लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह : १) खितियाँ घूम रहीआं ने २) शिखर दुपहरा
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट ते बही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
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कहानीनस्लघात -लेखक: जसवीर राणा
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह : १) खितियाँ घूम रहीआं ने २) शिखर दुपहरा
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट ते बही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
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कहानी
मैंने पीछे की ओर मुड़कर देखा , बस अड्डे वाले पीपल के नीचे खड़ा तोती बाबा अभी भी मेरी ही ओर देख रहा था । उसका सवाल भी बड़ा विचित्र सा था , बोला , '' क्यों भाई तुम प्यारू के बलकारी नहीं हो ...?"
''नहीं -नहीं बाबा ......मैं तो .....'' उसका सवाल सुनकर मुझे .....गश सा आ गया । मेरे कानों के पास छंकार सी गूंजने लगी ......अगर मैं प्यारू का लड़का बलकारी नहीं तो कौन था ....?
'' कौन हूँ मैं .....?'' जवाब देते वक़्त मेरी जुबान थथला जाती । दिमाग में फिर वही झंकार गूंजने लगती ।
गूंज डालती रोडवेज की बस कबकी आगे बढ़ चुकी थी । अड्डे पर पहुँच कर ही सुकून की साँस आई । बस में सारे रस्ते मुझे बेचैनी सी लगी रही । टूटी सड़क और बस के शीशे दरवाजों का खड़का मेरे कानों के पास छंकार बन गूंजता रहा । पता नहीं मैं कितनी देर सड़क के किनारे खड़ा रहा । तोती बाबा के सवाल ने मेरी तन्द्रा तोड़ी थी । वह लगातार मुझे ताड़ता रहा .....!
उसकी ओर से ध्यान हटा मैंने अपनी चाल तेज कर ली । मैंने लोई ओढ़कर मैंने नाक तक मुंह अच्छी तरह ढक लिया था । ठण्ड बढती जा रही थी । खेतों की ओर धुंध भी उतरने लगी थी । शाम घिर आई थी , लोग घरों की ओर परतने लगे थे । मेरे पैर भी मुझे घर की ओर खींचे लिए जा रहे थे । हमारे घर की ओर... या ....पता नहीं बल्ली के घर की ओर .....?
हमारा घर तो अब कौन सा घर रहा था ....।
गाँव के बाहर वाली सड़क तो बल्ली के घर के सामने से गुजरती थी । आखिरी मोड़ पर उसका घर था । कई बार वह मुझसे कहती , '' बलकारी ! यह सूना घर मुझ अकेली को खाने सा आता है ...''
'' खाने तो मुझे भी आता है बल्ली '', कहकर मैं उसे गले से लगा लेता ।
बल्ली का ख्याल आते ही मेरे पैर जल्दी-जल्दी उठने लगे ...मैं और तेज चलने लगा । कुछ देर में ही मैं बल्ली के घर होता । रंगीन ख्याल मेरी पीई हुई दारू को काट रहा था । सरूर में आ मैंने गला खंगारा। खंगाराने के साथ ही जैसे मेरे अन्दर जैसे घोड़ा सा हिनहिनाया हो , जांचने के लिए मैंने फिर गला खंगारा ....पर इस बार आवाज़ तो घोड़े की ही थी पर वह हिनहिना नहीं बिलख रहा था।
बौखलाए हुए ने मैंने सामने देखा सड़क पर रेहड़ी में जुते घोड़े को शे'रु कुम्हार चाबुक से पीटता चला आ रहा था । डरकर मैं सड़क से कच्ची तरफ हो लिया । मुझे अपना नशा उतरता सा लगा । लगा जैसे शे'रु की गाड़ी के आगे मैं जुता हुआ हूँ । चाबुक जैसे घोड़े पर नहीं मेरी पीठ पर पड़ रही हो । इक पल में ही ख्याल आया कि मैं सरपट भाग लूं । इतना तेज भागूं कि शे'रु की रेहड़ी को भी पीछे छोड़ दूँ । बस भागता जाऊं और भागता जाऊं ..... ।
सड़क किनारे खड़े -खड़े मुझे साँस सी चढने लगी । मैंने सड़क छोड़ दी , पाल की आटा चक्की के पास से मुडती निचली गली उतर गया ... ..
गली में पैर धरते ही मेरे पैर जल से उठे ,ईंटें तप रहीं थी ...जैसे अभी किसी ने भट्टी से निकाल कर रखी हों । कोई शय मुझे अपनी ओर खींचे लिए जा रही थी । प्राइमरी स्कूल के सामने से गुजरते वक़्त मेरी टांगे जैसे जुड़ सी गयीं । स्कूल के सामने भीड़ सी जुटी हुई थी , मैं भी भीड़ में शामिल हो गया .....
स्कूल ग्राउंड की ओर नज़र पड़ते ही मेरे माथे पर कुछ ठक सा लगा । दीवार से लगा इक बड़ा बल्ब जल रहा था । हमारे गाँव के दस-बारह कालेजियट लड़के ग्राउंड में भांगड़ा सीख रहे थे । पास ही खड़ा ढोली ढोल बजा रहा था । ढोल पर निगाह पड़ते ही मेरे अन्दर कुछ दरकने सा लगा । मैं भीड़ से पीछे हटता गया ......
भीड़ से निकल कर मैं चलने ही लगा था कि .....
