ' नया पेज' लिखने लग पड़ी हूँ , जो मेरे दिमाग में शूल की तरह गड़ रहा है ......! )
मार्च-जब भी आँखें झपकती हूँ आग की इक लकीर सी तेजी से गुजरती है । आँखों में सुखचैन की चिखा जलने लगती है...राख़ उड़ने लगती है ....मैं सर को झटकती हूँ .....सुरति शमशानघाट में जा खड़ी होती है। मैं वापस परतने लगती हूँ तो कानों के पास कार की गूंज उभरने लगती है जिस में हम संस्कार के लिए गए थे । वापस लौटते अँधेरा हो चूका है । कार जब बुर्ज बघेल सिंह वाला की सीमा में घुसती है, ' शहीद युद्धवीर सिंह यादगारी गेट' चमक उठता है । युद्धवीर के नाम के ऊपर लगी टियूब लाइटें जल रहीं थीं ...मेरी आँखों में चमक आ जाती है । मेरा हाथ सैल्यूट की शक्ल में माथे से जा लगता है ।
'' कोई बात नहीं अभी दिमाग पर असर है ....धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा.... । '' मेरी ओर देख, कहते हुए आस - पडोस और सगे-संबंधी घरों की ओर चल पड़े .... ।
मेरी चैक-अप करने आये डा.सोनिक भी चले गए हैं । मैंने क्या किया और क्या कहा , सुनकर वह भी हैरान थे । वे नींद का इंजेक्शन देना चाहते थे पर मैंने मना कर दिया । उस रात मुझे इक सेकेण्ड के लिए भी नींद नहीं आई । सारी रात इक-इक सीन आखों के आगे से गुजरता रहा । रोने की आवाजें ....लोगों का इक्कठ ...तीखी नज़रें...मैं चुपचाप बैठी थी , औरतों में खुसर-फुसर हो रही थी । आवाजें आ रही थी .....'' नी एकण चुप न बैठण दियो ....रुआओ इसनु ....गल्लां करो उस्दियाँ ...याद कराओ इसनु .....'' ( ऐसे चुप न बैठने दो ....रुलाओ इसे .....बातें करो उसकी ....याद दिलाओ इसे ...)
औरतों ने सुखचैन की बहुत बातें की ...वैन -कीरने (विलाप) किये ...छातियाँ पीटीं ...पर मेरे अन्दर कुछ नहीं हो रहा था ... सुखचैन का चेहरा देखने का मन भी नहीं कर रहा था । मैं कठिनाई से उठी ...श्मशान घाट सड़क के किनारे ही था ...गाँव की ओर वापसी के वक़्त जब कार सड़क पर से गुजरी सुखचैन की चीखा जल रही थी । जब कार पास से गुजरने लगी ...मैंने रुमाल में लपेटी चूड़ियाँ निकाली और जोर से चीखा की ओर फेंक दीं ।
हर कोई समझ रहा था की मैं पागल हो गयी हूँ । जो भी औरत मुझे रुलाने के लिए उकसाती मैं उसकी आँखों में झाँकने लगती ...वह नज़रें नीची कर लेती । नज़रें नीची किये लोगों का इक्कठ भी उठने लगा ...मेरे आस-पास बैठी औरतें भी उठने लगीं ...मुझे भी उठा लिया ...अन्दर कमरे में ले गयी । मेरा दम घुटने लगा ...हुमस परसने लगी .....तरह-तरह की आवाजें आने लगीं , '' जवान-जहान घरवाले की मौत तो आसमां फाड़ देती है ....बन्दा तो यूँ ही धरती में गड़ जाता है ...पर यह तो पत्थरों को भी मात कर गई ....समझ नहीं आता इसकी आँखों का पानी कहाँ चला गया .... ! ''
मेरी आँखों में रड़क सी होने लगी है ....वैन - कीरनों ( विलाप) की आवाज़ ऊंची होने लगी है । मेरे अन्दर कुछ रेंगने सा लगा है ....होंठों पर जहरीली मुस्कान फ़ैल गयी है । मैंने बेहद ठंडी आवाज़ में कहा ,...'' न तो वह देहलीज के अन्दर का युद्ध लड़ सका ....न देहलीज के बाहर का ही युद्ध लड़ पाया ... । वह योद्धा नहीं गद्दार था .... । और गद्दार की मौत पर कभी रोया नहीं जाता .... । ''
मेरी आवाज़ किसी ने सुनी थी या नहीं ...पता नहीं , पर वैन और कीरनों की आवाज़ मद्धम होने लग पड़ी थी ....!
अंतिका -देरी इस वक़्त अलमारी में पड़ी है । कमरे में नाईट बल्ब की मद्धम सी रौशनी है । रात के बारह बज चुके हैं । पर मेरी आँखों में दूर तक नींद का नामोनिशां नहीं है। बैड पर जागती पड़ी हूँ । डिस्कवरी चैनल पर देखा प्रोग्राम मेरे दिमाग में चल रहा है । फ़िल्मी हिरोइनों सी शेफाली का चेहरा नज़रों से परे नहीं हट रहा । शेफाली उस लड़की का नाम है जिसका इंटरवियू आया था ....मेरे जैसी वह भी एड्स की मरीज़....नहीं ...नहीं ....वह तो अपने आप को मरीज़ समझ ही नहीं रही थी । प्रोग्राम का नाम ' एड्स इक चुनौती ' था । डायरी बंद करने के बाद मैंने वो सारा प्रोग्राम देखा था । पहले मेडिकल पक्ष की ओर से एड्स के बारे बारीकी से जानकारी दी गयी ...फिर एड्स पीड़ित कई लोगों का इंटरवियू दिखाया गया । सब से बढ़कर मैं शेफाली से प्रभावित हूँ । दिमाग में तेजी से सीन बदल रहे हैं .....
सीन- - उम्र लगभग २६ वर्ष । ब्वाय कट बाल। गोरी-सफ़ेद और लम्बी, काली टी -शर्ट के साथ नीली जींस पहने वह तौलिये से पसीना साफ कर रही है । हाथ में माइक पकडे रिपोर्टर सवाल पूछ रहा है ,...'' हैलो शेफाली जी ....क्या आपको मालूम है आपको एड्स है ...? ''
'' ओ....या ....मालूम है....बट... इससे क्या फर्क पड़ता है .....?? '' वह हंसने लग पड़ी है .... ।

