Thursday, September 13, 2012

इमरोज़ की नज्में .....(पंजाबी से अनुदित )  ....

(1)
कई फैसले  फैसले नहीं होते .....

कत्ल करते वक़्त कोई देख सकता है
पर कत्ल करने की सोच को
कोई नहीं देख सकता
इसलिए कत्ल का कोई भी फैसला
सच  नहीं हो सकता
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म नहीं करता
और सोच को न कोई देख सकता है न जान .....

........................
(२)
गुनाह सोच करती है
ज़िस्म  नहीं करता
गंगा ज़िस्म धोती है
सोच नहीं .....
  
  (३)

फिक्रमंद .....

माँ ने इक अनचाहे के साथ मेरा विवाह कर दिया था
मैंने उस अनचाहे का बच्चा जन्मने से इनकार कर दिया
और उस अनचाहे ने मुझे घर से बेघर कर दिया
माँ को मेरा इनकार समझ न आया
माँ मनचाही होती तो समझ लेती
माँ ने कहा मनचाहा कोई नहीं होता
मैं मनचाही हो रही हूँ
तू मनचाही हो रही है न ...
मर्द तो मनचाहे नहीं हो रहे
इक मर्द तो मनचाहा हो सकता है
नहीं तो हीर हीर कैसे होती
जिस दिन मैं हीर हो जाऊंगी  मनचाही भी हो जाऊंगी
कहीं न कहीं उस दिन इक मर्द भी मनचाहा हो जाएगा
माँ ने मेरी बात न सुनी
उठ कर रसोई में जा डाल चुनने लगी
बोलती जा रही थी ..
डाल में से कंकड़ तो मैं भी चुन सकती हूँ
पर मर्दों में से कंकड़ किसी से नहीं चुने जाने
फिक्रमंद माँ ....
बड़-बड़ करती यही सोचे जा रही थी ...यही बोले जा रही थी ....

इमरोज़ ....
अनुवाद : हरकीरत हीर

Wednesday, September 12, 2012

हर सप्ताह इमरोज़ जी के 4,5 ख़त आते रहे हैं पर इस बार सात ख़त एक साथ .....
उनका हिंदी तर्जुमा ..... 

दर्द की ईद  .....

तुम्हारी नज्मों ने हैरान सा  कर दिया है
इतना दर्द ...?
तुमने किस तरह सहारा था ..ज़रा था ..इस नाजुक वजूद संग ..
इतनी दर्द भरी नज्में बन ....?
किसने यह दर्द दिया है ....
जन्म ने ...
परवरिश ने ...
घर ने ...
घरवालों ने ...
किसी अनचाही यातना ने ..
किसी गैर ने ...
किसी रिश्ते ने ....
किसी के प्यार ने ..
या ...
अपने मनचाहे की गैर हाजरी ने ...?

पर दरियाओं की धरती तक
तुम्हारी नज्में पहुँच गयीं हैं
तुम्हारे दर्द की नज्मों  ने ...
 इक चाक की ज़िन्दगी को भी
और उसकी बांसुरी को भी
दर्द के रोजे बना दिया है ....

हर ईद रोजों से कुछ दूर
खड़ी उडीक रही है ईदी
अपनी ईद को ...इस दर्द की ईद को भी
और अपने चाँद को भी
मुहब्बत के चाँद को ...हर वक़्त हाज़िर को ....

  इमरोज़-  ५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

 

(२)

चूरी बनाई  है
अपनी नई नज्मों की
यह कैसी हीर है ...
यह आज की हीर है ..
चूरी भी खुद चाक भी खुद
और नज़्म भी .....

मूल-इमरोज़......
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'


(३)
फूल खिले तो खुशबू जागे ...
तुझे सोच कर नज़्म जागे ...
तू न मिले कुछ न मिले ...
मिल कर देख मिला हुआ देख ....

इमरोज़....२/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(४)

किताब का नाम बदल लिया है
''हीर की महक ''   
पर नज्मों ने जो दर्द जीया  है
उसका क्या करूँ ....?

इमरोज़....५/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(५)

श्राप ...

दुश्मनों को मारने के लिए   
दुश्मनों से भी  बड़ा दुश्मन
 बनना पड़ता है   ..
स्टालन  जैसा ..हिटलर जैसा, माओ जैसा ...

इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(६)

वर ...

मुहब्बत करने के लिए
मुहब्बत से भी ज्यादा मुहब्बत
होना पड़ता है   ...
हीर जैसी  ...राधा जैसी ....
सोहणी जैसी ...मीरा जैसी ....