' ओ .....आ .....!! तोड़ देकर ढोली ने चाल बदल ली ।बैठक मार कर लड़के फिर नाचने लगे ।
ढोल और जोर से बजने लगा । जब ढोली ने बोली डाली मेरे अन्दर फिर छंकार उठने लगी । मेरा कदम भंगड़ा ड़ाल रहे लड़कों की तरह तो नहीं उठ रहा था पर पैर धीरे धीरे हिल रहे थे । मैंने ध्यान से देखा , मैं तो सारा ही हिल रहा था । नशे का असर था या पता नहीं क्या था । मैंने जेब से बण्डल निकाल बीड़ी सुलगा ली ..... ।
''देखो- देखो खब्बू कैसे नाच रहा ...!'' दीवार पर बैठे लड़कों के समूह की आवाज़ थी ।
सुनकर मेरा हाथ सर पर बंधी पगड़ी की ओर चला गया । मैंने पगड़ी टेढ़ी बांधी हुई थी । क्या लड़के मुझे ही छेड़ रहे हैं ....? लम्बा कश खीँच मैंने भीड़ की ओर धुआँ छोड़ा ...पर मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं था । मैंने पूरी गली को गौर से देखा । सब कुछ पराया सा लगा ...... ।
हमारा गाँव ही मेरे लिए पराया हो गया था सिर्फ इक बल्ली को छोड़ । उसी की खातिर तो मैं आया था । कई बार कोशिश की उसे दिल से निकाल दूँ पर नहीं निकाल पाया । जितना मैं बल्ली को निकालने की कोशिश करता वह उतना ही और समाती जाती । करीब दो महीने से तो वह मुसलसल मेरे सर पे सवार थी । दिल चारो पहर उसे मिलने के बहाने गढ़ता रहता । दिन -रात उसकी मोहनी मूरत आँखों के सामने घुमती रहती ..... पर कई बार कालू की जुबाँ काली बात कह देती .....'' छोड़ दे बलकारी ! भला क्या करेगा बल्ली से मिल के ....!''
कालू की बात सुन मुझे क्रोध चढ़ आता ,गुस्से से सर चकराने लगता , मैं गर्मो-गर्मी हो जाता । मेरी लाल आँखें देख कालू डर जाता । बस वही पल होता जब मैं उसे गिराकर चाबुक चला रहा होता .... । पहले पहल तो मन में होता कि उसका क़त्ल ही कर डालूं । कई बार मैं आधी रात को उठ खड़ा होता , दोनों हाथ सोये हुए कालू की गर्दन तक ले जाता पर गर्दन तक पहुँचने से पहले ही मेरे हाथ कांपने लगते । मैं पसीने से भीग जाता ,साँस धौकनी सी चलने लगती । हाँफते-हाँफते मैं निढाल सा हो जाता । रात लेटे लेटे कई बार ख़ुदकुशी का ख्याल भी आता । एक बार तो मैं गेहूँ में रखने वाली गोलियां ले भी आया था । सबकी नज़रों से बचा जब खाने लगा तो हाथों ने काम करना ही बंद कर दिया । पानी का गिलास और गोलियाँ नीचे गिर पड़ीं जैसे उस दिन सोये हुए कालू को मारने के लिए उठाया चाकू गिर पड़ा था । धीरे धीरे ख़ुदकुशी और कालू को मारने का ख्याल ही मर गया । ऐसे काम करा कर भी हम जीते- जागते हैं ....!
पर कालू की बल्ली को मिलने से रोकने की कही बात मुझे जीते को ही मार गई ।
' हाँ भई...! कड़वी बात मनुष्य को जीते जी मार देती है ....!' कम्बल ओढ़े दो जन भीड़ से निकल परे की ओर निकल गए । चलने की सोचता हुआ मैं भी गली के बीच खड़ा था । लड़के वैसे ही नाच रहे थे .... ।
ओ ....आ. ....!!तोड़ देकर अचानक ही ढोली तेज-तेज ढोल बजाने लगा था .... ।
''यह तो बिलकुल प्यारु जैसा तोड़ देता है ....'' भीड़ में से कोई बुजुर्ग बोला ।
सुनकर मैंने एड़ियाँ उठाकर स्कूल की ओर देखा ,ग्राउंड में खड़ा ढोली ढोल बजा रहा था ...बिलकुल मेरे बापू की तरह.....
बापू का ख्याल आते ही मैं जल्दी -जल्दी घर की ओर चल पड़ा .....चलते-चलते मेरा दिमाग चरखी की तरह घूम रहा था । मैं बार-बार पीछे मुड़कर देखता ,मुझे लगता जैसे बापू ढोल बजाता हुआ मेरे पीछे चला आ रहा है । चरण का घर आते आते तो वह बिलकुल मेरे कंधे से कन्धा मिला कर चलने लगा । चलते चलते मैं छोटा और बापू बड़ा हो जाता । ढोल बजाता हुआ वह मेरे आगे -आगे और मैं उसके पीछे-पीछे चलते जा रहे थे । चलते चलते मैंने टेढ़ी नज़र से देखा मेरे बराबर तो कोई नहीं चल रहा था और फिर बापू मरे को तो कई साल हो गए हैं । वह कैसे चल सकता है ...?
