Saturday, February 15, 2014

(कहानी ) सुरजीत कत्ल कांड   -- जसवीर राणा  (अनु: हरकीरत हीर )
मुझे जाना पड़ेगा , नहीं तो लड़ाई  …!!
मेरी लड़ाई की तरह मेरे भी कई रूप थे।

मुझे अपना सबसे प्यारा रूप वह लगता , जिसमें से 'वे ' प्रगट होते थे। जिस वक़्त 'वे ' प्रगट होते , मैं मैं न रहता , मैं 'वह ' बन जाता था। 
'' वह हमें आखिर तक रोकता रहा  ....!'' बताती हुई माँ उस रात की बातें छेड़ देती ।

जिस रात जंड पंजाबी 'सुर पंजाब की ' बना।  मुझे कई सुर सुनाई दिए थे .
 ''आज इस धरती से संगीत विदा हो गया है   ....!'' तानसेन की लाश पर बैठा अकबर रो रहा था। 
मुझे आलिंगन में लिए माँ कह रही थी , '' जा तेरी उम्र लोकगीत सी लम्बी हो  ....!''

उसकी रसूल हमजातोव जैसी दुआ जीत गई थी।  मेरा हर तीसरा दिन बुक होता।  अखाड़ा - दर - अखाड़ा  लगता।  मैं आटोग्राफ देता थक जाता।  पर लोगों की मुहब्बत देख सकून आ जाता।  जिस दिन जंड पंजाबी ज्यादा अपसैट होता वह फोन पर उल्टा सीधा बोलने लगता , '' याद रखना आकाशदीप  .... टोनी जल्द ही अपनी कंपनी  …। ''

'' पहले मैं कंपनी लेकर आया था ! अब कम्पनियां लेकर आया हूँ  .... ! पहले दो टुकड़े किये थे  … अब इतने टुकड़े करूँगा कि गिनती नहीं होगी  … !'' टोनी की आवाज में यह कौन बोल रहा था ? उसका चेहरा देखने के लिए मैं आईने के सामने जा खड़ा हुआ।  पर अपनी शक्ल के बिना कुछ नज़र न आया।  मैं पगड़ी की ओर देखने लगा।  यह मेरा सबसे बड़ा इनाम था।  हँसी ठिठोली करती भीड़ में जिस वक़्त लोगों ने मेरे सर पर पगड़ी रखी मैं सबके पैरों पड़ गया था।  लोगों ने मुझे कंधों पर उठा लिया। मैंने दादा जी वाला गीत छेड़ लिया। नारों से आस -पास गूंज उठा , 'सुर पंजाब की  … जिंदाबाद  … !!''
'' हिन्द -पाक दोस्ती  … जिंदाबाद  … !''  पगड़ी की ओर देखते हुए मुझे वाहगा बॉर्डर की आवाज़ सुनाई देने लगी। 
' इक शाम  … हिन्द पाक दोस्ती के नाम ' प्रोग्राम में मैं भी शामिल हुआ था।  उस दिन दिल्ली से लाहौर तक शुरु हुई बस वाहगा बॉर्डर से गुजरनी थी।  दोनों तरफ के लोग रोक तोड़ने के लिए उतावले थे . पर काँटों वाली तार पर फौजियों का पहरा , मोमबत्तियाँ बुझाने वाली हवा का सा खड़ा था।  पहले पार की भीड़ में से मुझे वे चेहरे नज़र आ रहे थे जिनके बारे बड़ी माँ बताया करती थी।  मेरा दिल करता था उनसे 'उनके ' बारे पूछूं जिनका  मैं अंश था । 

'' हम सभी एक ही मिट्टी के अंश हैं।  '' मंत्री के भाषण के दौरान दोनों तरफ सहमी हुई चुप्पी थी। 
पर धरती को सलाम कर ज्यों ही मैंने अलाप छेड़ा हर चेहरा खिल उठा।  दोनों तरफ की भीड़ तालियाँ बजाने लगी।  मैं बस में बैठी सवारियों की तरफ हाथ कर-कर गाने लगा -'' बस चली मितरां दी , कोई चडियो ना राह दी सवारी  .... सुरां जिन्नां जित लाईआं चल्ले वणज ओह करन वपारी  … बस चली मितरां दी  .... !!''
गीत गाते -गाते मेरी काया पलटने लगी।  मेरा ज़िस्म गा रहा था पर रूह वाहगा बॉर्डर पार कर गई।  दोनों तरफ की भीड़ 'बस का गीत ' सुन रही थी।  मैं सन सैंतालीस की सुरें सुन रहा था।  फरीदाबाद की मिटटी मुझे आवाजें दे रही थी।  मैं दादा जी को 'आवाजें मार रहा था ' … '' दा   .... दा   .... जी  ....!!''
                                                                              ( सुर + जीत = सुरजीत )
'' ओये ठहर जा आकाश पुत्तरा ! … पहले ज़ख्म तो ढक लूँ  ....!!''
बाईं बाँह पर लगे तलवार का घाव देख मैं सामने दीखते कमाद की ओर देखने लगा . कमाद में हलचल सी हुई गन्नों का आगा हिलने लगा , मैं भाग खड़ा हुआ ।  जानी- पहचानी आवाजें आने लगीं।  मैं अंदर चला गया।  उफ्फ  .... ! शेर खान लोग बिरजू पंडित की लड़कियों के साथ …
'' ना  … शेर खान ना !  … खुदा का वास्ता है  ....!!'' कुफ्र रोकने के लिए मैं आगे बढ़ने लगा। 
'' पीछे मुड़ जा फकीर साईं  … खुदा का वास्ता आगे मत बढ़ना …!!''

नीचे पड़ी लड़की को छोड़ शेर खान मुझे मोड़ने लगा पर मैं नहीं मुड़ा न आगे बढ़ सका।  कमाद में कहर बरप गया।  लड़कियों की चीखें ,चमकती तलवारें और मेरी पथराई आँखें। आँख  की फेर में ही सब गलत सही गुजर गया।  एक तलवार मेरी ओर भी उठी पर शेर खान मेरी ढाल बन गया था।  कमाद से निकल वह पता नहीं किधर को  …
जब मुझे होश आई बाईं बांह पर तलवार का काट था और कमाद में नंगी लड़कियों की लाशें  …!
मैंने आँखें बंद कर लीं।  अवचेतन में मरदाना उतरने लगा , रबाब बजने लगी , बाबा आसमान की ओर ताने मारने लगा , मैं तड़प उठा। 
आज सुबह से ही सुर नहीं लग रहा था।  ज्यों ही रबाब की तारों पर गज़ फेरता आँखों के सामने से कोई वाक़या गुजर जाता।  मेरा सुर टूट जाता।   रबाब की तारों से गज छुआने की देर होती इसके सुर हाशमपुर लाहौर की बातें करने लगते।  साईं मियाँ मीर का मकबरा रोशन हो उठा।  मैं सुर बदलता , ननकाना साहिब की धरती गा उठती। जिन दिनों में हाजी लोगों का काफिला मक्के की ओर जाता  मैं ईदु को कहता , '' मक्के मदीने वाले को मेरा सलाम कहना  .... !''

'' हरिमंदर साहिब को भी हमारा सलाम कर देना  … !'' जब मैं अमृतसर आता , पिंड के लोगों का सलाम कबूल करते -करते हाल -बेहाल हो जाता।
जिस वक़्त बिरजू पंडित गंगा स्नान के लिए निकलता उसकी झोली भी सलामों से भर जाती।  फिर पानियों में लकीर किसने डाल दी थी ? मैं सोचने लगा। .  रबाब बिस्तर पर रख दी।  खेतों की तरफ खुलती खिड़की की ओर से मुँह घुमा मैं गली की ओर खुलती खिड़की के पास जा खड़ा हुआ।  पूरी गली सूनी पड़ी थी।  कई तो घरों को ताले मार गए पर ज्यादातर घरों के दरवाजे चौपट खुले थे दुकानों में भी कोई शय बाकि  नहीं बची थी।  बिरजू पंडित की दुकान तो आग से फूँक दी गई थी।  लूट -मार करने वालों का गिरोह अबदाली का सा घूमता।  उनकी रूह में कोई गज़नवी घुस गया था।  पिंड के मंदिर -गुरूद्वारे भी सलामत नहीं छोड़े गए। . मैं बहुत चीखा चिल्लाया पर किसी ने मेरी बात नहीं  सुनी।  सबको अपनी -अपनी पड़ी थी।  पता नहीं क्या हो गया था खलकत की मति को ? मैं हर किसी को पूछता , '' हमारी सदियों पुरानी  साँझ किधर गई  …? ''
'' यह तो वही जनता है फकीर साईं  ....!'' कहने वाला गंडासा उठा हमलावरों के साथ भाग उठता। 
सारा मुल्क ही भाग रहा था पर मैं नहीं ।  धरमी चलते वक़्त तक रोती रही थी , '' सरदार जी ! .... मैं कहती हूँ अभी भी चल पड़ो  … आपको इन बच्चों की कसम  …।!''
'' उसे अल्ला पाक की कसम !  … जिसने फकीर साईं को हाथ भी लगाया तो  …!'' जिस वक्त तलवारें लिए भीड़ मेरी तरफ आई मैं घर की सरदल पर खड़ा था।  जीलू , ईदू और रफीक लोगों का जत्था हमारे बीच आ खड़ा हुआ।  जिस रात पिंड पर हमला हुआ उससे पहली रात ही वह धरमी को बच्चों के साथ काफिले में छोड़ आये थे।  वह  हिंदुस्तान जा रहा था।  पर मेरा वतन न हिंदुस्तान न पाकिस्तान था मेरा मुल्क तो मेरी जन्म माटी थी।  उसे छोड़कर मैं कहाँ जाता ? जहाँ भी जाता वहाँ मेरी रबाब नहीं बजती।  यह तो फकीर ज़ाहर बली का मजार ही था जहां रूहों -तेहों की बात चलती। मैं फकीर साईं का जाहो -जलाल देखने लगता। वह मलंगी आलम में गाता चलता जाता , '' तूं इक वारी  .... तूं इक वारी हस्स दे खुदा दिआ बंदिआ  … !!''