इमरोज़....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

(७)

ज़िन्दगी जितना सुख ....
नज्मों की  किताब
''हीर की  महक ''
मेरे आस-पास ही होती है
नज़्म पढ़  कर
तुझे सोचने लगा  हूँ
इक दिन तूने हक़ीर होना छोड़
हीर होना कबूल कर लिया था
ऐसे ही ..
आज कब्र जितना सुख छोड़
ज़िन्दगी जितना सुख कबूल  कर ले
यूँ भी सुख ज़िन्दगी से कम
सुख ही नहीं होता .....

इमरोज़ ....४/९/१२
अनुवाद- हरकीरत 'हीर'

Saturday, September 8, 2012

उधड़ी हुई कहानियाँ ......अमृता  प्रीतम ,अनुवाद - हरकीरत 'हीर'

मैं और केतकी अभी एक-दुसरे की परिचित भी नहीं बनी थी कि मेरी मुस्कराहट ने उसकी मुस्कराहट से दोस्ती कर ली . मेरे घर के सामने नीम और कीकर के दरख्तों के बीच घिरा हुआ एक टीला  है . टीले  के उस ओर तोरिये के और इस ओर छोले के खेत हैं . इन खेतों की दाहिनी ओर किसी सरकारी कालेज का इक बहुत बड़ा बगीचा है . इसी बगीचे के एक नुक्कड़ में केतकी की झुग्गी है . बगीचे को सींचने के लिए पानी की छोटी-छोटी क्यारियाँ  कई जगह बह रही हैं . पानी की एक क्यारी  केतकी की झुग्गी के आगे से भी निकलती है .  इसी क्यारी  के किनारे बैठी हुई मैं केतकी को रोज़ देखती हूँ . कभी वह कोई पतीला या पारात  मांज रही होती तो कभी चांदी के गजरों से भरी अपनी बाँहें,रगड़ -रगड़ कर धो रही होती . चांदी के गजरों की तरह ही उसके बदन पर उम्र ने मांस के मोटे-मोटे बल डाल दिए थे . पर वह मुझे अपने गहरे गेहूँयें रंग में भी इतनी खूबसूरत दिखाई देती कि मुझे उसके मांस के मोटे-मोटे बल भी उम्र का श्रृंगार लगने लगे थे .  शायद इसलिए कि  उसके होंठों की मुस्कराहट में अजीब सी किस्म की संतुष्टि थी , एक अजीब तरह की पूर्णता , जो आज के युग में सभी के चेहरों से विलुप्त सी हो गई है . मैं रोज उसे देखती और सोचती कि उसने पता नहीं किस तरह यह संतुष्टि अपने मोटे और काले होंठों के बीच संभाले रखी है . मैं उसे देखती और मुस्कुरा देती वह मुझे देखती और मुस्कुरा देती . इस तरह मुझे  उसका मुँह बगीचे में खिले  सैंकड़ों फूलों में से एक फूल ही लगने लग पड़ा था . मुझे बहुत सारे फूलों के नाम नहीं पता पर उसका नाम मुझे पता चल गया था , ''मांस का फूल ''

एक बार मैं पूरे तीन दिन बगीचे में न जा सकी . चौथे दिन जब गई तो उसकी आँखें मुझे यूँ मिली जैसे तीन दिनों से नहीं तीन वर्षों से बिछड़ी हों .

''क्या हुआ बिटिया ! इतने दिन नहीं आई ..?''

'' ठंडी बहुत थी अम्मा बस बिस्तर में ही बैठी रही ''

'' सचमुच बहुत जाड़ा पड़ता है तुम्हारे देश में ...''

''तुम्हारा कौन सा गाँव है अम्मा...?''

'' अब तो जहाँ झोंपड़ी डाल ली वहीँ मेरा गाँव है . ''

'' यह तो ठीक है फिर भी अपना गाँव तो अपना गाँव ही होता है .''

''अब तो उस धरती से नाता टूट गया बिटिया ! अब तो यही कार्तिक मेरे गाँव की धरती है , और यही मेरे गाँव का आकाश  . ''

''यही कार्तिक '' कहते- हुए  उसने झुग्गी की ओर बैठे हुए अपने मर्द की ओर देखा  था . उम्र के कूबड़ से झुका हुआ एक आदमी ज़मीन पर तीलियों और रस्सियों को बिछा एक चटाई सी बुन रहा था . दूसरी बाड़ में कुछ गमलों में लगे फूलों को पाले से बचाने के लिए शायद चटाइयों की ओट में रखना था .

