मेरी पहली कविता …
दरख़्त और बीज
और जब
तुम्हारे ज़िन्दगी के दरख़्त ने
बनना शुरू किया
मेरे अंदर जैसे कविता की
पत्तियाँ फूटने लगीं ....
और जिस दिन तुम दरख़्त से
बीज बन गई
उस रात एक नज़्म ने
मुझे पास बुलाकर पास बैठाकर
अपना नाम बताया --
'अमृता जो दरख़्त से बीज बन गई '
मैं काग़ज़ लेकर आया
वह कागज़ पर अक्षर -अक्षर हो गई ....
अब नज़्म अक़्सर आने लगी है
तेरी शक्ल में तुम्हारी तरह ही मुझे देखती
और कुछ मेरे साथ हमकलाम होकर - हर बार
मुझ में ही कहीं गुम हो जाती है …
इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत 'हीर '
अनुवाद - हरकीरत 'हीर '
(२)
साथ …
उसने ज़िस्म छोड़ा है
साथ नहीं ....
वह अब भी मिलती है
कभी बादलों की छाँव में
कभी तारों की मे छाँव में
कभी तारों की मे छाँव में
कभी किरणों की रौशनी में
कभी ख़्यालों के उजाले में ……
हम मिलकर चलते रहते हैं
चुपचाप एक -दूसरे को देख -देख कुछ कहते रहते हैं
कुछ सुनते रहते हैं
बगीचे में हमें चलते देखकर
फूल चारो ओर से हमें पुकार लेते
हम फूलों के घेरे में बैठकर
एक -दूसरे को अपना -अपना कलाम सुनते हैं
वह मुझे अपनी अनलिखी कविता सुनाती है
और मैं अपनी अनलिखी नज़्म सुनाता हूँ
पास खड़ा वक़्त
यह अनलिखी शायरी सुनता रहता है
अपना रोज का नियम भूल जाता है ....
जब वक़्त को वक़्त याद आता है
कभी शाम हो गई होती है
कभी रात उतर आई होती है
और कभी दिन चढ़ आया होता है …
उसने ज़िस्म छोड़ा है
साथ नहीं ……
इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत 'हीर '
(३)
ख़ामोश मुहब्बत का जन्मदिन
अमृता से मिले
अभी तीन चार दिन ही हुए थे
कि २६ जनवरी आ गई
देश का स्वतंत्रता दिवस
मुझे उसदिन छुट्टी थी
अमृता को मिलने गया
सरसरी बातें चल रही थीं
पिंड में जन्मदिन मनाया जाता है भला
आज के दिन मैं जन्म था
यह सुनकर वह एक मिनट के लिए बाहर गई
और आकर बैठ गई मेरे पास
और आकर बैठ गई मेरे पास
थोड़ी देर बाद नौकर एक छोटा सा केक ले आया
एक टुकड़ा काटकर अमृता ने मुझे दिया
और एक टुकड़ा खुद ले लिया
केक खाकर न अमृता ने मुझे हैपी बर्थ डे कहा
न मैंने केक खाकर कुछ कहा
पर दिख रहा था केक खाकर अमृता भी खुश है
और खिलाकर मैं भी अमृता की और देखकर खुश था
दोनों खुश थे ,खामोश थे ,खामोश मुहब्बत दिख रही थी
उसदिन मिलने का दिन भी सेलिब्रेट हो गया
और मेरा जन्मदिन भी ....
इमरोज़
अनुवाद - हरकीरत 'हीर'