Friday, October 4, 2013

 imroz ki kuchh nazmein .....
हीर भी शायरा भी  …
सोचता रहता हूँ
शायरी की कला भी
जीने की कला भी
खूबसूरत जीने की कला हो जाये
सोचें
सोच भी हो जाती हैं
 अपनी इस सोच को
सच होते मैंने भी देख लिया है
और सबने भी
इक खूबसूरत शायरा को जब मुहब्बत हुई
उसकी शायरी और खूबसूरत हो गई
और उसकी ज़िन्दगी
उसकी शायरी से भी खूबसूरत ….
मुहब्बत संग
कोई भी हीर हो सकती है
कोई भी शायरी भी  …।
(२)
मानता ……………
समझ, समझ के बनती है
पर मानता बगैर समझे ही बन जाती है मानता
लोग मानता के साथ ही
काम चला रहे हैं
मज़हब चला रहे हैं
ज़िन्दगी चला रहे हैं
और अपना आप भी  …
………………
(३)
दरिया ….
रोज नए पानी से
दरिया होता है
मज़हब भी दरिया था
नया पानी न मिलने के कारण
खड़ा पानी ही रह गया  ….
……………….
(४)
………………
मर्जी की मर्जी  ……
मैं सोहनी हूँ
सोहनी से सोहनी
मुझे मनचाहे की तलाश है
मास्टरपीस बनने की तलाश नहीं
 दुनिया के सारे मास्टरपीस
दीवारों से टंगे हुए हैं सब स्टिललाइज
मैंने खिला फूल बनना है
हमेशा रहने वाला पेटिंड फूल नहीं
मैं सोहनी हूँ
सोहनी से सोहनी
हर दरिया हर रोक
पार करूँ अपने आप संग
कच्चे घड़े के संग भी और पक्के घड़े के संग भी  …

(५)
पेंटिंग के बीच की लड़की……
इक दिन
पेंटिंग के बीच की लड़की
रंगों से बाहर आकर
एक नज़्म के ख्यालों को
देखने लगी
देख देख उसे
अच्छा लगा ख्यालों को रंग देना भी
और ख्यालों से रंग लेना भी
ख्यालों ने देखती हुई लड़की से पूछा
तू बता पेंटिंग के रंगों में
क्या - क्या बनकर देखा
मैंने मुस्कराहट बनकर देखा
पर हँस कर नहीं
मैंने  खड़े होकर देखा है रंगों में
पर चलकर नहीं ….

……………………
मज़हब और ईश्वरवाद
कोई जरुरी नहीं  …
अपना सच
और अपनी मर्ज़ी जरुरी है  …
……………….
मुहब्बत ही तो
ज़िन्दगी भी महबूबा है  …
………………
रब्ब को सोचा
नया ख्याल आ गया  …
……………
लोग पुराने नहीं होते
ख्याल पुराने होते हैं  …
…………
हर रात कल हो जाती है
हर सबेर आज भी
और कल भी  ….
…………
उसका ख्याल आया
बिजली चमकी
जंगल में भी राह दिख गई
मुझे भी और डर  को भी  ….
…………….
कहते हैं
मानता जड़ हो गई
पर न कभी कोई नया पत्ता लगा
न फूल  …
…………
भगवान रोज़
आज हो जाता है
पर लोग पता नहीं
कल को ही
क्यों दोहराते रहते हैं …….
…………
मज़हब अब मज़हब नहीं रहा
ताकत बन गया है
सियासत बन गया है
अब वक़्त आ गया है
खुद
अपना मज़हब बनने का  ….
……………….
मेरा दिल करता है
फूल- फूल होकर
खुशबू बन जाऊं
खुशबू होकर अक्षर
अक्षर-अक्षर होकर
नज़्म
नज़्म-नज़्म होकर
ज़िन्दगी
ज़िन्दगी-ज़िन्दगी होकर
प्यार
और प्यार-प्यार होकर
जीना आ जाये
जैसा मेरा जी करता है …
…………….
कभी-कभी
खाली सोच की तरह
जिधर भी दिल करे
चलता-फिरता रहता हूँ
हालांकि
जिसे मिलना था वह तो मैं खुद ही हूँ ……
……………….
हीर बने बिना
हीर समझ नहीं आती ……
जितनी देर लोग
अर्थ नहीं बनते
शब्दों का काम खत्म नहीं होगा  ….

………………….
रंग भी नहीं होते
कैनवास धरती नहीं होती
लाइफ धरती है
और कैनवास सिर्फ स्टिल लाइफ ….
……………

इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

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