Tuesday, August 9, 2016

लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( १) खितियाँ घूम रहीआं ने ( २) शिखर दुपहिरा(३) मैं ते मेरी ख़ामोशी (४) बिल्लिआं अक्खां दा जादू
उपन्यास - चुस्त जीभ दी शब्द लीला (पंजाबी, छपने को तैयार  )
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
संपर्क- ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०

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कहानी-
 पट्ट ते वाही मोरनी -
लेखक -जसवीर सिंह राणा , अनुवाद -  हरकीरत 'हीर'
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" बस वैसे ही चला गया ! ....जाते हुए बता कर भी नहीं गया ....।"  करवट लेकर माँ ने मेरी ओर पीठ कर ली ।
वह बापू की बात कर रही थी । आख़िर वह चला किधर गया ? मैं सोच में पड़ गया था ।
माँ तो कहती थी मर गया पर वह मरा नहीं मारा गया था। वह मुझे उसका क़ातिल समझती । कहती मैंने ही उसे मरने के लिए मज़बूर किया था। पर नहीं , बापू इतनी कच्ची मिट्टी का नहीं था । उसकी तो बात ही और थी । जिस वक़्त लड़ाई होती वह जोर जोर से बोलने लगता , "बस यही साल है ! ....अगले साल मैंने कहीं दूर चले जाना है  ! फ़िर कभी किसी से नहीं मिलूँगा ....!
वह घर क्यों छोड़ना चाहता था ? कौन सी दूरी उसे कहीं दूर ले जाना चाहती थी ? माँ कभी भी इन सवालों को समझ न सकी । न मैं समझ सका । अगर समझ जाता , न माँ तड़पती, न बापू जाता , न मैं .....!
" मैं तो गया ही था ! ... तू बता क्यों चला गया  ....? " मुझे माँ के सिरहाने खड़ा बापू दिखाई दिया ।
वह कुछ पूछ रहा था । उसकी पूछ में कोई गहरी रम्ज़ थी ।
पर मैं कुछ न बोला । वह तो कब का ....! वह मुझे कैसे पूछ सकता था । मैंने भी माँ की तरह पासा परत लिया ।
"पासा परतने से कोई ओझल नहीं हो जाता ! " बापू मुझे फ़िर दिखने लगा ।
मैंने गौर से देखा  ... पर कुछ न दिखा । शायद मेरा वहम था ।
" कई  भरम बड़े खूबसूरत होते हैं ....! आवाज़ से मैं आवाक था ।
बैठक में ज़ीरो वाट के बल्ब की रौशनी थी ।  पलंग के एक तरफ़ मनी सोई हुई थी । बीच में बच्चे और ज़रा सा हटकर खटिये पर माँ लेटी थी ।
पर बापू कहाँ था ...?
शायद वह कहीं बाहर नहीं मेरे भीतर ही था ।
जब तक वह घर में रहा उसकी हर बात ज़हर लगती । पर जब से वह गया उसकी हर बात सही लग रही थी ।
" जाने वाले की हर बात अच्छी लगती है ....!" ख्यालों में खोई माँ हवा से बातें कर रही थी ।
उसकी ओर देख मेरा दिल बैठने लगा । सुरति बापू से जुड़ने लगी । मुझे मोरनी वाला दृश्य नज़र आने लगा ।
ज्यों ही मोरनी नृत्य करते मोर की ओर बढ़ने लगी सामने की कोठी का गेट खुला । हाथ में राइफ़ल उठाये एक काला बाहर आया ।
आँगन में आकर उसकी शिकारी आँख चारो ओर घूमने लगी । वह  नज़दीक के खाली पड़े प्लॉट में जा खड़ा हुआ ।
मोर ने पंख और फैला लिए थे । मोरनी नाचने लगी । काला सुलग उठा । राइफ़ल कंधे से उतार निशाना लगाया और घोड़ा दबा दिया ....!
' ठाय ....य ....य....!'
" हाय ! ओये मार दित्ता ....!" दाहिना पट्ट(जाँघ ) पकड़े बापू दोहरा हो गया ।
मैंने चोर आँखों से उसकी ओर देखा । वह अपना पट्ट ( जांघ ) देख रहा था । उसकी नज़र वहाँ टिकी हुई थी जहाँ कभी उसने मोरनी खुदवाई थी । पर अब वहाँ सिर्फ़ गोली का निशान था ।
" निशान कभी मिटा नहीं करते ..!"  कहीं दूर देखता हुआ बापू ख्यालों में खो गया था...!
जवानी में घटी वो घटना उसका पीछा आज़ भी नहीं छोड़ती । जब भी उसे वह घटना याद आती है ।बापू को गोली चलाता हुआ काला दिखाई देने लगता । उसके चेहरे पर एक रंग आता एक रंग जाता । आँखों में खून उतर आता । धीरे -धीरे उसका सारा शरीर सख़्त होता जाता ।
जब कोई पेश न चलती वह अपना दाहिना जाँघ पकड़ दोहरा हो जाता , " वह मेरी मोरनी थी ....!"
" बापू ....!!" मेरा दिल करता कि उसका ख्याल तोड़ दूँ पर अगला ही पल मुझे रोक लेता । बापू के पास अब ख्यालों के सिवा है भी क्या था ...!
" बड़ा कुछ है ...!" आवाज़ सुनकर मैं दहल गया ।
वही लहज़ा , वही नखरा , वही आँख !
मेरी सुरति में अड़ा बापू माँ की ओर देख रहा था ।
उसकी ओर देख मैं उसके 'छोटे से इतिहास ' के पन्ने पलटने लगा ।
" जैसे इक कौम का इतिहास होता है , वैसे ही हर इंसान का भी इतिहास होता है । भले ही वह छोटा सा ही क्यों न हो  ....!" कई बार फौजी मूड में आकर बापू मुझे दुश्मनों की तरह देखने लगता ।


उसका इतिहास घर से फ़ौज तक , फ़ौज से पिंड (गाँव) तक और पिंड में मोरनी से लेकर जाफी की घरवाली तक फैला हुआ था ।
मैं उसके फैलाव को बांधना चाहता था ।
" कोई बात नहीं बेटे ! तूने भी एक दिन मेरी तरह ही फैलना है ....!"  जब वह कहता , मुझे आग सी लग जाती , " देखता जा मैं तेरा क्या करता हूँ  ....!"
