लेखक परिचय :
नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( १) खितियाँ घूम रहीआं ने ( २) शिखर दुपहिरा
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
संपर्क- ग्राम : अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०
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कहानी ....
घुंघरू कथा .....लेखक- जसवीर 'राणा' ...(अनु . हरकीरत 'हीर')
''उई अल्लाह..!...मैं मर जाऊं ..!...क्या हुस्न है ...!''आईना देखकर मैंने अपना नीचे का होंठ काटा ....
नाज़ से नाक सिकोड़ा तो मेरी नथ-मछली काँप उठी ....
मैंने आईने को आँख मारी ,''क्यों बे मुए ! बता न मैं कौन हूँ ...?''
पर वह कुछ न बोला। मरजाणा मर्दों की तरह चुप रह गया। ... मैं कितनी ही देर औरतों की तरह उसकी ओर ताकती रही। जब वह नहीं बोला , मैंने ताली मारी ,'' ओये होए !...अबे जा हट ...तू भी वही निकला ..!''
अपना हुस्न देख मेरी 'आह' निकल गई।
मैं लाल चूड़ियों की ओर देखने लगी। बालों की लट मेरे माथे पे आ गिरी। मैंने कलाई पे बाँधी घुंघरुओं वाली चूड़ी को चूम लिया। मुई मेरे सूट से बिलकुल मेल खाती थी। मेरा ध्यान आँखों की तरफ गया , ''उफ्फ ! ये आँसू ...? मेरा काज़ल गालों से बह निकला था। मैंने दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया ..
'' मुँह छिपाने से पहचान नहीं छिपा करती रीना !...इनका सामना कर ..." मुझे मीना महंत का थप्पड़ याद आ गया।
जब मैंने पहली बार मुँह छिपाया था उसने थप्पड़ जड़ दिया था गालों पे।
मैंने धीरे -धीरे चेहरे से हाथों को हटाया ... तिरछी आँख से आईने की ओर देखा ...
''अरी सुन जरा ...यह आईना भी तो मर्दों का ही बनाया हुआ है ..इसने कुछ नहीं बताना तुझे ! तू अपने पैरों की ओर देख ...!'' चारपाई पे बैठा हाजी हाथों से मेरे पैरों में बंधे घुंघरुओं की ओर इशारा करने लगा।
पान चबाता हुआ वह कब का मेरी हरकतों को देखे जा रहा था।
हम अजीब परिस्थितियों से गुजर रहे थे।
बेइमान रब्ब ने भी तो हमारे साथ बुरा किया था। सब-कुछ आधा -अधूरा बनाकर छोड़ दिया। हममें से न कोई औरत था न कोई मर्द। यूँ हमारी देह में औरत भी बसती थी और मर्द भी।
'' नहीं रीना ! हमारे अन्दर कुछ नहीं बसता..''..पान चबाते-चबाते हाजी दाँत पीसने लगा।
जब मैं न हटी , उसने पान भरी थूक की पिचकारी दूर दे मारी।
उसकी हरकत देख मैं तड़प उठी , '' रुक जा हाजी ..! अब और मत बोलना ...! मैं कहे देती हूँ ...''
मेरी बात सुन वह तैश में आ गया और उठकर भीतर चला गया।
मैं बाहर की ओर जाते जैले की ही तरह उसकी पीठ देखती रह गई, लेकिन न वह वापस परता न ही जैला ....
यदि मुझे पता होता तो जैल को कभी न छेड़ती , मैंने तो मजाक किया था , ''अबे चल बे ...! रहा ना वही नचने का नचना ही ...''क्या पता था कि वह भीतर से इतना टूटा हुआ निकलेगा ..
मुई बात भी कुछ ख़ास न हुई थी ....नहीं बात तो कुछ ख़ास ही हो गई थी। मैं यहाँ खड़ी थी आईने के पास जिस वक़्त जैला आया। आते ही मुझे देव राजमिस्त्री की बातें बताने लगा। पहले भी बताया करता था। मैंने कभी विशेष ध्यान नहीं दिया था बस अनमनी सी सुनती रही ; पर इस बार उसकी बात बड़ी तीखी थी, सुई की तरह चुभ गई। वह तड़प उठा , मुझे धक्का मार खुद आईने के सामने जा खड़ा हुआ। मैं वहीँ खड़ी उसे देखती रही। मुआ अजीब सी हरकतें करता रहा ; कभी सर पर बालों का जुड़ा सा बना लेता कभी चोटी कर लेता , कभी चुनरी बाँधने लगता तो कभी गमछा बाँध लेता। दो-एक मिनट आईना देखता फिर सुई बदल जाती। टोंटी पर से मुँह धोता ,गमछे से साफ करता फिर कभी चोटी कभी जुड़ा करने लगता। उसका पागलपन देख कर मैंने उसे धक्का मारा , ''अबे जा परे ...वही ...!''
'' रीना तू भी मुझे ...!'' लोगों का धिक्कारा हुआ वह मेरा धक्का न सह सका ...गमछे से आँखें पोंछता वह बाहरी दरवाजे से बाहर निकल गया ....मैं भाग कर गली में गई , कितनी ही आवाजें भी लगाईं , ''अबे जैले लौट आ जालिम ...''
'' जा नहीं आना वापिस तो मत आ , पापी कहीं का ..'' मैंने आईने को जीभ दिखाई , नाक सिकोड़ा ..ताली बजाती हुई बाहर आ गई।
आँगन में आकर धरती पर एड़ी मारी , घुंघरू छनक उठे। मैं गाने लगी , '' घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं ....''
'' कभी इस पग में कभी उस पग में ...बंधता ही रहा हूँ मैं ....'' भीतर से बाहर आता हाजी भी गाने लगा।
मेरी एड़ी उसकी ताली ...मेरे घुंघरू , उसके बोल ...हम जैसे पगला गए थे ..
''घुंघरू की तरह ...घुंघरू की तरह....घुंघरू की तरह...'' मैं हाजी के साथ पागलों की तरह नाचने लगी ...मन में जैला-जैला करती पता नहीं कब तक नाचती रही। जब सुरती लौटी मुई धरती जैसे घूम रही थी। मुझे चक्कर आने लगे। हांफता हुआ हाजी चारपाई पे जा गिरा। उसे आँख मार मैं दीवार की टेक लगा खड़ी हो गई। फिर धीरे-धीरे नीचे बैठ गई।
बैठते ही आँखें बाहर की ओर देखने लगीं थीं । कोई खुदा का बन्दा दरवाजा खटखटा रहा था। शायद जैला लौट आया हो ....सोचती हुई मैं फिर चुहलबाजी पे उतर आई, '' इस घर का द्वार खटखटाने की जरुरत नहीं प्यारे ...आजा कौन है तू ....''
'' मैं हूँ रीना.... '' कहता हुआ हरामी कोका पंडित चला आ रहा था।
था तो वह मंदिर का पुजारी परन्तु आदत बुरी थी मुए की ..मुआ गली के लड़कों को छुप-छुप सुहागरात मनाने की बातें बताया करता।. उसके पास कोकशास्त्र था जिसमें से पढ़कर वह बताया करता। लड़कों ने तभी इसका नाम कोका पंडित रख दिया था।
'' बोल पंडित ...क्या कहता है तेरा राम राज्य हमारे विषय में ...." चारपाई से उठते हुए हाजी ने कुर्सी की ओर इशारा किया।
पंडित मेहमानों की तरह सजकर बैठ गया।
सफेद बाल...हरामी आँखें ...गले में राम नाम का गमछा ...तिलक ..माला .....!
मेरी तरफ देख मुआ मुँह साफ करने लगा। उसकी धोती की ओर देख मैंने फब्ती कसी , ''हाय रे पंडित ...मैं मर जाऊं ..ला फिर खोल धोती ...''
राम...राम...रीना...राम...राम.. ..राम-राम.....'' मेरी इच्छा को जानते हुए मुआ थूक उगलने लगा।
मुझे मानों आग सी लग गई ... मैंने ताली पीटी ...उठकर उसके पास जा बैठी ...
पाखंडी की चोटी पकड़ उसकी आँखों में झाँकने लगी ...''अबे मुए यदि तेरा धर्म हमें हमारी जगह नहीं दिला सकता ...फिर भला राम की गंगा मैली क्यों करता फिरता है ..? जा दफा हो जा यहाँ से ...नहीं तो यह चोटी उखाड़कर पीछे दे दूंगी हरामी कहीं के ...!''
मेरा गुस्सा देख वह पापी डर गया , उसने धोती संभाली और दरवाजे का रुख किया। मैंने उसके सर पर ठोंगा मारा ,वह कच्चा सा हो गया। जब दरवाजे के पास पहुंचा धरती पर एड़ी मार हाजी ने ताली बजाई , ''आया बड़ा धर्म का ठेकेदार ...बातें तो देखो इसकी ....!''
वह कौन सी गली थी जहाँ रीना नहीं खड़ी हुई। हमसे भला क्या छिपा ..जिस बात के लिए वह जैले के पीछे घूमता था। वही बात मुझे भी बताने लगा। उसे मेरी सलोनी सूरत पसंद आ गई थी। एक दिन मैं मंदिर वाली गली से गुजर रही थी वह भाग कर बाहर आ गया , '' तुझे हिजड़ा कौन कह सकता है रीना ...तू तो लड़कियों को भी मात देती है ....''
''तो फिर मुझे घर में बसा ले, जानी ...'' मेरी बात सुन पाखंडी मंदिर में जा घुसा।
'' साला पापी कहीं का ....आखिर हमारा भी कोई दीन धर्म है ..''! कोका पंडिताई धर्म को देख मुझे एक राम कथा याद आ गई , यह मुझे मीना महंत ने सुनाई थी। उसने बताया कि जब राम चन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास काटने हेतू घर से निकले उनके पीछे लोगों की अथाह भीड़ थी। जब राम जंगल में प्रवेश करने लगे उन्होंने कहा सभी नर और नारी वापस लौट जायें। यह बात सुन सभी नर-नारी वापस लौट गए। लेकिन भीड़ में कुछ हम जैसे लोग भी थे वे न तो नर थे और न ही नारी , वे वहीँ खड़े रहे। जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास काट कर वापस लौटे उन्होंने महंत लोगों को वहीँ खड़े देखा। उनके शरीर पर घास -फूस उग आया था। श्री राम ने उनके शरीर से अपने अंगूठे का स्पर्श किया शरीर घास-फूस से मुक्त हो गया। प्रभु ने उन्हें वर दिया कि आज के पश्चात् आप लोगों की खुशियाँ मांगोगे। ख़ुशी के अवसर पर कोई भी तुम्हें बधाई देने से इनकार नहीं करेगा।
'' अब तो सारी दुनिया ही इनकार किये जा रही है रीना ...'' एक दिन नाच-नाच कर थका हुआ जैला ' राम नाम सत्य ' करने लगा हुआ था .
