डा कुञ्ज मेधी की एक असमियाँ कविता ''मैं बड़ी हुई '' का हिंदी अनुवाद .....
डा मेधी का संक्षिप्त परिचय: अब तक इनकी २५ किताबें आ चुकी हें ....६ काव्य - संग्रह ,५ अनुदित पुस्तकें , २ सम्पादित संकलन , कुछ राजनीति ,प्रकृति और अध्यात्म पर लिखी पुस्तकें , एक आत्मकथा ....वर्तमान में ये गुवाहाटी यूनिवर्सिटी से पोलिटिकल साइंस में प्रधान प्रवक्ता के पद से रिटायर हो चुकी हें ....
मैं बड़ी हुई .....
मैं बड़ी हुई दादीमाँ
पर उस तरह नहीं
जैसा तुन चाहती थी
सीने में ...
इक धधकती ज्वाला लिए
अश्रुपूरित आहत मन से .....
बहुत ही असहनीय है
यह पशुपूर्ण आचरण
प्रतिक्षण प्रहृत ,रक्ताक्त ,
विध्वंश होता प्रतिपल ......
पता भी न चला
कब और कैसे इन अनुभवों ने
आकर ले लिया ...
मिट्टी गारे से खेलते-खेलते ,
गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाते ,
बेर-जामुन चुनते- खाते
धान माड़ते-माड्ते शीत गोधुली के
धीरे-धीरे खिसकते वक़्त के साथ .....
किसी गहरी खाई में
उतर जाते हें मन के वृक्ष
तब इक लम्बी वार्तालाप चलती है
तुम्हारी स्मृतियों के साथ ...
गिला इस बात का न था
कि उठाती रही हूँ बोझ
यंत्नाहत अनुभूतियों की
ताड़ना परिक्रमा प्राय :
अचल कर जाती है मुझे ...
आग से जन्मी हूँ
तो क्या इसीलिए दहन होना पड़ेगा
मुझे ताउम्र आग में ?
सुना है ....
अग्नि ही प्रज्वल्लित करती है अग्नि को
फिर भी राख़ हो रहा है
मेरे जीवन का स्निग्ध-स्निग्ध
हरित द्वीप ......
दादी माँ ....!
क्या तुम भी जली थी मेरी ही तरह ?
क्या तुम्हारा ह्रदय भी राख़ हो गया था
मेरी ही तरह ....?
काश....!
ऐसे वक़्त तुम्हें एक बार मिल पाती -
नए धान के भात की सुवास में .....
सतियाना दरख्तों के बीच से
झांकते चाँद की चाँदनी में .....
अर्द्ध रात्रि में किसी परिंदे के
अनवरत विलाप में ....
गमजदा गीतों के सुरों में
जिन्हें कई -कई बार सुन
ह्रदय भर उठता है
निर्जनता के स्वरों से .....
दादी माँ .....!
मैं बड़ी हुई .......
चूर-चूर होते उन स्वप्नों के साथ
रिक्त पात्र और मर्मबोधहीन
शहर के अन्धकार के बीच
चारों ओर है असंख्य वेदनाओं के
बारूदों का ढेर ....
जहाँ पल-पल शेष होती
अब मृत्य-प्राय हो चुकी हूँ मैं
जानती हूँ तुम हो कहीं आस -पास
सांसें अब गहरी होकर
ढूंढ रही हें ...
आश्रय का महीरूप
आकाश-कुसुम .....!!
Friday, July 30, 2010
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काश....!
ReplyDeleteऐसे वक़्त तुम्हें एक बार मिल पाती -
नए धान के भात की सुवास में .....
सतियाना दरख्तों के बीच से
झांकते चाँद की चाँदनी में .....
अर्द्ध रात्रि में किसी परिंदे के
अनवरत विलाप में ....
गमजदा गीतों के सुरों में
जिन्हें कई -कई बार सुन
ह्रदय भर उठता है
निर्जनता के स्वरों से .....
dard ka jaise sota bah chala ho. Anuwad men bhee jan dal deti hain lagta hai ki yahee mool hai.
दादी माँ .....!
ReplyDeleteमैं बड़ी हुई .......
चूर-चूर होते उन स्वप्नों के साथ
रिक्त पात्र और मर्मबोधहीन
शहर के अन्धकार के बीच
चारों ओर है असंख्य वेदनाओं के
बारूदों का ढेर ....
जहाँ पल-पल शेष होती
अब मृत्य-प्राय हो चुकी हूँ मैं
जानती हूँ तुम हो कहीं आस -पास
सांसें अब गहरी होकर
ढूंढ रही हें ...
आश्रय का महीरूप
आकाश-कुसुम .
aapke prayaas se is rachna ko padha hai , aap shubhkamnaaon kee hakdaar hain
संवेदनशील रचना। नव वर्ष-2011 की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteह्रदय भर उठता है
ReplyDeleteनिर्जनता के स्वरों से achhi रचना हार्दिक शुभकामनाएं।
काश....!
ReplyDeleteऐसे वक़्त तुम्हें एक बार मिल पाती -
नए धान के भात की सुवास में .....
सतियाना दरख्तों के बीच से
झांकते चाँद की चाँदनी में .....
अर्द्ध रात्रि में किसी परिंदे के
अनवरत विलाप में ....
गमजदा गीतों के सुरों में
जिन्हें कई -कई बार सुन
ह्रदय भर उठता है
निर्जनता के स्वरों से .....
...bahut sundar samvedansheel prasututi..
haardik shubhkamanayne
किसी गहरी खाई में
ReplyDeleteउतर जाते हें मन के वृक्ष
तब इक लम्बी वार्तालाप चलती है
तुम्हारी स्मृतियों के साथ ...
nice post
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