' ओये ! मरा बंदा भी साथ चला है कभी पगले ...!' बल्ली भी यूँ मजाक उड़ाती .... ।
कई बार रात को खेतों से लौटते वक़्त जब मैं बल्ली के घर आता मुझे ऐसा ही लगता रहा ....जब मैं बल्ली को बताता बल्ली हंसने लगती .....क्या बच्चों जैसी बातें करते हो बलकारी ....कोई सयानी बात करा कर .... '
बल्ली के घर के बदले ये मैं अपने घर की ओर क्यों चल पड़ा था समझ नहीं पाया .....? मैं तो बल्ली के पास आया था । उसे छोड़ यह मैं क्या ऊट-पटांग बातें सोचने लग पड़ा भला ?मैं अभी हिसाब लगा ही रहा था कि सामने कालू का घर आ गया ....।
उसके घर के पास से गुजरते वक़्त पता नहीं मुझे क्यों भय सा लगा । मैंने अपनी चाल तेज कर दी । अगला मोड़ मुड़कर आगे हमारा घर था । मैं जल्दी-जल्दी घर की ओर चल पड़ा । छोटी अंगुली की हुज्जत भी महसूस हुई ....!
दीवार की ओट में मैं हल्का हो दीवार पर चढ़ आँगन में छलांग लगा अन्दर आ गया । अन्दर का दरवाज़ा चौपट खुला पड़ा था । अन्दर घुसते ही मैंने जेब से निकाल बीड़ी सुलगा ली । जलती तीली की लौ में मेरी आँखें चारो ओर घुमने लगीं बुझती तीली की लौ में मेरी निगाह सामने की दीवार पर चिपक गयी । दीवार पर की कील पर बापू का फटा हुआ ढोल लटक रहा था। ढोल देख मैं जल्दी-जल्दी बीड़ी के कश खींचने लगा ।
बापू भी यूँ ही बीड़ी पीता था । इलाके में उसका ढोल मशहूर था । जहाँ कहीं भी पहलवानों की कुश्ती होती वहीँ बापू का ढोल खड़कता । चौंदे वाले मोड़ पर तो हर दस दिनों कुश्ती हुआ करती और शौकीन लोग झंडी पहलवान के साथ- साथ बापू के ढोल की भी तारीफ करते न थकते । गुग्गा नौमी के मेले में भी बापू की खूब उगाही होती .... ।
पर उसका यह काम ज्यादा दिन टिक न पाया था । बापू को साँस की बिमारी थी ....दारू,बीड़ीयों से उसके फेफड़े छलनी हो गए थे । ढोल बजाते वक़्त जोर बहुत लगता । जो अब बापू के बस की बात न थी । बीमारी उसके अन्दर का जोर और सारी कमाई खाती जा रही थी । धीरे-धीरे बापू का ढोल चुप करके बैठ गया । पर माँ उसके साथ नित लड़ती रहती । घर में हर चीज खत्म हुई रहती और बापू दारू पी माँ को पीटने लगता । लोगों के घर काम कर-कर वह भी रोगी सी हो गई थी । कभी- कभी वह मुझसे कहती , 'बलकारी जरा मेरे पेट पर हाथ लगाकर देखना .....देख कितने गोले से हैं अन्दर ...
माँ बहुत दिन उन गोलों के साथ नहीं जी पाई थी । जिस दिन वह मरी बापू उसी दिन से पागल सा हो गया था । सारा दिन उट-पटांग बातें करता रहता , 'ये खड़ा है प्यारु ढोल वाला .....! आ जाओ किसने भिड़ना है आज ....!'
अक्सर लोग उसकी बातें सुन हंसने लग पड़ते । कभी वह किसी के घर रोटी खा आता कभी मैं किसी के घर । रात दोनों जने बैठक में पड़े रहते । इक दिन पाठी बौलदे के साथ वह पूरा ही पागल हो गया ..गली में खड़ा वह ढोल बजा रहा था । फिर तो रोज़ का ही काम हो गया अगर कोई रोकता वह ईंट उठा पीछे दौड़ पड़ता ।
उस दिन तो उसने हद ही कर दी । तीखी दोपहर थी । मैं घर बैठा रोटी के बारे सोच ही रहा था , जब बापू आ गया । आते ही कील से ढोल उतार लिया , मुझे थप्पड़ मार अपने आगे लगा लिया । मैं डर गया । आगे - आगे मैं, ढोल बजाता बापू मेरे पीछे । हम पाल की आटा चक्की के सामने जा पहुंचे । चक्की के सामने शैड के नीचे इक मण्डली ताश लिए बैठी थी । बापू जोर जोर से ढोल पीट रहा था । सारा शरीर तर-ब तर । साँस धौंकनी की तरह चल रही थी । उसके मुँह से लगी बीडी से भट्टे की तरह धुआं निकल रहा था । मैं डरा सा खड़ा था । शैड के नीचे से ताश छोड़ और भी कई लोग उठ खड़े हुए । बापू उनकी ओर बिना आँख झपकाए सीधे देखे जा रहा था । जब बात असहनीय हो गई तो बचना निहंग कड़क कर बोला , '' क्या चाहिए तुझे ओये पगले ....?''
उसकी बात सुन ढोल बजना यकदम से बंद हो गया । साथ ही बापू ने मेरी बांह पकड़ अपना छड़ी वाला हाथ ऊपर कर लिया , मैं कहता हूँ मैंने ये लड़का बेचना है ....है कोई खरीददार ...ओये ...है कोई .....?
मेरी बांह छोड़ वह फिर ढोल बजाने लग पड़ा ..... लोग अब खामोश थे ।
ढोल की आवाज़ ऊंची हो गई । मैं रोने लगा । बापू मेरे चारों ओर बैठकें निकाल रहा था ...