मैं बापू को रोकना चाहता था या फ़िर अपने आपको ? अपने इन अजीब सवाल से उलझता हुआ मैं आँखें बन्द कर कुछ देर चुपचाप पड़ा रहा । पर अगला ही पल मुझे अंदर तक झिंझोड़ गया ।
आँगन में चली आ रही माँ बड़बड़ा रही थी , " पता नहीं बुड्ढे बारे एहदी की जवार निस्सरदी ती ....!"*
शायद वह पेशाब करके लौट रही थी ।
मैं समझ गया उसने बरामदे में दीवार पर टँगी मोरनी वाली तस्वीर देख ली है । वह जब भी इस तस्वीर को देखती उसके अंदर आग सी मच उठती । वह कितनी ही देर जली कटी सुनाती रहती ।
" आह फोटो वी हुण नाल ई लै जांदा ....!" फटाक से दरवाज़ा बन्द कर वह पलंग पर गिर पड़ी ।
बापू के कारण वह रोगी हो गई थी ।
" रोगी तो मैं हुआ पड़ा हूँ ...!" जब बापू शराब के नशे में होता तो दिल पर हाथ रख लेता ।
मैंने माँ की ओर देखा वह पेट पर हाथ बांधे छत की ओर देख रही थी ।
बापू उसका कभी न जाने वाला रोग था । उसका कितना ही कुछ माँ के उदर में समा गया था ।
जिस वक़्त उसकी बात चलती माँ रोने लगती , " जिद्दण दी एहदे घर आईं हां इक दिन नी सुख दा वेखिआ ....! कोई राय नी ....कोई प्यार दी गल्ल नी ...! एहदे तां सारी उमर इशने -बिशने ई लोट नी आये ....!"
मैं बापू के इशने बिशने के बारे सोचने लगा । वो बातें ही कुछ ऐसी थीं जिनपर मुझे भी एतराज़ था ।
"अगर ऐतराज़ था तो फ़िर तुम्हारी मति क्यों मारी गई ...?" माँ नहीं यानि उसका पेट बोला , " जो तुम्हारे बाप बेटे के पेट में है वो मेरे नाखूनों में है  ....!"
मैं माँ की ओर देखने लगा । उसके नाखूनों में क्या था ...? मैं डर गया । बापू की तो वह रग -रग जानती थी । पर उसे मेरा कैसे पता चल गया । जिसे पता चलने का डर था वह तो सोई हुई थी । मैंने मनी का हाथ चूम लिया । वह थोड़ा सा बच्चों की तरफ़ सरकी और करवट लेकर फ़िर लेट गई ।
" चल लेट जा अब ! .....बहुत हो गया ...!" माँ मुझसे कह रही थी या अपने आपको । पता करने के लिए मैंने पूछ ही लिया, " किसे कह रही हो माँ ..?"
" कहती हूँ तुम्हारे बाप को ! ... पहले तो उसके पीछे पड़ा रहा ......कहता बूढ़ा लड़कों जैसी हरक़तें करता है ! ....यह औरतों के पास जाता है ! ..जब तक वह मरा नहीं ... यह बाप का बेटा हटा नहीं ! ...अब आधी - आधी रात बैठा पता नहीं क्या सोचता रहता है  ...!" मेरा सवाल सुनकर वह आग की तरह भड़क उठी ।
मैं चुप कर गया । वह मेरी ओर झाँकने लगी । मुझे उसकी आँखों में कितना कुछ झुलसता नज़र आया । वह राख़ से भरी हुई थी । बापू उसकी बेरुख़ी से भरा था । जाने से पहले उसने एक बार कहा था , " एक तो तुम्हारी माँ ने ...और दूसरे इस घर ने ...मुझे दिया ही क्या है ! ...मैं तो वैसा ही हूँ जैसा आया था ! ...एक दिन ऐसे ही चुपचाप चले जाना है ...!"
वह किधर चला गया था ? उसे ढूँढती माँ कहीं गहरे गुम गई थी ।
उसने खेस से मुँह धक लिया । मैं काफी देर उसकी ओर देखता रहा । वह सीधी अडोल पड़ी थी .....ख़ामोश ...गुमसुम ...!
सुबह होने तक अब उसके कुछ नहीं बोलना था । जिस दिन दे बापू गया हमारा रोज़ का ही किस्सा था । मनी बच्चों के साथ सो जाती माँ आधी रात तक मुझे बापू का क़ातिल ठहराती रहती । पहले तो मैं बड़ा विरोध करता था । माँ से बहसता पर 'उस रात वाली घटना' के बाद मैं गहरी सोच में डूब गया । माँ बोलती रहती मैं चुपचाप बापू का व्ह इतिहास खंगालता रहता ...जो उससे लेकर मुझ तक फैल गया था ...!

"  हुण इस फैलाअ नूं वड्ड मार पुत्त ...!" बापू मुझे फ़िर दिखने लगा था ।
उसकी आवाज़ मेरा अंतर काटने लगी ।
मैं उसकी ज़िन्दगी की एक एक घटना याद करने लगा ।
" जिसके साथ बीती हो पुत्र ...उसे कुछ याद करने की ज़रूरत नहीं होती । सब कुछ अंदर -बाहर रेखांकित होता है । जैसे मेरे अंदर मोरनी ..!" बिल्लू की दूकान पर बैठा वो अक़्सर बताया करता ।
कई बार जब ज्यादा पी होती । वह सारी हदें सरहदें फलांग जाता । यहाँ तक कि मैं कौन हूँ वो ये भी भूल जाता और मैं उसका दुःख-दर्द सुनने वाला यार बन जाता ।
वह बताने लगता , " उस वक़्त मैं कहीं किसी स्कूल में पढ़ता था । ... देख ले फ़िर ...!"
जिस वक़्त वह ' देख ले फ़िर ' कहता मुझे लांगड़ियों का पेट्रोल पम्प नज़र आने लगता । बापू वहाँ से ब्राह्मणों के प्रकाश के संग डीजल लेने गया था ।
लाइन बहुत लम्बी थी ।  उन्होंने पीपा लाइन में रख दिया । जब तक बारी आई तब तक बापू की प्रकाश के साथ योजना बन चुकी थी । वे तेल का भरा हुआ पीपा भूरे के बेटे शीतर को पकड़ा नाभे वाली बस में चढ़ गए ।
वहां फ़ौज की भर्ती हो रही थी । दोनों के शरीर हट्टे - कट्टे थे । कोई लौट कर न आया । दोनों की भर्ती फ़ौज में हो गई । फ़ौज में लड़कों की सख़्त ज़रूरत थी । वहीं से उन्हें ट्रेनिंग के लिये भेज दिया गया । बापू चला तो गया पर उसकी सुरति घर में ही रह गई । घर की वह बैठक उसे परेशान करने लगी जिसमें पहली बार उसे लाली मिली थी ।
" उसकी मोरनी सी चाल थी ..!"  बताता हुआ बापू भिलोआल के मेले की घटना सुनाने लगता , " जब मैं ट्रेनिंग पूरी कर घर लौटा  ....रात होने का बेसब्री से इंतज़ार था ...मैंने लाली को लांगे वाले दरवाजे पर बुला लिया ...वह आई ...मैं न जाने कितनी देर उसके गले लगकर रोता रहा ...वह मोरनी की तरह मेरे आँसू पीती रही .....सारा पिंड सोया हुआ था .....हम जाग रहे थे ...जब पिंड जागा ....हम अपने अपने घर परत सो गए थे ....!"