मैं उसकी बातें सुन सोच में पड़ गई। रामलीला देखने वाली दुनिया कितनी लुच्ची हो गई है। यह मुई देखने सुनने तो रामलीला आती है पर मन में 'जैले की लीला ' ही चल रही होती है।
देखूं तो सही वहाँ क्या था ..? राम वश हुई मैं एक दिन रामलीला देखने चली गई। थाने के पास खाली पड़ी जगह पर मंच सजा हुआ था। मैं लोगों की भीड़ में जा खड़ी हुई। आरती के बाद जब राम-सीता प्रसंग शुरू हुआ लोगों की भीड़ छंटनी शुरू हो गई। आधी तो दुकानों के आगे बने चबूतरों पर जा बैठी आधी सड़कों पर घुमने लगी।
''मंत्री जी ! ...गाने वाली को पेश किया जाये ....'' जैसे ही मंच पर से प्रसंग बदला , रावण बने हुए दुर्गा हलवाई की बांह हवा में लहराई। स्पीकर में 'बिजली गिराने मैं हूँ आई ...' गीत बजने लगा।
छँटती हुई भीड़ आँधी की तरह इकठ्ठा हो गई। देखने वालों की धक्का-मुक्की शुरू हो गई।
कई वर्षों से राम-लीला में नचना बनकर नाचता आ रहा जैला श्री देवी की तरह कमर लचका-लचका कर नाचने लगा था।
उसका नाच देख मैं तालियाँ बजाने लगी ...''वाह जैले ...!''
''बधाई हो जेठ जी वाह ...!..वाह तेरी लीला बधाई हो बधाई ....''!!
बधाई जेठा तुझे ..अबे तूने बमुश्किल शहद का बर्रा चुआ ...''हाजी को छेड़ती हुई मैं दोबारा आईने के सामने खड़ी हुई मेकअप ठीक करने लगी। हाजी साजिन्दों को आवाजें देने लगा , ''ओये राजू...ओये बाबू ..कहाँ मर गए जालिमों ...? निकाल लाओ बाजा ढोलकी बधाई मांगने चलें ...''
मांगना हमारा पेशा था , नाचना हमारी होनी। अगर न नाचते तो थकावट नहीं होती पर मुआ पैसा भी न बनता। जैले की तरह पैसा ही नचवाता था। जो भी कमाई होती सारी गुरु को ले जाकर देनी पड़ती
यदि कोई बदकिस्मत न देता , नंगी पीठ पर गर्म चिमटे पड़ते , चमड़ी उधड़ जाती , नील पड़ जाते। इससे अच्छी तो थकावट होती। नाच-नाच कर शरीर थक जाता। गलियों में घूमते-घूमते आत्मा भी तक जाती। आस-पडोस की कोई खबर न रहती।
''अबे हाजी ...!..विमला को होश आया या नहीं ..? उठा मुई को'' , कजरे की धार को तीखा करते हुए मैं हाजी को आवाजें देने लगी।
''वह तो कब की उठ गई है ...तेरा ही फैशन पूरा नहीं होता ....'' फैशन की मारी का ..'' हाजी की बात सुन मैंने सर झटका।
कंजरी चोटी घूम कर छाती से आ लगी थी। उसकी डोर ठीक करती हुई मैंने बिमला की ओर देखा। वह नकली सा हँसी। मेरी छाती में चीस उठी। खाली आँखों से वह दरवाजे की ओर निहारने लगी।
''ओये-होए मैं मर जाऊं ...किसकी उडीक में रहती है नासपिटी ...? इस घर में किसी ने नहीं आना बिमला ..!...चल चले शिमला ..!'' नागिन सी चोटी को मैंने पीछे की ओर फेंका और तालियाँ पीटने लगी। तालियाँ बजाती बिमला साजिंदों की ओर चल पड़ी।
उई माँ ...!..उसका दर्द मेरी रग-रग में घूम गया .. मेरी तरह वह भी दर्द पीने के लिए ही पैदा हुई थी , घरवालों से बिछड़ने के लिए पैदा हुई थी। मुई कई दिनों से बीमार थी। मैं उसका बड़ा ख्याल रखती ,पर वह हर बार मेरी जान निकाल देती , ''देख अपनी खैर -खबर लेने वाला कोई नहीं। डेरे की ख़ामोशी मुझे खा रही है रीना .''.
हालत तो मेरी भी यही थी जिस वक्त मैं अकेली पड़ी होती, डेरे का सूनापन मेरी देह को खाने लगता। रूह सुन्न हो जाती। मैं पागलों की सी आईने के सामने आ खड़ी होती , उससे बातें करती ,जब बेवफा वह भी नहीं बोलता तो मैं खीझ उठती।
'' मत खीझ बहन ....चेहरे पर हंसीं ला ...,जरा सा नखरे दिखा चाल में मरजाणिये ...'' बिमला को खुश करने के लिए मैं कमर मटका-मटका कर चलने लगती , पर उसकी थकी हुई चाल में मस्ती न आ पाई। तीसरी बार तीसरी जगह बिकने का दर्द उसकी चाल के लचीलेपन को खा गया था।
कभी -कभी आधी रात को वह बताने लगती ..पहली बार काली महंत मुझे राजस्थान ले गया उस वक़्त मेरी उम्र फूल की मानिंद थी। उसने ही मुझे नाचना सिखाया। दस साल मैं उसे कमा कर देती रही। बाद में उसने मुझे सवा लाख में लवली महंत के पास बेच दिया। वह मुझे मोगा शहर की तरफ ले आया। कई वर्ष मैं उसके साथ बधाई मांगने जाती रही ...एक दिन उसने भी मुझे शीरा ताज़ी के पास बेच दिया ....'
''तेरा कुछ न बने पापी कहीं के ....'' मेरी हुंकार सुन वह रोने लग पड़ती। जिस दिन हरामी काजी ने कहा बिमला मैं तेरा गुरु हूँ और चेले गुरु का कभी हुक्म नहीं तोड़ते ..अपने कुनबे का असली चेला वही होता है जिसे मूल्य देकर खरीदा हो। इसलिए अब तू गंगानगर कमला महंत के पास चली जाना , मैंने तुझे उसके पास तीन लाख में बेच दिया है !... जालिम की बात सुन मैंने उसके पेट में टक्कर मारी रीना ...वह तैश खा गया। उसने गर्म किया हुआ चिमटा उठा लिया ...पापी तब तक पिलाता रहा जब तक मैं बेहोश होकर गिर न पड़ी।
अपनी व्यथा सुनाते हुए बिमला के अन्दर आग सी दहक उठती। मैं तो दहकी हुई आग पर भी नाच लेता हूँ रीना ...!'' आग से जले पैरों का दर्द छुपाते हुए जैला ठंडी आह भरता। वह दहकती हुई आग के कोयलों पे नाचने के कारण दूर -दूर तक मशहूर थी।
जब कोई कहता , '' नाचता क्या है ससुरा आग लगा देता है ...'
वह कहता ..मैं कहाँ नाचता हूँ पापी ...यह तो मेरा पेट नचवाता है ...किस्मत नचवाती है '' और दातों तले जीभ लेकर अल्लाह -अल्लाह करने लगता।
अल्लाह उस पर मुझसे ज्यादा मेहरबां था। इतना सुन्दर नख-शिख , गोरा रंग , लम्बे काले बाल , तराशा हुआ बदन , नशीली आँखें जब वह शेव करवाकर आँखों में कजरा डाल कर कमर मटका-मटका कर चलता मुआ लड़की ही लगता। जिस भी गली से निकलता कोई न कोई छेड़ ही देता , ''कैसी हो भाभी ...!''
'' ठीक हूँ बे मुँहजले ...'' आँख मार वह कमर की तरह ही बाजू हिलाता हुआ आगे बढ़ जाता।
''लक्क हिल्ले मजाजण जांदी दा वे .....'' बिमला को खुश करने की खातिर मैं जैले की चाल चलने लगती। मरजाणी हँस पड़ी तो मेरी रुलाई फूट पड़ी। छुपाने की खातिर मैं बाथरूम में जा घुसी। जब बाहर आई मुआ हाजी तांगा जोड़े खड़ा था। पिछली सीट पर राजू और बाबू बाजा ढोलक लिए बैठे थे और आगे की सीट पर बिमला बैठी थी। मैं छलाँग लगा उसके पास जा बैठी ।
'' मर गई ...उई माँ ....!'' बिमला ने चीख मारी शायद बैठते वक्त मुझसे उसका पैर दब गया था। मैंने उसे बाहों में लेते हुए कहा , ''पैर बचाकर रखा कर जान ...अपने तो दुनियाँ ही पैर नहीं लगने देती ...''
'' चल बकरी कहीं की ...''बिमला का पैर सँभालते हुए हाजी ने घोड़ी की पीठ पर चाबुक मारी ....
'' मत मार जालिम ...यह भी अपने ही जैसी है ...!''घोड़ी की पीठ पर मारा चाबुक मुझे अपनी पीठ पर पड़े चिमटे जैसा लगा।
दर्द में मैंने नीचे का होंठ दबा लिया। मुंह पर हँसी बिखेर ली। नज़र सड़क की तरफ की और सीधी होकर बैठ गई। नाम :जसवीर सिंह 'राणा'
जन्म- १८ सितम्बर 1968
शिक्षा : एम.ए,बी.एड।
संप्रति :शिक्षण
प्रकाशित कहानी संग्रह :( १) खितियाँ घूम रहीआं ने ( २) शिखर दुपहिरा
पुरस्कार : कहानी संग्रह 'शिखर दुपहिरा ' को पंजाब भाषा विभाग द्वारा 'नानक सिंह' पुरस्कार
कहानी 'नस्लाघात ' बी.ए.के पंजाबी सिलेबस में शामिल
कहानी 'चूड़े वाली बांह '२००७ में सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
कहानी 'पट्ट ते बाही मोरनी ' २००९ की सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित
संपर्क- ग्राम : अमरगढ़
जिलाः संगरूर-१४८०२२ (पंजाब)
फोनः०९८१५६५९२२०
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कहानी ....
घुंघरू कथा .....लेखक- जसवीर 'राणा' ...(अनु . हरकीरत 'हीर')
''उई अल्लाह..!...मैं मर जाऊं ..!...क्या हुस्न है ...!''आईना देखकर मैंने अपना नीचे का होंठ काटा ....
नाज़ से नाक सिकोड़ा तो मेरी नथ-मछली काँप उठी ....
मैंने आईने को आँख मारी ,''क्यों बे मुए ! बता न मैं कौन हूँ ...?''
पर वह कुछ न बोला। मरजाणा मर्दों की तरह चुप रह गया। ... मैं कितनी ही देर औरतों की तरह उसकी ओर ताकती रही। जब वह नहीं बोला , मैंने ताली मारी ,'' ओये होए !...अबे जा हट ...तू भी वही निकला ..!''
अपना हुस्न देख मेरी 'आह' निकल गई।
मैं लाल चूड़ियों की ओर देखने लगी। बालों की लट मेरे माथे पे आ गिरी। मैंने कलाई पे बाँधी घुंघरुओं वाली चूड़ी को चूम लिया। मुई मेरे सूट से बिलकुल मेल खाती थी। मेरा ध्यान आँखों की तरफ गया , ''उफ्फ ! ये आँसू ...? मेरा काज़ल गालों से बह निकला था। मैंने दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया ..