केतकी ने बहुत छोटे से फिकरे में बहुत बड़ी बात कह दी थी . शायद बहुत बड़ी सच्चाइयों को बहुत ज्यादा विस्तार की जरुरत नहीं होती . मैंने बड़े अचंभे के साथ उस पुरुष को देखा जो एक औरत के लिए धरती भी बन सकता है और आसमां भी .

''क्या देखती हो बिटिया ! यह तो मेरी बैरंग चिट्ठी है .''

''बैरंग चिट्ठी ..?''

'' जब चिट्ठी पर टिकस नहीं लगाते तो वह बैरंग हो जाती है ''

''हाँ अम्मा ! जब चिट्ठी के ऊपर टिकट नहीं होती तो वह बैरंग हो जाती है .''

'' फिर उस चिट्ठी को लेने वाला दुगुना दाम देता है .''

'' हाँ अम्मा ! उसे लेने के लिए दुगुने पैसे देने पड़ते हैं ..''

'' बस यही समझ लो इसको लेने के लिए मैंने दुगुने दाम दिए हैं . एक तो तन का दाम दिया और एक मन का ''

मैं केतकी के मुँह की ओर देखने लग पड़ी . केतकी का सादा - सांवला मुँह ज़िन्दगी की किसी बड़ी फिलासफी से तपता जान पड़ा .

'' इस रिश्ते की चिट्ठी जब लिखते हैं , तो गाँव के बड़े बूढ़े इसके ऊपर अपनी मोहर लगाते हैं .''

'' तो क्या अम्मा तुम्हारी इस चिट्ठी के ऊपर गाँव वालों ने अपनी मोहर नहीं लगाई थी ...?''

''नहीं लगाई तो क्या हुआ , मेरी चिट्ठी थी मैंने ले ली . यह कार्तिक की चिट्ठी तो सिर्फ मेरे नाम लिखी है ''

''तुम्हारा नाम केतकी है ? कितना प्यारा नाम है . तुम बड़ी बहादुर औरत हो अम्मा !''

''मैं शेरों  के कबीले से हूँ .''

''वो कौन सा कबीला है अम्मा ...?''

'' यही जो जंगल में शेर होते हैं , वो सब हमारे भाई-बंधू होते हैं . अब भी जब जंगल में कोई शेर मर जाये तो हम १३ दिन उसका शोक मनाते हैं . हमारे काबिले के मदर लोग अपना सर मुंडवा देते हैं , और मिट्टी की हंडिया फोड़ कर मरने वाले के नाम पर दाल चावल बांटते हैं . ''

''सच्च अम्मा ..!''

'' मैं चकमक टोला की हूँ , जिसके पैरों में कपिल धारा बहती है .''

''ये कपिल धारा क्या है अम्मा ...?''

''तुमने गंगा का नाम सुना  है ..?''

'' गंगा नदी ..?''

'' गंगा बहुत पवित्र नदी है जानती हो ना ...?''

''जानती हूँ .''

''पर कपिल धारा उससे भी पवित्र नदी  है , कहते हैं कि गंगा मैया एक साल में एक बार काली गाये का रूप धारती है और कपिल धारा में स्नान करने के लिए जाती है ''

''यह चकमक टोला किस जगह का है अम्मा ..?''

'' करंजिया के पास ''

'' और ये करंजिया ...?''

'' तुमने नर्बदा का नाम सुना है ..?''

''हाँ सुना है ''

'' नर्बदा नदी और सोन नदी भी नजदीक पड़ती है .''

'' यह नदियाँ भी बहुत पवित्र हैं ...?''

''उतनी नहीं जितनी कपिल धारा . यह तो एक बार धरती की खेतियाँ सूख गईं थीं , लोग उजड़ गए थे , तो उनका दुःख देख कर ब्रह्मा जी रो पड़े थे . ब्रह्मा जी के आँसू धरती पर गिर पड़े . बस जहाँ उनके आँसू गिरे वहां ये नर्बदा और सोन नदी बहने लगी . अब इनसे खेतों को पानी मिलता है .''

'' और कपिल धारा से ..?''

'' इससे तो मनुष्य की आत्मा को पानी मिलता है . मैंने इसी के जल में स्नान किया था , और कार्तिक को अपना पति मान लिया .''

'' तब तुम्हारी उम्र क्या होगी अम्मा ...?''

''सोलह बरस की होगी .''