जिस वक़्त वह अपनी प्रेम कथा छेड़ लेता फ़िर सोता नहीं । सारी रात अपनी जाँघ का वह हिस्सा चूमता रहता जहाँ मोरनी अंकित थी ।
" अब वह मोरनी खुदवाने वाला किस्सा भी सुना ....!" मेरे अंदर की उत्कंठा उसे फ़िर ख्यालों में उतार देती ...
बापू फिर भिलोआल के मेले का किस्सा सुनाने लगता , " हम उसदिन मेले में ज़रा सा आगे -पीछे योजना बनाकर गए थे ..
पहले एक खतान से में बनी दुकान में गए वहाँ टाट बिछी हुई थी । वहाँ बैठ हमने जलेबियाँ , पकौड़े खाये  । फ़िर मैंने लाली को एक दुकान से चूड़ियाँ , गानी (कण्ठी) और एक मिट्टी का मोर लेकर दिया ..
! .... जाते- जाते वह जो बात कह गई ..बस जैसे मेरी जान ही ले गई ...!"
" वह कौन सी बात थी बापू ...?' मेरी बात सुनकर बापू जाँघ पर थापी मारता हुआ बोला , " कहिन्दी तेरा पट्ट बड़ा सोहणा ...इस ते मोरनी वहा लै ..! ...जदों मैं याद आई इसनूं वेख लिया करीं ....!"
" देख शर्म नहीं आंदी दोहां नूं ...!" जिस वक़्त बापू मुझे मोरनी खुदवाने का किस्सा बता रहा होता माँ गालियां देने लग पड़ती । उसकी गालियाँ बापू का अंतर जला देतीं ।
वह कितनी ही देर बरामदे की दीवार पर टँगी मोरनी की तस्वीर को देखता रहता ।
" बे यह तो कंजर (निर्लज्ज) है ही ऐसा ....तेरी शर्म क्यों चली गई ....?" माँ की बात सुन मैं सोचने लगता ....!
मैंने तो मनी से लव -मैरिज की थी , फ़िर कौन सी गाँठ थी जिसे खोलने के लिए मैं बापू की प्रेम गाथा सुनने लगता हूँ ? माँ के कहने के मुताबिक़ तो वह कंजर था । क्या मेरे अंदर भी कोई कंजर छिपा बैठा था ?
सोचते ही मैं डर गया । मुझे एक भय सा सताने लगा , "अगर मनी को यह पता चल गया कि वह एक 'कंजर के बेटे' से व्याही है फिर ...?" इस ख़तरनाक ख्याल को तुरन्त झटक मैं करवट बदल मनी की ओर पीठ कर सो गया ।
" देखना पीठ मत दिखाना बेटे ...!" बापू मेरी पीठ थपथपाने लगा । मेरी अवचेतना में वह ' कंजर के अड्डे ' की ओर चला जा रहा था ।
बिल्लू की दुकान को माँ 'कंजरों का अड्डा ' कहती थी । वह क्या सारा पिंड ही कहता था । जो भी दुकान के सामने से गुज़रता उसकी निगाह सामने की दीवार से जा टकराती । कोई उसपर लाल रंग से लिख गया था , " कई शादियों के शौक़ीन ...! ...बिल्लू से मिलें ....!

" दीवारों पर लिखी बातों का भी अपना एक स्वाद होता है ....!" लिखा हुआ मिटाने की बजाय बिल्लू गर्व से कहता ।
उसकी दुकान पर बापू जैसे बूढ़ों की टोली बैठती थी ।
वैसे तो पंचायत ने 'सीनियर सिटीजन होम ' बनाया हुआ था ।
पर बापू का किसी से सुर न मिलता । वहाँ अधिकतर 'रिटायर्ड लोग ' बैठते थे । कोई ताश खेलता , कोई टी वी देखता , कोई अखबार या किताब पढ़ता तो कोई बातों में ही मशगुल रहता । बापू को उनका कुछ भी रास न आता । किसी बेचैनी से भरा वह हवा सा इधर - उधर घूमता रहता । घूमता घामता एक दिन वह बिल्लू की दुकान पर जा बैठा । वहाँ आठ -दस बुजुर्ग बैठे कमाल की बातें कर रहे थे । कोई शराब की बातें कर रहा था ,  कोई किसी गैर स्त्री से अंतरंग रिश्तों की बातें करता तो कोई पुराने इश्क़- मुश्क़ के किस्से सुनाता ।
बापू को उनमें अपना आप नज़र आता । उसके अंदर की दबी आग सुलह उठती। ज्यों ही सूरज चढ़ता उसके कदम बिल्लू की दुकान की ओर चल पड़ते । जिस दिन उसने बताया , " लाली मेरी मोरनी थी ....!"
" हई शावा ...! इह वी मुंडा ही निकलिआ ...!" बूढ़ों में ठिठोली चल पड़ी ।
बापू को उनकी हँसी बुरी लगी । वह घर आकर आधी रात तक बड़बड़ाता रहा , " साले सारे के सारे बेवकूफ़ों के सरदार हैं ..! ...मैं बताता कुछ और हूँ ये समझते कुछ और हैं ....!""
" ला मुझे समझा ...!" उसकी बेबसी देख मुझे उसपर तरस आता ।
" जहाँ लाली बैठती थी ..फ़िर मैं दोनों कलश वहाँ रख आया ...!" अपनी प्रेम कथा सुनाते हुए बापू की आँखें भीग जाती ।
जिस वर्ष लाली का विवाह हुआ । वह साल बापू के लिए प्रलय जैसा था । उसे पिंड में घुसते ही पता चल गया था । वह घर तक बड़ी मुश्किल से पहुँचा । जब रात हुई बापू ने फौजी ट्रंक में से रसगुल्लों के दो कलश  निकाल लिए । वह दिल्ली से लाली के लिए लेकर आया था । अब अकेले कैसे खाता । उदास मन से वह लांघे वाले दरवाजे की ओर चल पड़ा । राह में कई लोगों ने बुलाया भी पर वह कुछ न बोला । वह उस जगह जा बैठा जहाँ लाली बैठा करती थी । उस स्थान में उसकी मुहब्बत की निशानियाँ थी । बैठते सार ही वह जोर - जोर से रोने लगा , पर अब उसके आँसू पीने वाली मोरनी कहीं नहीं थी ।
जब वह रोकर हल्का हो चुका , रसगुल्लों वाला कलश लाली की बैठने वाली जगह पर रख घर लौट आया ।
" रात यह जादू -टोना पता नहीं कौन कर गया ...!" सुबह होते ही लोग बातें करने लगे ।
कइयों की राय थी , "फ़ौजी तो ऐसा लगता है जैसे किसी टोने को लांघ गया हो ...!"