हँसना उसके लिए बंदगी सा क्रम था।  जिस वक़्त हम मंदिर , मस्जिद और गुरूद्वारे होकर आते मुझे फकीर साईं की बात सच्ची लगती। 
एक बार तो उसने हद ही कर दी। हम धर्म द्वारों में सजदा करने जा रहे थे ,जब तेलू  राम के घर के सामने से गुजरने लगे ,दरवाजे के सामने खड़ा उसका छोटा लड़का रो रहा था ,जाते -जाते ज़ाहर बली फकीर रुक गया और नीचे बैठ लड़के को हँसाने लग पड़ा।  जब लड़का हँस पड़ा मुझे वापस मुड़ने का इशारा कर फकीर साईं भी हँसने लगा , '' बस सुरजीत ! अब धर्म -द्वारों की ओर जाने की जरुरत नहीं  … !''
'' अब चिंता करने की जरुरत नहीं सुरजीत भाई  … हम बिरजू पंडित को परिवार सहित काफिले में छोड़ आये हैं। '' फकीर की बात सुनकर एक बार तो मैं चिंता मुक्त हो गया था। 
फिर उसकी लड़कियाँ वापस कैसे आ गईं ? यह सवाल मुझे डराने लगा।  बिरजू पंडित और रफीक लोगों के बुजुर्ग , हमारे बुजुर्गों के साथ जालियाँ वाले बाग़ में शहीद हुए थे।  हमारे घरों में वह 'खून से भीगी मिटटी ' घड़ों में संभाली पड़ी थी।  बैसाखी वाले दिन उस मिटटी को सजदा किया जाता।  जनरल एडवायर को लानत दी जाती।  जिस तरह फकीर ज़ाहर बली ने उस अंग्रेज को दी , जो कहता था , '' ईस्ट इण्डिया कंपनी तो हिंदुस्तान की धरती पर जन्नत बसाने आया है।  ''

''  ओये नेकबख्त ! … पूरी धरती पर उस मालिक का माल है !  तुम ऐसे ही कंपनी की मशहूरी करते जा रहे हो  … !'' फकीर साईं की बात सुन गोरा चेहरा लाल हो गया था। 
पिंड की गलियाँ भी लाल हो गई थीं।  खूनी मंजर देख -देख मैं अँधा हुआ जा रहा था। यदि फकीर साईं ज़िंदा होता उसके दिल पर बड़ी चोट लगती ।  शायद यह भी कंपनी की कोई नीति थी . रोना शुरू होने से पहले ही हँसने वाली रूह विदा कर दी।  जिस रात ज़ाहर बली को गोली मारी गई मैं बदबख्त आदमी घर आ गया  था।  मुर्शद का आखिरी दीदार करने से वंचित जो रहना था।  जिस वक़्त मैं मजार पर पहुँचा साईं की लाश कफन से ढकी हुई थी।  खलकत का रुदन थम नहीं रहा था।
कत्ल वाली रात फकीर साईं बंदगी में लीन था।  घोड़ों के टापों की आवाज सुन उसकी सुरति भंग हो गई . घबराया हुआ अंगरेज अफसर नज़दीक आ खड़ा हुआ , ''ऐ फकीर ! टुमने इधर से कुछ बागी लोगों को भागटे हुए डेखा  …? ''
'' किसने किसको देखा  .... किसने किसको नहीं देखा  .... यह तो वही जानता है … पर तुम क्यों परेशान हो ?'' पहले तो तसबी वाला हाथ आसमान की ओर उठा , फिर अंग्रेज की ओर सीधा हो लिया। 
'' टुम हमें सीधा आदमी नहीं लगटा  .... सीधा -सीधा जवाब डो हामको  .... !''
होल्स्टर में से रिवाल्वर निकाल अंग्रेज अफसर आगे बढ़ने लगा।
फ़कीर ज़ाहर बली कुछ बोला नहीं।  दोनों हाथों को आसमान की ओर उठाये पहले तो वह जोर -जोर से हँसा फिर अंग्रेज की ओर देखकर गाने लगा , '' तूं इक वारी हस्स दे खुदा दिआ बंदिआं  … !''
' ठाय .... य  ..… !' की आवाज़ के साथ ही ऊपर उठे हाथ नीचे गिर गए थे ।
जिस वक़्त फकीर साईं को दफनाया गया दूर -दूर से खलकत आई थी।  सूरज अस्त होते ही वापस परत गई।  पर मैं मुर्शद की कब्र पर अडोल बैठा था।  जीलू , ईदू , रफीक और बिरजू पंडित मेरा दर्द समझते थे।  पर वे भी क्या करते।  मुझे सब्र करने के लिए कह , उठकर  चलने के लिए कहने लगते।  मैं उनके साथ चल तो पड़ा पर मुझे सारी रात नींद नहीं आई।  रबाब उठा मुड़ कब्र पर आ बैठा।  सुबह होने तक मलंगी आलम में गाता रहा , '' जिस धरती मेरा मुर्शद सुत्ता , जिस धरती मेरा बाबा जणिआ  ...ओस धरती ताईं  वंडिआ , तूं इक वारी हस्स दे खुदा दिआ बंदिआ  .... ! ''
मैं उनके ऊपर हँसने लगा , जो मुझे भागने के लिए कह रहे थे।  पर मैंने भागना नहीं गाना सीखा था ।  जिन पलों में मैं पैरों में घुँघरू बांधकर नाचता सारा आलम पैरों पर आ गिरता।
मैंने अपने पैरों की ओर देखा , नीचे कुछ गिरा था या फिर गली वाला दरवाजा खड़का था।  मैंने आले में रखा दीया उठा लिया। सारा चौबारा रौशनी से भर गया।  मैंने बंद की बाकी की खिड़कियाँ भी खोल दीं।  चारों दिशाओं की हवा अंदर आने लगी।  दीये की लौ कांपने लगी।  मैंने उजाड़ पड़े पिंड की ओर देख बिस्तर से रबाब उठा ली , तारों पर गज़ फेरा  …। पर यह क्या  …? मेरी अँगुलियों से कुछ अनछुआ सा टकराने लगा।  मेरा सुर टूट गया।  ध्यान सीढ़ी की ओर चला गया।  शायद कोई चौबारे की सीढ़ियाँ चढ़ा आ रहा था  …।