'फडाक...!!' अचनचेत ही एक जोरदार खड़का हुआ ।
इधर ढोल की खाल फट गई , उधर लाश बन बापू सड़क पर गिर पड़ा ।
मेरी आँखों से पानी बह रहा था । फटा हुआ ढोल कील से उतार मैं गले में डाले बैठा था । ढोल देख मेरे शरीर से जान सी निकल गई । जी कर रहा था आँगन में बैठ जोर-जोर से रो पडूँ । पर यहाँ मैं रोने नहीं बल्ली से मिलने आया था ।
यहाँ अब मेरा क्या रह गया है सोचते हुए मैंने लोई ठीक की । गले से फटा ढोल उतार नीचे फेंक दिया । ईंटों के बीच पैर फंसा दीवार पर चढ़ गया । पर दूसरी ओर छलांग न लगा सका ।
दीवार पे ही हवा में लटक गया ....।
खेतों से पार होती पटरी पर से रेल गाड़ी छुक-छुक करती आ रही थी । फाटक के पास जा उसने कूक मारनी थी । सोचकर ही मुझे गश सी आने लगी । दाढ़ी के कांटे चुभने लगे । कानों के पास वही छंकार गूंजने लगी ।
वही बात हुई । शोर मचाती गाड़ी ने फाटक के पास आ कूक मारी । कूक मारता मैं गाड़ी के आगे -आगे भाग रहा था , हाथ में चाकू पकड़े कोई मेरी ओर भागा चला आ रहा था । शेरू कुम्हार का घोड़ा पटरी पर गिरा पड़ा था । किसी ने मेरी पीठ पर चाकू मारा । घोड़े के टुकड़े करती रेल-गाड़ी आगे बढ़ गई । लहू के छीटों से मेरा मुँह-सर लिबड़ गया था ।
दीवार पर मैं उलटे-मुँह पड़ा था । रेल-गाड़ी फाटक पार कर चुकी थी । सर उठा मैंने ऊपर की ओर झाँका । आज सुब्ह से ही मुझे जाने क्या हुआ जा रहा था । अच्छी भली बात में से मुझे बे-सर पैर की चीजें नज़र आने लगतीं । नशे का असर था या पता नहीं बल्ली का ।
बल्ली मेरे दिमाग में चढने लगी । अपने उजड़े घर को देख मैं बल्ली के घर की ओर चल पड़ा । कालू की कही बात मेरे बराबर चल रही थी ।
अगर कालू से मेरी दोस्ती न होती ...न मुझे वह रोकता और न यह डर चिपकता । पता नहीं कौन सा बुरा वक़्त था जब उसने मेरे पास आना शुरू कर दिया । बापू के मरने के बाद बचने निहंग लोगों ने मुझे सज्जन मास्टर के साथ भेज दिया था । मास्टर ने मुझे भैसों को घास -चारा डालने के लिए रख लिया । मास्टरी के साथ वह खेती भी करता था । माँ तो मुझे पढ़ाने के हक़ में थी । लोगों के घर काम कर वह मुझे बीच से खर्च भी देती रहती । पर बापू के मरने के बाद मैं आठवीं के पेपर देने से रह गया । पहले सज्जन मास्टर मुझसे कहता था , 'तू फिकर न कर बलकारी ....! बस खेत में रहा कर ...तेरी आठवी तो मैं चुटकियों में पास करवा दूंगा ....!'
पर कुछ न हुआ था । पता नहीं उसकी क्या स्कीम थी । मैं चार साल मास्टर के साथ रहा । जो पढाई आती थी वो भी भूल गया । आठवी तो क्या करनी थी मैं मास्टर का सीरी ( खेतों में काम करने वाला नौकर ) बन हर गया । अपने घर मैं कम ही जाता । पहले -पहल जाता था पर रात मुझे डर सा लगने लगता । घर से भय सा आता । आधी रात में मुझे मरे हुए बापू और माँ नज़र आते ।
' अगर घर में डर लगता है तो खेतों में अपनी मोटर वाली कोठरी में पड़ा रहा कर ....!' मेरी बात सुन एक दिन मास्टर ने कहा ।
उस दिन से मैं उनके खेतों में ही सोने लगा था ।
डर तो मुझे वहाँ भी लगता था । पर कालू के आने से कम हो जाता । साथ के शहर में राम लीला होती थी । कालू मुझे भी साथ ले जाने लगा । मास्टर से चोरी मैं खेतों से ही उसके साथ चला जाता । जब हम रामलीला देख लौटते आधी रात हो चुकी होती । जिस दिन कालू ने पहली बार वह हरकत की मैं दंग रह गया था । ऊंची गली से चलकर आते वक़्त वह एक घर के सामने खड़ा हो गया था । बोला , 'रुकजा आज तुम्हें मैं इक चीज दिखता हूँ ...। '
मेरा जवाब सुने बगैर ही वह खिड़की के सरिये पकड़ ऊपर चढ़ गया । रोशनदान से अन्दर झाँकने लगा। काफी देर देखता रहा । मुझे डर लग रहा था । पर कालू ने एकबारी मुझे ऊपर खीच लिया । मैंने रोशनदान से अन्दर झाँका । अन्दर जीरो वाट के बल्ब की रौशनी थी । और पलंग पर स्त्री-पुरुष..... ।
'सारा काम खराब कर गया साला ...!' मेरे मुँह से कालू के लिए गाली निकली ।
मेरे अन्दर का चोर जोर-जोर से हँस रहा था । किसकी चोरी करने जा रहा था मैं ...? मैं चोर कहाँ था ? चोरी करनी तो मैंने कालू से सीखी थी । या फिर सज्जन मास्टर से । मास्टर जिस चीज की चोरी करता उसके पीछे वो खासा बदनाम था । बारहवीं में पढ़ती इक लड़की को छेड़ने की वजह से इक बार तो वह काफी सुर्ख़ियों में रहा । गाँव में भी कई औरतों के साथ उसका नाम जुड़ा रहा ।
'तेरा मास्टर चरित्रहीन है ओये .... । ' कालू की बात सुन मुझे कोई जवाब न मिलता ।
चार साल मैं चुपचाप मास्टर की चाकरी करता रहा । पता नहीं और कितनी करता अगर कालू मेरी ज़िन्दगी में न आता । इससे तो अच्छा था वह न ही आता। उसके आने से ही तो सारा काम ही बिगड़ गया था ।
'काम कोई नहीं बिगड़ा ...तू चल तो सही ... रात किसे पता चलेगा । 'कालू के पीछे लग उस दिन मैंने पहली बारी चोरी की थी ।
रात को हम तारी सरदार के बाग़ में चले गए । कीनुओं का बाग़ था । हम झोला भरकर ले आये । किसी को कानो-कान खबर तक न हुई ।
पर सज्जन मास्टर को पता नहीं कैसे शक हो गया । उसके खेतों में भी अमरूदों के पेड़ थे । वह मुझे रोज़ कहा करता ,'अच्छी तरह ख्याल रखा कर बलकारी ...अमरूदों वाले खेमे में नहीं घुसने देना किसी को भी .... । '
' ऐसे क्यूँ हो मुए ! ....पहली बार तो तुझसे कोई चीज मांगी है ... !