'' मुँह छिपाने से पहचान नहीं छिपा करती रीना !...इनका सामना कर ..." मुझे मीना महंत का थप्पड़ याद आ गया।
जब मैंने पहली बार मुँह छिपाया था उसने थप्पड़ जड़ दिया था गालों पे।
मैंने धीरे -धीरे चेहरे से हाथों को हटाया ... तिरछी आँख से आईने की ओर देखा ...
''अरी सुन जरा ...यह आईना भी तो मर्दों का ही बनाया हुआ है ..इसने कुछ नहीं बताना तुझे ! तू अपने पैरों की ओर देख ...!'' चारपाई पे बैठा हाजी हाथों से मेरे पैरों में बंधे घुंघरुओं की ओर इशारा करने लगा।
पान चबाता हुआ वह कब का मेरी हरकतों को देखे जा रहा था।
हम अजीब परिस्थितियों से गुजर रहे थे।
बेइमान रब्ब ने भी तो हमारे साथ बुरा किया था। सब-कुछ आधा -अधूरा बनाकर छोड़ दिया। हममें से न कोई औरत था न कोई मर्द। यूँ हमारी देह में औरत भी बसती थी और मर्द भी।
'' नहीं रीना ! हमारे अन्दर कुछ नहीं बसता..''..पान चबाते-चबाते हाजी दाँत पीसने लगा।
जब मैं न हटी , उसने पान भरी थूक की पिचकारी दूर दे मारी।
उसकी हरकत देख मैं तड़प उठी , '' रुक जा हाजी ..! अब और मत बोलना ...! मैं कहे देती हूँ ...''
मेरी बात सुन वह तैश में आ गया और उठकर भीतर चला गया।
मैं बाहर की ओर जाते जैले की ही तरह उसकी पीठ देखती रह गई, लेकिन न वह वापस परता न ही जैला ....
यदि मुझे पता होता तो जैल को कभी न छेड़ती , मैंने तो मजाक किया था , ''अबे चल बे ...! रहा ना वही नचने का नचना ही ...''क्या पता था कि वह भीतर से इतना टूटा हुआ निकलेगा ..
मुई बात भी कुछ ख़ास न हुई थी ....नहीं बात तो कुछ ख़ास ही हो गई थी। मैं यहाँ खड़ी थी आईने के पास जिस वक़्त जैला आया। आते ही मुझे देव राजमिस्त्री की बातें बताने लगा। पहले भी बताया करता था। मैंने कभी विशेष ध्यान नहीं दिया था बस अनमनी सी सुनती रही ; पर इस बार उसकी बात बड़ी तीखी थी, सुई की तरह चुभ गई। वह तड़प उठा , मुझे धक्का मार खुद आईने के सामने जा खड़ा हुआ। मैं वहीँ खड़ी उसे देखती रही। मुआ अजीब सी हरकतें करता रहा ; कभी सर पर बालों का जुड़ा सा बना लेता कभी चोटी कर लेता , कभी चुनरी बाँधने लगता तो कभी गमछा बाँध लेता। दो-एक मिनट आईना देखता फिर सुई बदल जाती। टोंटी पर से मुँह धोता ,गमछे से साफ करता फिर कभी चोटी कभी जुड़ा करने लगता। उसका पागलपन देख कर मैंने उसे धक्का मारा , ''अबे जा परे ...वही ...!''
'' रीना तू भी मुझे ...!'' लोगों का धिक्कारा हुआ वह मेरा धक्का न सह सका ...गमछे से आँखें पोंछता वह बाहरी दरवाजे से बाहर निकल गया ....मैं भाग कर गली में गई , कितनी ही आवाजें भी लगाईं , ''अबे जैले लौट आ जालिम ...''
'' जा नहीं आना वापिस तो मत आ , पापी कहीं का ..'' मैंने आईने को जीभ दिखाई , नाक सिकोड़ा ..ताली बजाती हुई बाहर आ गई।
आँगन में आकर धरती पर एड़ी मारी , घुंघरू छनक उठे। मैं गाने लगी , '' घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं ....''
'' कभी इस पग में कभी उस पग में ...बंधता ही रहा हूँ मैं ....'' भीतर से बाहर आता हाजी भी गाने लगा।
मेरी एड़ी उसकी ताली ...मेरे घुंघरू , उसके बोल ...हम जैसे पगला गए थे ..
''घुंघरू की तरह ...घुंघरू की तरह....घुंघरू की तरह...'' मैं हाजी के साथ पागलों की तरह नाचने लगी ...मन में जैला-जैला करती पता नहीं कब तक नाचती रही। जब सुरती लौटी मुई धरती जैसे घूम रही थी। मुझे चक्कर आने लगे। हांफता हुआ हाजी चारपाई पे जा गिरा। उसे आँख मार मैं दीवार की टेक लगा खड़ी हो गई। फिर धीरे-धीरे नीचे बैठ गई।
बैठते ही आँखें बाहर की ओर देखने लगीं थीं । कोई खुदा का बन्दा दरवाजा खटखटा रहा था। शायद जैला लौट आया हो ....सोचती हुई मैं फिर चुहलबाजी पे उतर आई, '' इस घर का द्वार खटखटाने की जरुरत नहीं प्यारे ...आजा कौन है तू ....''
'' मैं हूँ रीना.... '' कहता हुआ हरामी कोका पंडित चला आ रहा था।
था तो वह मंदिर का पुजारी परन्तु आदत बुरी थी मुए की ..मुआ गली के लड़कों को छुप-छुप सुहागरात मनाने की बातें बताया करता।. उसके पास कोकशास्त्र था जिसमें से पढ़कर वह बताया करता। लड़कों ने तभी इसका नाम कोका पंडित रख दिया था।
'' बोल पंडित ...क्या कहता है तेरा राम राज्य हमारे विषय में ...." चारपाई से उठते हुए हाजी ने कुर्सी की ओर इशारा किया।
पंडित मेहमानों की तरह सजकर बैठ गया।
सफेद बाल...हरामी आँखें ...गले में राम नाम का गमछा ...तिलक ..माला .....!
मेरी तरफ देख मुआ मुँह साफ करने लगा। उसकी धोती की ओर देख मैंने फब्ती कसी , ''हाय रे पंडित ...मैं मर जाऊं ..ला फिर खोल धोती ...''
राम...राम...रीना...राम...राम..
मुझे मानों आग सी लग गई ... मैंने ताली पीटी ...उठकर उसके पास जा बैठी ...
पाखंडी की चोटी पकड़ उसकी आँखों में झाँकने लगी ...''अबे मुए यदि तेरा धर्म हमें हमारी जगह नहीं दिला सकता ...फिर भला राम की गंगा मैली क्यों करता फिरता है ..? जा दफा हो जा यहाँ से ...नहीं तो यह चोटी उखाड़कर पीछे दे दूंगी हरामी कहीं के ...!''
मेरा गुस्सा देख वह पापी डर गया , उसने धोती संभाली और दरवाजे का रुख किया। मैंने उसके सर पर ठोंगा मारा ,वह कच्चा सा हो गया। जब दरवाजे के पास पहुंचा धरती पर एड़ी मार हाजी ने ताली बजाई , ''आया बड़ा धर्म का ठेकेदार ...बातें तो देखो इसकी ....!''
वह कौन सी गली थी जहाँ रीना नहीं खड़ी हुई। हमसे भला क्या छिपा ..जिस बात के लिए वह जैले के पीछे घूमता था। वही बात मुझे भी बताने लगा। उसे मेरी सलोनी सूरत पसंद आ गई थी। एक दिन मैं मंदिर वाली गली से गुजर रही थी वह भाग कर बाहर आ गया , '' तुझे हिजड़ा कौन कह सकता है रीना ...तू तो लड़कियों को भी मात देती है ....''
''तो फिर मुझे घर में बसा ले, जानी ...'' मेरी बात सुन पाखंडी मंदिर में जा घुसा।
'' साला पापी कहीं का ....आखिर हमारा भी कोई दीन धर्म है ..''! कोका पंडिताई धर्म को देख मुझे एक राम कथा याद आ गई , यह मुझे मीना महंत ने सुनाई थी। उसने बताया कि जब राम चन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास काटने हेतू घर से निकले उनके पीछे लोगों की अथाह भीड़ थी। जब राम जंगल में प्रवेश करने लगे उन्होंने कहा सभी नर और नारी वापस लौट जायें। यह बात सुन सभी नर-नारी वापस लौट गए। लेकिन भीड़ में कुछ हम जैसे लोग भी थे वे न तो नर थे और न ही नारी , वे वहीँ खड़े रहे। जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष का वनवास काट कर वापस लौटे उन्होंने महंत लोगों को वहीँ खड़े देखा। उनके शरीर पर घास -फूस उग आया था। श्री राम ने उनके शरीर से अपने अंगूठे का स्पर्श किया शरीर घास-फूस से मुक्त हो गया। प्रभु ने उन्हें वर दिया कि आज के पश्चात् आप लोगों की खुशियाँ मांगोगे। ख़ुशी के अवसर पर कोई भी तुम्हें बधाई देने से इनकार नहीं करेगा।
'' अब तो सारी दुनिया ही इनकार किये जा रही है रीना ...'' एक दिन नाच-नाच कर थका हुआ जैला ' राम नाम सत्य ' करने लगा हुआ था .
मैं उसकी बातें सुन सोच में पड़ गई। रामलीला देखने वाली दुनिया कितनी लुच्ची हो गई है। यह मुई देखने सुनने तो रामलीला आती है पर मन में 'जैले की लीला ' ही चल रही होती है।
देखूं तो सही वहाँ क्या था ..? राम वश हुई मैं एक दिन रामलीला देखने चली गई। थाने के पास खाली पड़ी जगह पर मंच सजा हुआ था। मैं लोगों की भीड़ में जा खड़ी हुई। आरती के बाद जब राम-सीता प्रसंग शुरू हुआ लोगों की भीड़ छंटनी शुरू हो गई। आधी तो दुकानों के आगे बने चबूतरों पर जा बैठी आधी सड़कों पर घुमने लगी।
''मंत्री जी ! ...गाने वाली को पेश किया जाये ....'' जैसे ही मंच पर से प्रसंग बदला , रावण बने हुए दुर्गा हलवाई की बांह हवा में लहराई। स्पीकर में 'बिजली गिराने मैं हूँ आई ...' गीत बजने लगा।
छँटती हुई भीड़ आँधी की तरह इकठ्ठा हो गई। देखने वालों की धक्का-मुक्की शुरू हो गई।
कई वर्षों से राम-लीला में नचना बनकर नाचता आ रहा जैला श्री देवी की तरह कमर लचका-लचका कर नाचने लगा था।
उसका नाच देख मैं तालियाँ बजाने लगी ...''वाह जैले ...!''
''बधाई हो जेठ जी वाह ...!..वाह तेरी लीला बधाई हो बधाई ....''!!