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मैं चौबारे की सीढ़ियाँ उतरने लगा।
रूह अभी भी दादा जी को आवाजें मार रही थी पर बाँयी बाँह   …!
मेरी बाँयीं बांह में तीखा दर्द था।  मुझे डॉ खान पर शक होने लगा।  पहले तो उसकी दवाई बहुत जल्दी असर करती थी।  कहीं वह भी डॉ मेहता की तरह 'एक्शन कमेटी 'का मैम्बर तो नहीं बन गया ? जिस दिन 'न्यू भाई घनयै अस्पताल ' के आगे धरना दिया गया।  कामरेड धीरा बता रहा था , '' यह चाणक्य नीति है दोस्तों ! यह ज्यादा गिनती लोगों की ओर से कम गिनतियों को , कम गिनतियों के माध्यम से खत्म करवाने की स्कीम है।  जो डॉक्टर रब्ब का रूप होता !  … डॉक्टर मेहता ने उस रूप को तोड़ा ही नहीं बल्कि मरोड़ा भी है। 
डॉ मेहता हमारा फैमिली डॉ था।  उसके हाथ में खानदानी यश था।  द्वा लेने आये लोगों को वह बड़े गर्व से बताता , '' हमारे फादर साहब भी डॉक्टर थे।  लोगों ने उनका नाम भाई घन्हैया  रखा हुआ था।  सन सैंतालीस में उन्होंने अपनी जान पर खेल मुसलमानों के ज़ख्मों पर पट्टियां रखी थीं।  ''
पर जिस दिन से डॉ मेहता ने तोड़- मरोड़ शुरू की थी मेरा विश्वास उठ गया था।  वह ' कम गिनती ' लोगों को एक्सपायरी डेट वाली दवाई दिए जा रहा था।  उसके इंजैक्शन से पाले जमादार की घरवाली के अपंग बच्चा पैदा हुआ ।  वह तो अनहद के जन्म के वक़्त मुझे भी कह रहा था , '' लोगों की अफवाहों में मत आ आकाश  … सरगम को यहाँ दाखिल करवा दे , डॉ सीमा उसका पूरा ख्याल रखेगी  .... !''
उसकी बात सुनकर मैं डर गया था।  डॉ सीमा उसकी पत्नी थी।  उसपर कई बार कई दोष लगे थे।  उन दोषों की तारें 'एक्शन कमेटी ' के साथ जुडी हुई थीं . पर वो इन बातों  को अफवाह ही बताती।  जिस दिन अबॉर्शन करवाने आई लड़की की 'नग्न फ़िल्म ' बनाने वाला मामला तुल पकड़ गया ,सारी अफवाहें सच हो गई थीं।  सी बी आई की रेट पड़ी।  डॉ मेहता के अस्प्ताल से सैंकड़ों मानवी पिंजर मिले थे।  हर पिंजर का कोई न कोई अंग गायब था।  तफ्तीस के दौरान एक बड़ा खतरनाक सच सामने आया. डॉ मेहता एक 'गुप्त जश्न क्लब ' का प्रधान था।  वह क्लब अमीर  लोगों के लिए काम करता।  पहले कम गिनती की जवान लड़कियों और बच्चियों को अगवा किया जाता फिर उनके साथ सैक्स किया जाता आखिर कत्ल कर उनके कीमती अंगों को तस्करी के लिए निकाल लिया जाता। 
कुछ समय से डॉ खान भी मेहता की सी  बातें करने लगा था।  जिस दिन मैं उससे ज़ख़्मी बाँह पर स्टिच लगवाने गया।  पट्टी करते वक़्त वह कहने लगा , '' तुम तो गाते तो आकाश  … किसी सुंदर सी मॉडल से मिला कभी यार ....!''
'' तुम सब ढाडी ( धार्मिक गायकी ) कला का कौन सा मॉडल हो  …?'' डॉ खान वाली भाषा बोल रहे ढाडियों को मैंने इतना ही पूछा था कि वे भड़क गए ,'' यह चैनल गायकी का जमाना का बेटा  …तेरे ये मॉडल भी ज्यादा चलने वाले  नहीं  …! ''
मैंने उनका जत्था एक टी. वी. चैनल पर देखा था।  पहले चुनावों में वे पहली सरकार के गुणगान गा रहे थे और दुसरे चुनाव में दूसरी सरकार के।  उनकी ओर देख कर जब मैंने कहा , '' ढड -सारंगी के खिलाफ गाने वाला कभी सच्चा ढाडी  नहीं हो सकता  …'' तो वे गातरा - कृपाण  निकाल मेरे ऊपर झपट पड़े थे , '' क्यों नहीं हो सकता  ....?''
लोगों ने हमें बड़ी मुश्किल से अलग किया।  वे मुझे गालियाँ निकाल रहे थे , मैं उनपर हँस रहा था।  जो अपने आप पर हँस रहा था वह कोई ढाडी नहीं वह तो दादा जी जैसा बंदा था . उसके हाथ पकड़ी तलवार काँप रही थी।  उसे कोई भ्रम हो गया था  .... !
                                                                                      ( मैं उर्फ़ दसोधिया खान )
नहीं , भ्रम नहीं  …… !
हँसने की आवाज़ फिर आई।  मैं उसके बीच का सुर पकड़ने लगा।  आवाज़ उस स्थान से आई थी जहाँ बैठ वह गाता था . मैं उस स्थान पर जा खड़ा हुआ।  पर ज्यादा देर खड़ा न रह सका।  स्थान छोड़ पीछे हट गया।  कोई हँसता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा।  मैं उसका पीछा करता हूँ ,  वह मेरा पीछा करता है।    मैं पानी वाला लोटा उठा वजू करने लगा। ज्यों ही नियत बाँधी मेरा सुर लगना शुरू हो गया।  मैं नमाज़ पढ़ने लगा। पर सलाम फेरने के बाद फिर वही सिलसिला शुरू हो गया। 
'' या मौला !  … तौफीन बख्श  .... !'' बिरजू पंडित की दुकान की ओर देख मैं फिर उसी आग में जलने लगा।
मेरे सर पर कोई जनून सवार था।  जिस वक़्त खबर मिली कि बिरजू पंडित की लड़कियाँ शेर खान ने उठवा लीं , मुझे बेहद गुस्सा आया था।  बड़ी मुद्दत से मेरी दोनों लड़कियों पर आँख थी।  अपने हिस्से की जन्नत छीनने वाले को मैं कैसे बख्श देता।  बड़ी छानबीन की।  शक वाले घरों की तलाशी ली पर मताबी हुस्न हाथ न आया। शिकार लेकर शेर खान पता नहीं किस पताल में उतर गया था।  खोज खबर लेता जिस वक़्त मैं खुदा  बख्श के कमाद में घुसा , मेरी मति मारी गई थी . कमाद में गोरे -चिट्टे ज़िस्म पड़े थे पर मुर्दा।  मुझे दिखना बंद हो गया।  मैंने बारी -बारी दोनों से भोग किया , जब अंदर की आग ठंडी हुई  मैंने बिरजू पंडित की दुकान को जा आग लगाई।  दोनों लाशों को उसमें ले जाकर फेंक दिया  , '' जा बिरजू भाई !  … तू भी क्या याद करेगा कि लड़कियों को आग नहीं दिखाई  …।!''
वैसे तो हर तरफ आग ही आग थी।  पर मेरे अंदर का ताप बड़ा तेज था।  मैं हर काफर को फनाह कर देना चाहता था।  सदियों पुरानी साँझ का इतना ही सिला दिया।  लाशों की रेल गाड़ी भर हमारी ओर भेज दी गई।  हमारे भाइयों को भगा -भगा कर मारा ,औरतों की बेज्जती की।   जालिमों का गुनाह काबिल -ए - माफ़ नहीं था।  मुझसे जितना बन पाया मैंने किया।  पर मैंने जो भी किया वह मेरा ही गुनाह बन गया।  उसके भार तले दबा मैं चौबारे पर आ बैठा था। 
जिस दिन से यह चौबारा मिला था  एक पल भी चैन से नहीं गुजरा था।  हर पल बेचैनी का आलम रहता।  जिस वक़्त रात टिक जाती मेरी हालत और बदतर हो जाती।  चौबारे की खिड़कियाँ बजने लगतीं  सीढ़ियों पर चढ़ने -उतरने की आवाज़ आती।  दो नग्न लाशें मेरे ऊपर आ गिरतीं।  मैं दहल जाता।  पानी पिने के लिए घड़े में गिलास डालता पर ज्यों ही गिलास मुँह से लगाता उसका पानी खून बन जाता।  मैं गिलास फेंक देता।  खड़का सुन नींद खुल गई थी ।  मैं लम्बी -लम्बी साँसे लेने लगा  , या खुदा  …! रहम कर   ....! ''
'' तू अपना कर्म कर दसोधिया खान  …!'' आवाज़ गली में से आई थी या चौबारे से , मैं आवाज़ की दिशा ढूंढने लगा।  
मेरी नज़र सुरजीत के हथियारों पर जा टिकी।  मैंने उनकी ओर हाथ बढ़ाया। पर मुझे उन्हें चलाने का बल नहीं आया।  एक सुरजीत था जो नश्तर की तरह उन्हें चलाता।  उसके हथियार चलाने के लिए जो जान चाहिए थी अभी वो मेरे हाथों में नहीं आई थी।  पर मैं किली पर टंगी तसबी (माला ) के नज़दीक आ गया ।  मेरे सामने रबाब पड़ी थी।
'' जरा नज़र इनायत कर  .... ! '' दूर कहीं मरदाना बोला।  वह अक्सर मुझे रात में दिखाई देता।  सुरजीत वाले कपड़े पहन कर आता। पर बोलता कुछ नहीं।  मैं घबरा जाता।  वह कपड़ों पर लगे खून की ओर इशारा करता।  नवाब मलेरकोटला उनके पक्ष में आवाज़ उठाने के लिए कहता है।  . मुझसे बाँह ऊपर न उठाई जाती।  साईं मीयाँ मीर ईंट नीचे रखने के लिए कहता।  भार से मेरी आँख खुल जाती।  मैं चौबारे से नीचे की ओर देखने लगा ।  दूर -दूर तक सूनी गली दिखाई दी । 
रौनक सूनी करने वालों में मैं सबसे मोहरी था।  जिस दिन ज़ाहर बली की मजार के पास धर्म - परिवर्तन हुआ मुझे बड़ा आराम मिला था।  काफिरों की दाढ़ियाँ , केश काटे गए।  बोदियाँ काट जनेऊ फूंक दिए गए . कलमा पढ़वा गाय का मांस खिलाया गया।  . उस रात मैं पहली बार चैन की नींद सोया था . आँख लगी ही थी कि गली वाला द्वार खड़का था।  मैंने सुध ली पर कोई नज़र न आया।  मैं मुड़ परत आया।  द्वार फिर खड़का , कोई धीरे -धीरे कह रहा था , '' बदला मत लो  … बदलो  .... !''
मुझे बदलने वाला यह कौन था ? मैंने तो पिंड का नक्शा बदल दिया था।  यह कौन है मुझे रोकने वाला ? मैंने तो सुरजीत के लिए भी ऐलान किया था , '' यह फकीर नहीं  सिक्ख है सिक्ख  ....!इस काफिर का सर मैं कलम  करूँगा .... ''

जिस शाम मैंने उसे मारा पश्चिम में डूबता सूरज लाल था।  कोई आवाज़ मेरी राह रोक रही थी।  कदम उठाना भारी हो रहा था।  मैंने न जाने कितने बंदे कत्ल किये थे पर कभी इतना जोर नहीं लगा था . दरवाजा फलांगने से लेकर सीढ़ियाँ चढ़ने तक मेरी साँस उखड गई थी।  मैं धीरे -धीरे सीढ़ियाँ चढ़ा। तलवार पर पकड़ मज़बूत कर ली।  कोई मुझे उकसाने लगा।  मेरा खून खौलने लगा।  चेहरा तन गया। मैंने तलवार कस ली ,''  अब तो रबाब बजानी बंद कर ऐ काफर आदमी  ....! ''
'' मैंने रबाब शुरू ही कब की थी जो बंद कर देता  …। यह तो खुद ही बजती जा रही है  …! '' कहीं दूर देखते हुए उसने अपना सुर ऊँचा कर लिया।
 मैंने तलवार सीधी कर ली।  वह रकाब उठाये खड़ा हो गया।  मैंने हरकत की।  वह ऊँची -ऊँची आवाज़ में गाने लगा , '' तूं इक वारी   हस्स दे  … खुदा दिआ  … बंदिआ  … !! ''
इधर मैंने उसके पेट में तलवार घोंपी उधर उसका इक -इक लफ्ज़ टूटता चला गया। उसके बोलों में पता नहीं क्या था मेरे हाथों से तलवार गिर गई . मैं तलवार छोड़ रबाब उठाने लगा। नीचे गिरा पड़ा सुरजीत जोर -जोर से हँसने लगा।  उसकी हँसी लगातार मेरा पीछा कर रही थी।  मैं रबाब उठा सुर निकालने की कोशिश करने लगा  .... !

