Saturday, February 19, 2011

दो साँसों के बीच का ठहराव ......

मुझे याद है जसवीर राणा जी की जब मैंने पहली कहानी ''चुडे वाली बाँह'' पढ़ी थी ज्ञानोदय में (सुभाष नीरव जी द्वारा अनुदित ) तो हतप्रद रह गई थी ....बिलकुल अलग लेखन शैली ...और कथा शिल्प ऐसा के पर्दों में ढके नग्न किस्से ...कई बार तो मस्तिष्क संज्ञा-शून्य हो जाता है इनकी कहानियाँ पढ़ .....तभी तो मैं इन्हें उलटी खोपड़ी बुलाने लगी थी .....जहाँ हम कल्पना भी नहीं कर सकते वहां इनकी कलम चलती है ....मैंने उसी दिन इन्हें फोन किया ....जसवीर जी आपकी कुछ कहानियाँ अनुवाद करना चाहती हूँ ....उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दी ...तीन कहानियाँ अनुवाद हो चुकी हैं जिसमें से दो छप चुकी हैं ....'डार्क- ज़ोन' (जन.11 पुष्प-गंधा )और 'तारामंडल घूम रहा है ' जन ११, समकालीन भारतीय साहित्य में ....ये चौथी कहानी है ''दो साँसों के बीच का ठहराव ......''

लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.,बी.एड
संप्रति :
शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( ) खितियाँ घूम रहीआं ने ( ) शिखर दुपहिरा 
पुरस्कार : कहानी संग्रह '
शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी..के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की
सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
 

संपर्क-
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः
संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०
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कहानी ... दो साँसों के बीच का ठहराव ......लेखक - जसवीर राणा (अनु. हरकीरत 'हीर' )



मैं एक मुद्दत से यात्रा पर हूँ , पर पहुँचा कहीं नहीं । कहाँ पहुँचना चाहता हूँ ? क्यों पहुँचना चाहता हूँ ...? कहाँ से आया हूँ ..? क्यों आया हूँ ...? मेरा नाडू कहाँ है ? मेरी जेर कहाँ है ...कुछ समझ नहीं आता । अजीब प्रश्न - लीला है । अजीब भटकन है । यह भटकन मैंने त्रिकाल देव के अन्दर भी महसूस की है । जिस दिन से वह अस्पताल से कुटिया वापस परता है ...वह, वह नहीं रहा और मैं , मैं नहीं रहा । सुरति उन्हीं क्षणों में भटकती रहती है ...जिन पलों में त्रिकाल देव ने आँखें खोली थीं । पहाड़ से भी भारी पल थे वो .... मुझे अपने पैरों पर हैरानी होती उसकी बातें सुनने के बाद मैं खड़ा कैसे रहा । मेरी जगह कोई और होता तो कब का स्वर्ग लोक पहुँच गया होता ..... वैसे मैं भी यहाँ कहाँ हूँ , बस मेरी देह ही है । प्राण तो वही बात निकाल कर ले गई  । हर पल मस्तिष्क में सुदर्शन चक्र की तरह घुमती रहती है । मेरी देह दो हिस्सों में बँट गई है । आधी धरती में गड़ गई है आधी त्रिशंकू की तरह हवा में लटक रही है । मैं सोलह वर्ष पहले उठी तरंगें महसूस करने लगा हूँ ..... ज्यों -ज्यों दिमाग में तिरंगों का जाल फैलने लगता है बाहें आकाश की ओर उठने लगतीं हैं । शून्य में गुरुदेव की आवाज़ गूंजती है ...., '' शान्ति भव !...सूरज देव ....शान्ति भव ...!''

'' ओम ...शान्ति ...ओम ...!! '' त्रिकाल देव की आवाज़ सुन मेरी चेतना लौट आई है।

हवा में कदमों की आहट उभरी है ।

मैं पदम् आसन में बैठा हूँ । त्रिकाल देव फिर 'ओम' का जाप करने लगे हैं । मेरे कान उसी की तरफ लगे हैं , पर ध्यान कहीं और है । त्रिकाल देव ज्योत रखने में ध्यानमग्न है । शुरू से ही नियम है ऊपर मंदिर में आरती करने के बाद नीचे गुफ़ा में ज्योत रखी जाती है । मंदिर में शिव - महिमा होती है और तहखाने में उत्तम देव महाराज की मन्नत होती है । गुरुदेव से महाराज की अपार महिमा सुनी है । उनकी शक्ति की अनेक कथाएँ सुनी हैं । ज्योत वाली कथा में भी असीम शक्ति है । जब गुरु जी ये कथा सुनाते मुझे उनके मस्तिष्क में कुछ जगमगाता सा दिखाई देता । मैं प्रकाश से भर जाता । पर आज घोर अन्धकार में बैठा हूँ । जी में आता है कि त्रिकाल देव को सामने बैठा लूँ और खुद उनके सामने बैठ जाऊं फिर सारी रात उनसे चर्चा करूँ । लेकिन गुरुदेव की सीख-मत मुझे रोक रही है , '' ज्योत जगाने वाले हाथों को पकड़ा नहीं जाता सूरज देव .....!''
मैं दोनों हाथों को घुटनों के ऊपर रख ज्योत की तरफ देखने देखने लगता हूँ । पर कुछ भी नज़र नहीं आता । शायद मेरे और ज्योत के बीच त्रिकाल देव खड़े हैं

''मैं खड़ा नहीं आपके आगे बैठा हूँ बाबा ...!'' मेरा ज़िस्म काँप
उठता है । पता नहीं कब त्रिकाल देव मेरे सामने आ बैठे थे उनकी आँखें दिखाई दे रही हैं । वो मेरा माथा पढ़ रहे हैं । मैं उत्तम देव महाराज का ध्यान करने लगा हूँ । चेतना अचेत में बजती ताली से एकसार होने लगी है । कोई मस्त चाल चला जा रहा है । हाथों से आग के अंगारे गिर रहे हैं । गाँव से आवाजे आ रही हैं , '' एक अंगारा इधर भी फेंक जाओ महाराज ...! "

हर आवाज़ के साथ ताली बजती है । किसी का हुक्का गर्म होता है , किसी की भट्ठी सुलग उठती है ,  किसी का चूल्हा जल उठता है । गले में रुद्राक्ष की माला डाले देव रूह आगे बढ़ रही है । सामने नहर का पुल दिखाई दे रहा है । पुल के पास एक कुटिया है । देव रूह उसमें प्रवेश कर गई है । देह विश्राम कर रही है । नहर का पानी सूखता जा रहा है । उत्तम देव को आवाजें मार रहा है । चीं-चीं की आवाज़ हुई है । कुटिया का दरवाज़ा खुला है । फिर ताली बजी है । हथेली के ऊपर ज्योत जगा नंगे पैर नहर के बीच चल पड़े हैं । किनारों पर की ख़ामोशी और गहरी हो गई है । महाराज ने पालथी मारी हुई है । वो पानी के ऊपर बैठे हैं । ज़िस्म तैरने लगा है । सामने भुल्लारां गाँव की पुलि दिखाई दे रही है । महाराज की आँख खुली है । पानी के ऊपर चलते पाँव कुटिया की ओर बढ़ रहे हैं । मंदिर में घंटियां बज रही है । शंख बज रहा है.....