पर बापू पर किसी जादू टोने का असर नहीं था । एक गहरी ख़ामोशी उसके अंदर समा गई थी । वह चुपचाप घर की दीवारों को एकटक देखता रहता । जिधर भी देखता उसे अलीपुर वाले सरदारों का काला दिखाई देता । जो लाली को ब्याह कर ले गया था । बापू की मोरनी उसकी कोठी में कैद थी ।
उसकी कोठी में और भी बहुत कुछ कैद था ।
दीवार पर टँगी राइफ़ल , मोर के पंख , भूसा भरवा कर जगह -जगह रखी मोरनियाँ ...!
वह मोरनियों का शिकारी था ।
जब भी कोई नृत्य करती जोड़ी दिखाई देती वह सबसे पहले मोरनी का निशाना बाँधता ।
" नी उड जा मोरनिये ...तेरे मगर बन्दुकां वाले ...!" जिस दिन बापू की ख़ामोशी टूटती उसकी जुबां पर ये गीत घूमता रहता ।
इस वक़्त वह पता नहीं कहाँ घूम रहा था ।
उसकी यही बात माँ को मार गई । नहीं तो माँ अभी मरने वाली न थी ।
जब वह ब्याही आई थी , आते ही उसने टूटे बापू को सम्भाल लिया था । गुड़ खाने वालों की बुढ़िया कभी-कभी बताया करती , कहती माँ बहुत सुंदर हुआ करती थी । उसने आते ही हारे हुए बापू को जीत लिया था । जब वह छुट्टी आता माँ उसकी मोरनी बन जाती । बापू उसके साथ फ़िर से जीने लगा था । जब वापसी का समय होता माँ को छोड़कर जाने का ख्याल भी उसे उदास कर जाता ।
"दिल ही उदास है जी बाकी सब ख़ैर है ....!" मुझे बापू की तुक याद आ गई ।
उदासी दूर करने के लिए वह सीधे बिल्लू की दुकान की ओर हो लेता था । " आपां ऐथे उदासी दूर करण ही बैठे हाँ फौजिया ! .....लिया कड्ड पंज सौ ....ते बोल वाहेगुरू .....!" बिल्लू की बात सुनकर बापू जेब में हाथ डाल लेता ।
उसकी दुकान में बैठने वाले बुजुर्गों की टोली का दस्तूर जग से अनोखा था ।
पिंड की नज़रों में उनकी टोली 'नौजवान क्लब' थी । बुज़ुर्ग उसी के मैम्बर थे ।
मेम्बरशिप फ़ीस पाँच सौ महीना थी ।
जिसदिन बापू को पेंशन मिलती वह सबसे पहले फ़ीस जमा करवाकर आता ।
बिल्लू उनका खजांची से लेकर सबकुछ था । वह बूढ़ों की तबीयत ख़ुश रखने वाला मसीहा था । शराब वाले के लिए शराब हाज़िर करनी , शबाब वाले के लिए औरतें जुटानी और जो भी कुछ मांगता उसकी इच्छानुसार चीजें पेश कर बिल्लू सबका मन जीत लेता था ।
पर बापू उसके काबू न आता । वह शराब पीकर एक ही बात दोहराता रहता , " कहीं से मोरनी ढूँढकर ला दे ...!"
बिल्लू कहाँ से ढूंढकर लाता मोरनी ? वह तो बापू माँ के अंदर भी न ढूँढ पाया था  ।
" एक बार तो मिल गई थी ! पर उसे भी साला जंग छीन ले गया ...अलीपुर वाला काला ,साला कुत्ता कहीं का...!" जब भी बापू को गुस्सा आता वह जंग चाचे की माँ -बहन एक कर देता । गालियाँ देते वक़्त वह सगे भाई -बन्धु का पन्ना ही फाड़ देता ।
" वह मेरा भाई नहीं ...मेरी मोरनी का चोर है ...! ..मैं वहाँ सरहदों पर ढूँढता फिरता रहता हूँ ..दुश्मन तो साला मेरे घर में ही बैठा है ...!" छुट्टी में आया बापू ज़हर उगलने लगता ।
जंग चाचा उसकी पीठ का ज़ख्म था ।
" मेरे पीछे ये क्या करते हैं मुझे सब पता है चाची  ...!" जाने से पहले बापू गुड़ खाने वालों की बुढ़िया से अपना दुःख -दर्द बाँटने जाता ।
उसका इतिहास खंगालता हुआ जिस दिन भी मैं उसके पास जाता , वह मुझे सबकुछ बता देती । वह सारे पिंड की ख़बर रखती थी ।
बापू को उससे सबकुछ पता चल गया था ।
छुट्टी आकर वह जब भी मेरे ननिहाल जाता । स्कूटर नहर की पटरी पर डाल लेता । माँ उसके पीछे बैठी होती । बापू प्यार की बातें करने लगता वह हाँमी भर्ती रहती । जब बापू ख़ुश हो जाता अचानक उसके दिमाग में जंग चाचा का ख्याल आ जाता और फ़िर वो बुझ सा जाता । जब माँ पूछती , " क्यों अब क्या हो गया ? "
" जंग के पीछे भी ऐसे ही बैठती होगी ...!" खून का घूँट पीकर वह स्कूटर की रफ़्तार बढ़ा देता ।
"तुम्हारे ननिहाल जाकर भी उसे सुध नहीं आती थी ...?" मेरे पूछने पर गुड़ खाने वालों की बुढ़िया अगली परत खोलती ।
वह कहती मेरे ननिहाल जाकर बापू बुझ सा जाता । आस -पड़ोस की लड़कियाँ उससे हास -परिहास करती पर वह गुमसुम सा बैठा रहता । जब रात होती चारपाइयाँ कोठों पर चढ़ा ली जातीं । सबकी दीवारें साँझी थीं । आधी -आधी रात तक बातें चलती रहतीं । लड़कियों के बीच बैठी माँ की हँसी गूंजती । पुरुषों के बीच लेटा जुआला पटवारी सबसे ऊँचा हँसता । बापू को वो सब रास न आता । अँधेरे में बैठा वह फसी हुई मैना की तरह फड़फड़ाता रहता । जब गोइयों का नक्षत्र पूछता , " क्यों जमाई राजा ...है कि नहीं ...?"