                                                            
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'' मैं वह सुर नहीं निकाल पाया  ....! '' सीढ़ियाँ उतरते हुए मुझे निरभै पापा की परछाई दिखलाई  दी।  मैंने पीछे मुड़कर देखा वहाँ कोई नहीं था।  फिर पापा के यूँ दिखने का क्या अर्थ हुआ ?  मुझे बड़ी माँ की बात याद आ गई। वह दादा जी की बातें सुनाती हुई  अक्सर कहा करती थी , '' सभी में एक रबाबी सुर होता है , जिसने वह सुर जीत लिया वो सुरजीत हो गया।  ''

'' हम इस तरह नहीं होने देंगे  …! '' मुझे ऊँगली सेधे खड़ा शिवा दिखने लगा। 
वह शहर की 'एक्शन कमेटी ' का प्रधान था।  जिस दिन वह धमकी देने आया मैं 'पगड़ी ट्रेनिंग सेंटर ' में पगड़ी बाँधनी सीख रहे लड़कों के पास बैठा था।  ज्यादातर लड़के दाढ़ियाँ -केश कटवाने में 'नम्बर वन ' हो गए थे।  इन लड़कों की साबूत सूरतें देखने के लिए मैंने एक छोटी सी कोशिश की।   ट्रेनिंग देने के लिए ' गुरु की नगरी ' का एक लड़का रख लिया था । काम चलने ही लगा था कि एक दिन शिवा आ गया।  उसकी धमकी से ट्रेनिंग सेंटर की गिनती कम होने लगी।  पर वह लड़का आखिरी दम तक कहता रहा , '' पंजाबी की पगड़ी पांच सिरों पर टिकी हुई है।  ''

'' ऐसी की तैसी पंजाबी की  ....'' एक दिन शिवा एंड कंपनी ट्रेनिंग देने वाले लड़के की दाढ़ी और केश कत्ल कर गए थे। 
मैंने उस वारदात का बड़ा विरोध किया।  अख़बारों में निंदा की।  जगह -जगह 'भाई तारु सिंह ' नाटक खेला। मुझे उस दिन चैन मिला जिस दिन सतीश अंकल ने रोष प्रकट करने के लिए एक सौ एक अखंड पाठ की लड़ी रखवाई।  उस दिन जंड पंजाबी के दफ्तर का उद्घाटन करने आया टोनी बनावटी सा अफ़सोस कर गया था।  उसके साथ आई जीना मुस्कुरा रही थी, '' बट इससे क्या फर्क पड़ता है मैन   .... ! ''
मैंने उसे बड़ा फर्क समझाया पर वह मुझे समझाने लग पड़ी , आप बोलता है कि आपका रिलीजन बड़ा स्ट्रांग है .... बट जब लादेन ने हमारे वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर अटैक किया तो वहाँ पर एक अफगानी और एक सिक्ख का शक्ल में फड़क करना मुश्किल हो गया  … ! हमारा लोग अफगानी का डाउट में सिक्ख आदमी को माँरने लगा  .... ! जब हमारी अनाउंसर लोग ने टी. वी. पर सिक्ख लोगों का ओरिजनल पहचान बतलाया । तब कहीं जाकर पीसफुल हुआ।  अब टुम हमको बटलाओ कि ट्वंटी वन सेंचुरी में भी हमारी अनाउंसर लोग को सिक्ख का पहचान क्यों बतलाना पड़ा  …? ''
उसका सवाल सुन मेरी आँखों के आगे ' एक दूसरे की पगड़ियाँ उतारती भीड़ ' नाचने लगी।  मैं अभी सम्भलने भी न पाया था कि जीना फिर बोल पड़ी , '' टुम किस -किस को बचाएगा ? जल्दी ही टुम्हारे शहर में हमारा मार्किट खुलने जा रहा है।  ''
उसकी बात सुन मैंने अपनी पगड़ी पर हाथ रख लिया।  मुझे निरभै पापा के पेट में ज़हर बनने वाली बात समझ आने लगी थी। 
                                                                                                      (लाहौर जेल से निरभै सिंह )