'' मेरे अन्दर शंखनाद क्यों बज रहा है अन्तर्यामी ...? '' त्रिकाल देव की आवाज़ सुन मैं त्रिशूल पे टंग गया हूँ ।

क्या जवाब दूँ ? जटाधारी के सर में उलझी गंगा की तरह उलझ गया हूँ । मेरी उलझन देख वह टहलने लग पड़े है । कदमों की पदचाप कभी मेरी तरफ आती है तो कभी ज्योत की तरफ चली जाती है ....और कभी .....

'' और कभी अपनी आँखों से देखा सच भी सच नहीं होता ...और कभी पराई आँखों से भी मनुष्य सच के आर-पार हो जाता है ...!" प्रश्न कर जवाब लेने की जगह , प्रश्न को मारने की कला में त्रिकाल देव मुझसे भी आगे निकल गए  हैं ।

उसे आगे निकालने के चक्कर में अक्सर मैं पीछे रह जाता हूँ । पर उसकी पीछे चलने की आदत मेरे पदचिन्हों को कसने लगती है । मैं भूल-भुलैया में पड़ जाता हूँ । खुद को अपना शत्रु समझ खुद से लड़ने लगता हूँ । जब हार जाता हूँ फिर धनुष- बाण उठाता हूँ । अगली हार-जीत के लिए फिर लड़ने लगता हूँ । स्वै को जीतने-हारने का सिलसिला ही मेरी होंद है । इस होंद को पकड़ने का सूत्र पकड़ से बाहर हो गया है । मेरी ज़िन्दगी का सूत्रधार कौन है ...? पर त्रिकाल देव की ज़िन्दगी का सूत्रधार ......

'' कोई किसी का सूत्रधार नहीं सूर्यदेव ...! सबका सूत्रधार तो वो भोला शंकर है । हम तो बस नमित मात्र हैं ...! '' शुरू में गुरुदेव का ज्ञान मुझे शांत कर देता था । पर जिस रात मुझे स्वै ज्ञान की प्राप्ति हुई , एक आक्रोश पैदा हुआ था ... एक नफरत पैदा हुई थी ...मैं अंधा,बहरा और गूंगा हो गया था । जड़मत हुआ कितनी देर गुरुदेव की आँखों का तेज देखता रहा । उस वक़्त शक समाप्त हो गया  , जिस वक़्त आँखें बंद कर उन्होंने कहा , '' माना कि कोई सच आखिरी नहीं होता ...पर कोई सच तो मानना ही पड़ता है सूरज .....!''

मेरी आँखों में सहमति और असहमति के भाव तैर गए थे । सारी रात मैं गुरु चरणों में पड़ा रोता रहा । जब संध्या हुई मैंने सूर्य नमस्कार भी न किया । संध्या पूजा के लिए भी मन न माना । हाथों में पूजा सामग्री लिए संदला बहुत देर मनाती रही ।वेदों शास्त्रों के हवाले दे समझाती रही । पर मैं उसे क्या समझाता ...मैं उससे ज्यादा ज्ञान रखता था फिर भी कोई रहस्य था जो समझ से पार था । उसे समझ पाने की क्रिया में ही मैं गुरुदेव के पास गया था,  वे तहखाने में आसन जमाए विश्राम कर रहे थे ।

मैंने गुरु चरणों में नत-मस्तक हो अर्ज किया , ''मैं भटक रहा हूँ गुरुदेव ...! मेरा मार्ग दर्शन करें ...!''

'' सही मार्ग पर चलने वालों को मार्ग दर्शन की जरुरत नहीं होती ...तू तो सबको रौशनी देने वाला है ...! खुद अपनी  रौशनी बन....! '' मेरी बात सुन उनके नूरानी चेहरे पर मुस्कराहट फैल गई थी ।

पता नहीं गुरुदेव का ध्यान कहाँ था । मेरी बात सुनने की जगह उन्होंने अपनी बात कहनी शुरू कर दी । मैं चाहता तो अपनी बात कर सकता था पर नहीं की । गुरुदेव मेरे लिए प्रथम पुरुष थे । मैं मन-ही मन उपजे भेद को काबू करने लग पड़ा । रहस्य का सूत्रपात करते हुए चाहे मेरा शक्तिपात हो रहा था पर मैंने अपना ध्यान एकाग्र रखा । गुरुदेव की आँखें ऊपर चढ़ रहीं थीं । माथा प्रकाशमान हो रहा था । मैंने भी आँखें बंद कर लीं । अंतर्मन में रौशनी भरने लगी । रूह रौशन हो उठी । ज़िस्म फूल सा हल्का हो गया । मैं हवा में तैरने लगा । एक रौशनी मुझे अपनी ओर खीँच रही थी । नजदीक गया तो गुरु जी का माथा था । नहीं...गुरुदेव का हाथ था । माथा तो मेरा था । उसके ऊपर रखा हाथ ज्यों-ज्यों पलकों के ऊपर आता गया , गुरुदेव की आवाज़ ऊंची होती गई , '' नहीं सूरज देव नहीं ....! तेरे अंतर्मन की ज्योत जग चुकी है....! तू उत्तमदेव महाराज की ज्योत का अगला वारिश है ....!''

मैं गुरु चरणों में गिर पड़ा । मेरी भक्ति परवान हो गई थी । मेरा जन्म सफल हो गया । पर अगला क्षण कुछ ऐसा था कि मैं चौपट गिर पड़ा । गुरु जी की जुबाँ तीरों की बौछार बन गई । मेरा रोम-रोम बिंध गया । क्या मेरी भी कोई जन्म कथा है ? जन्म कथाएँ तो देवी-देवताओं की सुनी थी । गुरु जी से मैंने ये क्या सुन लिया है , '' आ सूर्यदेव ! आज मै तुझे तेरी ही जन्मकथा सुनाता हूँ । ''

'' तू किसकी नाजायज औलाद है ...!!'' जन्म कथा का मूल तत्व कानों में कांटें सा उग आया था ।

हर जायज बात नाजायज बन गई थी । मुझसे कुदरत की अनमोल देन नींद छिन गई थी । सालों से मैं कभी पूरी तरह सोया नहीं । दिन चढ़ता,  रात उतरती  पर मेरी अनिंद्रा दूर नहीं होती । मुद्दतों से एक ही दृश्य देख रहा हूँ । दृश्य में वो झाड़ी हिल रही है । नहर में कश्ती तैर रही है । उसमें गुरुदेव बैठे जा रहे हैं । चप्पुओं की आवाज़ ऊंची होती जा रही है । आवाज़ सुन कर सफेदों के बीच में से एक गिद्ध उड़ी है । नहर की पटरी पर काली बिल्ली घूम रही है । दूर खाइयों में बोलता तीतर सुन गेरुआ चोला काँप गया है । नज़र हिलती हुई झाड़ी पर जा टिकी है । झाड़ी में पड़ा नवजात शिशु रो रहा है । गुरुदेव के चेहरे पे मुस्कान फैल गई है । कश्ती किनारे पे जा लगी है । खडाऊं वाले पैर नहर की पटरी पे आ गए हैं । झाड़ी में से बच्चा उठा वापस कश्ती में जा बैठे हैं । चप्पू रुक गए हैं । कुटिया में बच्चा रख गुरुदेव ने ताली बजाई है । ज्योत रौशन की है । कश्ती वापस गाँव वाली कुटिया की तरफ बह चली है ।

'' हे शिव शंकर ...! इनको माफ़ करना । ये नहीं जानते , ये क्या कर रहे हैं ....!'' हवा से बातें करता हुआ त्रिकालदेव तहखाने में आंधी की तरह घुमने लगा है ।

मेरे अन्दर की आंधी भी तेज हो गई है । मैं उखड़ी हुई आवाज़ में बोल रहा हूँ , '' गुरु से बातें करते हुए उसकी तरफ पीठ नहीं करनी चाहिए वत्स.....!''