बधाई जेठा तुझे ..अबे तूने बमुश्किल शहद का बर्रा चुआ ...''हाजी को छेड़ती हुई मैं दोबारा आईने के सामने खड़ी हुई मेकअप ठीक करने लगी। हाजी साजिन्दों को आवाजें देने लगा , ''ओये राजू...ओये बाबू ..कहाँ मर गए जालिमों ...? निकाल लाओ बाजा ढोलकी बधाई मांगने चलें ...''
मांगना हमारा पेशा था , नाचना हमारी होनी। अगर न नाचते तो थकावट नहीं होती पर मुआ पैसा भी न बनता। जैले की तरह पैसा ही नचवाता था। जो भी कमाई होती सारी गुरु को ले जाकर देनी पड़ती
यदि कोई बदकिस्मत न देता , नंगी पीठ पर गर्म चिमटे पड़ते , चमड़ी उधड़ जाती , नील पड़ जाते। इससे अच्छी तो थकावट होती। नाच-नाच कर शरीर थक जाता। गलियों में घूमते-घूमते आत्मा भी तक जाती। आस-पडोस की कोई खबर न रहती।
''अबे हाजी ...!..विमला को होश आया या नहीं ..? उठा मुई को'' , कजरे की धार को तीखा करते हुए मैं हाजी को आवाजें देने लगी।
''वह तो कब की उठ गई है ...तेरा ही फैशन पूरा नहीं होता ....'' फैशन की मारी का ..'' हाजी की बात सुन मैंने सर झटका।
कंजरी चोटी घूम कर छाती से आ लगी थी। उसकी डोर ठीक करती हुई मैंने बिमला की ओर देखा। वह नकली सा हँसी। मेरी छाती में चीस उठी। खाली आँखों से वह दरवाजे की ओर निहारने लगी।
''ओये-होए मैं मर जाऊं ...किसकी उडीक में रहती है नासपिटी ...? इस घर में किसी ने नहीं आना बिमला ..!...चल चले शिमला ..!'' नागिन सी चोटी को मैंने पीछे की ओर फेंका और तालियाँ पीटने लगी। तालियाँ बजाती बिमला साजिंदों की ओर चल पड़ी।
उई माँ ...!..उसका दर्द मेरी रग-रग में घूम गया .. मेरी तरह वह भी दर्द पीने के लिए ही पैदा हुई थी , घरवालों से बिछड़ने के लिए पैदा हुई थी। मुई कई दिनों से बीमार थी। मैं उसका बड़ा ख्याल रखती ,पर वह हर बार मेरी जान निकाल देती , ''देख अपनी खैर -खबर लेने वाला कोई नहीं। डेरे की ख़ामोशी मुझे खा रही है रीना .''.
हालत तो मेरी भी यही थी जिस वक्त मैं अकेली पड़ी होती, डेरे का सूनापन मेरी देह को खाने लगता। रूह सुन्न हो जाती। मैं पागलों की सी आईने के सामने आ खड़ी होती , उससे बातें करती ,जब बेवफा वह भी नहीं बोलता तो मैं खीझ उठती।
'' मत खीझ बहन ....चेहरे पर हंसीं ला ...,जरा सा नखरे दिखा चाल में मरजाणिये ...'' बिमला को खुश करने के लिए मैं कमर मटका-मटका कर चलने लगती , पर उसकी थकी हुई चाल में मस्ती न आ पाई। तीसरी बार तीसरी जगह बिकने का दर्द उसकी चाल के लचीलेपन को खा गया था।
कभी -कभी आधी रात को वह बताने लगती ..पहली बार काली महंत मुझे राजस्थान ले गया उस वक़्त मेरी उम्र फूल की मानिंद थी। उसने ही मुझे नाचना सिखाया। दस साल मैं उसे कमा कर देती रही। बाद में उसने मुझे सवा लाख में लवली महंत के पास बेच दिया। वह मुझे मोगा शहर की तरफ ले आया। कई वर्ष मैं उसके साथ बधाई मांगने जाती रही ...एक दिन उसने भी मुझे शीरा ताज़ी के पास बेच दिया ....'
''तेरा कुछ न बने पापी कहीं के ....'' मेरी हुंकार सुन वह रोने लग पड़ती। जिस दिन हरामी काजी ने कहा बिमला मैं तेरा गुरु हूँ और चेले गुरु का कभी हुक्म नहीं तोड़ते ..अपने कुनबे का असली चेला वही होता है जिसे मूल्य देकर खरीदा हो। इसलिए अब तू गंगानगर कमला महंत के पास चली जाना , मैंने तुझे उसके पास तीन लाख में बेच दिया है !... जालिम की बात सुन मैंने उसके पेट में टक्कर मारी रीना ...वह तैश खा गया। उसने गर्म किया हुआ चिमटा उठा लिया ...पापी तब तक पिलाता रहा जब तक मैं बेहोश होकर गिर न पड़ी।
अपनी व्यथा सुनाते हुए बिमला के अन्दर आग सी दहक उठती। मैं तो दहकी हुई आग पर भी नाच लेता हूँ रीना ...!'' आग से जले पैरों का दर्द छुपाते हुए जैला ठंडी आह भरता। वह दहकती हुई आग के कोयलों पे नाचने के कारण दूर -दूर तक मशहूर थी।
जब कोई कहता , '' नाचता क्या है ससुरा आग लगा देता है ...'
वह कहता ..मैं कहाँ नाचता हूँ पापी ...यह तो मेरा पेट नचवाता है ...किस्मत नचवाती है '' और दातों तले जीभ लेकर अल्लाह -अल्लाह करने लगता।
अल्लाह उस पर मुझसे ज्यादा मेहरबां था। इतना सुन्दर नख-शिख , गोरा रंग , लम्बे काले बाल , तराशा हुआ बदन , नशीली आँखें जब वह शेव करवाकर आँखों में कजरा डाल कर कमर मटका-मटका कर चलता मुआ लड़की ही लगता। जिस भी गली से निकलता कोई न कोई छेड़ ही देता , ''कैसी हो भाभी ...!''
'' ठीक हूँ बे मुँहजले ...'' आँख मार वह कमर की तरह ही बाजू हिलाता हुआ आगे बढ़ जाता।
''लक्क हिल्ले मजाजण जांदी दा वे .....'' बिमला को खुश करने की खातिर मैं जैले की चाल चलने लगती। मरजाणी हँस पड़ी तो मेरी रुलाई फूट पड़ी। छुपाने की खातिर मैं बाथरूम में जा घुसी। जब बाहर आई मुआ हाजी तांगा जोड़े खड़ा था। पिछली सीट पर राजू और बाबू बाजा ढोलक लिए बैठे थे और आगे की सीट पर बिमला बैठी थी। मैं छलाँग लगा उसके पास जा बैठी ।
'' मर गई ...उई माँ ....!'' बिमला ने चीख मारी शायद बैठते वक्त मुझसे उसका पैर दब गया था। मैंने उसे बाहों में लेते हुए कहा , ''पैर बचाकर रखा कर जान ...अपने तो दुनियाँ ही पैर नहीं लगने देती ...''
'' चल बकरी कहीं की ...''बिमला का पैर सँभालते हुए हाजी ने घोड़ी की पीठ पर चाबुक मारी ....
'' मत मार जालिम ...यह भी अपने ही जैसी है ...!''घोड़ी की पीठ पर मारा चाबुक मुझे अपनी पीठ पर पड़े चिमटे जैसा लगा।
तांगा बगड़िया गाँव की ओर भागा जा रहा था। गाँव की हद में घुसते ही हाजी ने लगाम खींच ली। घोड़ी हौले हो गई। ताँगा चींटी की चाल चलने लगा।
''साडे ताँगे ने मलक नाल जाणा, औखीं एँ ताँ रेल चढ़ जा ...'' मैंने पास से गुजर रहे सरपंच की ओर चुम्मा उछाल कर फेंका।
''जानता हूँ ...रीना महंत ..जानता हूँ !'' सरपंच ने मोटर साईकिल पक्की सड़क पर से कच्ची सड़क पर उतार ली।
''आय-हाय! अबे सरपंच ..जानते हैं ..हम भी सबकुछ जानते हैं ...लेकिन आपने नहीं जाना हमें ..!'' मैंने तांगे पर से नीचे छलांग मारी। चोटी घुमाते हुए ..कमर मटकाते हुए सड़क के किनारे खड़े सरपंच के पास जाकर खड़ी हो गई। मुआ मुझे कुर्सी जैसा लगा। मैंने फब्ती कसी , '' ला फिर सरपंच ...अब हमें भी जगह दिलवा दे ...!''
मेरी बात सुन मुआ सकते में आ गया। कहने लगा ,''तुम जब भी करोगे ...साली उलटी बात करोगे .!"
'' न रे दुश्मन कहीं के यूँ न बोल ...गुस्से में देख कितना सुंदर लगता है ...! जरा सीधा होकर देख ..यह उलटी नहीं सीधी बात है ..!'' मैंने उसकी गाल को छेड़ते हुए कहा..!
एक बार जैला बताता था , यह सरपंच जिसकी भी बारात में जाता है ..वहाँ पैसे देने के बहाने मेरी गालों को हाथ लगा- लगा कर छेड़ता रहता ...!''
मेरी बात सुन हरामी भड़क उठा ,'' चल जैला तो फिर भी कुछ है ..तुम लोग तो न मर्द हो न ही औरतें ...न तीन में न तेरह में ...घर संसार तुम्हारा नहीं ...मांग कर खाते हो तुम ..अब नई बात शुरू कर दी ..जगह दिलवा दो ...कल को कहोगे तुम्हारे साथ हम अपने लड़के-लड़कियाँ ब्याह दें ...!''
ला ब्याह दे फिर ....तुमसे तो अच्छे हैं ..किसी को जन्म से पहले तो नहीं मार देते हम ..!'' मैं तैश में आ गई ..
बिमला ने मेरा बाजू पकड़ लिया। हाजी भी पास आ गया।
सरपंच कुत्ते का काटा हुआ था। मुआ एम . एल .ए .का ख़ास बन्दा था। हमें आँखें दिखाने लगा , '' देख बे महंत जो काम करने आये हो उसे करके चलते बनो ..बिना वजह समाजिक कामों में टांग न अड़ाओ ...कहीं और ही ....!''