'' ले रोटी में भी कहीं  ज़हर होती है  … ! खा ले चार बुरकियाँ निरभै सिंह  …!'' निम्मे की समझौती सुन मैं रोटी वाली थाली की ओर देखने लगा।  रोटी के साथ मेरी कोई दुश्मनी नहीं थी पर न जेन क्यों मेरे अंदर ही नहीं जाती।   अंदर जाते ही जैसे ज़हर बन जाती थी।  पेट में दर्द शुरू हो जाता।  मैं बीमार पड़  जाता।  जिस दिन डाक्टर चेक करने आता पेट में ज़हर बनने जैसी कोई बात न निकलती।  'शायद कुछ जहरों का डाकटरी इलाज़ नहीं होता ' सोचता हुआ मैं रोटी खाने लगा।    पर रोटी बाहर को आ रही थी।  ज़िंदा रहने के लिए मैं रोटी खा गया।  कई बार मुझे जान की चिंता सताने लगती।  मैं धड़ाधड़ रोटियां खाने लगता . कैदी मेरे मुंह की ओर  देखने लगते । बैरक में आकर निम्मा कारण पूछता । 
कारण तो मुझे भी नहीं पता था।  मुझे तो बस इतना पता था कि कत्ल मैंने नहीं किया।  कत्ल करने वाला कोई और था।  वह तो पकड़ा न गया , मुझे जेल में बंद कर दिया गया।  मैंने कहीं नहीं जाना था , किसी ने मेरे पास नहीं आना था।  पर फिर भी कोई इंतजार था ।  मैं जेल की दीवार पर बैठे कौवों की ओर देखता रहता।  जब वे उड़ जाते मैं उदास हो जाता। 
मन की उदासी दूर करने के लिए मुझे निम्मा मिल गया था।  उसमें मुझे बड़े मामू नज़र आते।  वह मेरे ननिहाल के पिंड से था।  बंटवारे से पहले मेरे  ननिहाल- ददिहाल के पिंड अलग-अलग  नही थे।  पर बंटवारे के बाद दोनों के बीच कंटीली तार खड़ी हो गई थी।  एक रात निम्मा भूल से तार के  उस पार फलांग गया था ।  फौजियों ने दबोच लिया। वह जासूसी करने के दोष में कैद काट रहा था।  उसकी तरह मेरे मामू भी निर्दोष थे।  उनको समझ नहीं आई थी कि खेतों में बारूदी सुरंगे क्यों बिछ गई थी।  लड़ाई तो दोनों मुल्कों के बीच थी.. फिर खेतों को बीच में क्यों शामिल कर लिया गया ? इस इस बात को बिना समझे ही एक शाम वह गलती कर गया।  भूल से उसका पैर खेत में दबे बारूद पर पड़  गया।  धरती फाड़ता धमाका हुआ।  मामू सरहदी एरिये का शिकार बन गया।  चारे की जगह गड्डे पर उसकी लाश ही घर आई थी। 
भोग वाले दिन वापसी के वक़्त माँ एक जगह रुक गई थी।  उसके साथ मैं भी रुक गया , '' क्यों माँ रुक क्यों गई  ....? ''
'' यहाँ आकर मुझसे पैर नहीं उठाये जाते    ! '' कंटीली तार की ओर  पीठ  कर वह आँखें पोंछने लगी।
'' क्यों यहाँ क्या है ? '' मेरी बात सुन वह उस पार की ओर हाथ कर बोली थी , '' क्योंकि यहाँ उस घर की हद खत्म होती है।  ''
माँ जिस घर की बात कर रही थी मुझे वह घर याद आने लगा।  रोटी खत्म कर मैं वही बातें सोचने लगा जिनसे पेट में ज़हर बनती थी।  पिंड छोड़ने से पहले बिरजू ताऊ कहता था , '' पहले उनके अंदर ज़हर बनी थी  … अब इनके अंदर बनी पड़ी है।  अगर रोटी से ज़हर नहीं बनती तो मैं पूछता हूँ फिर बनती किससे है  …? ''
'' क्या पता किससे बनती है  … ! मुझे तो इतना पता है कि अमृत पीने से मरती है  …!'' मुझे दोबारा अमृत छकवा दे वापस परतती माँ माई भागो की तरह बोल रही थी। 
वैसे वह माई भागो नहीं थी।  कई बार वह रातों को उठ रोने लगती।  मैं उसे चुप करवाता , पर वह बताती  , '' मैं उसे अकेला छोड़ भाग आई थी  ....! ''
माँ की वहाँ से भाग आने के मज़बूरी मुझे दिल्ली जाकर समझ आई थी।  जिस दिन दिल्ली शहर को आग लगी ,मैं सतीश उनलोगों के पास बैठा था।  शरनी मुझे बार -बार रोकती रही।  कोई और मौका होता तो टाल दिया जाता . बिरजू ताऊ के भोग पर जाना लाजमी था।  जाना तो माँ ने भी था।  पर बीमार होने के कारण वह जा न सकी।  मैं आ न सका।  भोग से अगले दिन ही अकाल तख्त गिराने वाला तख़्त ढेर हो गया।  जनूनी आवाजें आने लगीं , दिल्ली से सिक्खों को रोड़े की तरह चुन लो  .... !''
आग भड़क उठी . कुदरती सतीश लोगों का मुहल्ला अच्छा था।  आसी -पड़ोसी कहते , '' घबराओ मत सरदार जी ! हमने आपका बाल भी बांका नहीं होने देना।  ''
मेरा तो बाल बांका न हुआ पर बचा भी कुछ नहीं।  सबकी राय थी , '' भाई साहब जान बचाने का अब एक ही तरीका है  .... आप दाढ़ी , केश  … ''
बेपहचान हुआ जिस दिन मैं पिंड परता तरह -तरह की बातें हो रही थी , '' फ़म्मण सिंह का ज्ञानी भी धर्म का पक्का न निकला   .... इससे तो अच्छा था खोपड़ी उतरवा आता  .... !''
 मैं दाढ़ी , केशों पर हाथ फेरने लगा।  दिमाग में भाई तारू सिंह की तस्वीर बनने लगी।  मैं सलाखों से जेल की ऊँची  दीवारे देखने लगा।  पर कुछ भी नज़र न आया।  मैं छिपकली बन गया।  देह दीवार पर चढ़ने लगी।  दीवार ऊंची होने लगी। मैं नीचे गिर गया। 
'' मेरे ऊपर क्यों गिरे जा रहे हो निरभै ? … कभी तो ढंग से सोया करो   …! '' मुझे परे ढकेलते हुए निम्मा बड़ -बड़ करने लगा।
सलाखें पकड़ कर ऊपर चढ़ने की कोशिश में मैं नींद में ही उसके ऊपर गिर पड़ा था।  मुझे बिरजू ताऊ की तरह चढ़ने का ढंग नहीं आता था।  एक वह था कि बस वही था।  जिस दिन बैसाखी की संक्रांति होती , निशान साहिब का चोला बदला जाता।  बिरजू ताऊ हर साल यह सेवा निभाता था।  सर पर केसरी परना , सफ़ेद कपड़े और नूरी चेहरा।  केसरी कपड़े का थान उठाये वह तारों से बंधी पीढ़ी पर जा बैठता।  ज्यों -ज्यों जयकार ऊँची होती जाती वह सत्तर फुट की ऊँचाई तय कर जाता।  निशान साहिब का चोला बदल जब वह नीचे उतरता , मैं पूछता ताऊ तुम इतनी ऊपर कैसे चढ़ लेते हो  .... डर नहीं लगता  …?
'' डर किससे लगेगा पुत्तरा !  । वह तो निशान साहिब की टीसी पर बैठा सुरजीत दिखता रहता है  … बस वही ऊपर चढ़ा देता है  … !'' 
ऐसा कहने वाला बिरजू ताऊ खुद ए के ४७  से डर  गया था। जिस रात बदोवाल गोली काण्ड हुआ उस रेल गाड़ी  में उसका लड़का सतीश भी था।  उसकी टांग में लगी गोली कोई निर्णय करवा गई थी।  वह फैसला उस दिन पक्का हो गया जिस दिन पिंड के पक्के दरवाजे में धमकी -पत्र चिपका हुआ देखा।  बनिये ब्राह्मणों को पिंड छोड़ कर जाने की धमकी थी।  पिंड वालों ने बहुत कहा , '' लो कहीं ये खेल है  .... तुम लोग आराम से रहो यहीं हम देखते हैं कौन साला आता है यहाँ  ....!''
पर जिस रात ए के ४७ आई सारा पिंड मौन रह गया।  
एक दिन ट्रक में समान लदाये बिरजू ताऊ खड़ा रो रहा था, '' शरणार्थी रहना कुछ लोगों की होनी होता है।  ''
मेरी भी होनी ही था , जो मुझे घेर कर मुड़ वहाँ ले गई जहां से चले थे। 
'' चले कहाँ थे यार ! … हम तो मुददतों से वहीँ खड़े हैं   .... !''
कंबल पर लेता निम्मा कुछ कह रहा था। 
मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।  सारा ध्यान उस बात पर लगा दिया जो मुझे सोने नहीं दे रही थी।  ज्यों ही आँख लगने लगती तलवारें खड़कने लगतीं , गोली चलने लगती , माँ चिल्लाने लगती , '' चलो अपने घर ढूंढें  .... ! ''
घर ढूंढने में मुझे कोई कठिनाई नहीं आई थी।  पिंड के बाहर का बरगद वैसे ही खड़ा था।  जिन गलियों में मैं खेला , पला-  बढ़ा उन्हें कैसे भूल सकता था ?  रशीद , नाज़ाम  , अख्तर और रमजान ने मुझे झट पहचान लिया।  जीलू और रफीक तो मर चुके थे पर ईदू ताऊ अभी जिन्दा थे।  वह सबकी खैर खबर पूछने लगा।  मैंने उससे बापू के बारे पूछा। 
'' अच्छा -अच्छा वह नेकबख्त सुरजीत ?  … वह  तो  .... ! '' उसकी बात सुनकर मेरे अंदर कोई सोया इंसान जाग उठा । 
शायद वह जागने का वक़्त भूल गया था।  जिस रात मुझे पुलिस ने उठाया वह इंसान न जगा।  मेरे छोटे साले को ' एरिया कमांडर ' कहकर पुलिस -मुठभेड़ बना दिया गया ।  वह इंसान फिर न जगा।  हिज़रत करने से पहले बिरजू ताऊ कश्मीरी पंडितों की तरह रोया था।  पर मेरे अंदर का इंसान फिर भी न जगा।  वह अब क्यों जाग पड़ा था ? सोच में पड़ा हुआ मैं बैरक में इस तरह चलने लगा , जिस तरह ईदू ताऊ के घर से निकल हमारे घर की ओर चला था। 