'' पीठ मैं नहीं मेरी तरफ आप करके बैठे हो बाबा ...! लगता है आज आपका मन ठिकाने  नहीं ...! '' मेरे इर्द-गिर्द घूमता त्रिकाल्देव किसी ठिकाने की तरफ बढ़ रहा है ।

क्या वह मेरे अतीत के बारे जान गया है ? वो किसको माफ़ करने की बात कर रहा है ? कौन नहीं जानते कि वह क्या कर रहे हैं ? शायद मैं इन प्रश्नों की ओर पीठ करके बैठा हूँ । पर इनकी तरफ पीठ करने से क्या होता । मैं तो खुद एक प्रश्न हूँ । जिन पलों ध्यान में उतरता हूँ, माँ भी साथ ही उतर जाती है । कुंती की तरह उसके क़दमों की मिट्टी भी गायब हो जाती है । मैं उससे पिता का नाम पूछने लगता हूँ । वो मौन धारण कर लेती है । मैं समाज की पत्थर हुई रीतों के बारे पूछता हूँ , वह डर जाती है । मैं उसकी छातियाँ पकड़ने लगता हूँ , वह रोने लगती है । बच्चे की चीखें ...हांफती हुई माँ ...और वक्षस्थल से टपकता दूध ....! कितना ही कुछ समुन्द्र में जा गिरता है । कुछ मथने की आवाज़ आती है ... सांप फुंफकारने लगते हैं ... हवा में ज़हर का प्याला उछलता है ... किसी मर्द के भागने की आवाज़ आती है ... मैं अपना नील हुआ कंठ पकड़ लेता हूँ ।

'' ला तेरा गला दबा दूँ ...! नहीं ...नहीं...मैं नहीं दबा सकती ...!'' मुझे झाड़ियों में फेककर भागती जा रही माँ की पदचाप मुझे रातों को नहर की पटरी पर ले जाती है ।

कितनी ही देर मैं झाड़ियों में पड़ा रहता हूँ । टाँगे, बाजू छोटे -छोटे हो जाते हैं । ज़िस्म बच्चों की तरह हिलने लगता है । मैं किलकारियाँ मारने लगता हूँ । आसमां में चमकता चाँद हँसने लगता है । वो मेरी ओर शक्कर की डलियाँ फेंकने लगता है । मैं मामा-मामा पुकारने लगता हूँ । झाड़ियों में चुभन होने लगती है । मैं हाथों - पैरों के सहारे घसीटने लगता हूँ । नज़र दूर गाँव में जलती रौशनी पर जा टिकी है । भुल्लारां गाँव की पुलि पर मेला लगा दिखाई देता है । गाँव में  लोग इकट्ठे होने लगते हैं । कोई मेरे लिए मिठाई खरीदता है ...कोई मेरे लिए खिलौने खरीदता है ....कोई कपडे खरीदता है ...और कोई मेले में मेरी माँ के साथ बापू को ढूंढता फिरता है । देख कर मैं किलकारियाँ मारने लगता हूँ । ठीक वही वक़्त होता है जब भुल्लारां गाँव की पुलि टूट जाती है । सारा मेला नहर में डूब जाता है.....

'' जिसको तैरना आता है सूरज वो कभी डूबता नहीं ....! मुझे शिक्षा देने में गुरु जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी ।

मैंने कुटिया के तहखाने में आँख खोली थी । गेरूआ चोला मेरा लिबास था । रुद्राक्ष की माला , खडाऊं ,लोटा घंटाल, शंख और मूर्तियाँ मेरे खिलौने थे । ज्योत मेरी माता और शिवलिंग मेरे पिता थे । गुरुदेव तो नमित मात्र थे । अगर गुरुदेव और गोविन्द में से चुनाव करने का प्रश्न पैदा होता तो मैं गुरु को पहल देता । गुरु से मैंने पढ़ना, लिखना बोलना सीखा । वेद , पुराण और ग्रन्थ शास्त्रों का पठन -पठान किया । प्राणायाम और योगा सीखा । संध्या पूजा के साथ सूर्य नमस्कार करना , सूर्य ग्रहण के वक़्त गंगा स्नान और दान पुण्य करना , गाँव की सुख़ शान्ति के लिए हवन करना ..गुरु ने मुझे क्या नहीं सिखाया । अगर किसी को कोई मामूली सा भी रोग होता , दुःख-सुख़ होता , पूरा का पूरा इलाका आस्था के साथ आता । मेरे गुरु की बख्शीश है ऐसे मौके मैं हाथ-हल्का कर देता हूँ । दवा-बूटी के साथ भोले शंकर का आशीर्वाद दे देता हूँ । दिसंबर के महीने कुटिया में भंडारा होता है । लड्डू, जलेबियों का यज्ञ चलता है । इलाके की संगत पहुँचती है । दूर दूर से साधों की टोलियाँ आती हैं । सिद्ध-गोष्ठी होती है । भांग घोटी जाती है । चिलम सुलगती है । चारों ओर जय-जयकार हो जाती है ।

सिर्फ मैं ही नहीं इस रस्म में संदला भी शामिल रही है । वह भी गुरुदेव से सारा ज्ञान ग्रहण करती रही है । पर उसकी संदली आँखों में सृजा रहस्य मुझसे आज तक न खुला । अगर उस रात गुरु कृपा हो जाती । गुरुदेव की जान भी बच जाती । रहस्य से पर्दा उठ जाता । शायद मैं अपनी जन्म कथा सुनने से भी बच जाता । लेकिन नहीं ...अपनी जन्म कथा सुनने से तो संदला भी नहीं बच पाई । हम दोनों के साथ ही बड़ा नजायज हुआ था । अगर मेरी पहली चीख से समाज को कंपकपी आई थी तो संदेला के गर्भ आगमन पर भी रीति-रिवाजों का सिंहासन डोला था । वह मर्दों की दुनियाँ पर बोझ थी । माँ की कोख का कलंक थी । उसकी खता थी कि   जब वह जन्मी उससे पहले से ही उसकी दो बहने थीं । जब वह जन्मी उसका बाप माँ को पीटने लगा । उसके लिए घर का दरवाज़ा बंद हो गया । संदला को सीने से लगा वह कुटिया आ गई । हम दोनों का पोतड़ा (लंगोटी ) गेरुआ चोला बना था । संदला मुझसे चार महीने बड़ी है । गुरुदेव ने मुझे भी उसकी माँ की झोली डाल दिया था । हम दोनों ने एक ही माँ का दूध पिया । एक वर्ष बाद वह माँ ऐसी कहीं गई कि फिर वापस ही नहीं आई । वो किस गाँव से आई थी ...? कहाँ चली गई ...? न तो गुरुदेव ने उससे कभी पूछा न हमने कभी गुरुदेव से ....! गुरु ही हम दोनों की माँ थे । जिस रात उनके प्राण बंधन टूटे हमारी आँखों का पानी नहर सा बह रहा था ।

'' ये क्या बाबा ...! आप रो रहे हैं ? ये कैसा मोह है ...? ये कैसा दुःख है ...? आप खुद ही कहते हो कि आंसुओं को अपनी शक्ति बनाना चाहिए ...!'' त्रिकाल देव का तीर निशाने पे लगा है ।

वो अर्जुन जैसा पक्का निशानेबाज है । जब परखने की बारी आती है वह एकसुर हो जाता । वृक्ष के पत्ते , टहनियां अदृश्य हो जाते हैं । उसका निशाना चिड़िया की आँख पर जम जाता है । जब तीरों की बौछार होती है मैं चिड़िया की आँख बन जाता हूँ । सुरति जड़ों तक हिल जाती है ।

'' हमारी जडें कहाँ हैं ...?'' तीरों की तड़प से मैं दबे हुए संस्कारों की तरह बोलने लगा हूँ , हम किस वंश के चिराग़ हैं ....? हमारी जाति और गोत्र क्या है ...?''

