Wednesday, June 5, 2013

इमरोज़ की कुछ और नज्मों का अनुवाद .....

समझ न आने वाला ....

यह एक उसकी बात है
जो उम्र में मुझसे छोटा था
पर और किसी तरह से बिलकुल छोटा न था
इक दिन वह मिलने आया
उस दिन मैं उसे ही सोच रही थी
वह मेरे साथ संजीदा होता जा रहा था
बार - बार उसे देख कर
मैंने उससे कहा
जा पहले दुनिया देख आ
फिर भी अगर मैं तेरी जरुरत हुई
तो ठीक है ...
हम दोनों ही कमरे में थे
उसने उठकर कमरे के सात चक्कर लगाये
और बोला - ''मैं दुनिया देख आया हूँ ''
तुझ जैसा सिर्फ तू ही है
अपने आप से कहीं ज्यादा
न समझ आने वाला .....

इमरोज़ ......
अनुवाद - हरकीरत हीर

(२)

न समझ आने वाला ....

आर्ट स्कुल में
इक ख़ूबसूरती मेरी हमजमात थी
वह जब भी क्लास में आती
मैं सीट से उठकर उसे देखता
वह भी कभी-कभी देखते को देख लेती
मुस्कुरा भी लेती
इक दिन लंच के वक़्त जब क्लास
लंच के लिए गई हुई थी
वह मेरे पास आई और बैठ कर पूछा
तुम मेरी खूबसूरती में ख़ास क्या देखते हो हर रोज ..?
तेरी खूबसूरती में इक ख़ास खूबसूरती है
जिसे देख कर मैं खूबसूरत होता रहता हूँ
तुम कोई ख़ास हो
स्टूडेंट होते हुए भी तुम कहीं ज्यादा हो अपने आप से
न समझ आने वाला .....

(३)
सच जीने के लिए ....

किसी ग्रन्थ का इक वाक् है
ज़िन्दगी सच है सच जीने के लिए
किसी न किसी अर्थ  में यह वाक्
हर ग्रन्थ में शामिल है
लोग हर रोज इस वाक् को सुनते हैं
इस वाक् को पढ़ते हैं
और सुन- सुनकर सुन छोड़ते हैं
और पढ़ - पढ़कर पढ़ छोड़ते हैं
यह वाक् वाक् ही रह जाता है
किसी की ज़िन्दगी नहीं बनता ...
कभी -कभी ...
किसी की ज़िन्दगी प्यार-प्यार
हो जाती है सच हो जाती है
जैसे हीर की ज़िन्दगी
रांझे की ज़िन्दगी
अपने आप सच हो गई
प्यार भी सच होता है सच जीने के लिए ....

(४)
दरिया ...

तुम बनी रहो
अपने आप संग हाजिर
भले मुश्किलें भी बनी रहें
अपने आप संग चलने वालों के साथ
सबकुछ चलता है
मुश्किलें भी मुहब्बतें भी
सोहणीयों और हीरों संग
दरिया भी चलते रहे हैं
और मुश्किलें डूबती ....
तुम बनी रहो अपने आप संग हाजिर
हाजिर ही दरिया होते हैं
इक - दुसरे में बहते दरिया ....

(५)

इक युवती  .....

दरिया के उस पार से
किसी की बांसुरी इस पार को
मस्त कर रही थी ...
दरख्त से सटकर खड़ी एक युवती
अपना आप भूल कर बांसुरी सुन रही थी
पास खड़ा वक़्त
बांसुरी के साथ भी मस्त हो रहा था
और युवती को देख -देखकर भी
अच्छी लगती युवती को
वक़्त ने पूछ ही लिया
बीबी तुम हीर हो या सोहणी ..?
घर से चली तो मैं हीर थी
यह दरिया पार करके मैं
सोहणी हो जाऊंगी ....

(६ )
इक और सुब्ह ...

तेरे ख्यालों संग रात भर जागती रही
और सुब्ह होने से पहले इक और सुब्ह देखती रही
मिलूंगी उससे और जाग कर देखूंगी उसे
उसके ख्यालों को भी .
जब मिली ...
देखते ही कहने लगा
तुझे उडीक-उडीक कर
देख मैं क्या से  क्या हो गया हूँ
तुम मुझे कब के जानते हो ?
जब से मैं अपने आपको जानता हूँ
ठीक है फिर नहीं जाऊँगी कहीं
इक बार माँ जनती है
और दूसरी बार मुहब्बत
देख आज मेरा जन्मदिन है
सिर्फ तेरे साथ मनाने वाला
फिर तो आज मेरा भी जन्मदिन हो गया ..
चल मिलकर मनाएं
यह दो जनों का एक ही जन्मदिन
तेरे ख्यालों संग भी
मेरे ख्यालों संग भी
सारी  रात इक -दूजे संग जागकर
देखेंगे सुब्ह होने से पहले
हो रही इक और सुब्ह तेरी मेरी सुब्ह ...

(७)
हाज़री ...

खुला दरवाजा मत खड़काओ
कब से खोल कर रखा है ...?
जब तुम चली थी
मैं ही रूकती - रूकती
आ रही हूँ
राहों संग रुकावटों संग
तेरी देरी
मेरी गैर हाज़री
पर मेरी पहुँच
तेरी हाज़री भी है ....


इमरोज़ .....
अनुवाद - हरकीरत हीर .

3 comments:

  1. अपने आप संग चलने वालों के साथ
    सबकुछ चलता है
    मुश्किलें भी मुहब्बतें भी
    सोहणीयों और हीरों संग
    दरिया भी चलते रहे हैं....
    ------------
    man ko sukun deti har ek rachna.....

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