असमिया के प्रतिष्ठित कवि नीलिम कुमार की कवितायें
उसका ह्रदय …
उसका ह्रदय
मैं लिए घूम रहा हूँ
वह छोड़ गई है अपना ह्रदय
मेरे सीने में …
अब नहीं है उसका ह्रदय
उसके सीने में , इसलिए
वह हँस सकती है , गा सकती है
नाच सकती है , खेल सकती है
उसे कोई दुःख नहीं होता
क्योंकि अब उसके पास
ह्रदय जो नहीं है ....
अब मेरे सीने में
उसका ह्रदय रहता है , इसलिए
संभल कर चलता -फिरता हूँ
संभल कर बैठता हूँ
संभल खाता हूँ
संभल कर बोलता हूँ ....
कभी -कभी खोल कर देख लेता हूँ
अपनी छाती को
उसका ह्रदय सही -सलामत
है भी या नहीं। … ?
वह खेल सकती है
सारे खेल क्योंकि
उसका ह्रदय जो नहीं है …।
उसका ह्रदय …
उसका ह्रदय
मैं लिए घूम रहा हूँ
वह छोड़ गई है अपना ह्रदय
मेरे सीने में …
अब नहीं है उसका ह्रदय
उसके सीने में , इसलिए
वह हँस सकती है , गा सकती है
नाच सकती है , खेल सकती है
उसे कोई दुःख नहीं होता
क्योंकि अब उसके पास
ह्रदय जो नहीं है ....
अब मेरे सीने में
उसका ह्रदय रहता है , इसलिए
संभल कर चलता -फिरता हूँ
संभल कर बैठता हूँ
संभल खाता हूँ
संभल कर बोलता हूँ ....
कभी -कभी खोल कर देख लेता हूँ
अपनी छाती को
उसका ह्रदय सही -सलामत
है भी या नहीं। … ?
वह खेल सकती है
सारे खेल क्योंकि
उसका ह्रदय जो नहीं है …।
(२)
बाज़ार
वह प्रेम बेच रही थी
मैंने भी अपना
ह्रदय देकर कहा
मुझे भी दे दो थोड़ा सा प्रेम
वह बोली ,' कितना दूँ ?'
वह बोली ,' कितना दूँ ?'
मैंने कहा -
मृत्यु के बराबर …
उस वक़्त उसके कलश
मदमस्त होने जितना ही
प्रेम बचा था , मैंने कहा
मदमस्त होने जितना ही
प्रेम बचा था , मैंने कहा
बस इतना ही दे दो ....
उसने कहा
फिर तो तुम्हें
मुझे छुट्टे देने होंगे
मुझे छुट्टे देने होंगे
मैं तुम्हारा इतना विशाल
ह्रदय नहीं रख सकती …
ह्रदय नहीं रख सकती …
मैंने कहा छुट्टे नहीं हैं
उन्हें पहले ही कहीं दे आया हूँ
ह्रदय ही रख लो
शाम को कुछ और प्रेम
दे देना .... !!
(3)
वह चुपचाप ही
मेरी छाती का द्वार खोल
अंदर चली आई थी
आते ही
मेरे प्रेम का गुलदस्ता
तोड़ दिया था उसने …
जाने कहाँ से
आफतनुमा ये मित्र
सुबह ही आ धमकी थी
खिलाया -पिलाया
शाम हो गई
पर मेहमान के जाने का
कोई नाम ही नहीं था ....
रात घिर आई
मेहमान मित्र गहरी नींद सो गई थी
मेरे साथ ही मेरे बिस्तर पर
मध्य रात्रि
अचानक वह मेरी हथेली पर
दे देना .... !!
(3)
मेहमान
मेरी छाती का द्वार खोल
अंदर चली आई थी
आते ही
मेरे प्रेम का गुलदस्ता
तोड़ दिया था उसने …
जाने कहाँ से
आफतनुमा ये मित्र
सुबह ही आ धमकी थी
खिलाया -पिलाया
शाम हो गई
पर मेहमान के जाने का
कोई नाम ही नहीं था ....
रात घिर आई
मेहमान मित्र गहरी नींद सो गई थी
मेरे साथ ही मेरे बिस्तर पर
मध्य रात्रि
अचानक वह मेरी हथेली पर
रख देती है एक पोटली
मेरी छाती से निकाल
और चल देती है
रात की रेल पर सवार ....
खोल कर देखता हूँ पोटली
मेरे प्रेम के गुलदस्ते की ही तरह
टूटा पड़ा था उसका ह्रदय
न जाने कहाँ से आई थी
वो मेहमान मित्र
और रात्रि की रेल पर सवार
न जाने कहाँ चली गई....…(4)
चलो सूर्य कहीं दूर चल....
चलो सूर्य कहीं दूर चलें यह धरती रहे अँधेरे में
हम नहीं मरेंगे इस धरती पर
इस धरती पर हम नहीं मरेंगे सूर्य
चलो सारी मोह, ममता त्याग
कहीं दूर चलें सूर्य…
चलो सूर्य कहीं दूर चलें
चलो सूर्य कहीं दूर चलें इस धरती से कहीं दूर …।
अच्छे रचनात्मक अनुवाद के बहुत-बहुत शुक्रिया। आपके अनुवाद में भाषा और संवेदना दोनों साथ-साथ चलते हैं। इतना सुंदर समन्वय देखकर हैरानी होती है। आपको पढ़ना सदैव अच्छा लगता है। नए साल में लेखन के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteBirthday Gift Ideas | Best Birthday Gifts Online
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