वंश और जाति - गोत्र तो कायरों के  आभूषण होते हैं शक्तिवर ...! वली -फकीरों की जाति-गोत्र उनका कर्म होता है ....!'' मेरी पलकें पोछता हुआ त्रिकाल देव गुरुदेव की तरह बोल रहा है ।

ये मैं क्या बोलने लग पड़ा था ? शिव का शुक्र है कि बचाव हो गया वर्ना पर्दाफास हो ही जाना था । ये पर्दा मेरा कवच- कुंडल है , मेरी रक्षा करने वाला । पर कई बार कुछ अजीब घटना घटती है ।

मैं खुद ही कवच-कुंडल दान करने चल पड़ा हूँ । उन पलों में कर्ण मुझे अपना कोई सगा - सम्बन्धी जान पड़ता है । कुंती माँ लगती है । और सूरज ....? सूरज तो देवता है । अगर वो देवता है तो मनुष्य की तरह चौकोर क्यों हो गया था ? वो तो चार युगों से गोल है । उसकी औलाद नाजायज कैसे हो गई ? मैं कथा सुनने आई संगत को प्रश्न करने लगता हूँ , पर लोग चुप्पी धारे यूँ ही बैठे रहते हैं । मेरा रूप बदलने लगता है , मुझे सामने बैठी औरतें माँ दिखाई देतीहैं । उनकी गोदियों में बैठे बच्चों से जलन होने लगती है । जब मर्दों की तरफ देखता हूँ , ज्यादातर आँखें औरतों को घूरती दिखाई देती हैं । मेरे अन्दर की ज्वाला भड़क उठती है । मैं चीख कर पूछता हूँ , '' कुंती ने अनैतिक सम्भोग को स्वीकार क्यों किया...? उसने अपनी कोख में नाजायज गर्भ को स्थान क्यों दिया ...? संसार में किस-किस के पास प्रमाणित  पिता की औलाद होने का प्रमाण है ...? किसने अपनी माँ का मिलन देखा है ...? हम सब दृष्टिदोष का शिकार क्यों हैं ...? क्यूँ हम एक अंधा युद्ध लड़ रहे हैं ....? ''

बोलता-बोलता मैं किसी भाव में बह जाता हूँ । अपने ही अन्दर कहीं बहुत गहरा । कई बार तो इतनी गहराई फैल जाती है कि वापस लौटना कठिन हो जाता है । मैं माँओं की तरफ देख थूकने लगता हूँ । बच्चों को घूर-घूर कर देखने लगता हूँ । क्रोध पारे का सा उबलने लगता है । चेहरा भयानक हो जाता है । माँएं सहम जाती है । बच्चे मुझे देख दूर भाग जाते हैं । उन्हें पकड़ने मैं उनके पीछे दौड़ता हूँ । संदली आँखों की जोड़ी मेरा पीछा करती है । एक अजीब कौतुक होता है । मैं भागते जाते बच्चों को हँसाने की कोशिश करता हूँ , माँओं के चरणों में गिर पड़ता हूँ ..पर जब होश आता है तो सामने सिर्फ संदला होती है ।

'' संदला !....मुझे सपने में अपनी माँ की सेज क्यों दिखाई देती है ...? मेरे प्रश्न सुन वो आलोप क्यों हो जाती है ....?

शायद उसके पास भी कोई जवाब नहीं था , या वह कोई जवाब देना नहीं चाहती थी । उसके इस मौन की जब भी याद आती मैं 'ओम' का जाप करता हुआ गहरी साँसे लेने लगता हूँ। दो साँसों के बीच का ठहराव ज्योत की तरह जलने लगता है ।

'' आपकी साँसों से ज्योत बुझ गई है सूर्यदेव ...!'' त्रिकालदेव की जुबाँ से अपना नाम सुन कर मैं हाँफती आवाज़ में बोला , '' तेरी या मेरी ....?''

''ज्योत किसी की नहीं होती अन्तर्यामी....! ज्योत उसी की होती है जो उसे जलाना जानता है ...! '' त्रिकाल देव किसी अडोल पहाड़ की तरह मेरे सामने आ खड़ा हुआ है ।

जैसे ही कोई सूत्र हाथ आता है वो पहाड़ बन मेरे सामने आ खड़ा होता है । पहाड़ से माथा मारने वालों का क्या हश्र होता है ये जानते हुए भी मैं पहाड़ से माथा टकराने लगता हूँ । जर्रा-जर्रा हो दूर बिखर जाता हूँ । कुछ पलों के लिए चुप्पी फैलती है फिर एक हाथ कुछ तलाशने लगता है । कभी लगता है जैसे वो किसी के पीछे है ...कभी लगता है जैसे कोई चीज उसके पीछे है । कौन किसका पीछा कर रहा है , ये रहस्य त्रिकाल देव अपने पैरों से बांधे फिरते हैं....

'' पैरों को बाँधने से सफ़र नहीं रुकता ...! पर ध्यान रहे कि सफ़र वहाँ से शुरू करो, जहाँ से संसार सफ़र करना बंद करता है !'' पहाड़ की चोटि पर खड़ी संदला मुझे आज भी नीचे की तरह इशारा करती दिखाई देती है ।

मैं जब भी नीचे देखता हूँ , त्रिकाल देव ऊपर की ओर देखने को इशारा करता है । जब ऊपर देखता हूँ , पहाड़ की चोटि पर बैठी संदला दिखाई देती है । वह कहाँ की कहाँ पहुँच गई है । सोच में पड़ा मैं उस तक मुश्किल से पहुंचा था । अमरनाथ की यात्रा से वापसी के वक़्त रास्ते में रात पड़ गई थी । मैं बाकी साधुओं के साथ एक धर्मशाला में रुका । वहाँ दिल्ली-दक्षिण के साधुओं का जमघट था । जलपान  के बाद सिद्ध गोष्ठी शुरू हो गई थी। चल रही गोष्ठी में जब संदला का जिक्र आया , मैं चौकन्ना हो गया । जिस साधू ने जिक्र किया था  मैंने उसके साथ नजदीकियां बढा लीं । काफी देर चली चर्चा के बाद वो काफी हद तक खुल गया । जब मैंने संदला देवी के दर्शनों के लिए विशेष रूचि दिखाई , वो सामने पहाड़ की तरफ इशारा करता हुआ बोला , ''बड़ी चंडाल देवी है भक्त ....! किसी को पैर तक छूने नहीं देती ... अगर तेरी रूह दर्शनों से शांत होती है तो जा .....!''

