इमरोज़ की कुछ और कविताओं का अनुवाद ….
(१)
अधिकार …
सिर्फ
सिर्फ
अनुवाद - हरकीरत हीर
-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर
(३)
एक बार फिर ….
सवेरे सवेरे
तुम्हारे साथ सवेर कर रहा था
कि मोबाइल से इशारा हुआ
कि पैसे खत्म हो गए हैं
कैसे इत्तिफ़ाक हैं कि संस्कार भी
कभी मोबाईल से पैसे खत्म हो जाते हैं
तो कभी रिश्तों में से रिश्ते
इक दो ईदों से
ईद नहीं होगी
जितने वक़्त मनचाही ज़िन्दगी
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार नहीं बनता
ईदें मनचाही नहीं होंगी
मनचाहे रिश्तों के रोज़े
क्या पता कब खत्म हों या न हों
ख्यालों के चाँद
और नज्मों की ईदें ही अब तो
अपनी मनचाही ईदें हैं …
चल आ
बच्चों की तरह मासूम बन
इक बार फिर
फूलों में दौड़ - दौड़ कर खिल - खिल कर
और खुशबूओं संग उड़ -उड़ कर हँसे
सभी अनचाहे रिश्तों से अनचाहे संस्कारों से
और अनचाहे रोजों से बेफिक्र होकर
तितलियों की तरह बेफिक्रों की तरह ….
-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर
अनुवाद - हरकीरत हीर
(४)
रूह जिस्म में
नहीं होती
रूह प्यार में होती है
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रब्ब कहीं न कहीं है
पर समाज कहीं भी नहीं ….
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पाप जिस्म नहीं करता
सोच करती है
गंगा जिस्म धोती है
सोच नहीं …
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पटरियों पर
मज़हब चलते हैं
दरिया नहीं ….
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मनचाहे ही
अपने आप को
जानते हैं
संस्कार नहीं ….
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(५)
मर्जी …
कोई नज़र में है
अभी तो अपना आप ही
नज़र में है
और अपना आप
अपनी मर्जी का बन रहा है
कितना नया ख्याल है
और कितना जरुरी भी
किस तरह मिलोगी
जैसे आज मिल रही हूँ
तेरा नाम
मर्जी ….
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ख्याल ….
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ख्याल ….
तुम क्या कर रही हो
ख्यालों को रंग दे रही हूँ
और ख्यालों से रंग
ले भी रही हूँ
क्या खूब देना - लेना है
कब मिलोगी
जिस दिन नया ख्याल मिल जाएगा
तुम्हारा नाम … ?
ख्याल ….तुम्हारा नाम … ?
-इमरोज़ ,
अनुवाद - हरकीरत हीर