'' पर  तुम्हारे  माँ बाप ने कार्तिक को तुम्हारा पति क्यों न माना ...?''

'' बात यह थी कि  कार्तिक की पहले एक शादी हो चुकी थी . इस की औरत मेरी सखी थी . बड़ी भली औरत थी . उसके घर चन्दरु  मंदरु दो बेटे थे . दोनों बेटे एक ही दिन जन्में थे . हमारे गाँव का 'गुणिया' कहने लगा कि यह औरत अच्छी नहीं है . इसने एक ही दिन अपने पति का भी संग किया था और अपने प्रेमी का भी . इसलिए एक ही जगह दो बेटे जन्में हैं . ''

'' उस बेचारी पर इतना बड़ा दोष लगा दिया ...?''

'' पर गुणिया की बात को कौन टालेगा ..? गाँव का मुखिया कहने लगा कि रोमी को प्रायश्चित  करना होगा . उसका नाम रोमी था , वह बेचारी रो-रोकर आधी हो गई .''

''फिर..?''

'' रोमी ने एक दिन दुसरे बेटे को पालने में डाल दिया और थोड़ी दूर जाकर महुए के फूल चुनने लगी . पास की झाडी से भागता हुआ एक  हिरण आया . हिरण के पीछे शिकारी कुत्ता लगा हुआ था . शिकारी कुत्ता जब पालने  के पास आया तो उसने हिरण का पीछा छोड़ दिया और पालने  में पड़े हुए बच्चे को खा  लिया .''

''बेचारी रोमी .''

'' अब गाँव का गुणिया कहने लगा कि जो पाप  का बेटा था उसकी आत्मा हिरण की जून में चली गई . तभी तो हिरण भागता हुआ  दुसरे बेटे को खाने के लिए पालने के पास आया . ''

'' पर बच्चे को हिरण ने तो कुछ नहीं कहा था , उसको तो शिकारी कुत्ते ने मार दिया था .''

'' गुणिये की बात को कोई नहीं समझ सकता बिटिया ! वह कहने लगा कि पहिले  तो पाप की आत्मा हिरण में थी , फिर जल्दी से उस कुत्ते में चली गई . ये गुणिया लोग तो बात ही बात में किसी को भी मरवा डालते हैं . बसाई का नंदा जब शिकार करने गया था तो उसका तीर किसी हिरण को नहीं लगा था . गुणिया ने कह दिया कि जरुर उसके पीछे उस की औरत किसी गैर मर्द के साथ सोई होगी , तभी तो उसका तीर निशाने पर नहीं लगा. नंदा ने घर आकर अपनी औरत को तीर से मार दिया .''

'' अरे..!''

'' गुणिया  ने कार्तिक से कहा कि वह अपनी औरत को जान से मार डाले . नहीं मारेगा  तो पाप की आत्मा उस के पेट से फिर जन्म लेगी और उस का मुँह देख कर गाँव की खेतियाँ सूख जायेंगी .''

'' फिर...?''

'' कार्तिक अपनी औरत को मारने  के लिए राजी नहीं हुआ . इससे गुणिया भी नाराज़ हो गया और गाँव के लोग भी . ''

'' गाँव के लोग जब नाराज़ हो जाते हैं तो क्या करते हैं ...?''

'' लोग गुणिया से बहुत डरते हैं . सोचते हैं कि अगर गुणिया जादू कर देगा तो सारे गाँव के पशु मर जायेंगे . इसलिए उन्होंने कार्तिक का हुक्का पानी बंद कर दिया . '''

'' पर वो यह नहीं सोचते थे कि अगर कोई इस तरह अपनी औरत को मार देगा तो फिर वो खुद भी ज़िंदा कैसे बचेगा ...?''

'' क्यों उसको क्या होगा ...?''

'' उसको पुलिस  नहीं पकड़ेगी ...?''

'' पुलिस नहीं पकड़ सकती . पुलिस तो तब  पकड़ती है जब गाँव वाले गवाही देते हैं . पर जब गाँव वाले किसी को मारना  ठीक समझते हैं तो पुलिस को पता नहीं लगने देते .''

''फिर क्या हुआ...?''

''बेचारी रोमी ने तंग आकर महुए के पेड़ से रस्सी बाँध ली और अपने गले में डाल मर गई .''

''बेचारी बेगुनाह रोमी.''