साधुओं का जमघट छोड़ मैं अकेला ही पहाड़ की ओर चल पड़ा । मेरे पैरों में सफ़र था या भटकन पता नहीं । ये भी ध्यान नहीं कितना समय चलता रहा । पहाड़ गगन चुम्बी था । चढाई चढ़ते-चढ़ते मेरी पादुकाएं टूट गईं । जब ऊपर पहुंचा , प्रभात होने वाली थी । चिड़ियाँ चहक रही थीं । संदला देवी का मंदिर मेरे सामने था । मंदिर में घंटाल बजने की आवाज़ आ रही थी । शंख बज रहा था । गेरुए चोले पहने साधवियाँ घूम रही थीं । मेरी नज़र उनके चहरों पर फिसल रही थी ...पर कोई भी चहरा मुझे खीँच नहीं पाया । जो खीँच सकता था वो तो अन्दर था ....

'' अन्दर आ जाओ सूरज ! ..सूर्य उदय होने से पहले ही पहुँच गए हो ....!'' मुझे खींचने वाली आवाज़ संदला की थी ।

वही आवाज़ ! वही रंग- रूप ! वही सुगंध और वो ही आकर्षण । कितनी मुद्दत बाद दर्शन-दीदार हुआ था । मैं उसके सामने मन्त्र - मुग्ध सा बैठ गया । इस संसार से उस संसार की बातें करती वो कब मंदिर से बाहर ले गई ...कब आकाश में सूरज चमक उठा ..और कब वो मुझे पहाड़ के किनारे ले जाकर खड़ी हो गई कोई सुध-बुध नहीं थी । मैं उस वक़्त अपने आप में आया  जब संदला ने आकाश की तरफ देख कर नीचे बहती नदी की तरफ इशारा किया ,'' नीचे देखो सूरज ! आपकी जगह आकाश में नहीं , नीचे नदी में है ...और याद रखो रौशनी, आकाश का सूरज देता है ...नदी का सूरज नहीं ...!''

उस का इशारा समझ मैं रीढ़ की हड्डी तक ठंडा पड़ गया था । अभी संभल भी नहीं पाया था कि वो फिर बोली , '' मैं धरती से बहुत ऊपर उठ आई हूँ ...! अब आप जाओ , जाकर धरती नमस्कार करो ....!''

उसकी बातें सुन मैं धरती से पहाड़ की ऊँचाई नापने लगा था । मेरे सर पर हाथ रख वो आलोप हो गई । नीचे उतरते वक़्त मैं कुछ ज्यादा ही गहरे उतर गया था । वहाँ जहाँ दूध पीती संदला के साथ मैं बैठा हूँ ...जहाँ हम तोतली जुबाँ में लड़ रहे हैं ...एक दुसरे को छेड़ रहे हैं ....मिट्टी में खेल रहे हैं । ....गुरुदेव की लम्बी दाढ़ी हँस रही है । हमारी जोड़ी उनके पीछे जा रही है । वैदिक - शास्त्रों के नियमों की बारिश हो रही है .... हमारी काया भीग रही है....जवानी उतर रही है .... चरित्र का निर्माण हो रहा है .... हमारा ध्यान समाधि में जा टिका है ।

'' बैठे हुए बड़ी देर हो गई है ,, रोशनीवर ! ..रात भी आधे से ज्यादा गुजर चुकी है । अब जरा विश्राम कर लें !'' त्रिकाल देव मुझे सुलाना क्यों चाहते हैं ...?

कहीं इसमें उनकी कोई मंशा तो नहीं ...?
वो जो चीज तलाश रहे हैं , कहीं मैं उसमें अड़चन तो नहीं ? इसके पीछे राज़ क्या है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा । क्यों न उससे ही पूछ लूँ , '' मैं तो मुद्दतों से बैठा हूँ त्रिकाल देव ! विश्राम की जरुरत तुझे है ....!''

'' नहीं बाबा मैं तो शुरू से ही विश्राम में हूँ । अब थोड़ा खेलना चाहता हूँ .. जब बच्चा ठाकुर के द्वारे में से बाहर निकल कर मिट्टी में खेलता है ...उसको खेलता देख शिव-शंकर अपने उपासक पुजारी को भी भूल जाते हैं ...!'' यानी कुएँ में गिरे त्रिकाल देव के अन्दर मैं बोल रहा हूँ ।
वो सृष्टि का कौन सा खेल खेलने जा रहा है ..? प्रभु की लीला बड़ी बेअंत है . उस का कोई आर -पार नहीं . मुझे पूरा ज्ञान है कि झुला झुलाने वाले हाथ ' स्वै' को जीत लेते हैं , पर झुला तोड़ने  वाले हाथ क्या करते हैं ? शायद  वही  कुछ  जो मैंने किया . दरअसल जो मैंने किया है वो मैंने किया ही नहीं है . करने करवाने वाला तो कोई और है .  मैं तो एक नमित मात्र हूँ . लेकिन सिर्फ नमित कहने से भी मन शांत नहीं होता . चेतना बार-बार उन पलों को पकड़ने लगती है जिन पलों में मैं पहली बार वो सुगंध है . उस का कोई आर -पार नहीं . मुझे पूरा ज्ञान है कि झुला झुलाने वाले हाथ ' स्वै' को जीत लेते हैं , पर झुला तोड़ने  वाले हाथ क्या करते हैं ? शायद  वही  कुछ  जो मैंने किया . दरअसल जो मैंने किया है वो मैंने किया ही नहीं है . करने करवाने वाला तो कोई और है .  मैं तो एक नमित मात्र हूँ . लेकिन सिर्फ नमित कहने से भी मन शांत नहीं होता . चेतना बार-बार उन पलों को पकड़ने लगती है जिन पलों में मैं पहली बार वो सुगंध महसूस की  थी . उसमें कोई ऐसी खीँच थी कि मेरा आसन  हिल गया ..ध्यान टूट गया . ख्यालों में अजीब लालसाओं की नदी बहने लगी . मैं वृन्दावन की ओर चल पड़ा . ज्यों ही बांसुरी बजी गोपियों का इक समूह  प्रकट हुआ  . मैं नृत्य करने लगा , गोपियाँ नहाने लगीं . मैं उनके वस्त्र चुराने लगा , वो शोर मचाने लगीं , मेरा ध्यान टूट गया . सामने संध्या की पूजा समाप्त कर संदला तहखाने की ओर  जा रही थी , पर मेरा ध्यान अभी भी स्थिर नहीं हो रहा था . इच्छा हो रही  थी कि गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग को दूध से धोऊँ , घंटाल  बजाऊँ    , पूरी शक्ति से शंख नाद करूँ  और शिव की मूर्ति के आगे डमरू बजा  तांडव करने लग पडूँ ....

'' शिवों का नाच पैर बाँध कर नाचने जैसा काम होता है सूरज...!'' एक बार सवाई-बंधन के बारे में बताते  हुए गुरुदेव ने मेरी तरफ ध्यान से देख था . ....

पर मैं जितना अपने आप को बाँधने की कोशिश करता मेरा वजूद उतना ही बिखरता जाता . बिखराव की अवस्था में एक शाम मैं संदला से चर्चा छेड़ बैठा था , '' संदला ...! ये खजुराहो की मूर्तियों  वाला मंदिर कितना असभ्य है ..! कितना अश्लील ... देखते ही लज्जा आती है ...!''

'' सांसारिक दृष्टियों से देखोगे तो खजुराहो में काम वासना ही नज़र आएगी ...उनको देखने के लिए अंतर्दृष्टि की जरुरत है सूरज ....!'' अंतरध्यान  हुई संदला मुझे हिला कर रख गई थी , '' और ये भी देखने की जरुरत है कि वो मूर्तियाँ सिर्फ बाहर हैं , मंदिर के अन्दर कोई मूर्ति नहीं . अन्दर साक्षात् परमात्मा विराजमान हैं ...!''