कहीं और ही क्या बे ...? ...हमारा भी जी करता है जीने का ... ? हमें भी उसी कुम्हार ने बनाया है ...यह क्या बात हुई कि हमारे लिए थोड़ी सी भी जगह नहीं ..'' मैंने सरपंच की आँखों में आँखें डालकर मुए को चार-पांच बार आँख मार दी ।
वह दांत पीसता रह गया . मोटर साईकिल को किक मारी ...और चलता बना। ''कहता है सारी जगह पर हमारा कब्जा है ...बातें तो सुनो इसकी ...'' हाजी मुझे बधाई वाले घर की ओर खींचने लगा।
चुटिया घुमाती हुई मैं आस-पडोस को देखने लगी . घरों के आगे खड़ी औरतें बेगानों की तरह झाँक रही थीं। बच्चों ने खेलना बीच में ही छोड़ दिया , हमारे इर्दगिर्द इकठ्ठा हो गए। मैं सबको जीभ दिखाती हुई आगे निकल गई। हाजी बिमला, राजू और बाबू मेरे पीछे-पीछे चल पड़े।
मैं तालियाँ बजाती उड़ी जा रही थी तभी एक घर के आगे खड़ी औरतों में से किसी ने आवाज़ दी ,'' अरी ! देख तो कितना सुंदर हिजड़ा। लड़कियों को भी मात देता है मुआ। न जाने ईश्वर ने किस बात की सजा दी है ...!''
सजा किस बात की बहन ...यह तो कर्मों का खेल है ...भाग्य की कमाई '' गुलाबी चुन्नी वाली औरत जैले की तरह बोल रही थी।
जैला औरतों की तरह बोलता था। जिस दिन वह किसी विवाह में नाच कर आता , वैसे ही सजा-धजा मेरे पास आ टपकता। मैं उसकी चिथड़ों से उभार कर बनाई गई अंगिया देख हंसने लग जाती। वह अंगिये में से नोट निकाल-निकाल कर दिखलाने लगता ,.'' देख रीना ! यह है अपने कर्मों की कमाई ...!''
जिस समय बेकर्मा सौ-पचास का नोट निकालता मैं उस पर झपट पड़ती। वह टपुसी मार दूर जा खड़ा होता। मैं उसकी चुन्नी खींच लेती। वह हंसने लगता , ''उतार ले चुन्नी ...!.क्या करेगी उतारकर ..! .चुन्नी उतारकर मेरी इज्ज़त उतर नहीं जाएगी और न तेरी बन जाएगी ...''
अबे ! पकड़ अपनी चुन्नी मुझे भला क्या करना है इसका ..? बदमाश कहीं का ....मैं तो बस ये शगुन का नोट मांगती हूँ ..! कहीं कोई शगुन ही पड़ जाये। मेरी बात सुन वह कुछ नजदीक आ जाता।
एक हाथ से चुन्नी पकड़ता दूसरे हाथ से अंगी में से सौ का नोट निकालकर बाजू ऊँची कर लेता , '' देख इस तरह मिलते हैं नोट ! ....साले दो कौड़ी के बन्दे नहीं होते ...नोट दिखलाकर मुझे लुच्चे इशारे करेंगे ...! कोई मेरे साथ से सटकर गुजरेगा तो कोई टांग में टांग अड़ा भांगड़ा डालेगा ...! जब मैं नोट पकड़ने लगता हूँ साल्ला नोट वाली बाजू ऊंची कर लेगा ..मैं झपट्ता हूँ तो बाजू और ऊपर हो जाती है ..कहीं आसान है ये काम ? बीस बार झपटो फिर कहीं जाकर नोट मिलता है। ले पकड़ तू भी ले ले ....!''
नोट दिखला वह बाहर की ओर भागता ..मैं उसके पीछे -पीछे भागती ...'' आ जाओ भई पीछे-पीछे चलते हैं ..मास्टर के घर नाचेंगे ...वहीँ देखेंगे ! '' हमारे पीछे चली आ रही बच्चों की सेना मुझे अच्छी लग रही थी।
''ओये ! यह पहले नम्बर वाला हिजड़ा देख कितना सुंदर है ...!'' एक छोटा सा बालक बोला।
'' खड़ा हो जा यहीं ...तेरी माँ को चोर ले जायें ...इधर आ जरा बताऊँ तुझे ..'' मैंने भागकर पकड़ लिया उसे।
बच्चों का दल पीछे की तरफ भागा। वह रोने लगा।
मैंने उसे गोदी में उठा लिया . '' रो मत राजे ...तुम्हारा कोई कसूर नहीं ...पर यदि फिर से बोला न ....तो यह तोतो उखाड़ कर हाथ में पकड़ा दूंगी !''एक चुम्बन लेते हुए मैंने उस बच्चे की चड्डी नीचे कर दी ...और फिर ऊपर कर दी।
दरवाजों पर खड़ी औरतें खुश हो गईं। बच्चे हंसने लगे।
मेरी गोदी से उतर बच्चा गोली की तरह भागा।
जोर-जोर से हंसती हुई मैं आगे बढ़ गई।
जिस घर के दरवाजे पे बंदनवार बंधी थी हमारी टोली वहीँ रुक गई। तालियाँ पीटी जाने लगीं।
दहलीज़ लांघकर आवाज़ लगाई , '' बधाई हो बधाई ...बीबी ...! कहाँ है पुत्रवधू ....? कहाँ है मेरा बेटा ..? अरी बिमला ...अरे हाजी ...राजू ...बाबू ..बैठो साज शुरू करो !''
रसोई की पास खूब भीड़ थी। चारपाइयों पर औरतें बैठी थीं। कुर्सियों पर मर्द। बच्चे इर्द-गिर्द खड़े थे। उनमें वह भी खड़ा था जिसकी मैंने चड्डी उतारी थी।
उसकी ओर देख मैंने रब्ब का नाम लिया।
राजू ने ढोलक पर हाथ मारा। बाबू ने बाजा खोल लिया। हाजी और बिमला तालियाँ बजाने लगे।
एड़ी से घुंघरू छनछनाती हुई मैं तालियाँ बजाने लगी , '' हो ...! तूने मुझे बुलाया शेरां वालिये .....''
'हो ...तूने मुझे बुलाया शेरां ....''जैसे ही साथ वालों ने गाना शुरू किया मैंने भागकर पुत्रवधू की गोदी से बच्चे को उठा लिया। बिमला और हाजी ने लोरी छेड़ दी . '' मोरियाँ ...मोरियाँ ...मोरियाँ नी ...मुंडा लैंदा पिया मांवां दिआं लोरियां नी ....काका लैंदा पिया दादी दिआं .....'' मेरा बोल पूरा होने से पहले ही बिमला उठ खड़ी हुई।
मुझसे बालक को पकड़ उसने नोट वाली बांह उसके सर के इर्द-गिर्द घुमा दी। '' वेल ...मुंडे दी दादी वेल ...! सौ रुपये की वेल ...! भाग लग्गे रहण ...! दर खुल्ले रहण ..! रब्ब मेहरां करे भागां वालओ ...!''
''ला रे मास्टर ...तू क्या जोड़ घटाव किये जा रहा है ..? ख़ुशी का अवसर है ! ला तुझे एक जलवा दिखलाऊँ ...! सुनाऊँ कुछ तीखा -तीखा ..! हाँ जी ...सुन्ना जरा ...! इकठ्ठे हुए लोगों की ओर बाजू घुमाकर मैंने राजू और बाबू को आँख मारी।
ढोलकी तेज हो गई। बाजा ऊंची आवाज़ में बजने लगा। हाजी के साथ बिमला उठकर खड़ी हो गई। वे घूम-घूम कर नाचने लगे। मैं गाने लगी , '' हाय ! तीमियाँ वाले लैन नजारे , दो-दो व्याह करवाके ...!''
'' हाय ! गुरु ...एक भी नहीं मिलती ....!'' चादर ऊपर उठा हाजी ने छलांग लगाई।
उसकी पीठ पर लात जमा मैंने फिर गीत छेड़ा , ;; हाय तीमियाँ वाले लैण नजारे .......!''
रुलदू ने चित्त पर्चा लैणा खोती ते चुन्नी पा के ....! ...रुलदू ने चित्त परचा लैणा ... बाजे ढोलकी की आवाज़ ऊंची हो गई।
राजू और बाबू गाने लगे। बिमला तालियाँ बजाने लगी।
मैं दोनों हाथों से सर की चुन्नी लहरा लहरा के नाचने लगी। हाजी मेरी चुन्नी के नीचे नाच रहा था।
हम पर नोटों की वर्षा होने लगी। औरतें बिछी हुई चादर पे गेहूं डालने लगीं।
जब ढोलकी बंद हुई नवजात शिशु की दादी सूट और इक्यावन सौ रुपये और एक थैला गेहूं का बतौर बधाई ले आई।
बधाइयां देता हुआ हुजूम खिसकने लगा।
बाबू ताँगे में थैला रखने चला गया। बाक़ी साथी बचा हुआ सामान सँभालने लगे।
मैं दुआएं देने लगी ... तुम्हारी सात खैरें हों , लम्बी आयु हो ... जड़ लगी रहे ...बेल बढती रहे ....आते वर्ष भगवान इक और लड़का दे दे ...!''
हमारे दुआएं देते हाथ दहलीज़ से बाहर आ गए।
'' आ गए ...ओये भाग लो ...!'' दीवार के पीछे खड़े बच्चों की टोली हमें देख भाग खड़ी होती।
बाबू वापस आ गया। सामान उठाया और हमारी टोली तांगे की ओर चल पड़ी। मैं जल्दी- जल्दी चलने लगी। पाँव के नीचे जैसे आग मच गई थी। जिस दिन हम बधाई लेकर लौटते जैला मुझसे चिपक जाता । डरा हुआ सा जैसे मेरी रूह में धँस रोये जाने को मन करता हो । मैं उसे चुप करवाती पर वह मुआ एक ही बात पूछता जाता , '' वह कौन है रीना ...?''
'' कौन बे ..!' किसी मुई का नाम तो ले ...!'' उसके बार-बार एक ही सवाल पूछने पर मुझे खीझ आ जाती।
वह और भी डर जाता। मैं उसकी ठोडी ऊपर उठा आँख मारती हुई पूछती ,'' अबे बता न कौन है वो ...?''
वह बताने लगता ,'' वह जो मेरी बैठक में नाचती रहती है। उसका जिस्म तो मर्दों जैसा है पर कपड़े औरतों जैसे। पहले वह खिड़की पे खड़ी होती है फिर मेरी छाती पर चढ़ जाती है .... नाचती रहती है ...नाचती रहती है ....उसका नाच देख मैं उसे बाहों में लेना चाहता हूँ ...वह हँसने लगती है ....!!''
'' अच्छा ! फिर ...?'' मैं उसकी गाल पे चिकोटी काट लेती हूँ। वह दर्द से तड़प उठता।
'' बस फिर क्या ...! वह मेरे अन्दर घुस जाती ... जब होश आती तो मैं अपने आप को ही बाहों में लिए हुए होता ...!!''
उसकी बात सुन मैं उसे आलिंगन में ले लेती। वह डर से कांपने लगता , '' मेरे अन्दर घुसकर पता है वह क्या पूछती है ...?''
''क्या ...?'' मैं उसके खुले बाल बंधने लगती।
वह मुआ रोने लग पड़ता .... पता वह क्या पूछती है ...? वह पूछती है , 'अबे ! तेरे भीतर का मर्द कहाँ गया जैले ...?'' मैंने तो तुझे चारो ओर से परख लिया तू तो नचना है नचना ...!!''
मुए की बात सुन मैं भी डर जाती। वह मेरे साथ चिपट जाता ... मैं नचार नहीं हूँ रीना ....मैं ...!!''