मैं फसल नहीं रौंदूंगी ...सच्च बचा-बचा कर तोडूंगी ....!' .
बल्ली को मैं कोई जवाब न दे पाता ....!
अमरुद तोड़ वह मेरी चारपाई पर बैठ गई थी । बहुत सुंदर थी वह । मेरी निगाह उसके चेहरे से हटती ही नहीं थी । वह मुझसे पता नहीं क्या - क्या पूछे जा रही थी और मैं मूर्खों की तरह बस हाँ हूँ किये जा रहा था । दो दिन बाद वह फिर आई । उसने चारे का इक बोझा माँगा । मुझसे फिर इनकार न हो सका । फिर तो वह रोज़ ही आने लग पड़ी।
इक दिन हम चारपाई पर बैठे बातें कर रहे थे । पता नहीं किधर से सज्जन मास्टर आ गया ।लगा गालियाँ निकालने , 'क्यों बे हरामखोर ....! इस काम के लिए रखा है तुझे ...?तूने उजाड़ देना है कमीने मुझे ...! ..रुक जरा आज बताता हूँ तुझे.... !
मुझे थप्पड़ मार जब मास्टर बल्ली को मारने लगा तो मैंने दौड़ कर उसकी बांह पकड़ ली , ' इसे मत मारना मास्टर जी ...'
क्यों तेरी माँ लगती है ..? मास्टर रुक कर बोला । बल्ली को छोड़ उसने मुझे घेर लिया। कुदाल की हत्थी मार-मार उसने मेरी बांह तोड़ दी । पर वह मेरी और बल्ली की यारी न तोड़ सका ।
बल्ली ने तो खेत आना छोड़ दिया पर मैं रातों को घर जाने लग पड़ा । अपने दो बच्चों के साथ वह घर में अकेली रहती थी । उसके सास -ससुर और देवर तीर्थ यात्रा पर गए ट्रक एक्सीडेंट में मारे गए थे । और उसका घरवाला एक बार जत्थेदारों के घर बोर वाली खुही (कुआँ ) खोदने गया था , जब खासी गहरी खुद गई तो ऊपर से मिट्टी गिर पड़ी थी , वह उसी में दब कर मर गया ।
' मरे हुओं के साथ अब मरा तो नहीं जा सकता न बलकारी .....? यह तो जीता रहे तू जो मेरा दुःख बंटा लेता है ... । ' बल्ली का मेरे साथ और मेरा बल्ली के साथ खासा मोह पड़ गया था । लोग तो उसके पास और भी आते थे । पर अन्दर का दुःख वह मेरे साथ ही बांटती । उसके पहलू में बैठ मैं भी अपने सारे दुःख भूल जाता । पर एक वह दुःख सात जन्मों तक भूलने वाला न था ।
''सारे दुःख भुल्ल जाणगे ....पर नईओं भुल्लना विछोड़ा तेरा......!''भुक्की खाने का दरशा सड़क पर ऊंची आवाज़ में गाये जा रहा था .... ।
मेरे पास आ वह जरा धीमा हो गया , '' कौन सा बाई जी ....?
उसका सवाल सुन मुझे तोती बाबा का सवाल याद आ गया । बगैर कोई जवाब दिये मैंने चाल तेज कर ली । कंगाली ने मुझे जवाब देने लायक छोड़ा ही नहीं था । नहीं तो क्या अपने ही गाँव में मैं यूँ चोरों की तरह मुँह छुपाई फिरता ? चोर की माँ का कोठी में मुँह था ।( मुहावरा - अपने किये पर शर्मिंदा होना )
मैंने मुँह पर हाथ फिरा कर देखा , लगा जैसे मैं मुँह काला किये जा रहा हूँ । इक दिन कालू ने मुझे साथ ले बंटी की दूकान को सेंध लगा ली । पर पता नहीं कैसे किसी को हमारी खबर लग गई । पहले तो हमसे चोरी का माल निकलवाया फिर मुँह काला कर गुरूद्वारे के सामने खूब पीटा । सबसे ज्यादा मुझे सज्जन मास्टर ने पीटा । बोला , ''खबरदार ! जो अब से मेरे खेतों में पाँव भी रखा तो ....''