" हां मासड़ा !...गल्ल तां थोडी ठीक आ ...!" कहने को तो बापू कह जाता । पर उसे कुछ भी ठीक न लगता । कितनी ही शक्लें उसके अंदर बनती बिगड़ती रहतीं ।
सुबह होने तक वह ज़हर से भर जाता ।
वापसी के वक़्त स्कूटर तो वह चला रहा होता पर उसे सारे रस्ते जंग चाचे के पीछे बैठ कर जाती माँ नज़र आती रहती ।
मुझे हर रात बापू क्यों दिखता रहता था ...मैं अब भी उसके पीछे क्यों पड़ा हुआ था ...वह कौन सी बात थी जिसकी वजह से वह मुझे अच्छा भी लगता और बुरा भी ...?
मैंने बहुत सोचा । जब कुछ समझ न आया मैं माँ की ओर देखने लगा ।
वह मुद्दतों से खेस में लिपटी हुई थी ।
उसकी ओर देख मुझे बहुत ही डरावना ख्याल आया । यानि वह माँ नहीं बापू थी । वह खेस में नहीं सफ़ेद कपड़े में लिपटा हुआ था ।
क्या वह सच में मर गया ...?

बापू की मौत का ख्याल मुझे रीढ़ की हड्डी तक कँपा गया था ।
मैंने उस ख्याल से पीछा छुड़ाना चाहा । पर छुड़ा न सका । माँ की कही बात मुझे घेरती रही , " मर तो वह बहुत पहले ही गया था .....!"
वह ठीक कहती थी । बापू के अंदर माँ के मरने की इच्छा जन्म ले चुकी थी । कई बार वह सुबह चार बजे ही उठ जाता । हाथ -मुँह धोकर बाबा ज्ञान दास की समाधि की ओर चल पड़ता । जब वापस आता मैं पूछता , " कहाँ गए थे बापू ....?"
" तुम्हारी माँ के मरने की मन्नत मांगने गया था ...!" दाँत पीसता हुआ वह मारने पर उतर आता ।
बुजुर्गों की टोली में बैठा बिल्लू भी बापू की यह इच्छा बताया करता , " भई फ़ौजी कमाल का बन्दा था ! ..एक बार घरवाली को स्कूटर पर बैठाकर नहर के किनारे -किनारे चला जा रहा था ! ..जब आधे रस्ते पहुँचा आगे से नहर की पटरी पर चार , पाँच लोग चले आ रहे थे । किसी के पास गंडासी किसी के पास लाठी , दो जन के हाथों में राइफलें । देखकर पहले तो फौजी डर गया ...भई आज तो सबकुछ गया । पर अगले ही पल वह चुपचाप सबकुछ देने को तैयार भी हो गया । घड़ी , कड़ा , अंगूठी , स्कूटर ....! वह मन ही मन यही सोच रहा था कि बदमाश सबकुछ ले जाएं ...पर मेरी घरवाली को मार दें ...!"
" फ़िर मार के नहीं गए ..?"  बूढ़ों की टोली पूछती ।
बिल्लू जोर -जोर से हँसने लगता , " ना ! वे लोग वैसे ही चुपचाप चले गए ! जब काफी दूर चले गए फौजी पता है क्या कहता था ....?"
" क्या कहता था ...?"  वैलियों का बूढ़ा एड़ियों के भार बैठता हुआ बोला ।
" कहता था मेरा छोटा सा काम तो कर न सके ! ....टट्टू की बदमाशी है यह ...!" हाथ पर हाथ मारता हुआ बिल्लू साथ -साथ ही  नया किस्सा छेड़ बैठता । और तो और ...वह तो अपने बेटे को भी जंग का बेटा बताता था ।"
" हाँ ! बताया करता था ! तुम्हारी पहली लोहड़ी के वक़्त इसने क्या -क्या कुफ़्र तोला था । "
यूँ तो मुझे माँ पर रब्ब जैसा यकीन था । पर बापू की कही बात मुझे परेशान करती रहती । हर साल जब भी लोहड़ी आती मुझे अपनी पहली लोहड़ी याद आने लगती ।
लोगों का जमावड़ा , धूनी की आग , रेवड़ी , गचक के साथ बंटती मूंगफली और मुझे गोद में लिए बैठी माँ ।
" तेरी ओये माँ दी तेरी दी पिंडा ....!" जिस वक़्त शराबी हुआ जंग चाचा ललकारे मारता । उसे गालियाँ देता बापू लांघे वाले दरवाजे की ओर चल पड़ता , " ठहर ज़रा तेरी माँ दी ...तेरी दी ...! ...अलीपुर वाले काले .... माँ की जंगा साले ...!"
दरवाजे पर जाकर वह थमले को जफ्फी पा लेता । वहाँ बैठा वह आधी -आधी रात तक रोता रहता ।
" पर वहाँ मेरे आँसू पीने वाली मोरनी नहीं थी ....!" मेरे अंदर बैठा बापू दाँत पीसने लगा ।
दाँतों की किरच -किरच सुनकर माँ तड़प उठी । वह खेस में लिपटी हुई ही बोली , " वे दंद ना वड्ड मुंडिया ! माड़े हुंदे ने रात नूं ...!" ( दाँत मत पीस बेटे ! अच्छा नहीं होता रात को ...!)
शायद मुझे यह कोई रोग था । पर बापू का रोग मुझसे भी बुरा था । वह रोग उसकी भीतरी ताकत को खत्म कर रहा था । स्वस्थ रहने के लिए वह बहुत कोशिश करता पर कोई न कोई वाकया ऐसा घट जाता कि वह अंदर तक ज़ख़्मी हो जाता ।
फ़ौज में बापू ने दो लड़ाइयाँ लड़ी थीं । पहली लड़ाई में पाकिस्तानी फौजियों ने संभु जोड़ियों का पुल उड़ा दिया था । भारतीय फ़ौज की काफी मशीनरी डूब गई थी ।
बापू टैंक चलाता था । उसका टैंक भी दरिया में गिर गया था ।
वह भी दूसरे फौजियों की तरह तैरने लगा ।
एक जगह उसे अपने ही गाँव का दरबारा तैरता नज़र आया । तैरता हुआ बापू उसके बराबर जा पहुंचा । अपने ही गाँव के व्यक्ति को देखकर वह खुश हो गया था , पर जब दरबारे ने कहा , " मुझे आते हुए जंग मिला था ! ....वह कहता था फ़ौजी को कह देना परिवार की फ़िक्र न करे ....!...मैं हूँ ...!"