घर का दरवाजा खुला हुआ था।  मैं अंदर चला गया।  एक पल के लिए अपना ही घर बेगाना लगा।  मेरी चाल धीमी हो गई।  सीढ़ियां चढ़ते वक़्त मैं रुक गया।  चौबारे में बजती रबाब मुझे खींचन्र लगी ।  मैं ऊपर चढ़ने लगा।  ज्यों ही छत पर पैर रखा कुछ नीचे की ओर उतरता चला गया।  बापू वाली जगह बैठा एक मुस्लमान रबाब बजा रहा था।  मेरे खून में ज़हर फ़ैल गई।  मैं सन सैंतालीस वाली भाषा बोलने लगा।  , '' यह रबाब किसकी है  ....? ''
मेरा सवाल सुन तारों पर फिरता गज रुक गया। 
'' सुरजीत कहाँ है  …? '' मेरा हाथ कृपाण की ओर सरकने लगा । रबाब उठाये मुझे आलिंगन में लेने के लिए वह आगे बढ़ा , '' वह  … सुरजीत  .... ! उसका कत्ल तो  … मैंने किया था  … ''
'' वह मेरा बाप था  … '' पहले तो मैं दो कदम पीछे हटा फिर कृपाण निकाल उसकी छाती में घोंप दी । 
'' यह … तूने  .... क्या किया  .... भाई … ! मुश्किल से तो सुर निकलने लगा था  … ! '' नीचे गिरता हुआ पहले तो वह जोर -जोर हँसा , फिर बापू की तरह गाने लगा। 
मैं एक मुद्द्त से हँसने की कोशिश कर रहा था पर ज्यों ही होंठों पर हँसी आती मैं बेसुरा हो जाता।  बापू मुझे लानतें देता।  मैं भूलें बख्शाने लगता।  फकीर ज़ाहर बली हँसने लगता।  मैं रबाब माँगने लगता।  बापू मेरी पीठ थपथपाने लगता।  मैं रबाब बजाने लगता।  ज्यों ही सुर निकलने लगता मेरी आँख खुल जाती। 
'' नींद में सुर नहीं निकला करते निरभै सिंह  …।  चल उठ  …। ''
सर की ओर खड़ा निम्मा मुझे जगा रहा था।
मुझे उसकी पता नहीं अपनी हरकत पर हँसी  आ रही थी।
कहीं मेरी जेल तो नहीं टूट रही थी  .... !
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निरभै पापा का ख्याल आते ही अंदर कुछ टूट जाता था।
जो बात उनके अंदर मर गई वह मेरे अंदर सुरजीत हो गई थी। 
मैं साथियों से अलग सा हो गया था।  लड़कों की टोली छुपा -छुपी खेल रही होती तो मैं रबाब सीख रहा होता।  चौंदे वाले मोड़ पर साध्यों का डेरा था।  सर्दियों की रातों में वहाँ कवीशरी ( धार्मिक प्रवचन और गायन ) लगती . छोटी माँ और निरभै पापा तो सो जाते पर बड़ी माँ मेरी ओर देखती रहती।  मैं फटाफट स्कूल का काम खत्म कर लेता।  ऊपर स्पीकर खड़कता।  मैं दीवार से टेक लगा रजाई में बैठ जाता।  ज्यों ही जत्थे का मोहरी मंगलाचरण छेड़ता मैं एक ध्यान हो जाता।  कौलां  , पूरन भगत , राजा हरीश चन्द्र और प्रह्लाद भगत।  हर रात प्रसंग बदलता।  मेरे अंदर कोई तार झनझनाती ।  मैं घर बैठे ही साध्यों के डेरे पहुँच जाता।  कवीशर गा रहे होते।  मैं मंत्र -मुग्ध उनके सामने बैठा होता।  रात खिसकती जाती।  कविशरी के बीच का प्रसंग शिखर की ओर बढ़ता जाता।  जिस वक़्त आवाज़ आनी  बंद हो जाती मैं रजाई में लेट जाता।  पर नींद न आती।  गई रात तक मुझे कविशरी सुनाई देती रहती।
बड़ी माँ मेरा गीत सुनती रहती थी  ....!
जिस 'दिन सुर पंजाबी की  ' प्रोग्राम का आखिरी एपिसोड था।  हर चैनल का कैमरा हमारे शहर पर फोकस था . मैं , तृप्ति और जंड  पंजाबी ही फ़ाइनल राउंड में।   हर राउंड में कोई न कोई लड़का -लड़की मुकाबले से बाहर हो जाता।  सबमें एक नज़दीकी पैदा हो गई थी।  जाने वाले को आंसुओं से विदा किया जाता।  पर मैं सबके साथ रह कर  अलग था।  सब की नज़र मेरे ऊपर टिकी हुई थी।  ज्यों ही अनाउंसर मेरा नाम बोलती जजों की साँस रुक जाती।  मेरी तार झनझनाती ।  म्यूजिक बजने लगता।  मैं दादा जी का ध्यान कर बोल शुरू करता , '' जिस धरती ताईं वंडिआ , तूं  इक वारी   .... तूं इक वारी हस्स दे खुदा दिआ बंदिआ  .... !''
फ़ाइनल -राउंड का रिजल्ट आने तक मेरे नाम की तालियां बज रही थी। 
पर पता नहीं कौन सी सुरें मिलीं।
जंड पंजाबी ' सुर पंजाब की ' एनाउंस हो गया  .... . !
घर आये सतीश अंकल 'नहीं' में सर हिला रहे थे, '' हमारी तो सारी  उम्र ऊँचाई बराबर करते बीत गई  … क्या पता था एक दिन ये टावर सब से ऊपर उठ जायेगा।   … ! ''
मैं मोबाईल फोन वाले टावर की ओर देखने लगा।  निशान साहिब उससे नीच नज़र आ रहा था।  नज़र नीची किये बड़ी माँ दुपट्टे से ऐनक साफ़ कर रही थी।  मैंने उसकी ओर  ध्यान से देखा।  उसने ऐनक लगाई , छड़ी उठा कुछ देर आमने -सामने देखा , फिर सरगम की ओर देखने लगी।
मैंने वही बात होते देखी ।
अजीब सी बातें करती हुई बड़ी माँ आँगन में घूमने लगी , '' रेल गाड़ी   … शरनी  … जादू  …ज़ेल  .... हुक्का  … वह देखो चिट्ठी आ गई  … '' इस तरह की बातें वह चिट्ठी पढ़वाते वक़्त करती थी।  चिट्ठी उसके दिमाग पर कोई असर डालती थी या फिर  ....!
अजीब लीला समझने के लिए मैंने उसकी कुर्ती के खीसे (कुर्ती की जेब )पर नज़र टिका ली  ....!
                                                                                   ( बड़ी माँ का ब्यान )
मैंने कुर्ती के खीसे से चिट्ठी निकाल ली।  पढ़ना मुझे आता नहीं था।  जो भी आता मैं उससे पढ़वा लेती।  पढ़ने वाला तो उठकर चला जाता पर मैं सोच में पड़  जाती।  निरभै ने चिट्ठी में ये क्या लिख दिया था कि , '' मैंने दसौंधिया खान का कत्ल किया   … नहीं मैंने बापू का कत्ल किया  … नहीं , नहीं मैंने तो मस्से रंघड़ को मारा  .... मुझे उम्र कैद हो गई है  .... लाहौर जेल में हूँ   .... आप फ़िक्र मत करना   .... मैं मुक्त होने का यत्न कर रहा हूँ  .... !''
अजीब चिट्ठी थी।  हर बार एक ही बात लिखी होती।  पढ़ने वाले पढ़ -पढ़ थक गए थे।  मैं सुन -सुन हार गई थी।  क्या हो गया था निरभै की मति को ? कहीं उसका दिमाग तो नहीं हिल गया।  यह तो वही जनता है।  पर वापस लौटा जत्था तो उसके क़त्ल करने से पकडे जाने तक की घटना ही बताता था।  फिर वह कौन सी कहानी छेड़ी बैठा था  … !
'' कहानी और भी है !  … वह फिर बताऊँगा !  … पहले जीत लूँ  … ''यह सतरें लिख वह चिट्ठी बंद कर देता था।
कोई चिट्ठी इससे आगे न बढ़ती।  जब कि कितना ही कुछ आगे -पीछे बीत गया था।  कहाँ बिरजू तो कहाँ उसका बेटा सतीश ! और कहाँ ये सतीश का बेटा टोनी ? अभी तो बीती बातें ही खत्म नहीं हुईं थी इन्होंने नई बातें छेड़ लीं।  सतीश हर बार रोते हुए कहता , '' क्या बताऊँ बीजी ! … टोनी तो हाथों से निकल गया ! … जिस राह वह चल पड़ा है  … वह मक्का -मदीना और आनंदपुर की  ओर नहीं जाता  .... !''
'' राह तो भाई वह गंगा की ओर भी नहीं जाता  …!'' उसकी बातें सुन मैं भीतर तक हिल जाती।
स्थिर होने के लिए मैंने  चिट्ठी खीसे में डाल ली।  निगाह कोने में पड़े चरखे पर जा टिकी ।  मुझे शरनी दिखाई देने लगी।  चरखा कातती वह  धीरे -धीरे गाया करती थी ,टूट जाएं रेल ''  गड्ड़िये  … नी  तूं रोक लिआ ई चंद मेरा  .... !''
गाती -गाती वह कहीं दूर खो जाती थी।  मैं उससे भी दूर खो जाती।  मुझे वह रेल गाड़ी दिखने लगती।  जिस में बैठ हम इधर आये थे।  सहमे हुए लोग बातें कर रहे थे , '' कहते हैं दोनों ओर  से लाशों की गाड़ियाँ  भर-भर भेज रहे  हैं  …! ''
निरभै को जत्थे में भेज हम काफी खुश थे।  सब से ज्यादा मैं खुश थी।  गुरधामों के दर्शनों के लिए गया जत्था तो एक बहाना था।  असल निरभै की मदद से मैं उधर जा रही थी।  उससे उधर की कितनी ही बातें पूछनी थीं।  पर सुनना कुछ और ही पड़ा।  दिल्ली से आया सतीश बता रहा था , '' टोनी तो आज -कल रथ -यात्रा की बातें करता रहता है  ....!''
मैं काफी दुःखी हो गई।  वाहगे का रास्ता खुलने से काफी ख़ुशी हुई थी।  पर निरभै की करतूत से अंदर जल उठा।  मैं तड़प  उठी।  टोनी का चेहरा दिखने लगा।  मैं उसे रोकने लगी तो वह हँसने लगा।  धरती पर सोने की  मोहरें चिन रहा टोरड मल रोने लगा।  वह साहिबजादों के संस्कार के लिए जगह खरीद रहा था।  टोनी , जीना के पास कुछ बेच रहा था। 
'' खरा सौदा करना बड़ा कठिन है धरमी  .... !'' सुरजीत की आवाज़ मेरे पास से गुजर गई।