'' अबे ..! बता मैं क्या बताऊँ ..! यह मुई मैं ही तो 'तू' नहीं बनती ..!;; हाजी और बिमला की आँखों में झाँक मुझे कुछ होने लगता था।
जाते ही मैं चारपाई में धंस जाती। जैले की तरह कोई मेरी भी छाती पर आकर लोटने लगता। छाती में दूध उतर आता। बाहों में बालक खेलने लगता। मैं रात भर उससे बातें करती रहती, ''बस एक बार माँ कह दे मुझे ...'' ..
.यदि बुरा न माने तो मैंने आपसे कुछ बातें करनी थीं। ...? !''
आवाज़ सुन मेरा ध्यान टूट गया। मैंने झटके से पीछे की ओर देखा। मुई चोटी फिर छाती से आन लगी।
या अल्लाह ! कितना सुंदर लडका था ! हरी टी-शर्ट , नीली जींस , सर मुंडाया हुआ ..मुआ पूरा सलमान खान लग रहा था। मुझे अच्छा लगा। मुआ दिल आ उतरा। यूँ हमें तो कोई सीधे मुंह बुलाता तक न था फिर इसने इतने प्यार से बुलाया , बैठक में सोफे पर बिठाया , खुद चाय लेने चला गया। मैं इर्द -गिर्द देखने लगी। बैठक में कितनी ही अलमारियां थीं। सभी किताबों से भरी हुई। हाजी ने मुझे कुहनी मार कर पूछा, '' इसने हमसे क्या पूछना भला ...? कहीं हरामी कोका पंडित के जैसा तो नहीं ...!''
नहीं मैं एक लेखक हूँ ...! तुम्हारी जिंदगी के बारे में जानना चाहता हूँ ...!'' मेज पर चाय की तश्तरी रखते हुए उसने भेद खोला।
क्या बात है मैंने मन ही मन कहा ..! वह हीरो वापस अन्दर चला गया इस बार उसके हाथ में नमकीन बिस्कुटों की प्लेट थी।
मुझसे रहा न गया मैंने उसका हाथ चूम लिया। मुआ शर्मा गया। मुंह लाल हो गया उसका। झुके हुए ही चाय पकडाने लगा , जब बिस्कुटों वाली प्लेट आगे की मेरी आँखें भर आईं। इतनी इज्ज़त मत कर हमारी ...सही नहीं जाती रे ....! तू पूछ क्या पूछना है ...?''
'' अच्छा यह बताओ कि आपको रब्ब से क्या उलाहना है ... अगर उसने हिसाब माँगा तो ...?''
मरजाणे का पहला सवाल ही दिल चीर गया था।
मैंने ताली पीटी और फर्श पर एड़ी मरते हुए बोली ,'' उलाहना ...? हुंह ....रब्ब ने हमारे साथ अच्छा किया ही क्या है ..? जिस दिन मरी उसी खसम के पास जाऊंगी ..मुए ने दिया ही क्या है जो हिसाब मांगेगा ....? मैं दूंगी हिसाब उसे ..यह, मेरा ठेंगा ....!''
मेरा अंगूठा देख वह हंसने लगा, फिर बोला , ''मैंने सुना है यदि कोई आपको मुंह मांगी बधाई न दे तो आप अड़ जाते हो ...बददुआ देते हो ...यदि कोई फिर भी न माने तो आप नंगे होकर नाचने लगते हो .....?''
हे राम ..! मैं यह क्या सुन रही हूँ ....! इतना कुफ्र ...? मैंने बिमला की ओर देखा वह बैठी सर पीट रही थी। मैंने ताली पीटी ...उसने लानत दी ... दुनिया चाहे हमें बेशर्म कहे परन्तु शर्म वाली बात है। पता मुझे भी था। कुछ बेशर्म लोगों के कारण हमारा कुनबा ही बदनाम हो चुका था लेकिन मैंने फख्र से कहा ,'' तूने ठीक सुना है लड़के ...हममें से कुछ ऐसे भी हैं ..वह सब से नीच जात है। परन्तु हम तो वजीर बाबे ( महंतों ) में से हैं। यह सबसे ऊंची जात होती है। जब हमारे कुनबे में कोई जश्न होता है तो वजीर बाबेयों का इन्तजार किया जाता है। जब तक वे नहीं पहुँचते रोटी पर से कपड़ा नहीं उठाया जाता। हमारे पहुँचने से ही रोटी शुरू की जाती है। यदि हम न पहुंचें बेशक पंगत में लाखों लगे हों रोटी शुरू नहीं की जाती , मंदिर गुरुद्वारों में चढा आते हैं। अब तू ही बता हम बददूआ कैसे दे सकते हैं ..? निर्वस्त्र नाचना तो वैसे ही बेयकीनी होती है ...!''
'' तो फिर आपका यकीन किस बात पे हैं '...? '' वह बोला ...
यह मुआ तो यूँ ही जड़ उखाड़ने लगा हुआ है , '' हाय हाय ! बे मैं तुझे क्या बताऊँ किस बात पे यकीन है ..हम तो सबकी जडें आगे बढें इसी की दुआ करते हैं ...हम तो इन्सान को इन्सान से जोड़ने में विश्वास रखते हैं ...!'' नीचे का होंठ दबाते हुए मैंने हाजी और बिमला का हाथ पकड़ लिया।
लड़का डर गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाई , '' डर मत बच्चे ! और पूछ क्या पूछना है ...?''
'' जब आप किसी के घर में से हिजड़ा बच्चा उठा कर लाते हो तो उसके साथ क्या किया जाता है मतलब उसके पलने-बढने की कैसी व्यवस्था की जाती है ...? क्या उसकी पढाई -लिखाई की व्यवस्था भी की जाती है या नहीं ...? वह फिर बोला ...
सवाल सुन मुझे गश सा आने लगा ..वह दिन याद आ गया जिस दिन मैं रानी को उठा लाई थी। उस वक़्त मेरी क्या हालत हुई थी यह मैं ही जानती थी। मेरे रब्ब यह क्या पूछ लिया था जालिम ने ...? वह मेरे मुंह की ओर ताके जा रहा था पर मैं क्या बताती उसे और क्या छोडती .? ...मैंने कुछ बात तो अन्दर ही दबा ली आधी-अधूरी बात बताने लगी , '' अबे जा बे बड़ा आया पढ़ाई-लिखाई वाला ...हमारा भी दिल करता है बच्चों को पढ़ा-लिखा कर तुम्हारी तरह अफसर बनाएं पर नाशपिटों को स्कूल कैसे भेजें तू ही बता ..? स्कूल के फार्मों में तो सिर्फ लड़के-लड़की का खाना होता है हिजड़ों के लिए कौन सा खाना होता है ...बता उन्हें किस खाने में डालें ...? ...तूने तो हमारा खाना ही खराब कर डाला ....पर ऐसी बात नहीं है पढने वाले पढ़ भी जाते हैं ...हमारी ही बिरादरी की एक मोना अहमद है उसने अपनी आत्मकथा लिखी है ' मैं मोना अहमद'.!
साथ बैठी बिमला को कोफ़्त होने लगी थी। मुई उठ कर चलने का इशारा किये जा रही थी। जब मैं उसकी ओर देखती उसकी बायीं आँख के ऊपर वाले बालों की तीखी की हुई धारी ऊपर को उठती हुई बाहर की ओर इशारा करती। वह उस लड़के से और मैं उससे तंग आ गई थी। मेरा दिल कर रहा था वह और बातें पूछे, सबब से ही तो कोई पूछने आया है नहीं तो हमारी कौन सुनता है भला ...?
लड़के ने मेरी नब्ज़ पहचान ली । हरामी हौसला कर गया, बोला , '' यह सब करते -जरते तुम्हारी आत्मा में क्या कुछ चलते रहता है ....वह धिक्कारती तो होगी तुम्हें ...?''
उफ्फ ..! नाशपिटे ने क्या कह दिया था ..दिल चीर गई उसकी बात ...तड़प उठी ..मैंने तीन-चार तालियाँ पीटीं , राजू ने ढोलकी पर हाथ मारा , हाजी ने एड़ी बजाई , बिमला ने ताली ..पूरी बैठक गूँज उठी।
मैं एक ही झटके में उठ खड़ी हुई , ''बस कर लड़के ! महंतों से ऐसी बातें करता है ...?
कागज - कलम उठाये लड़का देखता ही रह गया।
मैं हवा की तरह बैठक से बाहर निकल आई ...!
हाजी , बिमला, बाबू और राजू सारी टोली मेरे पीछे चलने लगी।
हमें देखने के लिए खड़ी हुई औरतें चोर आँखों से झाँक रही थी।
उन्हें देख मुझे जैले की कही बात याद आ गई। वह बताता था , ''ये लुच्चियाँ हैं सभी ...इन्होंने मेरा इधर से गुजरना दूभर कर रखा है। ''
जिन्होंने तुझे तंग कर रखा है उन्हें कह ...सभी को क्यों कहता है बैरी ...!'' मैंने उसे छेड़ा था।
लेकिन वह औरतों की तरह बिलखने लगा ...' ये मेरा विवाह नहीं होने देती रीना ...! नचना- नचना कह कर इन्होंने मेरी मर्दानगी खत्म कर दी है। यह लुच्च्पना नहीं तो और क्या है ...?''
औरत के बिना औरतों से कितना तंग था बेचारा !
उसके मन में सभी औरतों के खिलाफ ज़हर भरा था।
वह जिधर से भी गुजरता एक ही आवाज़ आती , '' अरी देख वह जाता है नचना ...!''
जिसके बच्चा होने वाला होता औरतें उसे कहतीं , '' अरी जैले के माथे से न लग जाना कहीं ...नहीं तो नचना ही जन्मेगा ...!''
'' रुक जाओ कमबख्तो तुम्हारी माँ को जैला ले जाये ब्याह के ...!'' मेरी ताली पीटने की आवाज़ सुन बच्चे चड्डियाँ सँभालते दूर भाग खड़े हुए
दूर मोड़ वाली नीम के नीचे तांगा खड़ा था। जैसे-तैसे गली पार कर मैं सबसे पहले तांगे में जा बैठी। बिमला मेरे साथ बैठ गई राजू और बाबू पीछे।
'' चल छन्नो ....यहाँ तेरे लिए कोई जगह नहीं ...!'' इधर मैंने होंठ काटते हुए ताली पीटी उधर हाजी ने घोड़ी की पीठ पर चाबुक दे मारा।
मैं दर्द से छटपटाई, '' धीरे मार जालिम ...तू भी लोगों जैसा ही हो गया . ''
'' लोगों जैसी होती है मेरी जूती ...बात तो देखो इसकी ...!'' मुझे जूती दिखाते हुए हाजी ने घोड़ी की पूंछ को हिलाया।
तांगा हवा से बातें करने लगा। मैं राहगीरों की शक्लें पढने लगी।
शक्लें पहचानते हुए उम्र बीत गई थी। पर अब तक किसी से कोई रिश्ता न बना पाई थी । मुए रिश्तों की तड़प क्या होती है , कोई मुझसे पूछता ..मेरा दिल भी करता था किसी की पत्नी बनू ...कोई मेरी प्रतीक्षा करे ..किसी का मैं इन्तजार करूँ ...आटा गुथूं ...रोटियाँ पकाऊँ ...किसी को राखी बांधू ..कोई मुझे आशीर्वाद दे ...! पर मुझ अभागिन के भाग्य में घर कहाँ ? घर का ख्याल मेरी जान निकाल लेता था। जब भी ये ख्याल आता मैं खूब गहरे रंगों से मेकअप करती। महंगे से महंगा सूट पहनती ...सोने के गहने ..सबसे बढिया इत्र लगाती परन्तु कोई भी नीच मुझसे रिश्ता जोड़ने न आता ...मैं अपनी लाचारी पर खुद ही हँस पडती ...!