'' गाँव वालों ने तो समझा कि बात खत्म हो गई , पर मुझे मालूम था कि बात खत्म नहीं हुई , क्योंकि कार्तिक ने अपने मन में ठान लिया था कि वो गुणिया को जान से मार डालेगा . यह तो मुझे मालूम था कि गुणिया जब मर जायेगा , मर कर राक्षस बनेगा .''

''वह तो जीते जी भी राक्षस ही था.''

'' जानती हो राक्षस क्या  होता है ....?''

''क्या होता है ..?''

'' जो आदमी दुनियाँ में किसी को प्रेम नहीं करता वह मर कर अपने गाँव के दरख्तों पर रहता है . उसकी रूह काली हो जाती है , और रात को उसी की छाती से आग निकलती है . वह रात को गाँव की जवान लड़कियों को डराता है .''

''फिर..?''

'' मुझे उसके मरने का तो गम नहीं था ,पर मैं जानती थी कि कार्तिक ने अगर उसको मार दिया तो गाँव वाले कार्तिक को उसी दिन तीरों से मार देंगे .''

''फिर ..?''

'' मैंने कार्तिक को कपिल धारा में खड़े हो कर वचन दिया कि मैं उस की औरत बनूँगी . हम दोनों इस देश से भाग जायेंगे  . मैं जानती थी कि कार्तिक उस देश में रहेगा तो किसी दिन गुणिया  को जरुर मार देगा . अगर वह गुणिया को मार देगा तो गाँव वाले उसे जरुर मार देगें. ''

'' तो कार्तिक को बचाने के लिए तुमने अपना देश छोड़ दिया ...?''

'' जानती हूँ वह धरती नरक होती है , जहाँ महुआ नहीं उगता , पर क्या करती अगर वह देश ना छोड़ती तो कार्तिक ज़िंदा न बचता और जो कार्तिक मर जाता तो वह धरती मेरे लिए नरक बन जाती . देश-देश इसके साथ घुमती रही . फिर हमारी रोपी भी हमारे पास लौट आई . ''

''रोपी कैसे लौट आई ...?''

''हमने अपनी बिटिया का नाम रोपी रख दिया है . यह भी मैंने कपिल धारा में खड़ी होकर अपने मन से वचन लिया था कि मेरे पेट से जब भी कोई बेटी पैदा होगी मैं उसका नाम रोपी रखूंगी . मैं जानती थी कि रोपी का कोई कसूर नहीं था . जब मैंने बिटिया का नाम रोपी रखा तो मेरा कार्तिक बहुत खुश हुआ . ''

''अब तो रोपी बहुत बड़ी हो गई होगी ...?''

'' अरे बिटिया अब तो रोपी के बेटे भी जवान होने लगे . बड़ा बेटा आठ बरस का है और छोटा छ : बरस का . मेरी रोपी यहाँ के बड़े माली से ब्याही है . हम ने दोनों बच्चों के नाम चन्दरु -मंदरु रखे हैं .''

''वही नाम जो रोपी के बच्चों के थे ...?''

''हाँ वही नाम रखे हैं . मैं जानती हूँ उनमें से कोई भी पाप का बच्चा नहीं था . ''

मैं कितनी ही देर केतकी के मुँह की ओर देखती रही . कार्तिक की वह कहानी , जो किसी गुणिये ने अपने क्रूर हाथों से उधेड़ दी थी, केतकी अपने मन के पाक रेशमी धागों से उधड़ी हुई कहानी को फिर से दोबारा सीने की कोशिश कर रही थी . यह कहानी  एक घटना की  है. और न जाने दुनिया में  कितने 'गुणिये ' दुनिया की कितनी कहानियों को रोज़ उधेड़ते होंगें जिसका न मुझे पता है न आपको.......!!

अनुवाद - हरकीरत 'हीर'
१८ ईस्ट लेन , सुन्दरपुर
हॉउस न.५,गुवाहाटी-८७१००५ (असम)
मो.9864171300

Thursday, September 6, 2012

खास दिन .....३१/८/१२

किसी खास के साथ
कोई भी दिन ख़ास हो जाता है
जिस दिन हीर जन्मी थी
वह दिन भी खास था
और खुद वह इतनी खास थी और ख़ास है भी ...
कि हम आज भी उसे गा-गा कर कभी थके ही नहीं ...

जिस दिन कोई हीर हुई थी -अपनी मुहब्बत से
वह दिन भी ख़ास है और ख़ास है भी
और जिस दिन किसी की तलाश हीर होगी
वह दिन भी खास बन जाएगा ....