मैं छड़ी उठा खड़ी हो गई।  सूना घर मुझे काटने को दौड़ा।  सुरजीत को ऊपर छोड़ मैंने भारी गलती की थी।  इधर आकर भी क्या किया ? निरबै तो गया ही शरनी भी न बची।  रेल की पटरी पर टुकड़े हुई पड़ी थी।  जिन्होंने भागते हुए देखा बताते हैं पागलों की तरह गा रही थी , '' ,टूट जाएं रेल ''  गड्ड़िये  … नी  तूं रोक लिआ ई चंद मेरा  .... !''
मुझे ही पता है वह कितना कुछ अंदर रोके बैठा था।  मैंने अपना दुःख तो पी लिया।  पर उसका दुःख न पी सकी।  जिस दिन बचित्तर सिंह आया उसके साथ लड़कों की टोली भी थी।  मैंने उसे बता दिया , '' अब तू ही बता बचित्तर सिंह ! … ऐसी करतूत करने वाले गुरु के सिक्ख हो सकते हैं ?''
'' ये गुरु के सिक्ख नहीं  … काली भेड़े हैं ये लुटेरे ! … जो संतों के सिपाही नहीं वो खत्म कर दिए जायेंगे .... ! एक दिन बचित्तर सिंह ने कही बात पूरी कर दी। 
उन्होंने सारा जादू ग्रुप मार डाला  था।  अख़बारों में भी खबर छपी।  लोग बातें कर रहे थे , '' सिंहों ने ये तो बढ़ा अच्छा किया !  … जादू ने लोगों की बस की हुई थी …।!''
जो हमारी बस की वह मैं या शरनी ही जानते थे।  जादू सप्ताह भी न होने देता साथियों समेत आ धमकता।  रोटी -पानी खाकर मौज से लेट जाता।  दो लड़कों के साथ निरभै को बाहर पहरे पर खड़ा कर देता।  जब  रात टिक जाती एक असाल्ट (ए के 47 ) मेरी पड़पडी से आ लगती।  शरनी को जादू साथ वाली बैठक में ले जाता।  सुबह जाते वक़्त कानों में फूंक देता , '' अगर किसी के पास भाप भी निकाली  … परिवार समेत दफ्न कर देंगे  !'.... '
उनको मार बचित्तर सिंह खुद भी मर चूका था।  जालिमों ने झूठा पुलिस - मुकाबला बना दिया . नहीं तो मेरा भाई कहीं मरने वाला था ! वह तो जीता रहे सतीश जिसने कठिनाई के वक्त साथ दिया।  हर दुःख तकलीफ में मदद की।  अगर वह न पहुँचता आकाशदीप की पढ़ाई -लिखाई छूट जाती।  सारा परिवार बिखर जाता।  उसे दुआएं देती मैं ठंडी होने लगी।  हाथों से छड़ी गिर गई।  मुझे कंपकंपी छिड़ गई।  पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी।  मैं जल्दी -जल्दी काफिले के साथ चलने लगी । 
काफिला तेज रफ़्तार से चला जा रहा था।  सुबह होने से पहले पिंडी स्टेशन पहुंचना था पर राह में ही रात पड़ गई।  एक जगह रुकना पड़ा।  जिस वक़्त हमला हुआ , किसी को संभलने  का मौका तक न मिला।  कहर बरपा।  चार जनों ने मेरे साथ मुंह काला किया . जालिमों ने छोटी सी अमरी को भी न छोड़ा।  वह दर्द न सहार सकी और मर गई।  निरभै के साथ मैं हौले -हौले सरकती रही।  जब सुबह हुई तो काफिला मुट्ठी भर था।  कितनी ही लोग छपड़ का खून मिला पानी पी कर चलने की तैयारी कर रहे थे। 
'' मैं भी तैयारी कर रहा हूँ  ....!'' खून का गिलास पीता हुआ टोनी मेरा  खीसा खँगालने लगा।  
मैंने उसकी बांह पकड़ ली।  वह निरभै की चिट्ठी फाड़नी चाहता था।  मैं उस पर झपट पड़ी।  वह भाग गया।  मैं पोंछा उठा उसके कदमों के निशान साफ करने लगी . '' तेरीआं पैड़ा  .... मेरीआं पैड़ा  .... पैड़ा विच कुछ होर वी पैड़ा ....!! ''
पोंछा लगाना छोड़ मैं ध्यान से सुनने लगी।
आकाशदीप की आवाज़ आ रही थी। टोनी रथ लिए आ रहा था।  मैं चिल्लाने लगी , '' वह देखो  .... कंपनी  … आ गई  ....! ''
'' कोई नहीं आया बड़ी माँ !  .... यह तो मैं हूँ  .... ! '' नीचे गिरी हुई छड़ी पकड़ाती सरगम मेरी ऐनकें ठीक करने लगी।
मुझे साफ़ नज़र आने लगा।  सीढ़ियों के पास खड़ा सुरजीत कह रहा था , '' ज़िन्दगी ढूंढती यह मौत के नज़दीक आ गई है  .... रब्बा इसे मुक्त कर।  ''
मुक्ति की बात तो निरभै भी करता था।  मैंने उसकी चिट्ठी निकाल सरगम को पकड़ा दी।
एक बार फिर पढ़वाने में क्या एतराज था   .... !
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एतराज़ है !  .... गालोबल पिंड को हर पिंड पर एतराज़ है  .... ! '' मुझे टोनी की इस बात पर सख्त एतराज था।
उसकी 'जीना मियूजिक कंपनी ' ने जंड पंजाबी की कैसेट रिलीज की।  मेरी कैसेट ' मानव संगीत संगम ' वालों ने रिलीज की।  मेरी कैसेट सुपर हिट  हो गई थी।  जंड पंजाबी की कैसेट ने पानी भी न माँगा।  तैश में आया वह कहता , '' तुम सोये सुर जगा रहे हो आकाशदीप  …! ''
'' वह तो अच्छी गायकी से ईर्ष्या करनी कमजोर गायक की निशानी होती है  .... ! '' मेरा जवाब सुन शिवा ने ऐलान किया था , '' मैं सारे शहर में से तेरी कैसटें गायब करवा दूंगा   …।  ''
उसका चैलेन्ज मेरे सामने था।  जीना मार्केट में मेरी एन्ट्री पर पाबंदी लगा रखी थी । पर मैं आज सुबह का ही मार्केट जाने के बारे सोच रहा था।  ज्यों ही मैं चलने लगता बीती घटनायें हावी हो जातीं , जैसे मैं नए साल के प्रोग्राम में हावी रहा था।  ज्यों ही मैंने ' बस्स चल्ली मितरां  दी ' गाया कमजोर आशिकी वाली गायकी पिट गई।  जीना वाली लड़कियों का नखरा कमजोर पड़ गया।  मेरा गीत इतना तीखा था कि बहस का विषय बन गया। 
'' बहस करना बातचीत का सबसे बुरा तरीका होता है शिवा ! तू दलील से बात कर  ....!'' कालेज में छिड़ी बहस दौरान मेरा तर्क होता था।
पर शिवा एंड पार्टी तर्क रहित चलती।  सधारण ढंग से चली बात असाधारण बन जाती।  एक बार पंद्रह अगस्त वाले दिन बात बुरी तरह उलझ गई।  मेरा तर्क था ,'' यह राम मंदिर और बाबरी मस्जिद वाली तो लड़ाई ही गलत है !  … अगर कोई चाहे तो एक ही जगह पर दोनों बनाये जा सकते हैं  .... ! ''
'' नहीं बनाये जा सकते ! … वहाँ सिर्फ मंदिर ही बनेगा  ....!'' बाँह  पर त्रिशूल बनाये खड़ा शिवा फरमान जारी करने लगा।
जब गोधरा -काण्ड के बारे गलत बयानी करने लगा मेरे साथ खड़ी सबनम भड़क उठी।  शिवा अपनी छाती थपथपाने लगा।  बहस गलत मोड़ ले गई।  लड़के -लड़कियों का इकट्ठ हो गया ।   सरगम बेहोश हो गई।  उसे होश में लाते वक़्त प्रोफ़ेसर इरफ़ान कहता था , '' हिंदुस्तान एक बड़ी प्रयोगशाला है   … वोट बैंक के लिए यहाँ नए -नए प्रयोग किये जाते हैं। … ! ''
हमारी मैरिज रोकने के लिए भी शिवा ने प्रयोग किया था।  उसने सबनम के अब्बू -अम्मी को मज़हब का पाठ पढ़ा दिया मेरी छोटी माँ को भी भड़का दिया।  पर प्रोफ़ेसर इरफ़ान और सतीश अंकल लोग हमारे साथ थे।  उनकी हल्लाशेरी से ही मैंने कैसेट तैयार करवाई  … !
अपनी आवाज़ सुनने मैंने हर हालत में जाना था।
मुझे रोकने वाले वे कौन थे  .... !
'' तुम उनकी परवाह मत करना पुत्तरा   .... ! '' ऐनक ठीक करती हुई बड़ी माँ मेरी पीठ थपथपाने लगी। 
;उसकी थपथपाहट लेकर मैंने गाड़ी बाहर निकाल ली।  अनहद को आगे की सिट पर बैठा लिया।  सरगम मुझे सलाम करने लगी।  मैंने उसे इशारा किया तो वह नज़दीक आ गई।  मैंने ग्लास नीचा कर उसके कान में कहा , '' अपनी मुहब्बत के ऊपर मैं सात आसमान भी कुर्बान कर सकता हूँ ....! ''
                                                                                            ( ढाई अक्षरों की सरगम )
मुहब्बत आकाशदीप के लिए 'ढाई अक्षरों ' की बात थी।  इसी कारण मैं उसकी दोस्त बनी।  हमारी मैरिज का आधार भी जहनियत की सांझ थी। कॉलेज में भी हमने कई बार इकट्ठे गाया , '' तेरा मेरा सुर मिले , सुर बने हमारा  .... ! ''
'' सुर पंजाब दी मिस्टर जंड पंजाबी ! … पेश करते हैं पंजाबी सॉन्ग 'जीन वाली कुड़ी ' इज द मोस्ट पॉपुलर सांग ऑफ़ जंड पंजाबी करदा या  .... या  … हू   .... हू   .... ! ''  टी. वी. स्क्रीन की ओर  देख मैं हँसने लगी . क्या ऊट -पटांग गीत था।  मैंने टी. वी. ऑफ़ कर दिया।  सी डी प्लेयर ऑन कर आकाशदीप वाली डिस्क डाल ली। . सारा चौबारा गा उठा।  मैं नाचने लगी।  अनहद हँसने लगा।  मैं रुक गई।  मोबाईल की मैसेज टोन बजी थी . टोनी का मैसेज था।  मैं पढ़ने लगी , '
'' तू ढाई अक्षरों का अर्थ क्यों नहीं समझती यार  .... ! ''