'' इतना क्यों हँस रही हो ....? देखना कहीं ...'' हाजी की फब्ती सुनकर मैं और जोर से हँसने लगती ...''देख तो रही हूँ खसमा ..तू ही नहीं देख पा रहा ...जरा राहगीरों के मुंह की ओर देख ...!''
देख जरा वह साईकिल वाला आदमी मेरे बाप जैसा नहीं है ..?'' पीछे की ओर देखती बिमला का मुंह उतर गया।
मुआ हाजी हंसने लगा '' जिस घर में हम बधाई लेने गए थे वहां बैठी औरतों में से एक मेरी बहन जैसी थी और खड़े लोगों में एक मेरे भाई जैसा था ...''
'' रोक ...रोक ....रोक ..! यही तांगा रोक ले बैरी ...देख इस घर में तो मेरी माँ जैसी इक औरत रहती थी .. ये भीड़ सी कैसी है यहाँ ...सड़क के किनारे घर की ओर इशारा करते हुए मैंने तांगा रुकवा लिया।
हाय रब्बा ! मैं मर जाऊं ......यह क्या हो गया ...? घर में यह इकटठ सा कैसा ? बाहर भी लोग खड़े हैं ....अल्लाह खैर करे ..जब इधर से गुजरे थे तब तो सब ठीक था ...मैं घबरा गई ...तेज कदमों से आगे बढ़ी जब अन्दर गई तो माँ जैसी को बिस्तर से उतार लिया गया था। चीखें माहौल को गमगीन बना रहीं थीं ....मैं मृतक की देह से लिपट गई ...हाय माँ ..! एक माँ तो पहले ही छोड़ गई थी आज तू भी छोड़ गई ...! हाय ये साले रिश्ते भी भी खून पी जाते हैं ...!''
मृत रिश्ते का मुंह देख मैं दीवार से सटकर बैठ गई।
पता नहीं किस हरामी का मुंह देखा था सुबह से ही कुछ न कुछ होते जा रहा था।
हमारी ओर किसी का ध्यान न था ...प्रत्येक रिश्ता रोये जा रहा था। जो नहीं रो रहे थे उन्हें अर्थी उठाने की जल्दी थी। चंद घड़ी का मेला था। मृत देह को आग दी और रिश्ता खत्म। ओह रब्बा ये कैसी दुनिया है।
मैं जन्मी तो इसी दुनिया में थी पर मेरी दुनिया कुछ और थी। उसका दस्तूर भी कुछ और था। जिस वक़्त दुआरका मौसी मरी थी 'जीवन चारा' की रस्म हुई थी। दो महंतों को तैयार किया गया, मेंहदी लगाई गई , चूड़ा पहनाया गया , शोख रंगो से मेकअप किया गया, एक को दुल्हा दुसरे को दुल्हन बनाया गया , विवाह वाला जोड़ा पहनाया गया , दोनों को पालकी में बैठाया गया , खूब जश्न हुआ , नाच-गाना हुआ , शिकवे शिकायतें दूर हुईं , कोई मातम नहीं जैसे बरात गई हो ...!
एक ओर मौत का शोक दूजी ओर शोक में भी जश्न जारी रखने का ऐलान.
किस दुनिया का सच्च सही था नामुराद ये समझ न आया।
मैं जैले की तरह दरी पर जा बैठी।
लोग एक-दुसरे को कुहनियाँ मार इशारा कर रहे थे , '' देखो साला नचना कैसे सज-धज कर बैठा है। ''
जिस दिन जैले की माँ मरी वह विवाह कर लौटा था। मुआ मनमौजी था। दिल करता तो कपडे बदल लेता मन की मौज होती तो सजा संवरा ही गाँव आ घुसता।
मुआ उस दिन मेरी तरह ही सजा-धजा माँ की अफ़सोस में दरी पर आ बैठा था। न रोया , न कुछ बोला , बेगानों की तरह चुपचाप बैठा रहा।
लोगों ने ही अंतिम स्नान करवा दिया, कफ़न ओढाया, अर्थी सजाई ..
.''चल जैले उठ कर कंधा लगा भाई ..'' जब बड़े बूढों ने अर्थी को कंधा लगाने के लिए कहा तो जैले ने तो जैसे सारी हदें ही पार कर दीं। वह उठा मुंह पर चुन्नी ओढ़ी और अर्थी के पास जाकर लगा नाचने उसके भीतर का नाच जाग उठा था।
शोक पर आई दुनिया डर गई। बातें होने लगीं ..'' पागल हो गया है ..बुढ़िया की जगह यह मर जाता ...''
मुए तूने यह क्या किया था रस्म क्रिया के बाद मैंने उससे पूछा तो जैला रोने लगा , '' वह भी मुझे नचना ही कहा करती थी। ''
उसकी बात सुन जैसे मेरी चीख निकल गई , मैंने हाजी की ओर देखा उनके चेहरे भी उदास थे।
पर एक बन्दा खुश था। मैंने हरामी की आँख पहचान ली. वह हमारा जमाई था।राजू से पहले इस मृत माँ का लडका हमारे साथ ढोलकी बजाता था पर बाद में किसी दूसरे डेरे से जा जुड़ा। उसकी माँ में मुझे अपनी माँ दिखाई दी। मैंने उसे धर्म की माँ बना लिया। उसकी एक लडकी थी। मैंने उसे गोद ले लिया। बड़े नाजों से पाला - पोसा। रिश्तों की अहमियत सिखाई। जब बड़ी हुई ब्याह दी। हैसियत से बढ़कर दहेज दिया। मेरे लाखों लग गए। परन्तु पहले दिन ही मेरी आँख फरकी थी। जिस दिन लड़की वापसी की गाडी आई। जमाई उलटी-सीधी बातें करने लगा।
हरामी शगुन वाले दिन तो बड़ा शरीफ बन रहा था।
मेरा दिल किया कि उसके और अपने सर पर जूते दे मारूं . परन्तु कुछ न कर सकी। बेटी की खातिर सब कुछ जर गई। आखिर एक दिन सच्च सामने आ ही गया . शादी के करीब दो साल बाद इक दिन लड़की डरी हुई सी डेरे आई और मुझ से लिपटकर रोने लगी , '' माँ अब मैं आप लोगों से मिलने नहीं आ सकती ...''
'' पर क्यों पगली ...? ''मेरी देह काँप गई ..!
वह फूट - फूट कर रोने लगी ,'' मेरा पति कहता है अब तू मिलने मत जाया कर ....मेरी बेज्जती होती है। ''
जा परे बैरी ने यूँ कहा ...? कमीने को मैं तो अपना समझती रही। बेटी को तसल्ली देती हुई मैं कितनी ही देर तालियाँ पीटती रही .
उस रात मैं कई मौतें मरी थी। आँखों में खून तैरता रहा। मैं सारी रात रिश्तों के बीच का फर्क ढूंढती रही। सुबह तक फर्क न मिला। जो कुछ मिला वह बड़ा डरावना था।
'' यह दुनिया कितनी डरावनी है माँ ...!'' दरी पर सहमी बैठी हुई मैंने हाजी की ओर देखा, मुआ वह भी डरा हुआ सा लगा।
मुझसे और न जरा गया। मैं जल्दी से उठी। मृतक की देह के पास गई। माँ का मुँह देखा। और लोगों की ओर देख नाक सिकोड़ दी और चुपचाप तांगे की ओर चल पड़ी।
तांगा डेरे की ओर चल पड़ा। कोई कुछ न बोला। आखिर तक श्मशान की सी चुप्पी छाई रही . डेरे के पास पहुँच कर मैंने ताली पीटी , हाजी ने घोड़ी की लगाम खींच ली। तांगा रुक गया। घोड़ी की तरह फलांगने वाली मैं धीरे -धीरे नीचे उतरी। मेरा मुँह पश्चिम की ओर था और मुआ सूरज उसी वक़्त डूब रहा था। उसकी लाली देख मुझे शर्म आ गई। कार के पास तांगा खड़ा करके हाजी दूर घोड़ी बाँधने चला गया। बाबू ने बधाई वाला समान उठा लिया। राजू बाजा ढोलकी सँभालने लगा। अरे ...अरे ...अरे ....इस मुई बिमला को क्या हो गया , वह एकटक मेरी ओर देखे जा रही थी।
'' अरी क्या देखे जा रही है ...? '' मैंने उसकी पीठ पर हाथ जमाते हुए पूछा था।
लुच्ची डूबते सूर्य की ओर देखने लगी, बोली , '' बस अब और नहीं बिका जाता ....''
'' बिकने को अब रह ही क्या गया है ...?'' अन्दर आते हुए जैला भी बिमला की ही तरह बोला था। उसकी आवाज़ फटी हुई थी। वह कल की दिहाड़ी लगा कर लौटा था। जिन दिनों विवाहों का सीजन नहीं होता वह देव मिस्त्री के साथ दिहाड़ी लगाने चला जाता। मैं उसे रोकती भी , ''अरे हमारे साथ ही चला जाया कर मुए ! ''
'' तुझे नहीं पता रीना , देव के साथ दिहाड़ी जाने का आनंद ही कुछ और है, वह मुस्कुरा कर बोलता।
'' क्यों बे देव के साथ कैसा आनंद लुच्चे ...?'' मैंने उसे चिकोटी काटी।
वह डेरे की दीवारों की ओर देखने लगा , '' देव मुझे पुत्त (पुत्र) कहकर बुलाता है ...लिया पुत्त ईट दे दे ...लिया पुत्त गारा दे दे ...लिया पुत्त ....''
पर कल उसने कुछ और ही कहा , उसकी बात जैले को ईंट की तरह लगी। वह दीवार की तरह ढह गया ...सारी रात यूँ ही पड़ा रहा . दिन चढ़े उठा और डेरे में आ गिया। आईना तो बाद में देखने लगा पहले देव मिस्त्री से हुई बात बताता रहा। कल शाम की बात है मैं देव मिस्त्री के साथ दिहाड़ी पर था। पैड़ काफी ऊंची थी , मैं उस पर खड़ा ईंटें पकड़ा रहा था। मेरी फूटी किस्मत , कल पुलिस वालों की लड़की का विवाह था , बरात आई हुई थी , भोजन के वक़्त जब बाजा बजा मेरे हाथ पैर भी थिरकने लगे। हाथ में पकड़ी ईंट और पैरों के पास पड़ा हुआ तसला नीचे गिर गया। देव ने मेरे पैरों में कांडी मारी, बोला , '' अबे रहा न नचने का नचना ..''