संदला की बातें सुन उस वक़्त बड़ी लज्जा आई थी जब उसने मेरे माथे के बीच ऊँगली रख कहा था , '' तूने उन मूर्तियों के आसन ही देखे हैं , तूने कभी उनके चेहरे नहीं देखे . उनके चेहरों पर समाधि लगी हुई है सूरज . यत्न करो मूर्तियों वाले मंदिर  के अन्दर प्रवेश करने का ...यत्न करो ....!"

उसके बाद मैं यातना की हद तक यत्न करने लगा था . तपती रातों में धूनी लगाता , अग्नि मन्त्रों का जाप करता . सर्द रातों में एक सौ एक घड़े भर कर रखता , सुबह जल प्रवाह करता . पर मन में ठहराव  फिर भी न आता . जल प्रवाह करते वक़्त संदला  स्नान करती दिखाई  देती  . धूनी की आग में से उसकी  सुगंध उठने लगती . मेरा माथा तपने लगता , देह किरणे छोड़ती . धरती मुझे खींचने लगती . उसे हटाने के लिए मैं तपिश  छोड़ता . जब आँखें लाल सुर्ख हो जातीं मेरी रूह में जंगल उग आता , पत्तों की खड़-खड़ सुनाई देती . खड़ाऊओं की ध्वनि सुनाई देने लगती ...कोई ऋषि सा आता दिखाई देता , जैसे ही मैं उनके चरण छूने लगता वह अपना चोला उतार कर दूर फेंक देता . उसकी नंगी देह देख मैं भाग उठता , पर ज्यादा दूर भाग भी न पाता कि एक वृक्ष से टकरा कर गिर जाता  . वो वृक्ष मुझे किसी सुंदरी की देह सा लगता  . मैं पहचान लेता हूँ वो चन्दन का वृक्ष  था . मैं उसके पत्ते तोड़ता , शाखाएं तोड़ता , उसके साथ लिपटी बेलों के फूल तोड़ता और फिर उस पर संदली जल का छींटा  देता . ठीक वही वक़्त होता जब वृक्ष में से संदला प्रगट हो जाती . मैं आँखें बंद कर लेता , वो आलोप हो जाती . पर उसकी सुगंध में से उठती खीँच मुझे द्वन्द में डाल देती . मैं सोचने लगता कि गुरुदेव के साथ मन की हालात सांझी करूँ या न करूँ ..? अंतरयुद्ध मेरे बस से बाहर होता जा रहा था . पर गुरुदेव के साथ मन की व्यथा सांझी करने से पहले ही .......


'' पहले तो आपको कभी इतना कमजोर नहीं देखा शक्तिवर .....! फिर आज क्यों ...?'' त्रिकाल  देव को कैसे समझाऊँ कि पहले तो .......

'' पहले क्या था ...?'' नहीं , ये त्रिकाल देव नहीं बोला था...

उसका मौन बोला था . वो मौन की भाषा अनुवाद करने वाला पंतजलि है . उसकी रूह कुंडली जागरण से बातें करती है . जिस वक़्त वह मौन धारण करता है मैं उसके मौन में डुबकियां लगाने लगता हूँ . लेकिन समझ नहीं पाता कि उसकी ख़ामोशी का अर्थ क्या है ? शायद उस अनर्थ जैसा कोई अर्थ जो उस दिन नहर में डूबा हुआ था . मैं और संदला बेडी  में सवार थे . उत्तम देव महाराज के बाद गद्दी -दर- गद्दी बहुत कुछ बदल गया था . ज्योत बेडी में लाई जाती . हम बचपन से ही गुरुदेव के साथ जाने लगे थे . ज्योत कभी मेरी हथेली पे तो कभी संदला की  हथेली पर होती . गुरुदेव चप्पू  चलाते . पर उस दिन संदला चप्पू चला  रही थी . हम ज्योत लेकर वापस आ रहे थे कि अचानक ही ..... हाँ अचानक ही हवा में वो सुगंध तैरने लगी . मुझे कोई खींचने लगा . मेरा माथा तपने लगा , देह किरणे  छोड़ने लगी . मेरी हथेली काँप  गई . नहर के पानी  में से एक  लहर  उठी , कोई बेड़ी  में आ चढ़ा . मैंने आँखें  फाड़ -फाड़  कर  देखने  की कोशिश की , साक्षात्  पराशर  ऋषि थे . मैंने  आँखें  झपकी वो मेरे अन्दर समा गए . मैंने संदला की बाजु पकड़ ली उसके हाथ से चप्पू छूट गया . ''ये क्या कर रहे हो सूरज  ...? देखो हमें आँखें देख  रही हैं  ...!''

कोई नहीं देख सकता संदला ...!'' संदली बदन सूँघता हुआ पराशर ऋषि मन्त्र पढने लगे .

नहर के पानी के ऊपर दूर-दूर तक घनी धुंध फैल  गई थी . बेडी हिलने लगी . जब होश आया मेरा गेरुआ चोला संदला के वस्त्रों में उलझा हुआ था . अपनी देह को ढकती  हुई वो बेडी में बुझी हुई ज्योत को देखे जा रही थी. चोला पहनते हुए मैं नहर के किनारों  की तरफ देख रहा था . उत्तम देव महाराज की कुटिया से वापस आते हुए जलती हुई ज्योत संदला की हथेली के ऊपर थी . मैं  तेज गति से चप्पू चला रहा था.  लम्बे समय से तहखाने में बीमार गुरुदेव आखिरी सांसें गिन रहे थे . संदला  पता नहीं कौन सी गिनती में उलझी हुई थी . मैंने ही मंदिर में आरती की , संदला तो गर्भ गृह तक भी नहीं आई थी . जब मैंने गुरुदेव की हालात बता विनती की ,वो ज्योत उठा मेरे आगे-आगे चल पड़ी . जैसे ही हमने तहखाने में प्रवेश किया गुरुदेव की आवाज़ ने समुन्द्र की तरह हमारा मंथन कर  डाला , '' आज रास्ते में ज्योत बुझ गई थी ...?''

हमारी नज़रें झुक गईं . प्राण बंधन टूट गए . जैसे ही पलकें ऊपर उठाईं गुरुदेव शरीर त्यागकर  जा चुके थे . उनके शव का बोझ मैं आज तक उठाये फिर रहा हूँ . इससे मुक्त होने के लिए मैंने क्या-क्या उपाय न किये  होंगे ....

'' चुपचाप लड़ते रहो सूरज ...! कहने से अंतर युद्ध नहीं जीता जा सकता !'' गुप्तवास होने से पहले वो एक बार बोली थी ....

बारह महीने का गुप्तवास उसकी कायाकल्प कर गया था . जलपान व नित्यक्रम की  क्रिया के बाद वह समाधि लीन हो जाती या शवाशन में पड़ी रहती . दिन में सूर्य की रौशनी उसके लिए श्राप थी बाकी वक़्त तहखाना  ही उसका निवास होता . कुटिया में आई संगत अक्सर उसके दर्शनों की इच्छा प्रकट करती पर मैं संदला की इच्छानुसार हाथ जोड़ देता , ''संदला देवी भक्ति रत है ..भक्त जनों..!  एक दिन वो जरुर प्रकट होगी ...!''