'' गाँव से ही निकाल बाहर करो ऐसे प्रेतों को !'' लोगों की भाषा सुन हम तो गाँव से ही भाग खड़े हुए थे ।
गाँव से भाग हम धुरी शहर जा पहुंचे । वहाँ कई दिन भूखे -प्यासे फिरते रहे । घूमते -घामते इक दिन हम चौंक में जा बैठे । वहाँ खासे देसी बन्दे और भइये बैठे थे । वे सारे दिहाड़ी जाने के बाद बाकी बचे हुए थे । मैं और कालू भी दीवार से टेक लगा बैठ गए । कुछ देर बाद वहाँ एक ट्रक आकर रुका । उसमें से एक सफेदपोश व्यक्ति उतरा और सभी से बोला , '' चलो भाई बैठो सारे जने ट्रक में ...! नेता जी की रैली में रौनक बढ़ानी है ....सबको पैसे , लड्डू और खुला लंगर मिलेगा ...!''
रैली में जाकर हमने सारा दिन जिंदाबाद- मुर्दाबाद के नारे लगाये । अगले दिन हम रैली में बने एक साथी के साथ एक साधकों के डेरे चले गए । सारा दिन वहाँ सेवा करते और रोटी-पानी छक लेते । रात भी वहीँ पड़े रहते । कुछ दिन तो सुख़ शांति से कट गए । पर इक रात बात उलटी पड़ गई । कालू ने रात डेरे की गोलक तोड़ ली । साधकों ने पहले तो हमें खूब पीटा और फिर थाने ले गए । थाने से छूट कालू तो फिरभी शहर में ही घूमता रहा पर कई महीने की ख़ाक छानने के बाद मैं गाँव वापस आ गया था । सारा दिन मैं पागलों का सा घूमता रहता कोई मुझसे बोलता तक न था । थक हार कर मैं रात बल्ली के पास जा कर पड़ा रहता ।
सामने मोड़ पर बल्ली का घर था । कुछ पलों बाद मैंने और बल्ली ने आमने सामने होना था । अचानक मेरा अंतर बैठने सा लगा । शरीर से ताप सा निकलने लगा । मेरा हाथ दाढ़ी की ओर चला गया । घोड़े की सी चाल चलता हुआ अचानक मैं हौले- हौले चलने लगा । मन किया लोई उतार कानों में ठूस लूँ । मेरे कानों के पास कुछ खड़कने लगा था ।
जिस बस में से उस दिन कालू उतरा था उसके इंजर - पिंजर भी कुछ ऐसे ही खड़क रहे थे । मैं चीने की दूकान पर बैठा था जब अड्डे पर रोडवेज की बस आकर रुकी । मैं नीचे उतरती सवारियों को देखने लगा । जब कालू नीचे उतरा मैं उठ कर खड़ा हो गया था ।
' कैसे हो बलकारी ....? मुझे देख वह हंसने लग पड़ा । '
'ठीक हूँ भाई ! तुम इतने दिन कहाँ थे ...?' भूख से मेरा बुरा हाल था । कालू को देख मुझे चाव सा हो आया । उस दिन सुबह से ही रोटी नहीं खाई थी । बल्ली कई दिनों से मेरे साथ रूठी हुई थी । वह मुझे एक ही बात कहती , ' देख मैं तो तुझे कोई काम-धंधा करने को कहती हूँ .....यूँ तेरा कब तक चलेगा बता ....?
चलना भी मुश्किल ही था । काफी वक़्त हो गया था मुझे गाँव रहते । पर गाँव के लोगों का अभी नखरा ही न उतरा था । सज्जन मास्टर और बंटी ने पता नहीं गाँव के लोगों को क्या पट्टी पढ़ा दी थी कि कोई मुझ से काम करवा राजी ही न था । कभी - कभार कोई बहुत जरूरतमंद दिहाड़ी पर ले जाता । जो पैसे मिलते वह मै दारू बीड़ी में उड़ा देता । मैंने तो अपना घर बेचने की भी सोच ली थी , पर बल्ली रोक लेती ...,'ना ..ना..बलकारी ....तुझे मेरी सौगंध जो घर बेचा ....! ..वे ! सर छुपाने की कोई जगह तो होगी तेरे पास अगर इससे भी बुरे दिन आ गए तो .....?'
' बुरे दिन क्यों बलकारी ....? अब तो अच्छे दिन आ रहे हैं अपने ....! अच्छा खाते हैं मंदा बोलते हैं ...। किसी साले का देना-लेना कुछ नहीं बस गिद्दा ही पड़ना है ....!' रात दारू पी के कालू ने मेरी पीठ थपथपाई थी ।
पर पीठ थपथपाते वक़्त जैसे उसका हाथ कांपा हो । पैग लगा कर मैंने उससे पूछा भी , '' मुझे भी बता जरा कौन से ताले की चाबी मिल गई है तुझे ...?''