उसकी बात सुनकर बापू  डुबकी लगा गया ।
मैं जिन सोचों में डूबता जा रहा था वहाँ से बापू की दूसरी लड़ाई शुरू होती थी ।

वह बताया करता , सुबह का वक़्त था । उनकी टुकड़ी एक जगह खड़ी थी । फौजी बातें कर रहे थे । टैंक के पास खड़ा बापू चढ़ते सूरज की लाली को देख रहा था ।
उसकी जाँघ पर अंकित मोरनी नाच रही थी ।
बापू को ख़बर भी न हुई कि कब एक पाकिस्तानी फौजी दरख़्त के पीछे घात लगाये बैठा था । जब गोली चली तब ही पता चला ।
बापू गिरा नहीं दर्द को पी गया । गोली उसकी जाँघ में लगी थी ।
" उड़ा दो साले को ...!" अफ़सर ने हुक़्म दे दिया ।
पर बापू ने उसे रोक लिया , " एक मिनट ! ....एक मिनट रुक जाओ ....!"
टाँग घसीटते हुए वह पाकिस्तानी फौजी के पास आकर खड़ा हो गया ।
कुछ पल उसके चेहरे को देखता रहा । पहले वह उसे जंग चाचे की तरह लगा फ़िर अलीपुर वाले सरदारों का काले का सा लगा ।
शक्लों में उलझा बापू झट से टैंक में जा चढ़ा । लोहे की चेन घुमी ...धूल उड़ी ...और एक लम्बी चीख़ ...!
जब उसे तसल्ली हो गई बापू टैंक से नीचे उतरा , लाश के टुकड़ों को इकट्ठा किया ...पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी ।
फ़ौजी बापू की खून से लथपथ जाँघ देख रहे थे ।
" उसने जाँघ में गोली नहीं मारी ...! " भीतर का दर्द पीता हुआ वह आग के बीच की लाली को देख रहा था ।
मैं बिस्तर के परले सिरे पर लेटी मनी को देखने लगा । वह बेपरवाह सी सोई हुई थी । पर आज़ मैं उसका गुनहगार बनता जा रहा था । जिसे प्यार किया , जिससे प्रेम विवाह किया आज़ मेरे भीतर उसके मर जाने की इच्छा जन्म ले रही थी । वह तो फ़िर भी मेरी पत्नी थी मैं तो उस बापू के मरने की कामना करने लगा था जिसने मुझे जन्म दिया था ।
" वे हुण किहदे मरण दीआं सुक्खां सुखदां ...? मर तां गिआ ओह ...!" ( बे अब किसके मरने की कामना कर रहा है ? मर तो गया वह ..!) माँ की आवाज़ सुनकर मैंने उसकी ओर देखा ।
वह मुँह से खेस उतारे मेरी ओर देख रही थी ।
मैं उसे क्या बताता । मुझे तो अपना डर सता रहा था । उसी के समाधान के लिए ही 'वाहेगुरू वाहेगुरू' कर रहा था । मन ही मन बापू के परत आने की अरदास कर रहा था ।
" राम -राम कर हुण ! ...ओह नी आउँदा ! ...ओह तां मर गिआ ! ...हां मर गिआ ...!" खेस से मुँह ढककर माँ फ़िर लाश हो गई ।
उसकी ओर देखकर मेरी जान ही निकल गई ।
मैं बापू को घर से निकाल देने की हद तक क्यों जा पहुँचा था ?
" मैं कहीं पहुँचूँ या न पहुँचूँ ! पर तू अब कहीं नहीं पहुँच सकता ...!" मेरी स्मृति में बैठा बापू रहस्मयी आवाज़ में बोला ।
मुझे उसपर शक़ सा हो रहा था । जिस वक़्त बिल्लू की दुकान में चर्चा सुनी मेरा शक़ पक्का हो गया । बापू मुझे मरा हुआ समझता था ।
उनकी टोली की यही यही नीति थी ।
गाँव में जिसका पति मर जाता उसका नाम बिल्लू की लिस्ट में चढ़ जाता था ।
बूढ़ों की टोली सहानुभूति दिखाती , " अभी उम्र ही क्या थी बेचारी की ....! ...पहाड़ सी जवानी कैसे गुजरेगी भला ..? कोई पुरुष तो चाहिए होगा ..!"
"जरुरत के वक़्त आदमी ही आदमी के काम आता है  ...!" बिल्लू हर विधवा के घर जाकर उसे शब्दों से टटोलता ।
कई बार गालियाँ खाकर लौट आता । कई बार जूते चप्पलों से धुनाई भी होती । पर ज्यादातर वह सफ़ल दलाल बनकर लौटता था , " लै फौजिआ बण गया कम्म ... अज्ज रात मोरनी तुरदी वेखीं ...!"(ले फौजिया बन गया काम ...आज़ रात मोरनी चलती देखना )
जिस रात बापू जाफी की घरवाली के पास से लौटा । वह रोटी देने आई मनी को अज़ीब सी नज़रों से घूरता रहा था ।
" तेरी आँख को क्या हो गया बापू ...?" उसकी आँखों में आई गन्दगी को भाँप कर मैं काँप उठा ।
वह बोला , " अपनी मनी भी मोरनी की तरह चलती है ..!"
" रुक जा तेरी ...कंजर की ...!" मैंने उसका गिरेबान पकड़ लिया ।
उसने रोटी वाली थाली उछाल फेंकी । मैंने उसके पेट में लात मारी । वह तगड़ा था मैं नीचे गिर पड़ा । मेरा गला पकड़ता हुआ वह जोर -जोर से रो रहा था , " ओये मैं की करां ! ...मैंनूँ मोरनी दिसणों नी हटदी ...।"
नीचे गिरे -गिरे जब मैंने बापू की आँखों में देखा , एक डर मेरे आर -पार हो गया ।
"  डरन दी लोड नी मुंडिया ! एह ओहनु देखण जादाँ बस ! इस तों वद नी ! जदों वेख आंदा ...मेरे कोल  अद्दी -अद्दी रात तक रोंदा रहिंदा ....!" ( डरने की ज़रूरत नहीं लड़के ! यह उसे देखने जाता है बस ! इससे ज्यादा कुछ नहीं ! जब देख आता है ...मेरे पास आधी -आधी रात तक रोता रहता है ।)

मेरा डर देखकर एक दिन गुड़ खाने वालों की बुढ़िया बताती थी , " इसकी हालात तो उस शराबी जैसी है ...जो ठेके पर बैठ शर्बत पीया करता था ।"
पर मुझे इस बात पर यकीन न होता ।
मैं बापू पर नज़र रखता । उसकी हर बात का अर्थ निकलता । कई बार वह मुझे सही नज़र आता और मैं गलत और कई बार लगता मैं सही हूँ वो गलत ।
" गलत -सही कुछ भी नहीं होता पुत्त !  ....बस देखने का ढंग होता ....!"
