Saturday, June 15, 2013

 इमरोज़ की कुछ और नज्मों का अनुवाद ......

खुशबू की फ़िक्र ....
पेटेंड फूलों में खुशबू नहीं होती
पेटेंड कैनवास की भी लाइफ़ नहीं होती

सभी आर्ट स्कूलों में
आज भी फूल पेंट कर रहे हैं
खुशबू की न कोई फ़िक्र है न कोई जिक्र

इक खुशबू की फ़िक्र करने वाली
मुझे याद आ रही है -
२० साल पहले मैं भी आर्ट स्कूल में था
मेरी क्लास में इक बड़ी प्यारी सी सयानी सी लड़की थी
जो मुझे अच्छी लगती और मैं भी उसे अच्छा लगता
वह जब भी फूल बनाती
सारी क्लास से खूबसूरत बनाती मुझ से भी
उसे मेरे साथ बोलना अच्छा लगता था
कभी पूछती तेरे रंग बड़े नए-नए से होते हैं
कहाँ से लेकर आये हो ..?
मैं हंस कर कहता अपने पिंड (गाँव) से
वह फिर कहती मुझे अपना पिंड कब दिखलाओगे ..?
मैं फिर हंसकर कहता जब तुझे उड़ना आ जाएगा

वह अपना लंच हर रोज
मुझ से शेयर करती
और मैं अपने ख्याल उस संग
शेयर कर लेता ....
तीसरे साल आर्ट स्कूल में
फूल पेंट करने का मुकाबला हुआ
उसमें भी उसके फूल सबसे खूबसूरत रहे
बड़ी खुश भी हुई और उदास भी
बोली मैं सैंकड़ों खूबसूरत फूल पेंट कर चुकी हूँ
पर किसी भी फूल में कभी खुशबू नहीं आई
जानती है कि पेटेंड फूलों में कभी खुशबू नहीं होती
पर वो अपने फूलों से खुशबू की उम्मीद बना बैठी है
और हर बार उडीकती भी है
जो कभी नहीं हुआ मैं करके देख रहा हूँ
मैं तुम्हारे फूलों की खुशबू बन सकता हूँ
पेटेंड फूलों की नहीं
तू खुद फूल बने तो मैं उस फूल की खुशबू बन जाऊंगा
मंजूर , वह जोर से बोली
मैं और कुछ बनूँ न बनूँ
पर मैं तेरी खुशबू के लिए फूल जरुर बनूँगी
तुम पता नहीं क्या हो अपनी उम्र से कहीं ज्यादा
न समझ आने वाला भी और समझ आने वाला भी ....

(२)
प्यार ....

कल रात
सपने में मैंने रब्ब से पूछा
सुना है
आप लोगों को हर रोज़
बहुत कुछ देते हो
फिर प्यार क्यों नहीं देते ..?
प्यार न दिया जा सकता है
न लिया जा सकता है
प्यार हर किसी को
खुद बनना होता है .....

इमरोज़ -
अनुवाद - हरकीरत हीर

(३)
इक याद ...

आर्ट स्कूल में
इक दिन  हमारी सारी क्लास
नैशनल मियुजियाम में
पेंटिंग के मास्टर पीस
स्डिज़ कर रही थी
मोनालिसा की मुस्कराहट देख कर
एक स्टूडेंट ने टीचर को पूछ लिया
सर , यह मुस्कराहट कभी हंसती नहीं ..?
यह पेटेंड मुस्कराहट है
यह जवाब सुनकर
साड़ी क्लास हँस पड़ीं ....

(४ )

खुले दरवाजे ...
लोग फूल पालते
और प्यार महक पाले
बुरे बोलों का क़र्ज़
नज्में उतारती हैं
समाज है ही नहीं
जब भी सुनो दिल की सुनो
अगर तुम न होते हुए भी होती हो
फिर रब्ब है
और कोई समझे या न समझे
प्यार समझ लेता है
कोई मानता नहीं
मैं रोटी चूम के खाता हूँ
(माँ चूम कर खाती थी )
देर सवेर जब भी आओ
 दरवाजे खुले हैं .....

(५)

मैंने पूछा ....
कल क्या करती रही ...?
उड़ना सीखती रही ...
किससे ...?
उड़कर आई
अपनी माँ से ....

मूल - इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत हीर

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