बताऊँगा ....ले जाऊँगा तुझे भी ...! बीड़ी का कश खीँच वह बात को इकट्ठी सी कर गया ... ।
फिर भी मैंने उसे कई बार पूछा । पर दुसरे दिन जाने तक उसने मुझे कुछ न बताया । शराबी हुआ वह उट-पटांग कई कुछ बोलता रहा । नशे में मुझे उसकी कोई बात समझ न आई । पर मुझे वह कुछ बदला- बदला सा लगा था ।
'' मुझे तो लगता है वह चोरों के टोले संग मिल गया है ...। मैंने तुझे नहीं जाने देना उसके संग बलकारी ....ना..ना...!'' मेरे सीने पर सर रख बल्ली सारी रात रोती रही ।
पैसों की खातिर उलटी से उलटी बात कर जाने वाले कालू संग जाकर मैंने कितनी बड़ी भूल की थी । पर वह कौन सा मुझे धक्के मार ले गया था । मैं ही उसके साथ अपनी मर्ज़ी से गया था । उसके साथ जाते वक़्त बल्ली का मोह भी आँखों से ओझल हो गया था । कालू ने तो कहा भी था , ' देख भाई बलकारी ...! मैंने तो सारी बात तुझे सच्चाई के साथ बता दी । अब यह काम करना है या नहीं यह तुझे सोचना है ...सोच कर बता देना ....!''
पता नहीं क्या सोच मैंने कालू को हाँ कह दी थी । गलती तो मेरी अपनी ही थी। पर गालियाँ कालू को दीये जा रहा था । गधे से गिर मैं कुम्हार पर गुस्सा निकाल रहा था । अगर बल्ली कि बात मान लेता तो आज ये दिन न देखना पड़ता ।
सामने बल्ली का घर दिखाई दे रहा था । मेरे और बल्ली के बीच कुछ ही फासला था । ठण्ड बढ़ने से धुंध गहरी हो गई थी । मैंने लोई का लपेटा ठीक किया । बल्ली के घर के सामने जा डरा सा खड़ा था । उस वक़्त कुण्डी खड़कानी मुझे दुनिया का सबसे कठिन काम लगा था । हाथ भी उठ नहीं रहा था । बांह लकवे के मरीज़ सी लटक रही थी । मेरे अन्दर कुछ बैठा जा रहा था ।
अन्दर हल-चल सी हुई , फिर खुसर-फुसर हुई । बल्ली की आवाज़ के साथ किसी पुरुष की आवाज़ थी । सुनकर मुझे करंट सा लगा । यह तो ......? मेरे पैर धंस से गए । आग लगे घर की सी हालत में मैं दूर हट कीकर के नीचे जा खड़ा हुआ । मेरी आँखें दरवाज़ा खुलने की ताड़ में थी ।
चीं....चीं....करता ज्यों ही दरवाज़ा खुला ...आस-पास देखता हुआ सज्जन मास्टर हौले से सड़क की ओर चल पड़ा । मेरा दिल किया की दौड़ कर जाकर उसे गले से पकड़ लूँ और पीट- पीट कर उसकी बांह तोड़ दूँ । फिर गिरे पड़े को पूछूं , '' ना अब ये तेरी माँ लगती है ...?''
पर बंद हुए दरवाज़े ने मुझे उसी स्थान पर रोक लिया । अन्दर जलते बल्ब की रौशनी में मुझे दरवाज़ा बंद करती बल्ली का चेहरा दिखा । उसका चेहरा देखने ही तो मैं आया था ।
'बल्ली.!...बल्ली ...!!' कीकर के नीचे खड़ा- खड़ा मैं पता नहीं कब दरवाज़े के सामने जा खड़ा हुआ । मेरा हाथ कुण्डी खड़का रहा था ।
' बल्ली मैं ....!'
'बलकारी तू ....?'
कुण्डी खोलते सार ही हम दोनों के मुँह से एक ही बात निकली । पर पूरी न वह कर सकी न मुझसे हुई । मुझे तो यूँ ही दिखना-सुनना बंद हो गया था । बल्ली के शरीर की गर्मी से मुझे गर्मी आने लगी । मुझे साँस चढ़ गयीं , 'अन्दर चलते हैं ...बल्ली ...!'
मेरी बात सुन वह मेरे साथ अन्दर की ओर चल पड़ी । वह छनक-छनक करती जा रही थी । उसकी झाँझरों की झंकार सुन मेरी चाल धीमी पड़ गई । मुझे शेरू कुम्हार का घोडा याद आ गया । जिसकी पीठ पर चाबुक पड़ रही थी । पर मेरी पीठ पलोसती बल्ली तो मुझे अन्दर लिए जा रही थी ।
अन्दर बैठक में जाते ही मैं खाली पड़ी खाट पर चौपट गिर पड़ा । दूसरी खाट पर बल्ली के दोनों बच्चे सोये पड़े थे । खाट की बाही पर बैठ बल्ली रोने लग पड़ी , ' तू कहाँ चला गया था बलकारी ....? मैंने तुझे कहाँ नहीं ढूँढा ..किस-किस से नहीं पूछा...? बे तुझे कभी मेरी याद न आई ...? वह नामुराद कालू तुझे कहाँ ले गया था चंदरे ...?