इक रात बापू की अज़ीब सी हरक़त देख मैं शर्म के मारे कितनी ही देर रज़ाई में मुँह छिपाये पड़ा रहा ।
जब बापू चला गया मैंने रज़ाई उतार कर देखा वह रसोई में गुरुओं की फोटो के आगे हाथ जोड़े खड़ा था ।
पर कुछ पल पहले वह हमारे पैरों के पास खड़ा मनी को घूर रहा था । तभी अचानक मेरी आँख खुल गई थी । मैं चोर आँखों से उसे देखता रहा ।
मैं उसे रंगे हाथ पकड़ गुड़ खाने वालों की बुढ़िया की बात झूठी साबित करना चाहता था ।
मुझे उसकी अगली हरक़त का इन्तजार था । पर बापू , बापू ही निकला ।
" रज़ाई लै लओ मेरे बच्चओ ! ...थोनूं ठण्ड लग रही सी ...!" रजाई हमारे ऊपर देता हुआ बापू 'वाहेगुरू  वाहेगुरू ! ' बोलने लगा ।
उस वक़्त गुड़ खाने वालों की बुढ़िया जीत गई और मैं हार गया ।
पर बापू की यह हरक़त भी मेरे अंदर जन्म ले चुके शक़ के कीड़े को मार न सकी । मैं और शक्की हो गया ।
बापू  अब तक अपनी पहली उम्र में ही क्यों खड़ा था ? वह उम्र के साथ - साथ आगे क्यों न बढ़ा ? किस मिट्टी का बना था वह ? कई बार मैं सवालों से घिर जाता और मेरा सर चकराने लगता ।
जब कभी बापू शराब पीकर घर आता । माँ उसपर झपट पड़ती , " देख आया मोरनी तुरदी ...? ..हुण ऐथे बैठा देखू ! ...मार एहदे ! ...मार मुंडिया ...!" ( देख आया मोरनी चलती ...? ..अब यहाँ बैठ कर देखेगा ! ...मार इसके ! ...मार लड़के ...!)
" मेरा मुंडा नी इह ! ....मेरा नी ! ...जंग दी रन्न साली ! ...ज्वाले पटवारी दी रन्न ...!"( मेरा लड़का नहीं यह ! ....मेरा नहीं ! ...जंग की औरत साली ! ....ज्वाले पटवारी की औरत ....!)  ज्यों ही बापू प्रत्युत्तर में जवाब देता । माँ मुझे हथियार बना लेती , " मैं कहिनी आं मार एहदे ...!"
ठीक वही पल होता जब मैं अर्जुन की तरह हथियार फेंक कर खड़ा हो जाता । मुझे समझ न आती किसकी बात सुनूँ । बापू की या माँ की ....?
"  मैं कहिनी आं अजे वी मेरी मन्न ! ...एहनू मार दे ! ...नहीं ते इहने इक दिन सारिआं नूं मार देना ....!" (मैं कहती हूँ अभी भी मेरी मान ले ! ....इसे मार दे ! ..नहीं तो इसने एकदिन सबको मार देना है ...!) दुपट्टे से आँखें पोंछते हुए वह मनी की ओर देखने लगती।
उसका इशारा समझ मैंने फ़िर हथियार उठा लिया , " अगर ख़ैरियत चाहते हो तो चले जाओ बापू ! ....नहीं तो ...!"
" नहीं तां की अलीपुर आला काला बनजेंगया ? ... की जंग बनजेंगा ...?" ( नहीं तो क्या अलीपुर वाला काला बन जायेगा ? ...या जंग बन जायेगा ...?) मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरता हुआ बापू बरामदे की ओर चल दिया ।
बापू का इतिहास खंगालता हुआ मैं बरामदे में आकर क्यों खड़ा हो गया था , कुछ समझ न आया । मैंने बापू के बिस्तर की ओर देखा । वह सूना पड़ा था । मेरी नज़र कुछ ढूँढ रही थी । मोरनी वाली तस्वीर या कुछ और ...? बात की सतह तक जाने के लिए मैं बिस्तर पर बैठ गया । वहाँ जहाँ कभी बापू बैठा करता था ।
" ओहदे ते तेरे बैठण च' फ़र्क ऐ ..!" उसके और तुम्हारे बैठने में फर्क है ) यह कौन बोला था ? मैंने बाहर की ओर झाँका । फ़िर आवाज़ आई , " अपने अंदर झाँक ... !"  मैंने अंदर की ओर देखा । खेस की बींध में से माँ बाहर की ओर झाँक रही थी ।
वह कुछ ढूँढ रही थी । अगर मनी भी जाग गई तो मैंने पकड़े जाना है । अपने बचाव के लिए ही शायद मैं बरामदे में आकर बैठ गया था ।
" हुण ऐथे बैठा की करदां ....।" मुझे माँ की मद्दिम सी आवाज़ सुनाई दी ।
मैं मनी को लेकर हैरान था । उसे एक भी आवाज़ सुनाई नहीं दी थी । किस मिट्टी की बनी थी वह । उसकी बगल में कितना कुछ बन -बिगड़ रहा था पर वह घोड़े बेचे सो रही थी ।
पर बापू यूँ नहीं सोता था । ज्यादातर रातें उसकी आँखों में जागते हुए कटती । वह बार -बार एक ही हरक़त करता । पहले काफी देर बिस्तर पर बैठा रहता ,जैसे किसी के इन्तज़ार में हो और फ़िर जब कोई न आता तब कुर्ता पैजामा उतार कर कील पर टाँग देता और तौलिया बाँध लेता । फ़िर तौलिया उठाकर कितनी -कितनी देर अपनी जांघ को देखता रहता ।

" लक्षण देख की करदा  ...।" उसकी हरक़त देख माँ दाँत पीसने लगती ।
आँगन में काम करती मनी भी बड़बड़ाने लगती , " बापू जी की ये हरक़त मुझे ज़रा पसन्द नहीं ....।"
" इह थोनु किवें पसन्द आऊ ! ...तुसीं किहड़े मेरे ओ ...!" जिस वक़्त बापू माँ के साथ -साथ मेरी ओर इशारा करता, मैं राख़ हो जाता । माँ गालियों का पाठ शुरू कर देती । मैं तड़प उठता , " मैं किसे दिन तेरे पट्ट (जांघ) ते गोली मारनी ऐ ....!"
