Tuesday, August 21, 2012

हीर के नाम इमरोज़ का ख़त ....(पंजाबी से अनुदित )
(1)
ज़रखेज .....

खेतों में खेलते-खेलते
सरसों के पीले फूलों को देखते -देखते
आर्ट स्कूल के रंगों से खेलते-खेलते
आ पहुंचा मुहब्बत के रंगों तक ....

मुहब्बत के ...
कुछ ऐसे रेयर रंग देखे
जो पेंटिंग के रंगों में कभी न देखे थे
पेंटिंग करते करते
मुहब्बत के इस युग में
इक रेयर मुलाकात हो गई
इस रेयर मुलाकात से ज़िन्दगी भी कुछ और हो गई
और ख्याल भी ..


वह रेयर हीर है
जो अपने आप में मुहब्बत का दरिया है
वह ज़िन्दगी लिखती है
और शायरी ऐसी करती है कि पढो तो मुहब्बत-नामे
वह अपने मुहब्बत नामों में ही कर लेती है
अपनी मुहब्बत का दीदार
कभी-कभी दरिया भी दरिया में मिल जाता है
और कभी-कभी मुहब्बत का दरिया भी मुहब्बत के दरिया में
मिलने की सोचता है ...
कभी-कभी मुहब्बत के दरिया मिल भी जाते हैं
पर हीर की मुहब्बत का दरिया
अभी उडीक रहा है ....

दरिया संग ज़मीं
ज़रखेज हो जाती है
और मुहब्बत के दरिया से ज़िन्दगी ....
इस वक़्त हीर की नज़्म पढ़ रहा  हूँ
उसकी नज़्म में का ...
उसका मुहब्बत नामा भी ...
और पढ़ते-पढ़ते ज़रखेज हो रहा हूँ .....

                                इमरोज़ ......३.अगस्त .१२

 (2)
उसे कब मिले  ...?
जब वह हीर न थी ....
हीर कब हुई ...?
जब याद कराया .....
याद आ गया तो हीर हो गई ...
मिल कर क्या करते हो ...?
इक-दुसरे की अनलिखी नज्में

पढ़ते हैं लिखते हैं ....


                    इमरोज़......३.८.१२


मुहब्बत हर रोज़ बढती है

और ज़िन्दगी हर रोज़ घटती है ......