Wednesday, February 20, 2013

इमरोज़ की दो  नज्में .... 
 (१)
सच या सोच .... 

तितली के परों  पर
तितली जितना अपना पता
तूने  लिखकर भेजा है या नहीं
मुझे अब याद नहीं
पर इक तितली
मेरे आस-पास उड़ती रहती है
और जब भी मेरा दिल करता है
मैं तेरा पता
उडती तितली के परों  से
देख लेता हूँ,  पढ़ लेता हूँ
कभी फूल बनकर
कभी दौड़ता बाल बनकर ...
यह सच है या मेरी सोच ही है
मैं सच के साथ भी खुश हूँ कि यह मेरा सच है
और सोच के साथ भी खुश हूँ कि यह मेरी सोच है .....

इमरोज़ ....
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

(२)

मासूम खेल .....


इक नज्म जैसी तितली को
इक फूल जैसे बाल के साथ
कभी फूलों के बगीचे में
और कभी ख्यालों के बगीचे में
खेलते हुए मैं अक्सर देखता हूँ ...

तूने जो अपना पता भेजा है
वह डाक का पता है ..
लम्बा सा जो याद नहीं रहता
मुझे तितली के परों पर लिखा
तितली जितना तेरा पता चाहिए
जो तितली के साथ मेरे सामने भी
उड़ता रहे और मेरे ख्यालों में भी
जिसे उडती तितली के परों से
कभी मैं फूल बनकर पढ़ लिया करूं
और कभी दौड़ता बाल बन ....

यह मासूम खूबसूरत खेल
दोनों को रोज़ उडीकती रहती है ....

इमरोज़ ....
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

1 comment:

  1. कभी मैं फूल बनकर पढ़ लिया करूं
    और कभी दौड़ता बाल बन ....
    ---------------------------
    behad hi khoobsurat...

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