हर सप्ताह इमरोज़ जी के 4,5 ख़त आते रहे हैं पर इस बार सात ख़त एक साथ .....
उनका हिंदी तर्जुमा .....
दर्द की ईद .....
तुम्हारी नज्मों ने हैरान सा कर दिया है
इतना दर्द ...?
तुमने किस तरह सहारा था ..ज़रा था ..इस नाजुक वजूद संग ..
इतनी दर्द भरी नज्में बन ....?
किसने यह दर्द दिया है ....
जन्म ने ...
परवरिश ने ...
घर ने ...
घरवालों ने ...
किसी अनचाही यातना ने ..
किसी गैर ने ...
किसी रिश्ते ने ....
किसी के प्यार ने ..
या ...
अपने मनचाहे की गैर हाजरी ने ...?
पर दरियाओं की धरती तक
तुम्हारी नज्में पहुँच गयीं हैं
तुम्हारे दर्द की नज्मों ने ...
इक चाक की ज़िन्दगी को भी
और उसकी बांसुरी को भी
दर्द के रोजे बना दिया है ....
हर ईद रोजों से कुछ दूर
खड़ी उडीक रही है ईदी
अपनी ईद को ...इस दर्द की ईद को भी
और अपने चाँद को भी
मुहब्बत के चाँद को ...हर वक़्त हाज़िर को ....
इमरोज़- ५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(२)
चूरी बनाई है
अपनी नई नज्मों की
यह कैसी हीर है ...
यह आज की हीर है ..
चूरी भी खुद चाक भी खुद
और नज़्म भी .....
मूल-इमरोज़......
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(३)
फूल खिले तो खुशबू जागे ...
तुझे सोच कर नज़्म जागे ...
तू न मिले कुछ न मिले ...
मिल कर देख मिला हुआ देख ....
इमरोज़....२/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(४)
किताब का नाम बदल लिया है
''हीर की महक ''
पर नज्मों ने जो दर्द जीया है
उसका क्या करूँ ....?
इमरोज़....५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(५)
श्राप ...
दुश्मनों को मारने के लिए
दुश्मनों से भी बड़ा दुश्मन
बनना पड़ता है ..
स्टालन जैसा ..हिटलर जैसा, माओ जैसा ...
इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(६)
वर ...
मुहब्बत करने के लिए
मुहब्बत से भी ज्यादा मुहब्बत
होना पड़ता है ...
हीर जैसी ...राधा जैसी ....
सोहणी जैसी ...मीरा जैसी ....
इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(७)
ज़िन्दगी जितना सुख ....
नज्मों की किताब
''हीर की महक ''
मेरे आस-पास ही होती है
नज़्म पढ़ कर
तुझे सोचने लगा हूँ
इक दिन तूने हक़ीर होना छोड़
हीर होना कबूल कर लिया था
ऐसे ही ..
आज कब्र जितना सुख छोड़
ज़िन्दगी जितना सुख कबूल कर ले
यूँ भी सुख ज़िन्दगी से कम
सुख ही नहीं होता .....
इमरोज़ ....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
उनका हिंदी तर्जुमा .....
दर्द की ईद .....
तुम्हारी नज्मों ने हैरान सा कर दिया है
इतना दर्द ...?
तुमने किस तरह सहारा था ..ज़रा था ..इस नाजुक वजूद संग ..
इतनी दर्द भरी नज्में बन ....?
किसने यह दर्द दिया है ....
जन्म ने ...
परवरिश ने ...
घर ने ...
घरवालों ने ...
किसी अनचाही यातना ने ..
किसी गैर ने ...
किसी रिश्ते ने ....
किसी के प्यार ने ..
या ...
अपने मनचाहे की गैर हाजरी ने ...?
पर दरियाओं की धरती तक
तुम्हारी नज्में पहुँच गयीं हैं
तुम्हारे दर्द की नज्मों ने ...
इक चाक की ज़िन्दगी को भी
और उसकी बांसुरी को भी
दर्द के रोजे बना दिया है ....
हर ईद रोजों से कुछ दूर
खड़ी उडीक रही है ईदी
अपनी ईद को ...इस दर्द की ईद को भी
और अपने चाँद को भी
मुहब्बत के चाँद को ...हर वक़्त हाज़िर को ....
इमरोज़- ५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(२)
चूरी बनाई है
अपनी नई नज्मों की
यह कैसी हीर है ...
यह आज की हीर है ..
चूरी भी खुद चाक भी खुद
और नज़्म भी .....
मूल-इमरोज़......
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(३)
फूल खिले तो खुशबू जागे ...
तुझे सोच कर नज़्म जागे ...
तू न मिले कुछ न मिले ...
मिल कर देख मिला हुआ देख ....
इमरोज़....२/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(४)
किताब का नाम बदल लिया है
''हीर की महक ''
पर नज्मों ने जो दर्द जीया है
उसका क्या करूँ ....?
इमरोज़....५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(५)
श्राप ...
दुश्मनों को मारने के लिए
दुश्मनों से भी बड़ा दुश्मन
बनना पड़ता है ..
स्टालन जैसा ..हिटलर जैसा, माओ जैसा ...
इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(६)
वर ...
मुहब्बत करने के लिए
मुहब्बत से भी ज्यादा मुहब्बत
होना पड़ता है ...
हीर जैसी ...राधा जैसी ....
सोहणी जैसी ...मीरा जैसी ....
इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
(७)
ज़िन्दगी जितना सुख ....
नज्मों की किताब
''हीर की महक ''
मेरे आस-पास ही होती है
नज़्म पढ़ कर
तुझे सोचने लगा हूँ
इक दिन तूने हक़ीर होना छोड़
हीर होना कबूल कर लिया था
ऐसे ही ..
आज कब्र जितना सुख छोड़
ज़िन्दगी जितना सुख कबूल कर ले
यूँ भी सुख ज़िन्दगी से कम
सुख ही नहीं होता .....
इमरोज़ ....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'
किसने यह दर्द दिया है ....
ReplyDeleteजन्म ने ...
परवरिश ने ...
घर ने ...
घरवालों ने ...
किसी अनचाही यातना ने ..
किसी गैर ने ...
किसी रिश्ते ने ....
किसी के प्यार ने ..
या ...
अपने मनचाहे की गैर हाजरी ने ...?
sab ek se badhkar ek....