मुझे टेंशन होने लगी।  मैसेज डिलीट कर मैंने मोबाईल ऑफ़ कर दिया।  . कितना वाहियात इंसान था।  मुझे शुरू से ही वह जाहिल सा लगा था।  जब भी आता उसकी हरेक हरकत में कोई न कोई चाल होती . मैं उससे दूरी बनाये रखती।  पहले आकाशदीप और बड़ी माँ नहीं मानते थे पर जिस दिन सतीश अंकल ने उसकी करतूतें बताई वे भी मान गए।  पर कुछ बातें सिर्फ मैं ही जानती थी।  टोनी मुझे अश्लील मैसेज करता रहता मैं डिलीट कर इग्नोर मार देती।  पर उसकी हरकतें बढ़ती जा रही थीं।  वह ' केंद्रीय एक्शन कमेटी ' का मैम्बर बन गया था।  कई बार अख़बारों में उसका ब्यान भी छपता , '' देश की शांति के लिए हमारी कमेटी एक यात्रा शुरू करने जा रही है  …… ! ''
'' यू स्टॉप इट   … ! '' मैं जल्दी से बिस्तर से उठ गई।
शो केश में पड़ा रथ का मॉडल फर्श पर दे मारा जो कल टोनी ने हमारी मैरिज एनवरसरी ' पर भेजा था।  तोड़ तो मैं कल भी देती पर सतीश अंकल का क्या कसूर था।  टोनी ने पैकेट उन्हें पकड़ा दिया था और उन्होंने हमें।  अंकल के जाने के बाद जब पैकेट खोला सब का दिमाग घूम गया था।  पर बड़ी माँ कहती , '' चलो कोई बात नहीं  .... बिरजू का पोता है फिर भी  .... ! ''
'' नहीं वह बिरजू का पोता नहीं हो सकता  .... ! ''
मुझे सतीश अंकल का रोता चेहरा याद आ गया।
मैं दादू जान वाली पेंटिंग की ओर देखने लगी।  इसमें आकाशदीप की जान थी।  वह घंटों इसकी ओर देखता रहता।  एक पल ऐसा होता जब उसकी आँखें बंद हो जाती।  वह रबाब बजाने लगता।  बड़ी माँ झूम उठती , '' शाबाश पुत्तरा  ! .... कोई तो जन्मा  … ! ''
'' जिस धरती मेरा मुरशद  सुत्ता , जिस धरती मेरा बाबा जणिआ !  …उस धरती ताईं वंडिआ , तूं  इक वारी  …तूं वारी  ह्स्सदे खुदा दिआ बंदिआ  .... ! '' मैं सी डी. प्लेयर की आवाज़ ऊंची कर देती हूँ  … !
यह आकाशदीप का हित गीत था।  पर उन्हें  …!
'' उन्हें छोड़ सरगम !  .... लोगों की जजमेंट अपनी प्राप्ति है  …! '' हँसता हुआ आकाशदीप जीत -हार की नई परिभाषा समझाने लगता। 
मैं चुपचाप उसका चेहरा देखती रहती।  बड़ी माँ बताती है वह बड़ी लम्बी प्रतीक्षा के बाद जन्मा था।  जगह -जगह मन्नतें मांगी , इलाज करवाया , फिर जाकर आकाशदीप का जन्म हुआ। 
पर जिस वर्ष अनहद का जन्म होना था मैं उस वर्ष से ही अपसैट थी।  एक सीन मेरा पीछा करता रहता।  मैं उठ -उठ भागती , आकाशदीप मुझे पकड़ -पकड़ लेटाता।  मैं लेट तो जाती पर नींद न आती।  कुछ पल शांति रहती फिर वही सीन  … !
वह सीन मैंने एक नाटक में देखा था।  उस नाटक में आकाशदीप को रोल नहीं था।  उसने सिर्फ गीत गाना था।  ज्यों ही रबाब बजी।  पर्दे के पीछे का शोर बढ़ गया।  दंगाकारियों की टोली स्टेज पर आ चढ़ी।  उन्होंने भागकर आई लड़की को घेर लिया ।  उसके उभरे हुए पेट पर नोक रख त्रिशूलधारी दहाड़ा , '' इसमें क्या है  .... ? ''
'' मेरा  .... बच्चा  .... ! '' सहमी हुई लड़की दुपट्टे से पेट को ढकती है। 
त्रिशुंक वाला फिर गरजता है , '' बच्चा नहीं  .... मुसलमान बोल  … !  … इसे बोल कि  .... ! ''
'' नहीं  … नहीं  .... नहीं  … ! '' इशारा समझ लड़की चीखें मारने लगती है ।
उसका पेट चीर त्रिशूलधारी ने भ्रूण बाहर खींच लिया।
'' बोल जय श्री राम  .... ! '' और फिर उसे हवा में उछालता हुआ जोर -जोर से हँसने लगा। 
उसकी हँसी मेरे पेट में जा घुसी।  तीखा दर्द उठा।  मैं बेहोश हो गई।  जब होश आई मैं अस्पताल में थी।  डॉक्टर बता रहा था , '' इन दिनों में ऐसे नाटक देखने ठीक नहीं !  … बच्चे पर बुरा असर हो सकता है  .... ! ''
पर मैंने शुक्र मनाया अनहद पर आकाशदीप का असर था।
मैं उसकी ओर देखने लगी वह गीत सुन रहा था।
मुझे अब्बू जान की आवाज़ सुनाई देने लगी।  उन्होंने फतवा दिया था अगर तूने सिक्ख से विवाह किया तो हमारी तरफ से मरी हुई समझ  .... ! ''
अम्मी जान और भाई जान भी खिलाफ थे।  सब ने लव मैरिज को कुफ्र कहा . पर बड़ी माँ हमें हौसला देती रही , '' मुहब्बत की साँझ सभी सांझों से ऊपर होती है..... ! ''
हमें आशीर्वाद देने आये सतीश अंकल से ख़ुशी सम्भाली नहीं जा रही थी पर वे टोनी से दुखी थे।  टोनी अंग्रेज लड़की जीना से शादी किये फिरता था।  जिस दिन पहली बार हमारे घर लेकर आया , मुझसे बोला , '' हैलो सरगम ! .... यह मेरे सपनों का संसार ज़ीना है  …… ! ''
वह सारी रात अपने सपनों के संसार से खेलता रहा था।  पर उसकी तरह मुझे उसके बेटे की खेल भी पसंद नहीं आई थी।  उसकी हरकत देख मैं काँप उठी थी। 
वडैचां के घर के आगे मिटटी का ढेर पड़ा था उसके ऊपर बच्चों की टोली घर बनाने का खेल खेल रही थी।  जिस वक़्त चीखें सुनाई दीं।  मैं भागी -भागी बाहर आई।  अनहद समेत कई बच्चे रो रहे थे।  मैं उनको चुप करा कर टोनी के बेटे से पूछने लगी , '' क्यों बच्चे ! तूने इनको मारा क्यों  .... ?''
'' क्योंकि ये मुझसे कुर्सी छीन रहे थे  .... !'' प्लास्टिक की खिलौना कुर्सी उठाये खड़ा वह भागी आ रही ज़ीना की ओर देख रहा था। 
'' मम्मा  … यह नया ढूँढकर लाया ग्रह ज़ीना क्या है  …? '' अनहद का सवाल मुझे तंग करने लगा था। 
मैं उसका जवाब सोचने लगी।  मेरी सोच में ज़ीना घूमने लगी।  उसकी कई शक्लें बनने लगीं।  मैं उनका अर्थ ढूंढने लगी।  जब कुछ समझ न आया मैंने चौबारे की चारो खिड़कियाँ खोल दीं  …।
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मुझे चार खिड़कियों वाला चौबारा दिखने लगा।  उसमें से कोई मुझे आवाज़ें दे रहा था।  मैंने ध्यान से सुना … ज़ीना मार्किट से जंड पंजाबी की आवाज़ आ रही थी।
'' पापा ! .... आपकी आवाज़  ....? '' अनहद का सवाल मुझे सोच में डाल गया।
मेरी आवाज़ किधर गई.... ?
मैं कुरैशी मियूजिक सैंटर के अंदर चला गया ।  मेरी एक भी कैसेट वहाँ नहीं थी।  मैंने शर्मा मियूजिक वाले रैंबो से पूछा , उसके पास भी कोई डिस्क नहीं थी।  मैंने खालसा संगीत वाले सुक्खी से बात की।  वह भी जंड पंजाबी की तारीफ करने लगा।  मेरी आवाज़ कांपने लगी।  मुझे टोनी की धमकी याद आ गई , '' आज से मार्किट में हमारे पसंद के सुर ही सुनाई देंगे  .... ! ''
मेरी तार झनझनाने लगी।  मैं अनहद की बाँह पकड़ आगे की ओर चल पड़ा।  कोई हमारा पीछा कर रहा था।  मैंने अपनी चाल तेज कर ली।
'' रुक जा आकाश  .... ! '' चौक शहीदों के पीछे से शिवा की आवाज़ आई । मैंने सामने देखा सड़क के किनारे जंड पंजाबी की गाडी खड़ी थी।  मैं कुछ आगे बढ़ा।  वह गाडी से नीचे उतर आया।
'' जंड तुम्हारी समस्या क्या है  …?'' मैं चौक से अलग होती सड़कों के बीच जा खड़ा हुआ। 
'' तेरा सुर  … ! '' अपने गंजे सर पर हाथ फेर उसने मेरी पगड़ी की ओर अंगुली सेध ली ।
'' यह सुर मेरा  नहीं ! .... यह तो पंजाब का है  .... ! '' मैंने उसकी अंगुली नीची कर दी। 
ठीक वही पल थे जब  ....
 ''यहाँ मार यहाँ  … ! '' अपनी गर्दन पर अंगुली रख जंड पंजाबी ने मेरी गर्दन की ओर इशारा कर दिया। 
शिवा की पीठ पीछे से निकली तलवार मेरी रगें चीरती चली गई
मैं लड़खड़ा कर नीचे गिर गया।
मेरी पगड़ी उतर गई।  ज़ीना मार्किट में शोर फ़ैल गया।
मैं अपनी टूटती सांस जोड़ने लगा  … ,'' तूं  … ई  … क  … वा  ......री  …. !! ''
'' हस्स दे  … खुदा  … दिआ  .... बंदिआ  .... ! '' रोता - रोता अनहद दादा जी की तरह हँसने  लगा। 
मैंने डूबती आँखों से देखा  वह मेरी नीचे गिरी पगड़ी उठाकर अपने सर पर रख रहा था।
उसकी नज़र 'कहीं दूर ' टिकी हुई थी। 
                                                      -----------------समाप्त ------------------
संपर्क पता --
लेखकः जसबीर 'राणा '
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः९८१५६५९२२०

अनुवाद :हरकीरत 'हीर'
 १८ ईस्ट लेन ,सुन्दरपुर,
हॉउस
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