रिपोर्टर कमेन्ट दे रहा है ..., '' डाक्टरों की लापरवाही .....एड्स वाइरस वाला खून देने से ......''

सीन - - डांस अकादमी के हाल-रूम में खड़ा रिपोर्टर पूछ रहा है ..., ये जानते हुए भी की आपको एड्स है , आप डांस सीख रही हैं ....? ''
'' ओ....यस....वाई नाट ....? जब से मुझे पता चला कि मुझे एड्स है मैंने मरना छोड़ दिया है। मैं तो ये मानती हूँ कि सम
टाईमज द लाइफ हैज टू बिगेन फ्राम डैथ ....... ।'' हंसती हुई शेफाली फिर डांस का स्टेप लेने लग पड़ी है .... ।
'' हाँ शेफाली .....कई बार ज़िन्दगी मौत से भी शुरू करनी पड़ती है...., '' मेरे अन्दर से गूंज उठी है .....!
मैं बैड से उठ बैठी हूँ...सुरति युद्धवीर यादगारी गेट पर जा टिकी है ....पैरों से होती हुई इक थिरकन मेरे सर की ओर बढ़ रही है ......!!!



...................................................समाप्त ......................................................

23 comments:

  1. main aapke is prayas ki sarahna karta hun. yah ham jaison par upkar hai. dhanyvad.

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  2. अनुवाद एक कठिन एवं समर्पित काम है। आपने इतने श्रम से इन रचनाओं का अनुवाद किया है, इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं।

    -----------
    खुशियों का विज्ञान-3
    ऊँट का क्‍लोन

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  3. बहुत सुंदर कथा का रस आया आपकी कहानी में ,मजा आ गया ,मेरी बधाइयाँ ,शुभकामनायें
    सादर डॉ.भूपेन्द्र

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  4. कृपया इस सिलसिले का बनाए रखें।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  5. is nek kaam ke liye badhaai aur aap ki mehanat rang laai kyoki kahani bahut achchhi thi jise aapki wazah se hi padh pai .

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  6. आज जल्दबाज़ी मे सिर्फ कमेंट कर रहा हूँ ,एक नज़र बस डाली है जसवीर राणा तो मशहूर लेखक है ,अनुवाद भी बेहतर लग रहा है .हिन्दी की एक अनुवाद की पत्रिका सद्भावना दर्पण रायपुर से निकलती है उसमे अनुवाद भेजिये आप कहेंगी तो पता भेज दूंगा .यह कहानी जल्द ही पढूंगा . साधुवाद !!

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  7. सुंदर कहानी का खूबसूरत अनुवाद,आनंद आगया .
    मेरी बधाइयाँ और अपेक्षा की निरंतेर ऐसी ही कहानियां मिलेंगी पड़ने को .
    सादर ,डॉ.भूपेन्द्र

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  8. आप हिन्दी की बहुत बड़ी सेवा कर रही है।

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  9. बहुत सुन्दर!!! दीपावली की हर्दिक बधाईयाँ..
    सादर...चन्दर मेहेर

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  10. सुंदर व्यंजनाएं।
    दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
    आप ब्लॉग जगत में महादेवी सा यश पाएं।

    -------------------------
    आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

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  11. दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    कहानी की अगली कडी का इंतज़ार कब तक कराएंगी?

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  12. दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

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  13. Anuvaad waqayi bahut badha kaam hai
    bhaav badle bina shabdon ka chayan karna
    wahi ras wahi ehsaas de pana mushkil hota hai
    aapne bahut mehnat ki hai
    shukriya

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  14. jitni achhi kahani utna hi sunder anubaad,achhi kahaniyon ka hindi anuvaad uplabdh karane ke liye dhanyabaad.

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  15. tareef ke liye shukria,
    apne blog par apke sawal ka jawab dene ki koshish karungi.
    itne umda anuvad padh kar bahut taskeen hui;wah .

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  16. आपकी कहानी में एक प्राकृतिक बहाव है, मूल कहानी तो सुंदर है ही आपका अनुवाद भी एकदम ओरिजिनल लगता है । जशन की कहानी के अगले भाग के प्रतीक्षा में ।

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  17. पहली बार ये ब्लोग देखा। बहुत सुन्दर कहानी है और अनुवाद मे तो आप सिद्धहस्त हैं ही । आशा है आगे भी और अच्छी अच्छी कहानियाँ पढने को मिलेंगी धन्यवाद्

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  18. पहली बार ये ब्लॉग देखा। बहुत अच्छी कहानी है और अनुवाद एकदम सहज व प्रवाहपूर्ण, धन्यवाद।

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  19. Send Christmas Gifts Online for your loved ones staying in India and suprise them !

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