आई हुई संगत को तो मैं टाल देता पर खुद किधर जाता.... ? मेरे अन्दर  जैसे  कुछ चिपक सा गया था . संदला को जलपान कराने का शमां सबसे ज्यादा परलोककारी होता. उसके माथे के बीच लगा चन्दन का टीका मुझे चीर कर रख देता . मुझसे उसकी तरफ देखा न जाता . मैं बर्तन उठा जल्द से जल्द तहखाने से बाहर आ जाता , लेकिन बाहर कौन सी शांति थी ? सारा -सारा दिन भटकन  सी लगी रहती . जब शरीर जवाब दे जाता मैं मंदिर के पास लगे बरगद की जड़ों पर सर रख देता . उन जड़ों में भी नग्न देह घुमने लगती , धड संदला का होता , चेहरा माँ का . उस देह के ऊपर एक और देह आ गिरती . उसका धड मेरा पर चेहरा मेरे पिता का होता . बेडी फिर डूबने लगती .  धुंध उतरने लगती . मैं साक्षी बन माता-पिता का समागम देखने लगता ....

'' यह साक्षी भाव नहीं पशु भाव है ...!'' गुरुदेव का शव मेरी अंतरआत्मा झिंझोड़ गया ..
मैं उस पशु का पीछा करने लगा  पर वो मेरी पकड़ से बाहर होता गया ....
. मैंने यज्ञ  की व्यवस्था की . पशु काबू में आता गया . मैंने उसके माथे पे हल्दी , सिंदूर मल दिया . मन्त्रों का जाप करने लगा . मैं तलवार उठा अंतर्ध्यान हो  गया . पूरी शक्ति से दोनों हाथों को हवा में लहरा एक ही वार में पशु का सर धड से अलग कर दिया . मेरा दामन खून के छींटों से भर गया  . रूह बेदाग हो गई . कुछ दिन शांति रही फिर वही आहट सुनाई देने  लगी . अन्दर का पशु फिर दौड़ने  लगा . मैं सोच में पड़ गया कि मैंने आहुति किसकी दी थी ....?

'' आहुति तो मैंने दी है ...!'' गुप्तवास  में  नौवें महीने संदला के गर्भ से त्रिकाल देव की चीख निकली थी . ...

उसकी चीख  सुन मैं माँ की गोद में जा गिरा . आँखें खुलते ही मैंने सबसे पहले जन्मदात्री का चेहरा देखना चाहा था  पर जिस वक़्त आँखें खुलीं उनमें रौशनी नहीं थी . त्रिकाल देव की आँखों की तरफ देखते हुए संदला बोली थी , '' इनमें मैं अपने हिस्से की ज्योत जगा चली हूँ ...!''

उसे तीन महीने दूध पिलाने के बाद एक रात अचानक ही वह कहीं चली गई थी .

'' न कोई जाता है न कोई आता है ....! यह तो चक्र मात्र है बाबा ...!'' त्रिकाल देव ने खड़ाऊ  उतार मेरे चरणों पर रख दिए हैं ...

' ओम ' का जाप करता हुआ वह मेरी परिक्रमा करने लग पड़ा है . पशु की आहुति देने से पहले मैंने भी उसकी परिक्रमा की थी . पर मेरे हाथों में तो हथियार था . क्या त्रिकाल देव के पास भी हथियार है ...? मैं भय से जकड गया हूँ . यह तो वही भय है जो संदला पीछे छोड़ गई थी .वह तो माँ की तरह मुक्त हो गई पर मैं चौरासी के चक्कर में पड़ गया था . किस तरह काटूं यह चौरासी ....? किस तरह त्रिकाल देव का जन्म नश्र करूँ ..? मैं धर्म संकट में पड़ गया था . दिन-रात सोच में पड़ा रहता . दुनिया को क्या जवाब दूंगा ..? किस तरह इतना बड़ा रहस्योदघाटन करूँ ...? क्या बतलाऊँगा संदला कहाँ गई ..? कोई जवाब न था . लाजवाब हुआ मैं किसी सूत्र की तलाश में था . रात 'ओम' शब्द की लोरी देते वक़्त जब त्रिकाल देव का चेहरा देखता वह मुझे अपना पुनर्जन्म लगता .

''पुनर्जन्म  का कोई अर्थ नहीं . मनुष्य की औलाद  ही उसका पुनर्जन्म होती है ...!'' एक रात गुरुदेव की कही बात मेरा संकट मोचन बन गई थी .

त्रिकाल देव, गुरु जी का पुनर्जन्म बन गया था . लोक-स्वीकृति लेने के सिवा अब  और कोई चारा  न  था . मैंने  अच्छा किया या बुरा ? पता नहीं, पर लोगों में जय-जयकार होने लगी . मेरी सुनाई कथा लोगों के लिए पवित्र कथा बन गई , पूरा इलाका नत-मस्तक हो गया . बच्चे-बच्चे की जुबां पर था कि , गुरु जी ने फिर जन्म ले लिया है . इस जन्म में उनका नाम त्रिकाल देव है  . उत्तम देव महाराज की कुटिया में अद्भुत शक्ति है . दो साल का त्रिकाल देव आँखों से अँधा है पर फिर भी माता-पिता को अंगुली से कुटिया तक लाया और कहता है कि मैं ही गुरुदेव हूँ . मेरा घर गज्जण माजरा गाँव में नहीं मेरी जड़ें कुटिया में हैं . पर माता-पिता की दुनियावी समझ कुछ समझ नहीं पा रही थी . परमात्मा का रूप समझ वे उसे कुटिया में ही छोड़ गए थे ...

फिर मुझे कुछ भी कहने की जरुरत न पड़ी थी लोगों की जुबां ही लोगों का सच बन गई . सच की कसौटी पर खरा उतरने के लिए मैंने त्रिकाल देव का नामकरण किया . उसकी आत्मा शुद्धि के लिए यज्ञ हवन किया . 'ओम' शब्द की घुट्टी दी . वेद शास्त्रों  का ज्ञाता बनाया . ज्यों-ज्यों वह वक़्त की रफ़्तार  पार करता गया उसके ज्ञान की सीमा असीम होती गई . लोगों के मन में उसने गहरी जगह बना ली . लोगों को उस पर अंध विश्वास हो गया था . . अपने प्रवचनों में  वह अक्सर कहता , ''मनुष्य को जीवन में अंध विश्वास जरुर करना चाहिए लेकिन शर्त यह है कि जिस पर आप अंध-विश्वास कर रहे हों वह अँधा न हो ...''

उसकी बात सुन पंडाल में सन्नाटा छा जाता . मेरी आँखों की ज्योति  मद्धम पड़ने लगती . मैं सूरज में पड़े दाग को देखने लगता . वह भी मेरी ओर देखने लगता . मैं उसे धोने के उपाय ढूँढने लगता ...

और फिर एक दिन मैंने उपाय ढूंढ भी लिया था ....

अपनी खोज को अंजाम देने के लिए मैंने एक खास दिन निश्चित किया . वो सूर्य ग्रहण का दिन था . पहले इसी दिन कई बार मैं हरिद्वार भी गया था , गंगा स्नान कर वापस आ जाता . पर एक वर्ष ऐसा लौटा कि फिर वापस न जा सका , अगर जाने का ख्याल भी आता तो लोगों की बातें याद आ जातीं . गंगा में स्नान करते हुए वे बातें कर रहे थे , '' कहते हैं सूरज ने भी किसी का कर्जा देना है ....!''

मैंने त्रिकाल देव का कर्जा देना था . उसका ऋण चुकाने के लिए मैंने 'कवच-कुंडल' दान करने की प्रतिज्ञा कर ली .