बात तो सुन उसकी ..! साला मिस्त्री क्या बन गया इंसान को पहचानना ही भूल गया। '' घोड़ी बाँध कर आता हाजी मिस्त्री को गालियाँ बकने लगा। मैंने उसे घूर कर देखा और कमर मटकाती हुई अन्दर चली आई।
अन्दर चारपाई पड़ी हुई थी उस पर जा लेटी। हार - श्रृंगार अब मुझे काटने सा लगा था , मन उतावला होने लगा , दिल किया कि कहीं भाग जाऊं। लेकिन कहाँ ...? गुरुद्वारे वाला पाठी कहता था , '' रहन कि थाओं नाहीं '' ( इस संसार में रहने लायक कुछ नहीं )
'' नहीं, क्यों री ...? आजा तू भी रोटी खा ले दो कौर '' पास खड़ी औरत मुझे कहीं देखी हुई सी लगी।
उई अल्लाह ! यह तो बिमला है . लुच्ची रोटी खाने के लिये कह रही थी।
'' आज सुबह से बहुत कुछ खा लिया ...बस अब भूख नहीं रही। बिमला की ओर देखकर मुझे जानकी महंत की याद आ गई।
जैला भूल गया। कमीना सुबह से जैसे रूह में घुसा बैठा हो।
'' यह सब करते -जरते तुम्हारी आत्मा में क्या कुछ चलते रहता है ....?'' मेरे दिमाग में लिखारी लड़के का सवाल घूमने लगा। मैंने तो उसे आधा ही जवाब दिया था, कमीने को क्या बताती कि मेरी आत्मा में कैसी कब्रें बनी हुई हैं और उन कब्रों में कैसे हौके गूंजते रहते हैं , यदि उस चंदरी को उठाकर न लाती ...पर कैसे न लाती , गुरु का हुक्म था, '' अरी मरजानियो जाओ कुड़ी को उठाकर लाओ और हाँ तांगे में मत जाना कार लेकर जाना ...!''
तांगा मेरी पसंदीदा सवारी थी लेकिन मैंने गुरु का आदेश माना। तांगा छोड़ कार निकाली। उस गाँव में जा पहुंचे जहां से खबर मिली थी। मुए किसी जासूस ने बताया था गाँव में हमारी जात की कोई लडकी पैदा हुई है।
हमने घर के आगे जाकर ताली पीटी ...आय ...हाय ....! लड़की की माँ कहाँ है तू ...? ''
हमें देख कर घर का द्वार बंद हो गया। लोगों के खिड़कियाँ-दरवाज़े खुल गए। बच्चे गली में आ गये। मर्दों -औरतों की आँखें तमाशा देखने लगीं। मैंने हरामियों को आँख मारी फिर ताली पीटती हुई ने जोर से आवाज़ लगाई , '' री यह तो औरतों , मर्दों की मंडी है तू इसका क्या करेगी ....? ले आ इसे हमें दे दे , यह हमारी अमानत है ,इसकी यहाँ कोई जगह नहीं .
मेरी बात सुन तालियाँ बजने लग गईं गली में नाच का धमचड़ शुरू हो गया।
आखिर दरवाज़ा खुला ...घुंघरुओं वाले पैर अन्दर गए ..मैं सबसे आगे थी। जन्म देने वाला मर्द उदास खड़ा था। दीवार से सटी औरतें रो रही थीं। पर बच्ची की माँ वहां नहीं थी ...
मैंने चारपाई पे बैठी बुढ़िया से कहा , '' ला मई ! बता कहाँ छिपा रखी है ...?''
उसने अक्ल से काम लिया और सामने वाली बैठक की ओर इशारा किया।
तालियाँ और जोर से बजने लगीं ..मैं अन्दर जा घुसी . दीवार के पास पेटी पड़ी थी। उसकी ओर देख मैंने ताली पीटी , '' ओ री मैं मर जाऊं ...! कहाँ छुपी बैठी है जिऊँण जोगिए ...?''
'' मत लेकर जाओ जालिमों ...पूरे दस साल बाद औलाद का मुँह देखा है ...रब्ब के नाम से हाथ जोडती हूँ ...''
लड़की की माँ विलाप करने लगी। अभागिन की आँखों को देख मैं डर गई। मन डोल गया। एक दिल करे कि छोड़ जाऊं , पर कैसे छोड़ जाती , कुनबे की मर्यादा याद आ गई। मैं तैश में आ गई . मन कड़ा किया . माँ को आशीष दी लड़की को गोद से छीन लिया .
'' चलो री अब ....कैसे खड़ी हैं लुच्ची ..!'' लड़की को छाती से लगा मैं बाहर की ओर भागी।
अभी दहलीज भी न लांघ पाई थी कि पेटी के पीछे छुपी माँ की निकली आह मेरा दिल चीर गई , रूह काँप गई . मैंने पीछे मुड़ कर देखा लड़की की माँ मरी पड़ी थी। मेरी आह निकल गई। घर को रोता छोड़ मैं मुश्किल से डेरे पहुंची . जब लड़की को पालने में डाला तालियाँ पीटी जाने लगीं। सबने दाजी दी , पाँव में घुंघरू बांधे , अन्धेरा होने तक मुई खेलने लग गई।
सारा डेरा सो गया . मैं लड़की के साथ लेट गई। मुई रोने लगी। इसे कैसे चुप कराऊँ ...? मैंने उसे उठा बदन से लगा लिया। या अल्लाह ! यह तो भूखी थी. वह छोटे-छोटे हाथों से मेरी छाती ढूँढने लगी। मेरी तो जैसे जान निकल गई । वह रोए जा रही थी। मैं तड़प उठी। गिलास में दूध ले आई। चम्मच उसके मुंह से लगाया , लेकिन उसने मुंह घुमा लिया। मैं छातियों में दूध कहाँ से लाती ..? वह पल दो पल बाद मेरे सीने पर हाथ मरती। मैं रेत की तरह झरने लगी । वह और जोर से रोने लगी ।
देर रात गए वह मुश्किल से चुप हुई। मैंने छाती से लगा ली। अभागिन धीरे-धीरे सो गई। मुई सोई क्या विधि माता से बातें करने लगी। कभी होंठ हिलाती, कभी मुस्कुराने लगती, कभी डर जाती।मुई अपनी पूर्व सहेलियों और कर्मों से खेल रही थी। उसके मन में क्या था मैं सारी रात यही सोचती रही। बमुश्किल सुबह हुई । गुरुद्वारे से पाठी की आवाज़ आई। शिव मंदिर की घंटिया खड़की।
जिस दिन ढोलकी बजी , बाजा बजा , लड़की के पैरों में बंधे घुंघरू बजने लगे। मुई दिनों में ही जवान हो गई. कुछ तो ऐसी मिटटी चढ़ी थी लुच्ची में ,कुछ हुस्न ऐसा चढ़ा तौबा मेरी तौबा ...! हर कोई देख दंग रह जाता। उसका नाम रानी रखा ग्या.
'' इस रानी की जगह अब बदल गई है , जिसने इसका चार लाख अदा किया अब यह उस डेरे की रानी बनेगी '' जिस दिन गुरु ने उसे जानकी महंत के पास बेचने की बात बताई मेरी चीख निकल गई। मैंने दिवार से सर पीट लिया और बेहोश हो गई।
जब होश आया मेरी जान को जानकी महंत ले जा चूका था।
''जिद लै गया दिलां दा जानी , इह बुत्त बेजान रहि गिया ..''रानी को यादकर मन आहें भरने लगता।
'' एक बार जिसकी रूह में उतर जाए यह हौका (आह) नहीं निकलता रीना ...लेट जा अब ...'' मैंने साथ लेटी बिमला की ओर देखा, वह मुझे ही कह रही थी।
डेरे के अन्दर-बाहर गहरा अन्धेरा उतर आया था। सब कुछ धुंधला सा दिख रहा था . हाजी सोया हुआ था। परे दीवार की ओर राजू और बाबू सोये हुए थे। मैं चारपाई से उठ खड़ी हुई . कलाई पर बंधा घुंघरुओं वाली चूड़ी को चूमकर मैं आईने के सामने जा खड़ी हुई। मुआ आईना भी जैसे मुझे घूरने लगा हो . मैं चुन्नी से उसे साफ़ करने लगी ....'' क्यों बे गूंगे ...! अब तो कुछ बोल ...! हमें भी जगह चाहिए ....!!''
मुआ कुछ न बोला , अगर बोलता होता मुआ मुझपर आशिक न हो जाता।
'' यह आइना तुम्हारा नहीं ...हमारी मुख्य धारा का आइना है। ''
'यह कौन बोला ...? मैं डर गई। हरामी सरपंच के साथ कोका पंडित था।
कुर्सी पर बैठा सरपंच फूलों का गजरा सूंघ रहा था। घुंघरू बाँध पंडित नाच रहा था।
हाय मैं मर जाऊं ...! आईने में मुझे यह क्या दिखने लगा था।
'' बे मैंने तो तुम्हें मर्द समझा था ...!'' नीचे का होठ मैंने दांतों से काट आँख मारी। आईना तिड़क गया।
'' लुच्चा , साला ...'' उसे मुंह चिढ़ा मैं बाहर आ गई.
कोई बाहर का गेट खड़का रहा था .''...री ....ना ....!! ''
'' इस वक़्त कौन हो सकता है ...?'' कमर मटकाती हुई मैं गेट की तरफ चली आई।
ज्यों ही कुण्डी खोली ...उई अल्लाह ...! मरजाणा जैला खड़ा था।
'' क्यों बे मुए ...! तब मैंने तुझे इतनी आवाजें मारीं ...बता अब क्या लेने आया है ....?'' मैंने उसके मुंह की ओर देख ताली पीटी।
वह कुछ न बोला। गली में अन्धेरा था ।
अँधेरे में खड़ा वह कुछ नीचे रखने लगा।
मेरी जान निकल गई। वह लम्बी गली की ओर चला गया।
मैंने गाँव की ओर देख ताली पीटी ...
उफ्फ ..! ताली की आवाज़ वापस क्यों परत आई ....!
शायद मेरी ताली में दम नहीं रहा या फिर धरती ही बहरी हो गई है ....?
सोच में पड़ी मैं पागलों की तरह तालियाँ पीटने लगी।
ठीक उसी वक़्त जब डेरे के अन्दर की बत्ती जली , हाजी , बिमला, राजू और बाबू के घुंघरुओं वाले पैर देहरी की ओर चले आ रहे थे।
डेरे के अन्दर की रौशनी की एक किरण गली की ओर जा रही थी।
गली के बिलकुल बीचोबीच चुन्नी और घुंघरू पड़े थे।
अनु . हरकीरत 'हीर '
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