इक ख़ास के साथ
आम दिन भी , आम महीना भी
आम साल भी , आम सदी भी
ख़ास हो जाती है , ख़ास हो भी रही है ....

इक ख़ास का
आज जन्म हुआ था
वह दिन भी ख़ास था -३१ अगस्त का दिन
वह खुद कल भी ख़ास थी
और आज भी ख़ास है ......

मूल  : इमरोज़
अनु;हरकीरत हीर

(२)

तलाश ....

किसी की तलाश है
ख्याल के तलाश की तलाश
कोई ख़ास ही
ख्याल की तलाश हो सकता है
जी करता है
इक बादल बन उड़ता फिरूं
ढूंढता फिरूं
जहाँ भी जब भी
वह ख्याल की तलाश दिख पड़े
उस पर सारे का सारा
बरस जाऊँ
और खाली होकर भी खाली न होऊँ .....

मूल  : इमरोज़
अनु;हरकीरत हीर
इमरोज़ के हीर को लिख खतों का हिंदी अनुवाद ......

उडीक ...
..:इमरोज़  (२७/८/१२)

वक़्त की शायरी को भी
और वक़्त के रंगों को भी याद है
जिस दिन तू हीर हुई थी ...

हीर को देख
कोई भी कुछ भी हो सकता है
बांसुरीगाने  वाला भी
कागचों को शायरी से रंगने वाला भी
और कैनवास को ख्यालों से जगाने वाला भी .....

तू चूरी बना
अपनी नयी नज़्मों की चूरी
और दिल का दरवाजा खोल कर देख
किसी न किसी ओर से
कोई गाती बांसुरी पर गाता आ रहा है
उड़ते कागचों की उड़ती आ रही शायरी को
और कैनवास पर चले आ रहे जागते ख्यालों को ....

अय हीर ! तू ही उडीक है
और तू ही हीर  ......

अनु. हरकीरत हीर

(२)

तुम्हारा नाम  .... .....इमरोज़

कोई नज़र में है ....
अभी तो अपना आप ही नज़र में है
और अपना आप
अपनी मर्ज़ी का बन रहा है
उठते -बैठते इक नया ख्याल
और कितना जरुरी भी ....

तुम किस तरह मिलोगी ...?
जिस तरह आज मिली थी ...?
तुम्हारा नाम
मर्ज़ी .....

तुम ये क्या कर रही हो ...
ख्यालों को रंग दे भी रही हो
और ख्यालों से रंग ले भी रही हो ....?
कितना खूबसूरत है
तुम्हारा ये लेना देना ...
कब मिलोगी ...?
जिस दिन कोई नया ख्याल मिल गया ....?
तुम्हारा नाम ...
''ख्याल....''

अनु. हरकीरत हीर

(३)

अपने आप के रंग ....इमरोज़

इक कैनवास
 ऐसा भी है
जिसे ....
अपने आप के रंगों से
रंग लिया जाता है ...
लेकिन ....
 अपने आप के रंग
किसी-किसी के पास ही
होते हैं ......

अनु: हरकीरत हीर

(४)

मनचाही किस्मत ......इमरोज़

तुम्हारे कमरे में लगीं
तुम्हारी  पेंटिंग्स कहाँ हैं ....?
मेरे आज को जगा कर सारी की सारी
मेरा कल हो गईं ....

हँस कर कहने लगी
जाग कर क्या कर रहे हो
आज तक मर्ज़ी की पेंटिंग नहीं बना पाए
मर्ज़ी की पेंटिंग बनाने के लिए
अपने आप को मर्जी का बना रहा हूँ ...

यह सोच सुन  ,यह रेयर  सोच सुन
वह सोचने लग पड़ी ...
किसी पढाई में यह सोच क्यों नहीं ..
न बाहर की पढाई में
न अन्दर की पढाई में ....

सोचना छोड़ ...
आ अपनी मर्ज़ी के रंग देखें ....
तुम मेरी आँखों में देखो
मैं तुम्हारी आँखों में ...
सादा सहज ज़िन्दगी के खूबसूरत रंग
तुम भी देख सकती हो और मैं भी
ज़िन्दगी की पेंटिंग अपने-अपने अनुभवों से
तुम मेरे लिए बनाओ और मैं तेरे लिए बनाऊँ ....

मेरी पीठ पर अब तुम क्या लिख रही हो ...
जो सिर्फ तुम्हारी पीठ पर ही लिख सकती हूँ ....
अपनी किस्मत ....
अपनी मनचाही किस्मत ......

मूल : इमरोज़
अनु: हरकीरत हीर