Thursday, September 13, 2012

इमरोज़ की नज्में .....(पंजाबी से अनुदित )  ....

(1)
कई फैसले  फैसले नहीं होते .....

कत्ल करते वक़्त कोई देख सकता है
पर कत्ल करने की सोच को
कोई नहीं देख सकता
इसलिए कत्ल का कोई भी फैसला
सच  नहीं हो सकता
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म नहीं करता
और सोच को न कोई देख सकता है न जान .....

........................
(२)
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म  नहीं करता
गंगा ज़िस्म धोती है
सोच नहीं .....
  
  (३)

फिक्रमंद .....

माँ ने इक अनचाहे के साथ मेरा विवाह कर दिया था
मैंने उस अनचाहे का बच्चा जन्मने से इनकार कर दिया
और उस अनचाहे ने मुझे घर से बेघर कर दिया
माँ को मेरा इनकार समझ न आया
माँ मनचाही होती तो समझ लेती
माँ ने कहा मनचाहा कोई नहीं होता
मैं मनचाही हो रही हूँ
तू मनचाही हो रही है न ...
मर्द तो मनचाहे नहीं हो रहे
इक मर्द तो मनचाहा हो सकता है
नहीं तो हीर हीर कैसे होती
जिस दिन मैं हीर हो जाऊंगी  मनचाही भी हो जाऊंगी
कहीं न कहीं उस दिन इक मर्द भी मनचाहा हो जाएगा
माँ ने मेरी बात न सुनी
उठ कर रसोई में जा डाल चुनने लगी
बोलती जा रही थी ..
डाल में से कंकड़ तो मैं भी चुन सकती हूँ
पर मर्दों में से कंकड़ किसी से नहीं चुने जाने
फिक्रमंद माँ ....
बड़-बड़ करती यही सोचे जा रही थी ...यही बोले जा रही थी ....

इमरोज़ ....
अनुवाद : हरकीरत हीर

1 comment:

  1. गुनाह सोच करती है
    ज़िस्म नहीं करता.....
    behtarin

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