प्रतिज्ञा पूर्ति वाले दिन कुटिया में विशेष व्यवस्था की गई . शिव महिमा के बाद खुला भंडार चलाया गया . दीन-दुखियों का कष्ट दूर करने के लिए ' मेडिकल-शिविर' का आयोजन किया गया . शहर में से डाक्टरों की टीम बुलाई गई . एक-एक दुखिया उसके पास जाता , मशवरा व दवाई लेकर पंडाल में आ बैठता . जिस वक़्त पंडाल में तिल धरने की भी जगह न थी मैंने चल रहा प्रवचन शिखर की ओर मोड़ लिया . पहले तो आकाश में लगे सूर्य-ग्रहण की ओर देखा फिर मैंने पास बैठे त्रिकाल देव के सर ऊपर हाथ धर दिया , ''आज मैं ग्रहण से मुक्त होता हूँ ...मैं त्रिकाल देव को अपनी आँखें दान करता हूँ ....!''

'' हे दानवीर!....मेरा वक़्त अब समाप्त हो गया !...मैं अब चलता हूँ ...!'' मेरी परिक्रमा छोड़ त्रिकाल देव धरती पर गिर पड़ा . ...

मैं उसके हाथ पकड़ने लगा हूँ , वह मेरे चरण छू रहा है . उसकी छुअन में हजारों स्पर्शहैं . एक को पकड़ना चाहता हूँ दूसरा छूट जाता है पर वह बात नहीं छूटती जो उसने अस्पताल में कही थी .

आँखें दान कर जिस दिन मैं वापस कुटिया लौटा  मेरा वनवास समाप्त हो गया था . मैंने कोई युद्ध जीत लिया था . उस जीत में कोई गहरा असर था ,  मुझे  हर शै  में इक नया अर्थ नज़र आने लगा . हाथों की काया कल्प गई . मैंने दीयों की कतार जला दी . धरती-आकाश जगमगा उठा . रौशनी में घूँघट निकाले माँ जाती हुई दिखाई दी . मैंने उसका पल्ला पकड़ना चाहा वह गायब हो गई . मैंने पिता का पीछा करना चाहा वो सर के बल उल्टा चलने लग पड़े ....मैं  चित्त गिर पड़ा ....आँखों की  जगह से पट्टी खुल गई .भीतरी मन  की इच्छा दरिया की तरह बह चली . मैं अस्पताल की ओर भागा  .  डाक्टर से  अपनी इच्छा जाहिर  की . मैं चाहता था कि जब त्रिकाल देव की आँखों से पट्टी खुले उसे सबसे पहले मैं नज़र आऊँ .

  मेरी इच्छा पूर्ति करते हुए ज्यों ही डाक्टर ने पट्टी खोलनी शुरू की अस्पताल में सन्नाटा छा गया . सिर्फ साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी . 'अपनी आवाज़' सुनने के लिए मैं साँस रोके खड़ा था . उस वक़्त मेरा इम्तिहान था जब डाक्टर ने कहा , '' हाँ त्रिकाल देव !...धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलो !...फिर सामने देख कर बताओ कि तुम्हें क्या नज़र आ रहा है ...?''

''कुछ नहीं डाक्टर !...मुझे तो दूर-दूर तक धुंध नज़र आ रही है . जैसे त्रिकाल देव नहीं  शिव का बोला डमरू  हो ...

नजदीक ही कहीं पराशर ऋषि की खड़ाऊ बजी थीं ..

पहाड़ पर खड़ी संदला नीचे नदी में दिख रहे सूरज की ओर इशारा कर रही थी ...

उस रात मैं शिवलिंग पर सर रख खूब रोया था ...

'' सफ़र से जाने वालों को रोकर विदा नहीं किया जाता बाबा ...!''मेरी पलकों पर हाथ  फेरता हुआ त्रिकाल देव उठ कर दूर जा खड़ा हुआ था .......

'' सफ़र !...कौन सा सफ़र ..? यह तुझे अचानक ही क्या हो गया त्रिकाल ...?'' मैं उसे पकड़ना चाहता हूँ ...

''अचानक नहीं  मुनिवर !....संसार में कुछ भी अचानक नहीं होता !.... तहखाने में उसकी आवाज़ शंख की तरह गूंज रही थी .

पर यह तो बता तू जा किधर रहा है ....? मेरी आवाज़  बैठने लगी थी .....

पता नहीं बाबा !...एक सुगंध सी मुझे अपनी ओर खींचे चली जा रही है ......माथे पर चन्दन का टीका लगाये त्रिकाल देव तहखाने से बाहर की ओर चल पड़ा है .....

मैं उसकी कदम-दिशा देखना चाहता हूँ ...पर कैसे देखूं ....?
मेरी आँखें तो वह ले गया है ..........

                                          समाप्त .....
लेखकः जसबीर 'राणा '
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः९८१५६५९२२०
**********************************
अनुवाद :हरकीरत 'हीर' १८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुरहॉउस - , गुवाहाटी-७८१००१ (असम) फोन- ९८६४१७१३००



18 comments:

  1. do sanson ke beech kee ek ajeeb see kashmkash bhari hai is katha mein..
    Jasvir Rana ji se parichay aur unki laghukatha ka anuvad kar prastuti hetu aabhar!

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  2. लघु कथा बहुत अच्छी लगी। राणा जी को बधाई। आपका धन्यवाद।

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  3. नहीं निर्मला जी ये लघु कथा नहीं है ....
    मै क्रमश :लिखना भूल गई थी .....अभी तो १५ पेज बाकी हैं ....

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  4. राणा जी की शैली अच्छी लगी.
    बाकी कहानी का इंतज़ार है.
    सलाम

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  5. ज्‍योत जगाने वाले हाथों को पकड़ा नहीं जाता
    चलि‍ये कथा पूरी करि‍ये हम इंतजार में हैं

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  6. stutya prayaas hai aapkaa Har keeratji ,der se aaye, aapaaye, aapke, blog par is baat kaa afsos rahegaa .aap achchhaa kaam kar rahin hain do bhaashaaon ke beech kaa setu bannaa aasaan nahin ,kyonki pul doosron ke liye hotaa hai ....
    veerubhai

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  7. बाकि कथा का बेसब्री से इन्तजार है,

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  8. aapka lekhan sach mein sarahniya hai.. :) badhaai..
    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है : Blind Devotion - सम्पूर्ण प्रेम...(Complete Love)

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  9. दीपावली के पावन पर्व पर आपको मित्रों, परिजनों सहित हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ!

    way4host
    RajputsParinay

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  10. आपका पोस्ट मन को प्रभावित करने में सार्थक रहा । बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट 'खुशवंत सिंह' पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।

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  11. Khoobsurat abhivyakti...Thanks for sharing

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  12. बहुत बहुत धन्यवाद् की आप मेरे ब्लॉग पे पधारे और अपने विचारो से अवगत करवाया बस इसी तरह आते रहिये इस से मुझे उर्जा मिलती रहती है और अपनी कुछ गलतियों का बी पता चलता रहता है
    दिनेश पारीक
    मेरी नई रचना

    कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: माँ की वजह से ही है आपका वजूद: एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख ...

    http://vangaydinesh.blogspot.com/2012/03/blog-post_15.html?spref=bl

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  13. क्या क्या नही है इस कथा में । महाभारत भी । जसपाल जी को बधाई आपको भी ।अगले भाग की प्रतीक्षा है

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