बल्ली की बात सुन मेरे अन्दर से कुछ दरकने लगा । मेरे मुँह से चीख निकलती-निकलती बची ।
पर रेल-गाड़ी की चीख को मैं न रोक सका। मैंने चारपाई से उठकर भागना चाहा । पर बल्ली का चेहरा मेरे सामने था । पैरों में झाँझरें डाले वह मेरी शेव की दाढ़ी के काँटों पर हाथ फिराए जा रही थी । खेतों में बिछी पटरी पर से रेल-गाड़ी भागी जा रही थी ।
उस दिन भी रेल-गाड़ी ही जा रही थी । कंगाली का मारा मैं कालू के साथ चल पड़ा था । वह कम पर मैं पूरा शराबी था । बाज़ार पार का वह एक कच्चा रस्ता था । आस-पास कीकर के पेड़ थे और आगे रेल कि पटरी । पटरी पार कर वह एक बस्ती में जा घुसा । अधमुंदी आँखें खोल कर जब मैंने देखा वह मुझे एक छोटे से घर के सामने लिए खड़ा था ।
'यह नर्स है बलकारी ....!इसने करना है अपना काम ....!' इक खूबसूरत सी स्त्री के दरवाज़ा खोलने पर कालू मुझे अन्दर ले गया ।
अन्दर जाते ही मैं चारपाई पर धड़ाम से जा गिरा । डर और नशे से मेरी सुरती डूबती जा रही थी । मेरी आँखें कभी खुलती तो कभी बंद हो जातीं । मुझे फटाफट उस खूबसूरत स्त्री की उडीक थी । जब मैंने ध्यान से देखा वह तो मेरे पास खड़ी थी । पता नहीं मैंने कब कपडे उतारे । मेरे शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं था । स्थिति भांप कर एक बार तो मैं बहुत ही डर गया । सब कुछ जानकर मैंने एक बार उठना भी चाहा । पर कालू ने पीछे से मेरी बाहें पकड़ लीं । साथ ही नर्स के हाथ में पकड़ी कोई चमकीली की सी चीज आरी सी चली । मेरे मुँह सी निकलती चीख पटरी पर दौड़ी
रेल की चीख के नीचे दब गई । उस दिन से ही मैं मूत्र त्याग बैठकर करने लगा था ।
अगले दिन मैं किन्नरों के डेरे में शामिल था ।
' क्यों बे मुए कालू ....!...बन गया न छोकरा मेरे काम का बंदा ....?' मुखिया ने जब ताली मार कर पूछा , सारे किन्नर ताली मार-मार हंसने लग पड़े ।
उनमें कालू भी शामिल था । हमारे जैसे और भी कई लड़के थे । चारों ओर तालियाँ बज रहीं थीं । महीना भर दवाई-पानी के बाद मैं भी ताली मारनी सीख गया था । कालू को मार कर ख़ुदकुशी करने का ख्याल हौले-हौले घुंघरुओं की छंकार में बदल गया था ।
बे तू तो बिलकुल बदल गया बलकारी .....! साल भर पता नहीं कहाँ रहा तू .....? मैं कबकी बुलाई जा रही हूँ तू बोलता ही नहीं ....? मुझे बाँहों में लपेटती बल्ली पैरों की झाँझरे बजा रही थी ।
मैं खाट पर बड़ी कठिनाई से बैठा था , ...ये..झाँझरें ....न ...छनका बल्ली ....!'
मेरी बात सुनकर वह मेरे साथ और जुड़ कर बैठ गई , ' झाँझरें न छनकाऊँ ....? बे तूने ही तो तब लाकर दी थीं ...? । कहते थे पहन कर रखाकर बल्ली सुन्दर लगतीं हैं ...!...तेरी तो यूँ शक्ल ही बदली पड़ी है ....!...न ...हुआ क्या है तुझे ....?
बल्ली का सवाल सुन मेरे अन्दर खासा कुछ गुत्थम-गुत्था सा हो गया । मुझे कोई जवाब न मिला । बस चुपचाप नीचे झुक कर मैं उसके पैरों से झाँझरे खोलने लगा ....!!
**************समाप्त ***************
लेखकः जसबीर 'राणा '
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः९८१५६५९२२०
**********************************
अनुवाद :हरकीरत 'हीर'
१८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर
हॉउस न -५ , गुवाहाटी-७८१००१ (असम)
फोन- ९८६४१७१३००
ग्र।मः अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः९८१५६५९२२०
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अनुवाद :हरकीरत 'हीर'
१८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर
हॉउस न -५ , गुवाहाटी-७८१००१ (असम)
फोन- ९८६४१७१३००
बहुत अच्छा लगा कहानी का यह अंश । अनुवाद भी अच्छा करती हैं आप।
ReplyDeleteअच्छी जा रही है कहानी आगे के अंक की प्रतीक्षा है क्या बलारी बल्ली से मिल पाया ?
ReplyDeleteआशा जी जसवीर राणा जी को तो मैं उलटी खोपड़ी पुकारती हूँ ....पता नहीं कहानी का प्लाट कहाँ - कहाँ से ढूढ़ कर लाते हैं और बिलकुल अलग और विचित्र शैली में लिखते हैं ....मुझे बहुत प्रभावित करतीं हैं इनकी कहानियाँ ....धीरे धीरे ही कर पाऊँगी अनुवाद काफी लम्बी कहानी है ......!!
ReplyDeleteआदरणीय हरकीरत जी, अनुवाद के माध्यम से कितना सुंदर अनुसृजन किया जा सकता है आपका यह ब्लॉग इसी का उदाहरण है. 'ਵੇਰੀ ਗੁਡ' ਤੋੰ ਘੱਟ ਕੀ ਲਿਖਾੰ. अनुवाद से सृजन करना कई बार मूल सृजन की अपेक्षा अधिक सुखदायी हो जाता है. आपने मेधा को परिचित कराया इससे हिंदी साहित्य समृद्ध होगा.
ReplyDeleteहीर जी, बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी. कहानी अंत में सोंचनें को विवश करती है क्या ऐसा भी संभव है.. सुंदर अनुवाद कार्य के लिए आप भी बंधाई के पात्र है.
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