जिस दिन मैंने ये बात बापू से कही वह दरख़्त की तरह गिर गया था।
उस दिन के बाद वह फ़िर कभी उठ नहीं पाया  ।
बस जाने से पहले एक दिन बिल्लू की दुकान पर गया था ।
" देखीं फौजिया ! ...हुण तां डिग पिया लगदां ....।" (देखना फौजिया ! ...अब तो गिर गए लगते हो ...।) उसकी चाल देखकर बूढ़ों की टोली उसकी नब्ज़ पहचान लेती ।
बिल्लू बताया करता , कहता वैलियों का बूढ़ा कहता था , " क्यों फौजिया तुम तो गोली से भी नहीं गिरते थे ....फ़िर अब कैसे ....?"
" तब दुश्मन ने गोली मारी थी ....अब मेरे अपनों ने मारी है ... ।" मुझे अपना कहते हुए बापू ने अपनी जीभ काट ली थी।
" पर मारी कहाँ है खसम ने गोली...?" पूछने वाला उसकी जड़ पकड़ना चाहता था ।
" उसने जाँघ पर नहीं .....जाँघ पर अंकित मेरी मोरनी पर गोली मारी है ...!" दाहिनी जाँघ पकड़े बापू यूँ गायब हुआ कि फ़िर किसी को नज़र न आया ।
हमने सारी दुनिया छान मारी । पर कहीं से भी उसका अता -पता न चला । माँ कहती , " वह मर गया ! ...अगर ज़िंदा होता तो लौटता नहीं ...?"
मैं कैसे बताता वह मेरी सुरति में रोज़ आता है ।
" अब तुम जाओ ....!" यह किसने किससे कहा ...?
मैंने बापू से कहा या बापू ने मुझसे ? समझ न आया ।
" समझ आएगी भी नहीं पुत्र ! ...यह गोरखधंधा ही ऐसा है ...।" मुझे बापू की मौत का ख्याल परेशान करने लगा था ।
मैंने बिस्तर से उठकर भागना चाहा । पर भाग न सका ।
वो कौन सी चीज थी जो मुझे भागने नहीं दे रही थी ? मैं सोचने लगा ।
अवचेतन में जैसे आग सी जलने लगी । बापू की चिता जल रही थी....मैं रो रहा था ....।
लोग बापू की अस्थियाँ चुनने लगे । मैं भी चुनने लगा । वे दाँत , कड़ा , नाख़ून , हड्डियाँ के टुकड़े ढूँढ रहे थे और मैं दरांती से कुछ और ढूँढ रहा था । जब काफी देर ढूँढने के बाद भी कुछ न मिला तो जागर ताऊ मुझसे बोला ," भाई तू भी डाल दे , दो अस्थियाँ ! ...क्या ढूँढता जा रहा है  ...?''
" मैं तो वह हड्डी ढूँढ रहा हूँ ताऊ ...!" मैं हाथों की राख़ झाड़कर कहने लगा ।
" कौन सी हड्डी पगले ...?'' कई आवाज़ें आईं ।
" बापू के जाँघ की हड्डी ....जिस पर मोरनी अंकित थी ...।" कहा तो मैंने धीमे से था । पर मेरी आवाज़ पूरे श्मशानघाट में गूँजती चली गई ।
" धीरे बोल बेटा ! कोई सुन ना ले..... ! "  माँ धीमे से बोली थी , " और ये ले तसला ! इसे राख़ के ऊपर उल्टा रख दे ...।"
आँगन में जिस जगह से बापू की लाश उठाई थी मैंने उस जगह बिछाई बापू की राख़ पर तसला उल्टाकर रख दिया ।
" सवेरे उठाकर देखेंगे ...! जिसके भी पैरों के निशान इसपर होंगे तेरा बापू उसी योनि में पड़ा होगा । " माँ यह क्यों देखना चाहती थी ...? मैं सारी रात सोचता रहा ।
वह रात हमारी जागते हुए कटी थी । सुबह जब तसला उठाकर देखा । बापू की राख़ पर मोरनी के पैरों के निशान थे ।
" निशान नहीं मिटा करते ..।" शायद सच कहा करता था बापू ।
बरामदे में टँगी तस्वीर तो बापू साथ ले गया था  पर दीवार पर अब भी उस तस्वीर के निशान थे । पर हमें उस निशान की जगह अब भी तस्वीर ही नज़र आती थी । क्या हो गया था मेरी और माँ की मति को ...? हमारी नज़र क्यों धोखा खा जाती है...?
श्मशानघाट ....हड्डियाँ ....अस्थियाँ ....पैरों के निशान ....कुछ भी तो नहीं था कहीं ...!
" फ़िर मैं ये कहाँ से लौटरहा हूँ ....?" मैंने अपने आप से सवाल किया ।
पर कोई जवाब न मिला। क्योंकि उस रात मैं लौटा ही नहीं था ।
बापू के जाँघ की हड्डी मुझे खींचे जा रही थी । मैं तेज़ क़दमों से चला जा रहा था ।
जहाँ जाकर रुका वहाँ जाफी की घरवाली का घर था ।
" हाँ जी ! कोई कम्म सी ...?" जिस वक़्त उसने कुण्डी खोलकर पूछा ...मुझे दूर कहीं मोरनी बोलती सुनाई दी ...
" जा बेटा ...! अब ये पता करना इंसान फैलता क्यों है ....!"
मेरे अंदर बैठा बापू जोर -जोर से हँसने लगा ।
उसकी आवाज़ सुनकर मेरे लिए बैठे रहना कठिन हो गया । मैं उठ खड़ा हुआ ।
कुछ पल अपने आर -पार देखता रहा । फ़िर अंदर की ओर चल दिया ।
खेस बदन पर ओढ़ माँ उठकर बैठी थी ।
मनी सोई हुई थी पर आज़ उसे देख मेरे मस्तिष्क में एक नए ख्याल ने जन्म लिया । क्या मनी सचमुच सोई हुई थी या महज़ सोने का दिखावा कर रही थी ...?
मैं उसकी आँखों की ओर देख उसे पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि .....!
" भले ही लाख बुरा था पर ....!" गले से निकलती -निकलती बात माँ के कण्ठ में अटक गई थी ।
" पर क्या माँ ....?" मैंने डरी हुई आवाज़ में पूछा था ।
" पर इतनी सी बात के लिए कोई मार थोड़े ही न देता है ....!" आँखें पोंछती माँ का खेस नीचे उतर गया था ।
जब उसके खेस दोबाराओढ़ने के लिए अपना हाथ उठाया ...मेरी नज़र उसके दाहिने हाथ पर जाकर टिक गई ...!
उसके हाथ पर मोर अंकित था ....!!
                                                                   समाप्त
                                                       **********
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लेखकः जसबीर 'राणा '
ग्र।मः अमरगढ़
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अनुवादिका  :हरकीरत 'हीर' १८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुरहॉउस - , गुवाहाटी-७८१००१ (असम) फोन- ९८६४१७१३००

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